नारदजी बोले शंखचूडके वधसे सम्बद्ध महादेवजीके चरित्रको सुनकर मैं उसी प्रकार तृप्त नहीं हो रहा हूँ, जिस प्रकार कोई व्यक्ति अमृतका पानकर तृप्त नहीं होता। इसलिये हे ब्रह्मन्! मायाका आश्रय लेकर भक्तोंको आनन्द प्रदान करनेवाली उत्तम | लीला करनेवाले उन महात्मा महेशका जो चरित है, उसे आप मुझसे कहिये ॥ 1-2 ॥
ब्रह्माजी बोले- शंखचूडका वध सुननेके पश्चात् सत्यवतीसुत व्यासजीने ब्रह्मपुत्र मुनीश्वर सनत्कुमारसे भी यही बात पूछी थी। व्यासकी प्रशंसा करके सनत्कुमारने मंगलदायक महेश्वरचरित्रको कहा था ।। 3-4 ।।
सनत्कुमार बोले - [ हे व्यास!] आप शंकरजीके मंगलदायक उस चरित्रको सुनिये, जिसमें अन्धकने परमात्मा शंकरके गाणपत्यपदको प्राप्त किया ॥ 5 ॥
हे मुनीश्वर पहले तो उसने शंकरजीसे घोर युद्ध किया। उसके बाद अपने सात्विक भावसे वारंवार उन्हें प्रसन्न किया। शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले, परम भक्तवत्सल तथा नाना प्रकारकी लीला करनेवाले शंकरका माहात्म्य अद्भुत है। शंकरके इस प्रकारके माहात्म्यको सुनकर सत्यवतीसुत व्यासजीने मुनीश्वर सनत्कुमारजीको प्रणाम किया, फिर भक्तिभावसे विनम्र हो ब्रह्मपुत्र मुनीश्वरसे महान् अर्थपूर्ण वाणीमें कहा- ll 6-8 ॥
व्यासजी बोले- हे भगवन्! हे मुनीश्वर! यह अन्धक कौन था? इस पृथ्वीपर उसने किसके | वंशमें जन्म लिया ? वह किस कारणसे इतना बलवान् तथा महात्मा हुआ तथा वह किस नामवाला तथा किसका पुत्र था ? ॥ 9 ॥
हे भगवन्! ब्रह्मपुत्र ! अब आप इन सारे रहस्योंका वर्णन कीजिये। वैसे तो अनन्तज्ञान | सम्पन्न महेशपुत्र स्कन्दके द्वारा मैं इन बातोंको जानता हूँ ॥ 10 ॥महातेजस्वी शंकरकी कृपासे उसने गाणपत्य पदको किस प्रकार प्राप्त किया। वस्तुतः वह अन्धक महाधन्य है, जो उसे गाणपत्यकी प्राप्ति हुई ॥ 11 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे नारद! व्यासजीके इस प्रकारके वचनको सुनकर ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारने महामंगलदायक शिवजीके चरित्रको सुननेकी इच्छावाले शुकदेवजीके पिता [ व्यास ] से कहा ॥ 12
सनत्कुमार बोले- किसी समय देवसम्राट् भक्तवत्सल भगवान् शंकर अपने गणों तथा पार्वतीको साथ लेकर कैलाससे बिहार करनेके लिये काशी आये ।। 13 ।।
उन्होंने काशीको अपनी राजधानी बनाया, भैरवको उसका रक्षक नियुक्त किया तथा पार्वतीके साथ मनुष्योंको आनन्द देनेवाली नाना प्रकारको लीलाएँ करने लगे ॥ 14 ॥
किसी समय वरदानके कारण वे अपने गणोंके साथ मन्दराचलपर गये और वहाँपर पार्वतीके साथ विहार करनेमें प्रवृत्त हो गये। उसके बाद पार्वतीने नमक्रीडा [प्रेम-परिहास] करते हुए | मन्दराचलपर पूर्व दिशाकी ओर मुखकर बैठे हुए चण्ड पराक्रमवाले सदाशिवके नेत्र सोलापूर्वक बन्द कर दिये ।। 15-16 ॥
मूँगे तथा स्वर्णकमलकी कान्तिसे युक्त अपनी दोनों भुजाओंसे जब पार्वतीने उनके नेत्र बन्द कर दिये, तब शिवजीके नेत्रोंके बन्द हो जानेपर क्षणभरमें घोर अन्धकार छा गया। तब सदाशिवके ललाटका स्पर्श करते ही उनके ललाटपर स्थित अग्निकी उष्णतासे पार्वतीके दोनों हाथोंसे स्वेदविन्दु टपकने लगे ।। 17-18 ॥
तब उससे एक बालक उत्पन्न हुआ, जो भयंकर, विकराल मुखवाला महाक्रोधी कृतन अन्धा, जटाधारी, कृष्णवर्णवाला, कुरूप, मनुष्यसे भिन्न स्वरूपवाला, विकृत तथा बहुत रोमोंसे युक था 19 ॥उत्पन्न होते ही उसने गाना, हँसना, नाचना, रोना तथा जीभ चाटना प्रारम्भ किया और वह महाघोर शब्द करने लगा। विचित्र दर्शनवाले उस बालकके उत्पन्न होते ही शंकरजीने गौरीसे हँसते हुए कहा- ॥ 20 ॥
श्रीमहेश बोले- हे प्रिये! तुमने मेरे नेत्रोंको बन्दकर जो कर्म किया है, अब उससे भयभीत क्यों हो रही हो ? महादेवजीके इस वचनको सुनकर हँसती हुई गौरीने उनके नेत्रोंको छोड़ दिया। तब प्रकाश हो जानेपर वह अन्धा पुरुष अन्धकारसे भी अधिक घोर रूपवाला हो गया। तब इस प्रकारके रूपवाले उस पुरुषको देखकर गौरीने महेश्वरसे पूछा- ॥ 21-22 ॥
गौरी बोलीं- हे भगवन्! हम दोनोंके सामने यह घोर, भयंकर तथा विकृताकार कौन उत्पन्न हो गया है? आप मुझसे सत्य कहिये, किस कारणसे तथा किसने इसकी सृष्टि की है, यह किसका पुत्र है ? ॥ 23 ॥
सनत्कुमार बोले- लीला करनेवाले एवं अन्धकको उत्पन्न करनेवाले भगवान् शंकरने लीला करनेवाली जगजननी प्रिया पार्वतीकी बात सुनकर हँसते हुए कहा- ll 24 ॥
महेश बोले- अद्भुत चरित्र करनेवाली हे अम्बिके! तुम्हारे द्वारा मेरे नेत्रोंके बन्द कर दिये जानेपर तुम्हारे हाथोंके स्वेदकणसे उत्पन्न यह अद्भुत महापराक्रमशाली अन्धक नामवाला असुर प्रकट हुआ है ॥ 25 ॥
तुम्हीं इसकी जन्मदात्री हो, अतः हे आयें! तुम्हीं दयापूर्वक अपनी सखियोंके साथ गणोंसे इसकी रक्षा करो और बुद्धिसे विचारकर इसके विषयमें जो करना चाहती हो, उसे करो ॥ 26 ॥
सनत्कुमार बोले- तदनन्तर अपने पतिके इस वचनको सुनकर गौरी [अपनी] सखियोंके साथ | दयाभावसे अनेक प्रकारके उपायोंसे अपने पुत्रकी रक्षा करने लगीं ॥ 27 ॥एक बार शिशिरकाल उपस्थित होनेपर अपने बड़े भाईकी सन्ततिवृद्धिको देखकर अपनी स्त्रीसे प्रेरित होकर पुत्रकी कामनावाला हिरण्याक्ष [तपस्या करनेके लिये] वहाँ पहुँचा ll 28 ॥
वह कश्यपपुत्र असुर वनका आश्रय लेकर क्रोधादि दोषोंको जीतकर पुत्रप्राप्तिके निमित्त काष्ठके समान स्थिर होकर शंकरजीके दर्शनहेतु तप करने लगा ॥ 29 ॥
हे द्विजेन्द्र तब उसकी तपस्यासे पूर्ण रूपसे प्रसन्न होकर शंकरजी वर देनेके लिये गये। उस स्थानपर आकर वे वृषध्वज महेश उस दैत्य श्रेष्ठसे बोले - ॥ 30 ॥
महेश बोले- हे दैत्यराज! तुम अपनी इन्द्रियोंको कष्ट मत दो, तुम किस निमित्त यह व्रत कर रहे हो। तुम अपना मनोरथ कहो, मैं शंकर तुम्हें वर दूँगा। तुम जो चाहते हो, वह सब मैं दूँगाll 31 ॥
सनत्कुमार बोले -शिवजीका यह सरस वचन सुनकर वह दैत्य हिरण्याक्ष अत्यन्त प्रसन्न हो गया और हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर एवं नमस्कार करके विविध स्तुतिपूर्वक शंकरजीसे कहने लगा- ll 32 ॥
हिरण्याक्ष बोला- हे चन्द्रमौले! मुझे दैत्यवंशके योग्य एवं अति पराक्रमी कोई पुत्र नहीं है, उसीके लिये मैं इस तपस्यामें प्रवृत्त हुआ हूँ। अतः हे देवेश ! आप मुझे महाबलवान् पुत्र प्रदान कीजिये; क्योंकि मेरे भाईको प्रह्लाद आदि पाँच महाबलवान् पुत्र हैं, मुझे पुत्र नहीं है, मैं वंशहीन हो गया हूँ, अतः मेरे इस राज्यका भोग कौन करेगा ? जो अपने बाहुबलसे दूसरेके राज्यको अपने अधिकारमें करके उसका भोग करता है अथवा पिताके राज्यका उपभोग करता है, वही इस लोकमें तथा परलोकमें पुत्र कहा जाता है और उसी पुत्रसे पिता भी पुत्रवान् होता है ॥ 33-35 ॥वरिष्ठ धर्मज्ञ ऋषियोंने पुत्रवानोंकी ही उगति कही है, इसीलिये सभी प्राणी उसीके लिये कामना करते हैं, अन्यथा मरनेके पश्चात् वह तेज पशुओंमें चला जाता है अर्थात् व्यर्थ हो जाता है। पुत्रहीनको उत्तम लोक नहीं प्राप्त होता है, इसलिये लोग उसके लिये इच्छा रखते हैं और देवताओंके चरण कमलकी आराधनाकर उनसे एक पुत्रकी भी याचना करते हैं ।। 36-37 ॥
सनत्कुमार बोले- तब कृपालु शंकर दैत्यराजके उस वचनको सुनकर प्रसन्न हो गये और उससे बोले- हे दैत्यराज यद्यपि तुम्हारे वीर्यसे पुत्र उत्पन्न नहीं होगा, फिर भी मैं तुम्हें पुत्र प्रदान करता हूँ ॥ 38 ॥
तुम अन्धक नामक मेरे पुत्रका वरण कर लो, जो तुम्हारे ही समान बलवान् और अजेय है। तुम सब दुःखोंको त्यागकर उसीको अपना पुत्र मान लो ।। 39 ।। इस प्रकार कहकर प्रसन्न होकर पार्वतीसहित त्रिपुरारि उग्ररूप महात्मा शंकरने उस हिरण्याक्षको पुत्र प्रदान कर दिया ॥ 40 ॥
इसके बाद वह महात्मा दैत्य शंकरसे पुत्र प्राप्तकर यथाक्रम उनकी प्रदक्षिणाकर तथा अनेक स्तोत्रोंसे रुद्रकी स्तुतिकर प्रसन्न होकर अपने राज्यको चला गया ।। 49 ll
तदनन्तर प्रचण्ड पराक्रमी वह दैत्य सदाशिवसे पुत्र प्राप्तकर सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर इस पृथ्वीको अपने देश पातालमें लेकर चला गया ।। 42 ll
उसके अनन्तर देवताओं, मुनियों एवं सिद्धोंने सर्वात्मक, यज्ञमय तथा महाविकराल प्रधान वाराहरूपका आश्रय लेकर अनन्त पराक्रमवाले विष्णुका आराधन किया ॥ 43 ॥
तब अपनी नासिकाके विविध प्रहारोंसे पृथ्वीको विदीर्णकर पातालमें प्रविष्ट हो तुण्डके द्वारा तथा अखण्डित दाढ़ोंके अग्रभागसे सैकड़ों दैत्योंको चूर्ण करके बड़के समान कठोर पादप्रहारों सेनिशाचरोंकी सेनाओंको मथकर करोड़ों सूर्योके समान जाज्वल्यमान अपने सुदर्शनसे अद्भुत तथा प्रचण्ड तेजवाले विष्णुने हिरण्याक्षके तेजस्वी सिरको काट दिया और दैत्योंको जला भी दिया। हिरण्याक्षके मर जानेपर उन्होंने प्रसन्न होकर अन्धकको राज्यपदपर अभिषिक्त कर दिया ।। 44 - 46 ॥
इस प्रकार महात्मा विष्णु पातालतलसे पृथ्वीका उद्धारकर अपनी दाढ़ोंके अग्रभागसे पृथ्वीको पुनः अपने स्थानपर प्रतिष्ठितकर परम प्रसन्न हो गये और पूर्वकी भाँति उसकी रक्षा करने लगे। प्रसन्न हुए समस्त देवता, मुनि तथा ब्रह्माजीने उनकी स्तुति की। उसके बाद उग्र शरीरवाले तथा उत्तम कार्य करनेवाले वराहरूपधारी विष्णु अपने लोकको चले गये ॥ 47-48 ।।
इस प्रकार वराहरूप विष्णुदेवके द्वारा दैत्यराज हिरण्याक्षके मारे जानेसे सभी देवता, मुनि तथा अन्य सभी जीव सुखी हो गये ।। 49 ।।