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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 3 (पार्वती खण्ड) , अध्याय 49 - Sanhita 2, Khand 3 (पार्वती खण्ड) , Adhyaya 49

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अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] इसके अनन्तर मेरी आज्ञासे ईश्वरने ब्राह्मणोंद्वारा अग्निस्थापन करके पार्वतीको अपने पास बैठाकर हवन किया। शिवने ऋक्, साम तथा यजुर्वेदके मन्त्रोंसे अग्निमें आहुति दी और कालीके भाई मैनाकने लाजाकी अंजलि दी। हे तात! इसके बाद लोकाचारका विधानकर काली और शिव दोनोंने प्रसन्नताके साथ विधिवत् अग्निकी प्रदक्षिणा की। हे देवर्षे। उस समय गिरिजापति शंकरने एक अद्भुत चरित्र किया, मैं आपके स्नेहके कारण उसका वर्णन करता हूँ, आप सुनिये ll 1-4 ॥

उस समय शिवकी मायासे मोहित हुआ मैं पार्वतीके चरणोंमें मनोहर नखचन्द्रको देखने लगा ॥ 5 ॥

हे देवमुने! उसके दर्शनसे मैं मोहित हो उठा और मेरा मन अत्यन्त क्षुब्ध हो गया। मोहित होकर मैं बार-बार उनके अंगोंको देखने लगा, तब उस | देखनेसे मेरा तेज शीघ्र ही पृथ्वीपर गिर गया और मैं अत्यन्त लज्जित हो गया। यह देखकर महादेवजी अत्यन्त कुपित हो गये और तब उन्होंने मुझ ब्रह्माको शीघ्र मारनेकी इच्छा की ॥ 6-9 ॥ हे नारद! वहाँ सर्वत्र बड़ा हाहाकार होने लगा, सभी लोग काँपने लगे तथा विश्वको धारण करनेवाले विष्णुको भय होने लगा ॥ 10 ॥

हे मुने! तब विष्णु आदि देवगण कोपयुक्त, अपने तेजसे प्रज्वलित होते हुए और [मुझ ब्रह्माको] मारनेके लिये उद्यत उन शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ 11 ॥

देवता बोले- हे देवदेव! हे जगद्व्यापिन्। हे परमेश! हे सदाशिव! हे जगत्पते! हे जगन्नाथ! हे जगन्मय! आप प्रसन्न हों। आप सभी पदार्थोंकी आत्मा, सबके हेतु ईश्वर, निर्विकार, अव्यय, नित्य, निर्विकल्प, अक्षर तथा सबसे परे हैं। आप इस जगत्के आदि, मध्य, अन्त एवं अभ्यन्तर तथा बाहर विराजमान हैं, आप अव्यय, सनातन एवं तत्पदवाच्य, सच्चिदानन्द ब्रह्म हैं ll 12-14 ॥मुक्तिकी कामनावाले दृढव्रत मुनिजन सब प्रकार से संगका परित्यागकर आपके ही चरणकमलकी उपासना करते हैं। आप अमृतस्वरूप, शोकरहित, निर्गुण, श्रेष्ठ, आनन्दमात्र, व्यग्रतारहित, निर्विकार, आत्मासे रहित तथा मायासे परे पूर्णब्रह्म हैं ।। 15-16 ।। आप संसारकी उत्पत्ति, पालन तथा प्रलयके कारण हैं। इस संसारको आपकी अपेक्षा है, किंतु सर्वत्र व्यापक आप परमात्माको किसीकी अपेक्षा नहीं है ॥ 17 ॥ आप एक होते हुए भी सत् एवं असत् हैं, द्वैत एवं अद्वैत हैं, गढ़े हुए तथा न गढ़े हुए स्वर्णमें जैसे
वस्तुभेद नहीं है, वैसे ही आप भी हैं ॥ 18 ll

पुरुषोंने अज्ञानताके कारण आपमें विकल्पका आरोप किया है, इसलिये सोपाधिमें भ्रमका प्रतीकार किया जाता है, किंतु निरुपाधिमें नहीं ll 19 ll

हे महेशान! हम सब आपके दर्शनमात्रसे धन्य हो गये; क्योंकि आप दृढ़ भक्तोंको आनन्द प्रदान करते हैं, अतः हे शम्भो ! हमलोगोंपर दया कीजिये ॥ 20 ॥

आप आदि हैं, आप अनादि हैं, आप प्रकृतिसे परे पुरुष हैं। आप विश्वेश्वर, जगन्नाथ, निर्विकार एवं परसे भी परे हैं। हे प्रभो! रजोगुणयुक्त ये जो विश्वमूर्ति पितामह ब्रह्मा है और सत्त्वगुणसे युक्त पुरुषोत्तम विष्णु हैं, वे आपकी ही कृपासे हैं। कालाग्निरुद्र तमोगुणसे युक्त हैं, आप परमात्मा सभी गुणोंसे परे हैं, आप सदाशिव महेशान, सर्वव्यापी तथा महेश्वर हैं । ll 21-23 ॥

हे विश्वमूर्त! हे महेश्वर! व्यक्त महत्तत्त्व पंचभूत तत्माएँ एवं इन्द्रियाँ आपसे ही अधिष्ठित ॥ 24 ॥

हे महादेव ! हे परेशान! हे करुणाकर! हे | शंकर! प्रसन्न होइये। हे देवदेवेश! पुरुषोत्तम ! प्रसन्न हो जाइये। हे प्रभो! सातों समुद्र आपके वस्त्र, सभी दिशाएँ आपकी महाभुजाएँ लोक आपका सिर, आकाश नाभि तथा वायु नासिका है । 25-26 ॥ हे प्रभो! रवि-सोम- अग्नि आपके नेत्र, मेघ आपके केश और नक्षत्र-तारा-ग्रह आपके आभूषण हैं ॥ 27 ॥ हे शंकर! आप वाणी तथा मनसे सर्वथा अगोचर हैं, अतः हे देवेश! हे विभो ! हे परमेश्वर ! हमलोग आपकी स्तुति किस प्रकार करें ॥ 28 ॥पंचमुख, पचास करोड़ मूर्तिवाले, त्रिलोकेश, वरिष्ठ एवं विद्यातत्त्वस्वरूप आप रुद्रको प्रणाम है ।। 29 ।।

अनिर्देश्य, नित्य, विद्युज्वालाके समान रूपवाले, अग्निवर्ण एवं देवाधिदेव आप शंकरको बार-बार नमस्कार है। करोड़ों विद्युत्के समान प्रकाशमान, अष्ट कोणवाले तथा अत्यन्त सुन्दर रूपको धारण करके इस लोक में स्थित रहनेवाले आपको नमस्कार है । 30-31 ॥ ब्रह्माजी बोले- उन [देवताओं) की यह बात सुनकर प्रसन्न हुए भक्तवत्सल परमेश्वरने मुझ ब्रह्माको शीघ्र ही अभय प्रदान कर दिया ।। 32 ll

हे तात! उसके बाद विष्णु आदि सभी देवता तथा मुनिगण मन्द मन्द हँसते हुए परम आनन्दित हो उठे ।। 33 ।।

हे तात! मेरे उस रेतसे अत्यन्त उज्ज्वल बहुत से कण हो गये और अपने तेजसे प्रज्वलित उन कणोंसे बालखिल्य नामक हजारों ऋषि प्रकट हो गये ।। 34-35 ।।

हे मुने! तब वे सभी ऋषि मेरे समीप खड़े हो गये और बड़े प्रेमसे मुझे हे तात! हे तात! कहने लगे ॥ 36 ॥ 6 ll

तब ईश्वरेच्छासे प्रेरित हुए नारदजी [आप ] क्रोधयुक्त चित्तसे उन बालखिल्य ऋषियोंसे कहने लगे - ॥ 37 ॥ नारदजी बोले – अब आपलोग एक साथ ही - गन्धमादन पर्वतपर चले जाइये आपलोग यहाँ मत रुकिये; आपलोगोंका यहाँ [कोई] प्रयोजन नहीं है ॥ 38 वहाँ कठोर तपस्या करके आपलोग मुनीश्वर और सूर्यके शिष्य होंगे, मैंने यह बात शिवजीकी आज्ञासे कही है ॥ 39 ॥

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहे गये वे बालखिल्य शंकरजीको नमस्कार करके शीघ्र ही गन्धमादन पर्वतपर चले गये। हे मुनीश्वर ! तब शिवजीके द्वारा प्रेरित विष्णु आदिने मुझे बहुत समझाया और मैं निर्भय हो गया और फिर सर्वेश शंकरको भक्तवत्सल, सम्पूर्ण कार्योंको करनेवाला तथा दुष्टोंके गर्वको नष्ट करनेवाला | समझकर उनकी स्तुति करने लगा ॥ 40-42 llहे देवदेव! हे महादेव! हे करुणासागर ! हे प्रभो! आप ही सब प्रकारसे सबके कर्ता, भर्ता तथा हर्ता हैं ॥ 43 ॥

मैंने यह अच्छी तरह जान लिया है कि जिस प्रकार बलवान् बैल नाथनेसे वशमें हो जाता है, उसी प्रकार यह सारा चराचर जगत् आपकी इच्छासे स्थित है ॥ 44 ॥

इस प्रकार कहकर हाथ जोड़ मैंने शिवको प्रणाम किया और विष्णु आदि अन्य सभीने भी उन महेश्वरकी स्तुति की ॥ 45 ॥

तब दीनभावसे की गयी विष्णु आदि सभी देवताओंकी तथा मेरी शुद्ध स्तुति सुनकर महेश्वर प्रसन्न हो गये ॥ 46 ॥

हेमुने ! उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर मुझे अतिश्रेष्ठ अभयदान दिया, सभीने महान् सुख प्राप्त किया और | मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई ॥ 47 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन
  2. [अध्याय 2] पितरोंकी तीन मानसी कन्याओं-मेना, धन्या और कलावतीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा सनकादिद्वारा प्राप्त शाप एवं वरदानका वर्णन
  3. [अध्याय 3] विष्णु आदि देवताओंका हिमालयके पास जाना, उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी देवी जगदम्बाकी स्तुति करना
  4. [अध्याय 4] उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना
  5. [अध्याय 5] मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म
  6. [अध्याय 6] देवी उमाका हिमवान्‌के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, देवीका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे वार्तालाप तथा पुनः नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना
  7. [अध्याय 7] पार्वतीका नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन
  8. [अध्याय 8] नारद मुनिका हिमालयके समीप गमन, वहाँ पार्वतीका हाथ देखकर भावी लक्षणोंको बताना, चिन्तित हिमवान्‌को शिवमहिमा बताना तथा शिवसे विवाह करनेका परामर्श देना
  9. [अध्याय 9] पार्वतीके विवाहके सम्बन्धमें मेना और हिमालयका वार्तालाप, पार्वती और हिमालयद्वारा देखे गये अपने स्वप्नका वर्णन
  10. [अध्याय 10] शिवजीके ललाटसे भौमोत्पत्ति
  11. [अध्याय 11] भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप
  12. [अध्याय 12] हिमवान्‌का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा मांगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना
  13. [अध्याय 13] पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना
  14. [अध्याय 14] तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगों दितिपुत्र बज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] वरांगीके पुत्र तारकासुरकी उत्पत्ति, तारकासुरकी तपस्या एवं ब्रह्माजीद्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदानके प्रभावसे तीनों लोकोंपर उसका अत्याचार
  16. [अध्याय 16] तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना
  17. [अध्याय 17] इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना
  18. [अध्याय 18] कामदेवद्वारा असमयमें वसन्त ऋतुका प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षणके लिये शिवका मोहित होना, पुनः वैराग्य भाव धारण करना
  19. [अध्याय 19] भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना
  20. [अध्याय 20] शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना
  21. [अध्याय 21] कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश
  22. [अध्याय 22] पार्वतीकी तपस्या एवं उसके प्रभावका वर्णन
  23. [अध्याय 23] हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना
  24. [अध्याय 24] देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना
  25. [अध्याय 25] भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना
  26. [अध्याय 26] पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती संवाद
  27. [अध्याय 27] जटाधारी ब्राह्मणद्वारा पार्वतीके समक्ष शिवजीके स्वरूपकी निन्दा करना
  28. [अध्याय 28] पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना
  29. [अध्याय 29] शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना
  30. [अध्याय 30] पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना
  31. [अध्याय 31] देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना
  32. [अध्याय 32] ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत
  33. [अध्याय 33] वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा
  34. [अध्याय 34] सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको राजा अनरण्यका आख्यान सुनाकर पार्वतीका विवाह शिवसे करनेकी प्रेरणा देना
  35. [अध्याय 35] धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना
  36. [अध्याय 36] सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवान्‌का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना
  37. [अध्याय 37] हिमालयद्वारा विवाहके लिये लग्नपत्रिकाप्रेषण, विवाहकी सामग्रियोंकी तैयारी तथा अनेक पर्वतों एवं नदियोंका दिव्य रूपमें सपरिवार हिमालयके घर आगमन
  38. [अध्याय 38] हिमालयपुरीकी सजावट, विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करना
  39. [अध्याय 39] भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना
  40. [अध्याय 40] शिवबरातकी शोभा भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान
  41. [अध्याय 41] नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना
  42. [अध्याय 42] हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वारा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन
  43. [अध्याय 43] मेनाद्वारा शिवको देखनेके लिये महलकी छतपर जाना, नारदद्वारा सबका दर्शन कराना, शिवद्वारा अद्भुत लीलाका प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिवके भयंकर वेषको देखकर मेनाका मूर्च्छित होना
  44. [अध्याय 44] शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना
  45. [अध्याय 45] भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना
  46. [अध्याय 46] नगरमें बरातियोंका प्रवेश द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन
  47. [अध्याय 47] पाणिग्रहण के लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन
  48. [अध्याय 48] शिव-पार्वती विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना
  49. [अध्याय 49] अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  50. [अध्याय 50] शिवा शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप
  51. [अध्याय 51] रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  52. [अध्याय 52] हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन
  53. [अध्याय 53] चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना
  54. [अध्याय 54] मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना
  55. [अध्याय 55] शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा