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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 45 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 45

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अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध

सनत्कुमार बोले - [ हे व्यास!] तदनन्तर मदिरा पानकर नेत्रोंको घुमाता हुआ मदमत्त गजके समान गतिवाला तथा श्रेष्ठ वीरोंके साथ चलनेवाला वह प्रचण्ड वीर बहुत-सी सेनासे युक्त हो वहाँ गया ॥ 1 ॥

कामके बाणसे बिंधे हुए उस दैत्यने वीरकके द्वारा अवरुद्ध मार्गवाली उस गुफाको उसी प्रकार देखा, जैसे तैलपूर्ण जलते हुए दीपकको प्रेमपूर्वक देखकर उसे प्राप्तकर पतंग विनष्ट हो जाता है ॥ 2 ॥

उसी प्रकार बार-बार देखकर वीरकके द्वारा | पीड़ित किये जानेपर भी वह मूर्ख महादैत्यपतिअन्धक कामाग्निसे दग्ध शरीरवाला हो गया। वीरकने पाषाण, वृक्ष, वज्र, जल, अग्नि, सर्प एवं अस्त्र शस्त्रोंसे उसे पीड़ा पहुँचायी और पुनः पीड़ित करके पूछा कि तुम कौन हो और कहाँसे आये हो? उसका वचन सुनकर अन्धकने अपना अभिप्राय प्रकट किया और उस वीरकके साथ युद्ध करने लगा। आश्चर्य है कि उस अप्रमेय महावीर वीरकने अन्धकको एक मुहूर्तमें युद्धमें जीत लिया। महान् खड्गके चूर-चूर हो जानेपर दुखी तथा विस्मयरहित वह अन्धक युद्धभूमि छोड़कर भूख-प्याससे व्याकुल हो भाग खड़ा हुआ ॥ 3-6 ॥ तत्पश्चात् प्रह्लाद आदि प्रधान दैत्य उसके साथ युद्ध करने लगे, किंतु अत्यन्त भयंकर वे दैत्य अनेक शस्त्रास्त्रोंसे लड़ते हुए पराजित होनेके कारण लज्जित हो गये ॥ 7 ॥

तब विरोचन, बलि, हजारों भुजाओंवाला बाण, भजि, कुजम्भ, शम्बर एवं वृत्र आदि पराक्रमी दैत्य युद्ध करने लगे। चारों ओरसे घेरकर युद्ध करते हुए उन दैत्योंको शिवके गण वीरकने पराजित कर दिया। उनके दो टुकड़े कर दिये। बहुतसे दानवोंके मर जानेपर और कुछके शेष रहनेपर सिद्धसंघोंने जय जयकार किया ।। 8-9 ॥

मेदा, मांस, पीवसे महाभयंकर उस युद्धके बीच गीदड़ आनन्दसे नाचने लगे एवं रुधिरके भयंकर कीचड़में [विचरण करते हुए मांसाहारी जन्तुओंसे सारी रणभूमि भयंकर दिखायी पड़ने लगी। उस समय वीरकद्वारा दैत्योंके विनष्ट हो जानेपर भगवान् सदाशिवने दाक्षायणीको सान्त्वना देकर कहा हे प्रिये मैंने पूर्वमें जिस कठिन महापाशुपत व्रतको किया था, उसे करने जा रहा हूँ ॥ 10-11 ॥

शिवजी बोले- हे देवि ! रात-दिन तुम्हारे साथ प्रसंगके कारण मेरी सेनाका क्षय हो गया, मरणधर्मा दैत्योंके द्वारा मेरी अमर्त्य सेनाका विनाश हुआ, यह किसी पुण्यनाशक ग्रहका ही प्रभाव है ।॥ 12 ॥हे सुन्दरि ! अब मैं वनमें जाकर परम दिव्य एवं अद्भुत वर प्राप्तकर अत्यन्त कठिन व्र करूँगा, तुम पूर्णरूपसे भयरहित तथा शोकविहीन रहना ॥ 13 ॥

सनत्कुमार बोले- इतना वचन कहकर अत्यन्त तेजस्वी महात्मा शंकर [अपने श्रृंगीका] धीरेसे शब्द करके अत्यन्त घोर पुण्यतम वनमें जाकर पाशुपतव्रतका अनुष्ठान करने लगे ॥ 14 ॥

जिस व्रतको देवता एवं दानव भी करनेमें समर्थ नहीं हैं, उसे उन्होंने हजार वर्षपर्यन्त किया। उस समय पतिव्रता तथा शीलगुणसे सम्पन्न पार्वती मन्दर पर्वतपर स्थित हो सदाशिवके आगमनकी प्रतीक्षा करती हुई अकेले गुफाके अन्दर सदा भयभीत तथा दुखी रहा करती थीं, उस समय पुत्र वीरक ही उनकी रक्षा करता था । ll 15-16 ॥

इसके बाद वरदानसे उन्मत्त तथा कामदेवके बाणोंसे धैर्यरहित वह दैत्य बड़ी शीघ्रता से प्रह्लाद आदि दैत्योंके साथ उस गुफाके पास आ गया ॥ 17 ॥

उसने भोजन, पान एवं निद्राका परित्यागकर कुपित हो अपने सैनिकोंको साथ लेकर पाँच-सौ पाँच रात-दिन वीरकके साथ अत्यन्त अद्भुत युद्ध किया। खड्ग, बरछी, भिन्दिपाल, गदा, भुशुण्डी, अर्ध चन्द्रमाके समान, वितस्तिमात्र तथा कछुएके समान मुखवाले प्रकाशमान बाणों, तीक्ष्ण त्रिशूलों, परशु तोमर, मुद्गर, खड्ग, गोले, पर्वत, वृक्ष तथा दिव्यास्त्रोंसे उस वीरकने दैत्योंके साथ युद्ध किया ।। 18-20 ॥

दैत्योंद्वारा चलाये गये उन शस्त्रोंसे गुफाके द्वार बन्द हो गये, कहीं लेशमात्र भी प्रकाश नहीं रहा, वीरक भी शस्त्रोंकी चोटसे आहत होकर गुफाके द्वारपर मूच्छित होकर गिर पड़ा ॥ 21 ॥सभी दैत्योंसे तथा उनके अस्त्रोंसे मुहूर्तमात्रके लिये वीरकको आच्छादित देखकर तथा यह देखकर कि यह भयंकर दैत्योंको हटा नहीं पा रहा है, गुफामें स्थित देवीने भयपूर्वक सखियोंके साथ ब्रह्मा, विष्णु तथा समस्त गणोंकी सेनाका स्मरण किया ।। 22-23 ।।

उनके स्मरणमात्रसे ही ब्रह्मा, भगवान् विष्णु तथा इन्द्र सभी सैनिकोंके साथ स्त्रीरूप धारणकर वहाँ आ गये। स्त्री बनकर वे देवता, मुनि, महात्मा, सिद्ध, नाग तथा गुह्यक पर्वतराजकी पुत्रीकी गुफाके भीतर प्रविष्ट हुए ।। 24-25 ॥

उनके स्त्रीरूप धारण करनेका कारण यह था कि उत्तम राजाके आसनस्थ होनेपर उसके अन्तः पुरमें पुरुषवेशमें जाना निषिद्ध है, इसलिये वे स्वीसमूहके रूपमें एकत्रित हो गये। वीरकार्य करनेवाली ये अद्भुत रूपवाली स्त्रियाँ जब पार्वतीकी गुफामें प्रविष्ट हुई, तो उन स्त्रियोंको देखकर पार्वती अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं ।। 26-27 ।।

उस समय सैकड़ों हजारों नितम्बिनी स्त्रियोंके द्वारा प्रलयकालीन प्रचण्ड मेघके समान घोषवाली तथा विजय देनेवाली हजारों भेरियाँ और शंख बजाये गये ॥ 28 ॥

अद्भुत तथा प्रचण्ड पराक्रमवाला वीरक भी मूर्च्छा त्यागकर शस्त्रको लेकर महारथियोंके आगे खड़ा हो गया और उन्हीं शस्त्रोंसे दैत्योंका वध करने लगा ।। 29 ।।

उस समय हाथमें दण्ड लिये हुए ब्राह्मी, क्रोधसे युक्त चित्तवाली गौरी, अपने हाथोंमें शंख, गदा, चक्र तथा धनुष धारण की हुई नारायणी, हाथमें लांगल, | दण्ड लिये कांचनके समान वर्णवाली व्योमालकातथा हाथमें हजारों धारवाले, प्रचण्ड वेगसे युक्त, उग्र वेगवाले वज्रको लिये हुए ऐन्द्री युद्धहेतु निकल पड़ीं ॥ 30-31 ॥

हजार नेत्रोंवाली, युद्धमें निश्चल रहनेवाली, अत्यन्त दुर्जय, सैकड़ों दैत्योंसे कभी पराजित न होनेवाली तथा भयंकर मुखवाली वैश्वानरी तथा हाथमें दण्ड लिये हुए उग्र याम्या शक्ति भी युद्धमें प्रवृत्त हो गयीं ॥ 32 ॥

हाथमें अत्यन्त तीक्ष्ण तलवार तथा घोर धनुष लेकर निर्ऋति शक्ति आय वरुणका पाश हाथमें धारणकर युद्धको अभिलाषा करती हुई तोयालिका निकल पड़ीं। प्रचण्ड पवनकी महाशक्ति भूखसे व्याकुल हो हाथमें अंकुश लेकर एवं कुबेरकी शक्ति हाथमें प्रलयकालकी अग्निके समान गदा लेकर बुद्धभूमिमें आ पहुंचीं तीक्ष्ण मुखवाली, कुरुपा नखरूप आयुधवाली, नागके समान भयंकर यक्षेश्वरी आदि देवियाँ तथा इसी प्रकारकी अन्य सैकड़ों देवियाँ संग्रामभूमिमें निकल पड़ीं ।। 33-35 ।।

उसकी अपार सेना देखकर वे देवियाँ विस्मित, भयसे व्याकुल, फौके वर्णवाली तथा अत्यन्त कातर हो गयीं। उसके बाद ब्रह्माणी आदि सभी देवशक्तियोंने पार्वतीकी सम्मतिसे अपने मनको समाहितकर वीरकको अपना सेनापति बनाया। इसके बाद वरदानसे शक्तिसम्पन्न प्रधान दैत्य मनमें यह विचारकर अभूतपूर्व युद्ध करने लगे कि आज इन नारियोंसे हम मृत्युको प्राप्त होंगे अथवा इनपर विजय प्राप्त करेंगे। उस समय संग्रामभूमिमें अद्भुत बुद्धिसम्पन्न वीरकको अपना सेनापति बनाकर पार्वतीने सखियोंके साथ युद्धमें अद्भुत युद्धकौशल दिखलाया ॥ 36- 39 ॥

महापराक्रमी हिरण्याक्षपुत्र राजा अन्धकने भी महाव्यूहकी रचना की और विष्णुकी सम्भावना करके यमकी शक्तिको अवस्थित देखकर [उनसे लड़नेके लिये] महाभयंकर गिल नामक राक्षसको नियुक्त किया ॥ 40 ॥ब्रह्माजीकी सेवा करनेसे उसका मुख अत्यन्त विकराल हो गया था, इसीलिये उसे मारनेके लिये भगवान् विष्णु आये। उसी समय हजार वर्ष बीत जानेपर प्रलयकालीन हजारों सूर्यके समान कान्तिवाले व्याघ्रचर्मधारी भगवान् शिवजी भी कुपित होकर युद्धभूमिमें आये तब उन महेश्वरको युद्धभूमिमें आया देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई उन स्त्रियोंने वीरकको साथ लेकर महायुद्ध किया ।। 41-42 ।।

उस समय सिर झुकाकर सदाशिवको प्रणाम करके पतिका पराक्रम प्रदर्शित करती हुई गौरीने प्रसन्नतापूर्वक घोर युद्ध किया। उसके बाद शंकरजी पार्वतीको हृदयसे लगाकर गुफरके भीतर प्रविष्ट हो गये। पार्वतीने उन हजारों स्त्रियोंको अनेक प्रकारसे सम्मानितकर विदा किया और वीरकको गुफाके द्वारपर रहने दिया ॥ 43-44 ।।

उसके बाद नीतिमें विचक्षण उस असुरने गौरी | एवं गिरीशको संग्रामभूमिमें न देखकर शिवजी के पास विघस नामक अपना दूत भेजा ॥ 45 ॥

उस संग्राममें देवताओंके प्रहारसे क्षत-विक्षत शरीरवाले उस दैत्यने शिवजीके पास जाकर उन्हें | सिरसे प्रणामकर गर्वयुक्त कठोर वचन कहा- ॥ 46 ॥ दूत बोला- हे शम्भो अन्धकद्वारा भेजा गया मैं इस गुफा में प्रविष्ट हुआ हूँ। उस अन्धकने आपको सन्देश भेजा है कि तुम्हें स्त्रीसे कोई प्रयोजन नहीं है, अतः इस रूपवती युवती नारीको शीघ्र त्याग दो ॥ 47 ॥

प्रायः आप तपस्वीको अन्तःकरणको भूषित करनेवाले क्षमा आदि गुणोंका सेवन करना चाहिये । मुनियोंसे विरोध नहीं करना चाहिये- ऐसा विचारकर मैं तुमसे विरोध नहीं करना चाहता, वस्तुतः तुम तपस्वी मुनि नहीं हो, किंतु शत्रु हो । हे धूर्त तापस! तुम हम दैत्योंके महाविरोधी शत्रु हो, अतः शीघ्रतासे मेरे साथ युद्ध करो, मैं आज ही तुम्हारा वध करके तुम्हें रसातल पहुँचाता हूँ। ll 48-49 ॥सनत्कुमार बोले- दूतके मुखसे ये वचन सुनकर सज्जनोंके रक्षक, दुष्टोंके मदको नष्ट त्रिनेत्र करनेवाले, कपालमाली, महान्, शम्भु शोकाग्निसे जलते हुए बड़े क्रोधसे उस दूतसे कहने लगे - ॥50॥

शिवजी बोले - [हे दूत!] तुमने जो बात कही है, वह बड़ी कठोर है। अब तुम शीघ्र चले जाओ और उससे कहो-यदि तुम बलवान् हो तो शीघ्र आकर मेरे साथ बलपूर्वक युद्ध करो ॥ 51 ॥

इस पृथ्वीपर जो अशक्त है, उसे मनोहर स्त्री तथा धनसे क्या प्रयोजन ? बलसे मत्त दैत्य आ जायँ; मैंने यह निश्चय किया है। अशक्त पुरुष तो शरीरयात्रामें भी असमर्थ हैं, अतः उनके लिये जो विहित हो, उसे करें और मुझे भी जो करना है, उसे मैं करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 52-53 ॥

सनत्कुमार बोले- शिवजीसे यह वचन सुनकर वह विघस भी प्रसन्न होकर वहाँसे निकल पड़ा और उसके बाद गर्जनापूर्वक हुंकार भरता हुआ दैत्यपतिके पास गया ॥ 54 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य