ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] इसके अनन्तर मेरी आज्ञासे ईश्वरने ब्राह्मणोंद्वारा अग्निस्थापन करके पार्वतीको अपने पास बैठाकर हवन किया। शिवने ऋक्, साम तथा यजुर्वेदके मन्त्रोंसे अग्निमें आहुति दी और कालीके भाई मैनाकने लाजाकी अंजलि दी। हे तात! इसके बाद लोकाचारका विधानकर काली और शिव दोनोंने प्रसन्नताके साथ विधिवत् अग्निकी प्रदक्षिणा की। हे देवर्षे। उस समय गिरिजापति शंकरने एक अद्भुत चरित्र किया, मैं आपके स्नेहके कारण उसका वर्णन करता हूँ, आप सुनिये ll 1-4 ॥
उस समय शिवकी मायासे मोहित हुआ मैं पार्वतीके चरणोंमें मनोहर नखचन्द्रको देखने लगा ॥ 5 ॥
हे देवमुने! उसके दर्शनसे मैं मोहित हो उठा और मेरा मन अत्यन्त क्षुब्ध हो गया। मोहित होकर मैं बार-बार उनके अंगोंको देखने लगा, तब उस | देखनेसे मेरा तेज शीघ्र ही पृथ्वीपर गिर गया और मैं अत्यन्त लज्जित हो गया। यह देखकर महादेवजी अत्यन्त कुपित हो गये और तब उन्होंने मुझ ब्रह्माको शीघ्र मारनेकी इच्छा की ॥ 6-9 ॥ हे नारद! वहाँ सर्वत्र बड़ा हाहाकार होने लगा, सभी लोग काँपने लगे तथा विश्वको धारण करनेवाले विष्णुको भय होने लगा ॥ 10 ॥
हे मुने! तब विष्णु आदि देवगण कोपयुक्त, अपने तेजसे प्रज्वलित होते हुए और [मुझ ब्रह्माको] मारनेके लिये उद्यत उन शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ 11 ॥
देवता बोले- हे देवदेव! हे जगद्व्यापिन्। हे परमेश! हे सदाशिव! हे जगत्पते! हे जगन्नाथ! हे जगन्मय! आप प्रसन्न हों। आप सभी पदार्थोंकी आत्मा, सबके हेतु ईश्वर, निर्विकार, अव्यय, नित्य, निर्विकल्प, अक्षर तथा सबसे परे हैं। आप इस जगत्के आदि, मध्य, अन्त एवं अभ्यन्तर तथा बाहर विराजमान हैं, आप अव्यय, सनातन एवं तत्पदवाच्य, सच्चिदानन्द ब्रह्म हैं ll 12-14 ॥मुक्तिकी कामनावाले दृढव्रत मुनिजन सब प्रकार से संगका परित्यागकर आपके ही चरणकमलकी उपासना करते हैं। आप अमृतस्वरूप, शोकरहित, निर्गुण, श्रेष्ठ, आनन्दमात्र, व्यग्रतारहित, निर्विकार, आत्मासे रहित तथा मायासे परे पूर्णब्रह्म हैं ।। 15-16 ।। आप संसारकी उत्पत्ति, पालन तथा प्रलयके कारण हैं। इस संसारको आपकी अपेक्षा है, किंतु सर्वत्र व्यापक आप परमात्माको किसीकी अपेक्षा नहीं है ॥ 17 ॥ आप एक होते हुए भी सत् एवं असत् हैं, द्वैत एवं अद्वैत हैं, गढ़े हुए तथा न गढ़े हुए स्वर्णमें जैसे
वस्तुभेद नहीं है, वैसे ही आप भी हैं ॥ 18 ll
पुरुषोंने अज्ञानताके कारण आपमें विकल्पका आरोप किया है, इसलिये सोपाधिमें भ्रमका प्रतीकार किया जाता है, किंतु निरुपाधिमें नहीं ll 19 ll
हे महेशान! हम सब आपके दर्शनमात्रसे धन्य हो गये; क्योंकि आप दृढ़ भक्तोंको आनन्द प्रदान करते हैं, अतः हे शम्भो ! हमलोगोंपर दया कीजिये ॥ 20 ॥
आप आदि हैं, आप अनादि हैं, आप प्रकृतिसे परे पुरुष हैं। आप विश्वेश्वर, जगन्नाथ, निर्विकार एवं परसे भी परे हैं। हे प्रभो! रजोगुणयुक्त ये जो विश्वमूर्ति पितामह ब्रह्मा है और सत्त्वगुणसे युक्त पुरुषोत्तम विष्णु हैं, वे आपकी ही कृपासे हैं। कालाग्निरुद्र तमोगुणसे युक्त हैं, आप परमात्मा सभी गुणोंसे परे हैं, आप सदाशिव महेशान, सर्वव्यापी तथा महेश्वर हैं । ll 21-23 ॥
हे विश्वमूर्त! हे महेश्वर! व्यक्त महत्तत्त्व पंचभूत तत्माएँ एवं इन्द्रियाँ आपसे ही अधिष्ठित ॥ 24 ॥
हे महादेव ! हे परेशान! हे करुणाकर! हे | शंकर! प्रसन्न होइये। हे देवदेवेश! पुरुषोत्तम ! प्रसन्न हो जाइये। हे प्रभो! सातों समुद्र आपके वस्त्र, सभी दिशाएँ आपकी महाभुजाएँ लोक आपका सिर, आकाश नाभि तथा वायु नासिका है । 25-26 ॥ हे प्रभो! रवि-सोम- अग्नि आपके नेत्र, मेघ आपके केश और नक्षत्र-तारा-ग्रह आपके आभूषण हैं ॥ 27 ॥ हे शंकर! आप वाणी तथा मनसे सर्वथा अगोचर हैं, अतः हे देवेश! हे विभो ! हे परमेश्वर ! हमलोग आपकी स्तुति किस प्रकार करें ॥ 28 ॥पंचमुख, पचास करोड़ मूर्तिवाले, त्रिलोकेश, वरिष्ठ एवं विद्यातत्त्वस्वरूप आप रुद्रको प्रणाम है ।। 29 ।।
अनिर्देश्य, नित्य, विद्युज्वालाके समान रूपवाले, अग्निवर्ण एवं देवाधिदेव आप शंकरको बार-बार नमस्कार है। करोड़ों विद्युत्के समान प्रकाशमान, अष्ट कोणवाले तथा अत्यन्त सुन्दर रूपको धारण करके इस लोक में स्थित रहनेवाले आपको नमस्कार है । 30-31 ॥ ब्रह्माजी बोले- उन [देवताओं) की यह बात सुनकर प्रसन्न हुए भक्तवत्सल परमेश्वरने मुझ ब्रह्माको शीघ्र ही अभय प्रदान कर दिया ।। 32 ll
हे तात! उसके बाद विष्णु आदि सभी देवता तथा मुनिगण मन्द मन्द हँसते हुए परम आनन्दित हो उठे ।। 33 ।।
हे तात! मेरे उस रेतसे अत्यन्त उज्ज्वल बहुत से कण हो गये और अपने तेजसे प्रज्वलित उन कणोंसे बालखिल्य नामक हजारों ऋषि प्रकट हो गये ।। 34-35 ।।
हे मुने! तब वे सभी ऋषि मेरे समीप खड़े हो गये और बड़े प्रेमसे मुझे हे तात! हे तात! कहने लगे ॥ 36 ॥ 6 ll
तब ईश्वरेच्छासे प्रेरित हुए नारदजी [आप ] क्रोधयुक्त चित्तसे उन बालखिल्य ऋषियोंसे कहने लगे - ॥ 37 ॥ नारदजी बोले – अब आपलोग एक साथ ही - गन्धमादन पर्वतपर चले जाइये आपलोग यहाँ मत रुकिये; आपलोगोंका यहाँ [कोई] प्रयोजन नहीं है ॥ 38 वहाँ कठोर तपस्या करके आपलोग मुनीश्वर और सूर्यके शिष्य होंगे, मैंने यह बात शिवजीकी आज्ञासे कही है ॥ 39 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहे गये वे बालखिल्य शंकरजीको नमस्कार करके शीघ्र ही गन्धमादन पर्वतपर चले गये। हे मुनीश्वर ! तब शिवजीके द्वारा प्रेरित विष्णु आदिने मुझे बहुत समझाया और मैं निर्भय हो गया और फिर सर्वेश शंकरको भक्तवत्सल, सम्पूर्ण कार्योंको करनेवाला तथा दुष्टोंके गर्वको नष्ट करनेवाला | समझकर उनकी स्तुति करने लगा ॥ 40-42 llहे देवदेव! हे महादेव! हे करुणासागर ! हे प्रभो! आप ही सब प्रकारसे सबके कर्ता, भर्ता तथा हर्ता हैं ॥ 43 ॥
मैंने यह अच्छी तरह जान लिया है कि जिस प्रकार बलवान् बैल नाथनेसे वशमें हो जाता है, उसी प्रकार यह सारा चराचर जगत् आपकी इच्छासे स्थित है ॥ 44 ॥
इस प्रकार कहकर हाथ जोड़ मैंने शिवको प्रणाम किया और विष्णु आदि अन्य सभीने भी उन महेश्वरकी स्तुति की ॥ 45 ॥
तब दीनभावसे की गयी विष्णु आदि सभी देवताओंकी तथा मेरी शुद्ध स्तुति सुनकर महेश्वर प्रसन्न हो गये ॥ 46 ॥
हेमुने ! उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर मुझे अतिश्रेष्ठ अभयदान दिया, सभीने महान् सुख प्राप्त किया और | मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई ॥ 47 ॥