सनत्कुमार बोले - [ हे व्यास!] तदनन्तर मदिरा पानकर नेत्रोंको घुमाता हुआ मदमत्त गजके समान गतिवाला तथा श्रेष्ठ वीरोंके साथ चलनेवाला वह प्रचण्ड वीर बहुत-सी सेनासे युक्त हो वहाँ गया ॥ 1 ॥
कामके बाणसे बिंधे हुए उस दैत्यने वीरकके द्वारा अवरुद्ध मार्गवाली उस गुफाको उसी प्रकार देखा, जैसे तैलपूर्ण जलते हुए दीपकको प्रेमपूर्वक देखकर उसे प्राप्तकर पतंग विनष्ट हो जाता है ॥ 2 ॥
उसी प्रकार बार-बार देखकर वीरकके द्वारा | पीड़ित किये जानेपर भी वह मूर्ख महादैत्यपतिअन्धक कामाग्निसे दग्ध शरीरवाला हो गया। वीरकने पाषाण, वृक्ष, वज्र, जल, अग्नि, सर्प एवं अस्त्र शस्त्रोंसे उसे पीड़ा पहुँचायी और पुनः पीड़ित करके पूछा कि तुम कौन हो और कहाँसे आये हो? उसका वचन सुनकर अन्धकने अपना अभिप्राय प्रकट किया और उस वीरकके साथ युद्ध करने लगा। आश्चर्य है कि उस अप्रमेय महावीर वीरकने अन्धकको एक मुहूर्तमें युद्धमें जीत लिया। महान् खड्गके चूर-चूर हो जानेपर दुखी तथा विस्मयरहित वह अन्धक युद्धभूमि छोड़कर भूख-प्याससे व्याकुल हो भाग खड़ा हुआ ॥ 3-6 ॥ तत्पश्चात् प्रह्लाद आदि प्रधान दैत्य उसके साथ युद्ध करने लगे, किंतु अत्यन्त भयंकर वे दैत्य अनेक शस्त्रास्त्रोंसे लड़ते हुए पराजित होनेके कारण लज्जित हो गये ॥ 7 ॥
तब विरोचन, बलि, हजारों भुजाओंवाला बाण, भजि, कुजम्भ, शम्बर एवं वृत्र आदि पराक्रमी दैत्य युद्ध करने लगे। चारों ओरसे घेरकर युद्ध करते हुए उन दैत्योंको शिवके गण वीरकने पराजित कर दिया। उनके दो टुकड़े कर दिये। बहुतसे दानवोंके मर जानेपर और कुछके शेष रहनेपर सिद्धसंघोंने जय जयकार किया ।। 8-9 ॥
मेदा, मांस, पीवसे महाभयंकर उस युद्धके बीच गीदड़ आनन्दसे नाचने लगे एवं रुधिरके भयंकर कीचड़में [विचरण करते हुए मांसाहारी जन्तुओंसे सारी रणभूमि भयंकर दिखायी पड़ने लगी। उस समय वीरकद्वारा दैत्योंके विनष्ट हो जानेपर भगवान् सदाशिवने दाक्षायणीको सान्त्वना देकर कहा हे प्रिये मैंने पूर्वमें जिस कठिन महापाशुपत व्रतको किया था, उसे करने जा रहा हूँ ॥ 10-11 ॥
शिवजी बोले- हे देवि ! रात-दिन तुम्हारे साथ प्रसंगके कारण मेरी सेनाका क्षय हो गया, मरणधर्मा दैत्योंके द्वारा मेरी अमर्त्य सेनाका विनाश हुआ, यह किसी पुण्यनाशक ग्रहका ही प्रभाव है ।॥ 12 ॥हे सुन्दरि ! अब मैं वनमें जाकर परम दिव्य एवं अद्भुत वर प्राप्तकर अत्यन्त कठिन व्र करूँगा, तुम पूर्णरूपसे भयरहित तथा शोकविहीन रहना ॥ 13 ॥
सनत्कुमार बोले- इतना वचन कहकर अत्यन्त तेजस्वी महात्मा शंकर [अपने श्रृंगीका] धीरेसे शब्द करके अत्यन्त घोर पुण्यतम वनमें जाकर पाशुपतव्रतका अनुष्ठान करने लगे ॥ 14 ॥
जिस व्रतको देवता एवं दानव भी करनेमें समर्थ नहीं हैं, उसे उन्होंने हजार वर्षपर्यन्त किया। उस समय पतिव्रता तथा शीलगुणसे सम्पन्न पार्वती मन्दर पर्वतपर स्थित हो सदाशिवके आगमनकी प्रतीक्षा करती हुई अकेले गुफाके अन्दर सदा भयभीत तथा दुखी रहा करती थीं, उस समय पुत्र वीरक ही उनकी रक्षा करता था । ll 15-16 ॥
इसके बाद वरदानसे उन्मत्त तथा कामदेवके बाणोंसे धैर्यरहित वह दैत्य बड़ी शीघ्रता से प्रह्लाद आदि दैत्योंके साथ उस गुफाके पास आ गया ॥ 17 ॥
उसने भोजन, पान एवं निद्राका परित्यागकर कुपित हो अपने सैनिकोंको साथ लेकर पाँच-सौ पाँच रात-दिन वीरकके साथ अत्यन्त अद्भुत युद्ध किया। खड्ग, बरछी, भिन्दिपाल, गदा, भुशुण्डी, अर्ध चन्द्रमाके समान, वितस्तिमात्र तथा कछुएके समान मुखवाले प्रकाशमान बाणों, तीक्ष्ण त्रिशूलों, परशु तोमर, मुद्गर, खड्ग, गोले, पर्वत, वृक्ष तथा दिव्यास्त्रोंसे उस वीरकने दैत्योंके साथ युद्ध किया ।। 18-20 ॥
दैत्योंद्वारा चलाये गये उन शस्त्रोंसे गुफाके द्वार बन्द हो गये, कहीं लेशमात्र भी प्रकाश नहीं रहा, वीरक भी शस्त्रोंकी चोटसे आहत होकर गुफाके द्वारपर मूच्छित होकर गिर पड़ा ॥ 21 ॥सभी दैत्योंसे तथा उनके अस्त्रोंसे मुहूर्तमात्रके लिये वीरकको आच्छादित देखकर तथा यह देखकर कि यह भयंकर दैत्योंको हटा नहीं पा रहा है, गुफामें स्थित देवीने भयपूर्वक सखियोंके साथ ब्रह्मा, विष्णु तथा समस्त गणोंकी सेनाका स्मरण किया ।। 22-23 ।।
उनके स्मरणमात्रसे ही ब्रह्मा, भगवान् विष्णु तथा इन्द्र सभी सैनिकोंके साथ स्त्रीरूप धारणकर वहाँ आ गये। स्त्री बनकर वे देवता, मुनि, महात्मा, सिद्ध, नाग तथा गुह्यक पर्वतराजकी पुत्रीकी गुफाके भीतर प्रविष्ट हुए ।। 24-25 ॥
उनके स्त्रीरूप धारण करनेका कारण यह था कि उत्तम राजाके आसनस्थ होनेपर उसके अन्तः पुरमें पुरुषवेशमें जाना निषिद्ध है, इसलिये वे स्वीसमूहके रूपमें एकत्रित हो गये। वीरकार्य करनेवाली ये अद्भुत रूपवाली स्त्रियाँ जब पार्वतीकी गुफामें प्रविष्ट हुई, तो उन स्त्रियोंको देखकर पार्वती अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं ।। 26-27 ।।
उस समय सैकड़ों हजारों नितम्बिनी स्त्रियोंके द्वारा प्रलयकालीन प्रचण्ड मेघके समान घोषवाली तथा विजय देनेवाली हजारों भेरियाँ और शंख बजाये गये ॥ 28 ॥
अद्भुत तथा प्रचण्ड पराक्रमवाला वीरक भी मूर्च्छा त्यागकर शस्त्रको लेकर महारथियोंके आगे खड़ा हो गया और उन्हीं शस्त्रोंसे दैत्योंका वध करने लगा ।। 29 ।।
उस समय हाथमें दण्ड लिये हुए ब्राह्मी, क्रोधसे युक्त चित्तवाली गौरी, अपने हाथोंमें शंख, गदा, चक्र तथा धनुष धारण की हुई नारायणी, हाथमें लांगल, | दण्ड लिये कांचनके समान वर्णवाली व्योमालकातथा हाथमें हजारों धारवाले, प्रचण्ड वेगसे युक्त, उग्र वेगवाले वज्रको लिये हुए ऐन्द्री युद्धहेतु निकल पड़ीं ॥ 30-31 ॥
हजार नेत्रोंवाली, युद्धमें निश्चल रहनेवाली, अत्यन्त दुर्जय, सैकड़ों दैत्योंसे कभी पराजित न होनेवाली तथा भयंकर मुखवाली वैश्वानरी तथा हाथमें दण्ड लिये हुए उग्र याम्या शक्ति भी युद्धमें प्रवृत्त हो गयीं ॥ 32 ॥
हाथमें अत्यन्त तीक्ष्ण तलवार तथा घोर धनुष लेकर निर्ऋति शक्ति आय वरुणका पाश हाथमें धारणकर युद्धको अभिलाषा करती हुई तोयालिका निकल पड़ीं। प्रचण्ड पवनकी महाशक्ति भूखसे व्याकुल हो हाथमें अंकुश लेकर एवं कुबेरकी शक्ति हाथमें प्रलयकालकी अग्निके समान गदा लेकर बुद्धभूमिमें आ पहुंचीं तीक्ष्ण मुखवाली, कुरुपा नखरूप आयुधवाली, नागके समान भयंकर यक्षेश्वरी आदि देवियाँ तथा इसी प्रकारकी अन्य सैकड़ों देवियाँ संग्रामभूमिमें निकल पड़ीं ।। 33-35 ।।
उसकी अपार सेना देखकर वे देवियाँ विस्मित, भयसे व्याकुल, फौके वर्णवाली तथा अत्यन्त कातर हो गयीं। उसके बाद ब्रह्माणी आदि सभी देवशक्तियोंने पार्वतीकी सम्मतिसे अपने मनको समाहितकर वीरकको अपना सेनापति बनाया। इसके बाद वरदानसे शक्तिसम्पन्न प्रधान दैत्य मनमें यह विचारकर अभूतपूर्व युद्ध करने लगे कि आज इन नारियोंसे हम मृत्युको प्राप्त होंगे अथवा इनपर विजय प्राप्त करेंगे। उस समय संग्रामभूमिमें अद्भुत बुद्धिसम्पन्न वीरकको अपना सेनापति बनाकर पार्वतीने सखियोंके साथ युद्धमें अद्भुत युद्धकौशल दिखलाया ॥ 36- 39 ॥
महापराक्रमी हिरण्याक्षपुत्र राजा अन्धकने भी महाव्यूहकी रचना की और विष्णुकी सम्भावना करके यमकी शक्तिको अवस्थित देखकर [उनसे लड़नेके लिये] महाभयंकर गिल नामक राक्षसको नियुक्त किया ॥ 40 ॥ब्रह्माजीकी सेवा करनेसे उसका मुख अत्यन्त विकराल हो गया था, इसीलिये उसे मारनेके लिये भगवान् विष्णु आये। उसी समय हजार वर्ष बीत जानेपर प्रलयकालीन हजारों सूर्यके समान कान्तिवाले व्याघ्रचर्मधारी भगवान् शिवजी भी कुपित होकर युद्धभूमिमें आये तब उन महेश्वरको युद्धभूमिमें आया देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई उन स्त्रियोंने वीरकको साथ लेकर महायुद्ध किया ।। 41-42 ।।
उस समय सिर झुकाकर सदाशिवको प्रणाम करके पतिका पराक्रम प्रदर्शित करती हुई गौरीने प्रसन्नतापूर्वक घोर युद्ध किया। उसके बाद शंकरजी पार्वतीको हृदयसे लगाकर गुफरके भीतर प्रविष्ट हो गये। पार्वतीने उन हजारों स्त्रियोंको अनेक प्रकारसे सम्मानितकर विदा किया और वीरकको गुफाके द्वारपर रहने दिया ॥ 43-44 ।।
उसके बाद नीतिमें विचक्षण उस असुरने गौरी | एवं गिरीशको संग्रामभूमिमें न देखकर शिवजी के पास विघस नामक अपना दूत भेजा ॥ 45 ॥
उस संग्राममें देवताओंके प्रहारसे क्षत-विक्षत शरीरवाले उस दैत्यने शिवजीके पास जाकर उन्हें | सिरसे प्रणामकर गर्वयुक्त कठोर वचन कहा- ॥ 46 ॥ दूत बोला- हे शम्भो अन्धकद्वारा भेजा गया मैं इस गुफा में प्रविष्ट हुआ हूँ। उस अन्धकने आपको सन्देश भेजा है कि तुम्हें स्त्रीसे कोई प्रयोजन नहीं है, अतः इस रूपवती युवती नारीको शीघ्र त्याग दो ॥ 47 ॥
प्रायः आप तपस्वीको अन्तःकरणको भूषित करनेवाले क्षमा आदि गुणोंका सेवन करना चाहिये । मुनियोंसे विरोध नहीं करना चाहिये- ऐसा विचारकर मैं तुमसे विरोध नहीं करना चाहता, वस्तुतः तुम तपस्वी मुनि नहीं हो, किंतु शत्रु हो । हे धूर्त तापस! तुम हम दैत्योंके महाविरोधी शत्रु हो, अतः शीघ्रतासे मेरे साथ युद्ध करो, मैं आज ही तुम्हारा वध करके तुम्हें रसातल पहुँचाता हूँ। ll 48-49 ॥सनत्कुमार बोले- दूतके मुखसे ये वचन सुनकर सज्जनोंके रक्षक, दुष्टोंके मदको नष्ट त्रिनेत्र करनेवाले, कपालमाली, महान्, शम्भु शोकाग्निसे जलते हुए बड़े क्रोधसे उस दूतसे कहने लगे - ॥50॥
शिवजी बोले - [हे दूत!] तुमने जो बात कही है, वह बड़ी कठोर है। अब तुम शीघ्र चले जाओ और उससे कहो-यदि तुम बलवान् हो तो शीघ्र आकर मेरे साथ बलपूर्वक युद्ध करो ॥ 51 ॥
इस पृथ्वीपर जो अशक्त है, उसे मनोहर स्त्री तथा धनसे क्या प्रयोजन ? बलसे मत्त दैत्य आ जायँ; मैंने यह निश्चय किया है। अशक्त पुरुष तो शरीरयात्रामें भी असमर्थ हैं, अतः उनके लिये जो विहित हो, उसे करें और मुझे भी जो करना है, उसे मैं करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 52-53 ॥
सनत्कुमार बोले- शिवजीसे यह वचन सुनकर वह विघस भी प्रसन्न होकर वहाँसे निकल पड़ा और उसके बाद गर्जनापूर्वक हुंकार भरता हुआ दैत्यपतिके पास गया ॥ 54 ॥