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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 42 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 42

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अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना

नारदजी बोले शंखचूडके वधसे सम्बद्ध महादेवजीके चरित्रको सुनकर मैं उसी प्रकार तृप्त नहीं हो रहा हूँ, जिस प्रकार कोई व्यक्ति अमृतका पानकर तृप्त नहीं होता। इसलिये हे ब्रह्मन्! मायाका आश्रय लेकर भक्तोंको आनन्द प्रदान करनेवाली उत्तम | लीला करनेवाले उन महात्मा महेशका जो चरित है, उसे आप मुझसे कहिये ॥ 1-2 ॥

ब्रह्माजी बोले- शंखचूडका वध सुननेके पश्चात् सत्यवतीसुत व्यासजीने ब्रह्मपुत्र मुनीश्वर सनत्कुमारसे भी यही बात पूछी थी। व्यासकी प्रशंसा करके सनत्कुमारने मंगलदायक महेश्वरचरित्रको कहा था ।। 3-4 ।।

सनत्कुमार बोले - [ हे व्यास!] आप शंकरजीके मंगलदायक उस चरित्रको सुनिये, जिसमें अन्धकने परमात्मा शंकरके गाणपत्यपदको प्राप्त किया ॥ 5 ॥

हे मुनीश्वर पहले तो उसने शंकरजीसे घोर युद्ध किया। उसके बाद अपने सात्विक भावसे वारंवार उन्हें प्रसन्न किया। शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले, परम भक्तवत्सल तथा नाना प्रकारकी लीला करनेवाले शंकरका माहात्म्य अद्भुत है। शंकरके इस प्रकारके माहात्म्यको सुनकर सत्यवतीसुत व्यासजीने मुनीश्वर सनत्कुमारजीको प्रणाम किया, फिर भक्तिभावसे विनम्र हो ब्रह्मपुत्र मुनीश्वरसे महान् अर्थपूर्ण वाणीमें कहा- ll 6-8 ॥

व्यासजी बोले- हे भगवन्! हे मुनीश्वर! यह अन्धक कौन था? इस पृथ्वीपर उसने किसके | वंशमें जन्म लिया ? वह किस कारणसे इतना बलवान् तथा महात्मा हुआ तथा वह किस नामवाला तथा किसका पुत्र था ? ॥ 9 ॥

हे भगवन्! ब्रह्मपुत्र ! अब आप इन सारे रहस्योंका वर्णन कीजिये। वैसे तो अनन्तज्ञान | सम्पन्न महेशपुत्र स्कन्दके द्वारा मैं इन बातोंको जानता हूँ ॥ 10 ॥महातेजस्वी शंकरकी कृपासे उसने गाणपत्य पदको किस प्रकार प्राप्त किया। वस्तुतः वह अन्धक महाधन्य है, जो उसे गाणपत्यकी प्राप्ति हुई ॥ 11 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे नारद! व्यासजीके इस प्रकारके वचनको सुनकर ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारने महामंगलदायक शिवजीके चरित्रको सुननेकी इच्छावाले शुकदेवजीके पिता [ व्यास ] से कहा ॥ 12

सनत्कुमार बोले- किसी समय देवसम्राट् भक्तवत्सल भगवान् शंकर अपने गणों तथा पार्वतीको साथ लेकर कैलाससे बिहार करनेके लिये काशी आये ।। 13 ।।

उन्होंने काशीको अपनी राजधानी बनाया, भैरवको उसका रक्षक नियुक्त किया तथा पार्वतीके साथ मनुष्योंको आनन्द देनेवाली नाना प्रकारको लीलाएँ करने लगे ॥ 14 ॥

किसी समय वरदानके कारण वे अपने गणोंके साथ मन्दराचलपर गये और वहाँपर पार्वतीके साथ विहार करनेमें प्रवृत्त हो गये। उसके बाद पार्वतीने नमक्रीडा [प्रेम-परिहास] करते हुए | मन्दराचलपर पूर्व दिशाकी ओर मुखकर बैठे हुए चण्ड पराक्रमवाले सदाशिवके नेत्र सोलापूर्वक बन्द कर दिये ।। 15-16 ॥

मूँगे तथा स्वर्णकमलकी कान्तिसे युक्त अपनी दोनों भुजाओंसे जब पार्वतीने उनके नेत्र बन्द कर दिये, तब शिवजीके नेत्रोंके बन्द हो जानेपर क्षणभरमें घोर अन्धकार छा गया। तब सदाशिवके ललाटका स्पर्श करते ही उनके ललाटपर स्थित अग्निकी उष्णतासे पार्वतीके दोनों हाथोंसे स्वेदविन्दु टपकने लगे ।। 17-18 ॥

तब उससे एक बालक उत्पन्न हुआ, जो भयंकर, विकराल मुखवाला महाक्रोधी कृतन अन्धा, जटाधारी, कृष्णवर्णवाला, कुरूप, मनुष्यसे भिन्न स्वरूपवाला, विकृत तथा बहुत रोमोंसे युक था 19 ॥उत्पन्न होते ही उसने गाना, हँसना, नाचना, रोना तथा जीभ चाटना प्रारम्भ किया और वह महाघोर शब्द करने लगा। विचित्र दर्शनवाले उस बालकके उत्पन्न होते ही शंकरजीने गौरीसे हँसते हुए कहा- ॥ 20 ॥

श्रीमहेश बोले- हे प्रिये! तुमने मेरे नेत्रोंको बन्दकर जो कर्म किया है, अब उससे भयभीत क्यों हो रही हो ? महादेवजीके इस वचनको सुनकर हँसती हुई गौरीने उनके नेत्रोंको छोड़ दिया। तब प्रकाश हो जानेपर वह अन्धा पुरुष अन्धकारसे भी अधिक घोर रूपवाला हो गया। तब इस प्रकारके रूपवाले उस पुरुषको देखकर गौरीने महेश्वरसे पूछा- ॥ 21-22 ॥

गौरी बोलीं- हे भगवन्! हम दोनोंके सामने यह घोर, भयंकर तथा विकृताकार कौन उत्पन्न हो गया है? आप मुझसे सत्य कहिये, किस कारणसे तथा किसने इसकी सृष्टि की है, यह किसका पुत्र है ? ॥ 23 ॥

सनत्कुमार बोले- लीला करनेवाले एवं अन्धकको उत्पन्न करनेवाले भगवान् शंकरने लीला करनेवाली जगजननी प्रिया पार्वतीकी बात सुनकर हँसते हुए कहा- ll 24 ॥

महेश बोले- अद्भुत चरित्र करनेवाली हे अम्बिके! तुम्हारे द्वारा मेरे नेत्रोंके बन्द कर दिये जानेपर तुम्हारे हाथोंके स्वेदकणसे उत्पन्न यह अद्भुत महापराक्रमशाली अन्धक नामवाला असुर प्रकट हुआ है ॥ 25 ॥

तुम्हीं इसकी जन्मदात्री हो, अतः हे आयें! तुम्हीं दयापूर्वक अपनी सखियोंके साथ गणोंसे इसकी रक्षा करो और बुद्धिसे विचारकर इसके विषयमें जो करना चाहती हो, उसे करो ॥ 26 ॥

सनत्कुमार बोले- तदनन्तर अपने पतिके इस वचनको सुनकर गौरी [अपनी] सखियोंके साथ | दयाभावसे अनेक प्रकारके उपायोंसे अपने पुत्रकी रक्षा करने लगीं ॥ 27 ॥एक बार शिशिरकाल उपस्थित होनेपर अपने बड़े भाईकी सन्ततिवृद्धिको देखकर अपनी स्त्रीसे प्रेरित होकर पुत्रकी कामनावाला हिरण्याक्ष [तपस्या करनेके लिये] वहाँ पहुँचा ll 28 ॥

वह कश्यपपुत्र असुर वनका आश्रय लेकर क्रोधादि दोषोंको जीतकर पुत्रप्राप्तिके निमित्त काष्ठके समान स्थिर होकर शंकरजीके दर्शनहेतु तप करने लगा ॥ 29 ॥

हे द्विजेन्द्र तब उसकी तपस्यासे पूर्ण रूपसे प्रसन्न होकर शंकरजी वर देनेके लिये गये। उस स्थानपर आकर वे वृषध्वज महेश उस दैत्य श्रेष्ठसे बोले - ॥ 30 ॥

महेश बोले- हे दैत्यराज! तुम अपनी इन्द्रियोंको कष्ट मत दो, तुम किस निमित्त यह व्रत कर रहे हो। तुम अपना मनोरथ कहो, मैं शंकर तुम्हें वर दूँगा। तुम जो चाहते हो, वह सब मैं दूँगाll 31 ॥

सनत्कुमार बोले -शिवजीका यह सरस वचन सुनकर वह दैत्य हिरण्याक्ष अत्यन्त प्रसन्न हो गया और हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर एवं नमस्कार करके विविध स्तुतिपूर्वक शंकरजीसे कहने लगा- ll 32 ॥

हिरण्याक्ष बोला- हे चन्द्रमौले! मुझे दैत्यवंशके योग्य एवं अति पराक्रमी कोई पुत्र नहीं है, उसीके लिये मैं इस तपस्यामें प्रवृत्त हुआ हूँ। अतः हे देवेश ! आप मुझे महाबलवान् पुत्र प्रदान कीजिये; क्योंकि मेरे भाईको प्रह्लाद आदि पाँच महाबलवान् पुत्र हैं, मुझे पुत्र नहीं है, मैं वंशहीन हो गया हूँ, अतः मेरे इस राज्यका भोग कौन करेगा ? जो अपने बाहुबलसे दूसरेके राज्यको अपने अधिकारमें करके उसका भोग करता है अथवा पिताके राज्यका उपभोग करता है, वही इस लोकमें तथा परलोकमें पुत्र कहा जाता है और उसी पुत्रसे पिता भी पुत्रवान् होता है ॥ 33-35 ॥वरिष्ठ धर्मज्ञ ऋषियोंने पुत्रवानोंकी ही उगति कही है, इसीलिये सभी प्राणी उसीके लिये कामना करते हैं, अन्यथा मरनेके पश्चात् वह तेज पशुओंमें चला जाता है अर्थात् व्यर्थ हो जाता है। पुत्रहीनको उत्तम लोक नहीं प्राप्त होता है, इसलिये लोग उसके लिये इच्छा रखते हैं और देवताओंके चरण कमलकी आराधनाकर उनसे एक पुत्रकी भी याचना करते हैं ।। 36-37 ॥

सनत्कुमार बोले- तब कृपालु शंकर दैत्यराजके उस वचनको सुनकर प्रसन्न हो गये और उससे बोले- हे दैत्यराज यद्यपि तुम्हारे वीर्यसे पुत्र उत्पन्न नहीं होगा, फिर भी मैं तुम्हें पुत्र प्रदान करता हूँ ॥ 38 ॥

तुम अन्धक नामक मेरे पुत्रका वरण कर लो, जो तुम्हारे ही समान बलवान् और अजेय है। तुम सब दुःखोंको त्यागकर उसीको अपना पुत्र मान लो ।। 39 ।। इस प्रकार कहकर प्रसन्न होकर पार्वतीसहित त्रिपुरारि उग्ररूप महात्मा शंकरने उस हिरण्याक्षको पुत्र प्रदान कर दिया ॥ 40 ॥

इसके बाद वह महात्मा दैत्य शंकरसे पुत्र प्राप्तकर यथाक्रम उनकी प्रदक्षिणाकर तथा अनेक स्तोत्रोंसे रुद्रकी स्तुतिकर प्रसन्न होकर अपने राज्यको चला गया ।। 49 ll

तदनन्तर प्रचण्ड पराक्रमी वह दैत्य सदाशिवसे पुत्र प्राप्तकर सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर इस पृथ्वीको अपने देश पातालमें लेकर चला गया ।। 42 ll

उसके अनन्तर देवताओं, मुनियों एवं सिद्धोंने सर्वात्मक, यज्ञमय तथा महाविकराल प्रधान वाराहरूपका आश्रय लेकर अनन्त पराक्रमवाले विष्णुका आराधन किया ॥ 43 ॥

तब अपनी नासिकाके विविध प्रहारोंसे पृथ्वीको विदीर्णकर पातालमें प्रविष्ट हो तुण्डके द्वारा तथा अखण्डित दाढ़ोंके अग्रभागसे सैकड़ों दैत्योंको चूर्ण करके बड़के समान कठोर पादप्रहारों सेनिशाचरोंकी सेनाओंको मथकर करोड़ों सूर्योके समान जाज्वल्यमान अपने सुदर्शनसे अद्भुत तथा प्रचण्ड तेजवाले विष्णुने हिरण्याक्षके तेजस्वी सिरको काट दिया और दैत्योंको जला भी दिया। हिरण्याक्षके मर जानेपर उन्होंने प्रसन्न होकर अन्धकको राज्यपदपर अभिषिक्त कर दिया ।। 44 - 46 ॥

इस प्रकार महात्मा विष्णु पातालतलसे पृथ्वीका उद्धारकर अपनी दाढ़ोंके अग्रभागसे पृथ्वीको पुनः अपने स्थानपर प्रतिष्ठितकर परम प्रसन्न हो गये और पूर्वकी भाँति उसकी रक्षा करने लगे। प्रसन्न हुए समस्त देवता, मुनि तथा ब्रह्माजीने उनकी स्तुति की। उसके बाद उग्र शरीरवाले तथा उत्तम कार्य करनेवाले वराहरूपधारी विष्णु अपने लोकको चले गये ॥ 47-48 ।।

इस प्रकार वराहरूप विष्णुदेवके द्वारा दैत्यराज हिरण्याक्षके मारे जानेसे सभी देवता, मुनि तथा अन्य सभी जीव सुखी हो गये ।। 49 ।।

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य