सूतजी बोले- [हे महर्षियो] किसी समय जब ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ऋषिवर अत्रि समाधिसे जगे, तब उन्होंने अपनी प्रिया पत्नीसे कहा- 'जल दो] ' ॥ 1 ॥
वे साध्वी भी 'मैं जल अवश्य ही लाऊँगी' ऐसा | निश्चयकर कमण्डलु लेकर वनकी ओर चल पड़ीं और विचार करने लगीं कि 'मैं जल कहाँसे लाऊँ, मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और कहाँसे जल लाऊँ' इस विस्मयमें पड़ी हुई उन्होंने उन गंगाजीको मार्गमें देखा। गंगाजीके पीछे पीछे अनसूया भी चलने लगीं। तब नदियोंमें श्रेष्ठ तथा सुन्दर शरीर धारण करनेवाली गंगा देवीने उनसे कहा- ll 2-4 ॥
गंगाजी बोली- हे देवि! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, तुम यह बताओ कि इस समय कहाँ जा रही हो? हे सुभगे ! सचमुच तुम धन्य हो, मैं तुम्हारी आज्ञाका पालन करूँगी ॥ 5 ॥
सूतजी बोले- हे ब्राह्मणो! तब उनकी बात सुनकर तपस्विनी ऋषिपत्नी स्वयं आश्चर्यमें पड़ गय और प्रेमपूर्वक यह वचन कहने लगीं ॥6॥
अनसूया बोलीं- हे कमलनयने! तुम कौन हो और कहाँसे आयी हो? कृपा करके बताओ तुम मनोहर बोलनेवाली साध्वी सती जैसी मालूम पड़ रही हो ॥ 7 ॥सूतजी बोले- हे मुनीश्वरो ! ऋषिपत्नीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर नदियोंमें श्रेष्ठ दिव्यरूपधारिणी गंगाजीने यह वचन कहा- ॥ 8 ॥
गंगाजी बोलीं- हे साध्वि! अपने पति तथा परमेश्वर सदाशिव के प्रति तुम्हारी सेवाको देखकर एवं तुम्हारा धर्माचरण देखकर मैं तुम्हारे समीप ही स्थित हो गयी हूँ ॥ 9 ॥
हे शुचिस्मिते। मैं गंगा हूँ और तुम्हारे शिवाराधनसे प्रसन्न होकर यहाँ आयी हूँ तथा तुम्हारी वशवर्तिनी | हो गयी हूँ, अतः तुम जो चाहती हो, उसे माँगो ॥ 10 ॥
सूतजी बोले- गंगाके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वे साध्वी अनसूया उन्हें नमस्कारकर आगे खड़ी हो गयीं और बोलीं कि यदि आप इस समय मुझपर प्रसन्न हैं, तो जल दीजिये ॥ 11 ॥
यह वचन सुनकर गंगाजी बोलीं- गड्डा तैयार करो। तब क्षणमात्रमें वैसा करके वे अनसूया आकर वहाँ खड़ी हो गयीं। इसके बाद वे गंगा उस (गर्त) में प्रविष्ट हो गयीं और जलरूपमें परिणत हो गयीं। तब उन्होंने आश्चर्यचकित हो जलको ग्रहण कर लिया। तत्पश्चात् मुनिपत्नी अनसूयाने लोकोंके सुखके लिये नदियोंमें श्रेष्ठ तथा दिव्य रूपवाली गंगाजीसे यह वचन कहा— ॥ 12-14 ॥
अनसूया बोलीं- [ हे कृपामयि!] यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं, तो आप तबतक यहीं स्थित रहें, जबतक मेरे स्वामी यहाँ न आ जायें ॥ 15 ll
सूतजी बोले- सज्जनोंको सुख देनेवाले अनसूयाके इस वचनको सुनकर गंगाने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा- हे अन! तुम मेरे इस जलको अत्रिको दे देना उनके इस प्रकार कहनेपर अनसूयाने भी वैसा ही किया। वे कभी नष्ट न होनेवाले उस दिव्य जलको अपने स्वामीको देकर उनके आगे खड़ी हो गयीं ।। 16-17 ।।
तब उन ऋषिने भी अत्यन्त प्रेमसे विधिपूर्वक आचमनकर उस दिव्य जलका पान किया और उसे पीकर सुखका अनुभव किया ॥ 18 ॥'अहो, आश्चर्य है, मैं जो जल प्रतिदिन पीता था, यह जल वैसा नहीं है'-ऐसा विचारकर उन्होंने बनमें चारों ओर अपनी दृष्टि दौड़ायी तब सूखे वृक्षों तथा उससे भी अधिक सूखी हुई दिशाओंको देखकर ऋषिश्रेष्ठने उनसे कहा कि क्या फिर वर्षा नहीं हुई? ।। 19-20 ।।
उनकी बात सुनकर अनसूयाने कहा- नहीं, वर्षा नहीं हुई। तब ऋषिने पुनः अनसूयासे कहा कि फिर तुमने यह जल कहाँसे प्राप्त किया ? ॥ 21 ॥
हे मुनीश्वरो ! ऋषिके ऐसा कहनेपर अनसूया असमंजसमें पड़ गयी और मनमें विचार करने लगी कि यदि मैं बता देती है, तो इससे मेरी उत्कृष्टता सिद्ध होगी और यदि नहीं बताती, तो मेरा पातिव्रत्य भंग हो जायगा। अब मैं कौन-सा उपाय करूँ कि ये दोनों बातें न हों और मैं सच-सच बात कह भी दूँ। अभी वह इस प्रकार विचार कर ही रही थी कि महर्षिने बारंबार पूछा ॥ 22-24 ॥
तब शिवजीके अनुग्रहसे बुद्धि प्राप्तकर उन पतिव्रताने कहा- हे स्वामिन्! इस विषयमें जो हुआ, उसे मैं कहती हूँ, आप सुनिये ।। 25 ।।
अनसूबा बोली- महादेवके प्रतापसे तथा आपके पुण्योंसे गंगा यहाँपर आयी हुई हैं; यह उन्हींका जल है ॥ 26 ॥
सूतजी बोले- तब इस वचनको सुनकर महर्षिको बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने मनसे शंकरजीका स्मरण करते हुए प्रेमपूर्वक अपनी पत्नीमे कहा- ॥ 27 ॥
अत्रि बोले- हे प्रिये! हे सुन्दरि यह तुम सत्य वचन कह रही हो अथवा झूठ ? तुम सच कहती हो या मिथ्या, मैं निश्चय नहीं कर पा रहा हूँ; क्योंकि यह अत्यन्त दुर्लभ है। हे शुभे! जो सदा योगियों तथा देवताओंके लिये भी असाध्य है, वह आज किस प्रकार हो गया; मुझे तो महान् विस्मय हो रहा है। यदि ऐसा है, तो मैं देखन चाहता हूँ; तभी विश्वास करूँगा, अन्यथा नहीं। तब उनका वचन सुनकर उनकी पत्नी अनसूयाने पतिसे कहा- ॥ 28-30 ॥अनसूया बोली हे नाथ! हे महामुने! यदि आपकी इच्छा नदियोंमें श्रेष्ठ गंगाके दर्शनकी हो, तो आप मेरे साथ चलिये ॥ 31 ॥
सूतजी बोले- ऐसा कहकर वे पतिव्रता अपने पतिको साथ लेकर शिवजीका स्मरण करके शीघ्र ही वहाँ पहुँचीं, जहाँ नदियोंमें श्रेष्ठ गंगा विद्यमान थीं ॥ 32 ॥ उसके बाद उन पतिव्रताने अपने पतिको उस गड्ढे में स्थित दिव्यस्वरूपवाली गंगाका दर्शन कराया ॥ 33 ॥
मुनिश्रेष्ठने वहाँ जाकर ऊपरतक जलसे परिपूर्ण सुन्दर गड्ढेको देखकर कहा-ये धन्य हैं ॥ 34 ॥
क्या यह साक्षात् मेरा तप है अथवा अन्य किसीका - इस प्रकार कहकर मुनिश्रेष्ठने भक्तिपूर्वक उन गंगाकी स्तुति की। इसके बाद उन मुनिने निर्मल जलमें भलीभाँति स्नान किया और आचमनकर बार बार उनकी स्तुति की। अनसूयाने भी उस निर्मल जलमें स्नान किया। इसके बाद उस पतिव्रता अनसूया तथा मुनिने वहाँ नित्यकर्म सम्पन्न किया ll 35-37 ॥
उसके बाद गंगाने अनसूयासे कहा कि अब मैं अपने स्थानको जा रही हूँ। गंगाके ऐसा कहनेपर उस साध्वीने पुनः उन श्रेष्ठ नदी गंगासे कहा- ॥ 38 ॥
अनसूया बोलीं- हे देवेशि यदि आप प्रसन्न हैं और मुझपर आपकी कृपा है, तो हे देवि ! इस तपोवनमें आप स्थिर होकर निवास करें; क्योंकि बड़े लोगोंका ऐसा स्वभाव होता है कि वे एक बार किसीको स्वीकार करके उसे कभी छोड़ते नहीं | इतना कहकर दोनों हाथ जोड़कर वे पुनः उनकी स्तुति करने लगीं ॥। 39-40 ।।
तदनन्तर ऋषिने भी इसी प्रकार प्रार्थना की कि हे सरिद्वरे। हे देवि आप यहीं निवास करें, आप हमारे अनुकूल रहें और हम लोगोंको सनाथ करें ॥। 41 ।। तब उनके इस मनोहर वचनको सुनकर नदियोंमें श्रेष्ठ गंगाका मन प्रसन्न हो गया; इसके बाद गंगाने अनसूयासे यह वचन कहा— ॥ 42 ॥
गंगाजी बोलीं- हे अनसूये ! यदि तुम भगवान् शंकरके अर्चन एवं अपने स्वामीकी सेवाका वर्षभरका फल मुझे प्रदान करो, तो मैं देवताओंके उपकारके लिये यहाँ स्थित रहूँगी 43 ॥हे देवि ! दान, तीर्थ स्नान, यज्ञ तथा योगसे मेरी उतनी सन्तुष्टि नहीं होती, जितनी [ पतिव्रताओंके] पातिव्रत्यसे होती है ॥ 44 ॥
पतिव्रताको देखकर मेरे मनको जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी प्रसन्नता अन्य उपायोंसे नहीं होती। हे सती अनसूये मैं सत्य कहती हूँ। पतिव्रता स्त्रीको देखकर मेरा पाप नष्ट हो जाता है और मैं विशेषरूपसे शुद्ध हो जाती हूँ, पतिव्रता [स्त्री] पार्वतीके तुल्य है ।। 45-46 ।।
इसलिये यदि तुम लोकहितके लिये वह पुण्य मुझे देती हो और कल्याणकी इच्छा करती हो, तो मैं यहाँ स्थिर हो जाऊँगी ॥ 47 ॥
सूतजी बोले- यह वचन सुनकर पतिव्रता अनसूयाने वर्षभरका वह सारा पुण्य गंगाको दे दिया ॥ 48 ॥
बड़े लोगों का ऐसा स्वभाव है कि वे दूसरोंका हित करते हैं इस विषयमें सुवर्ण, चन्दन तथा इक्षुरस दृष्टान्तस्वरूप हैं। अनसूयाके उस महान् पातिव्रत्य कर्मको देखकर महादेव प्रसन्न हो गये और उसी क्षण पार्थिव लिंगसे प्रकट हो गये । ll 49-50 ।।
शंभु बोले- हे साध्वि ! हे पतिव्रते ! तुम्हारे इस कर्मको देखकर मैं प्रसन्न हूँ। हे प्रिये तुम मुझसे वर माँगो, क्योंकि तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो ॥ 51 ॥
इसके बाद वे दोनों पति-पत्नी पाँच मुखोंसे युक्त तथा मनोरम आकृतिवाले शिवको देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये और उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर महाभक्तिसे युक्त हो नमस्कार करके स्तवन किया, फिर लोकका कल्याण करनेवाले उन शंकरकी भलीभाँति अर्चना करके उनसे कहने लगे- ॥ 52-53 ॥
पति-पत्नी बोले- हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं और ये जगदम्बा भी प्रसन्न हैं, तो आप इस तपोवनमें निवास करें और लोकोंके लिये सुखदायक हों ॥ 54 ॥
इस प्रकार प्रसन्न हुई गंगा तथा प्रसन्न हुए सदाशिव ये दोनों वहाँ स्थित हो गये, जहाँ ऋषिश्रेष्ठ अत्रि रहते थे । 55 ।।दूसरोंका दुःख दूर करनेवाले सदाशिव अत्रीश्वर नामसे वहाँपर प्रसिद्ध हो गये और गंगाजी भी अपनी शक्तिसे उसी गड्ढे में स्थित हो गयीं ॥ 56 ॥
उसी दिनसे वहाँपर जल सर्वदा अक्षय प्रवाहित होने लगा और हाथभरके उस गड्ढेमें [प्रविष्ट हुई ] गंगा मन्दाकिनी नामसे प्रसिद्ध हुईं ॥ 57 ॥
हे द्विजो ! प्रत्येक तीर्थसे उस स्थानपर वे समस्त दिव्य ऋषि अपनी पत्नियोंके साथ आ गये, जो वहाँसे पहले दूसरी जगह चले गये थे ॥ 58 ॥ वहाँका सारा प्रदेश यव और व्रीहिसे परिपूर्ण हो जिनसे उन श्रेष्ठ ऋषियोंके साथ यज्ञ यागादि करनेवाले वहाँके लोग होम करने लगे ॥ 59 ॥
हे मुनीश्वरो उस समय उन कर्मोंसे सन्तुष्ट होकर मेघोंने बहुत वर्षा की, जिससे संसारमें परम आनन्द छा गया ॥ 60 ॥
[हे मुनीश्वरो ! ] इस प्रकार मैंने अत्रीश्वरका माहात्म्य आपलोगोंसे कहा, जो सुखप्रद, भोग- मोक्ष देनेवाला, समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला एवं भक्तिको बढ़ानेवाला है ॥ 61 ॥