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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 44 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 44

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अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर

क्रुद्ध हो युद्धके लिये उद्योग करना


सनत्कुमार बोले- किसी समय जब हिरण्याक्षपुत्र अन्धक भाइयोंके साथ खेल रहा था, तब क्रीड़ामें आसक्त तथा मदान्ध उसके भाइयोंने [उपहास करते हुए] उससे कहा- हे अन्धक! तुम्हें राज्यसे क्या प्रयोजन ? ॥ 1 ॥

[तुम्हारा पिता ] हिरण्याक्ष निश्चय ही बड़ा मूर्ख था, जिसने घोर तपस्याके द्वारा शिवजीको प्रसन्नकर तुम्हारे जैसा कलहप्रिय, अन्धा, विकृत एवं कुरूप पुत्र प्राप्त किया। तुम निश्चय ही राज्यके भागी नहीं हो। क्या दूसरेसे उत्पन्न हुआ व्यक्ति राज्यका अधिकारी बन सकता है ? तुम्हीं विचार करो, उसके अधिकारी तो सचमुच हमलोग ही हैं ॥ 2-3 ॥

सनत्कुमार बोले- उनके उन वचनोंको वह बुद्धिसे स्वयं विचार करके दीन हो गया और उन्हें नाना प्रकारके वचनोंसे सान्त्वना देकर रातमें ही अकेले निर्जन वनको चला गया। वहाँ निराहार रहकर वह एक पैरपर खड़ा हो दोनों भुजाओंको उठाकर दस हजार वर्षपर्यन्त घोर तप एवं मन्त्रका जप करने लगा, जो देवता एवं राक्षसोंसे भी सम्भव नहीं था।वह अग्नि जलाकर तीक्ष्ण शस्त्रसे अपने शरीरसे मांस काटकर वर्षपर्यन्त प्रतिदिन मन्त्रपूर्वक रक्तयुक्त मांसका होम करने लगा ।। 4-6 ।।

जब उसके शरीरमें मांस नहीं रह गया, केवल स्नायु एवं अस्थिमात्र शेष रह गया, समस्त रक्त नष्ट हो गया, तब उसने अपने शरीरको ही अग्निमें डाल देनेका विचार किया। उसके अनन्तर सभी देवता अत्यन्त विस्मित एवं भयभीत होकर उसकी ओर देखने लगे, तब उन देवताओंने ब्रह्माजीको नमस्कारकर अनेक स्तुतियोंसे शीघ्र ही उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्माने उसे तपस्यासे विरत करके कहा- हे दानव! आज तुम वर माँगो, समस्त लोकमें जो दुर्लभ है एवं जिसकी प्राप्तिके लिये तुम इच्छुक हो, उस वरको मुझसे प्राप्त कर लो ॥ 7-9 ॥

ब्रह्माके इस वचनको सुनकर दीन एवं विनम्र होकर उस दैत्यने कहा- हे ब्रह्मन् ! प्रह्लाद आदि मेरे जिन निष्ठुर भाइयोंने मेरा राज्य छीन लिया है, वे मेरे सेवक हों ॥ 10 ॥

मुझ अन्धेको दिव्य नेत्रकी प्राप्ति हो जाय एवं | इन्द्रादि देवता मुझे कर प्रदान करें। मेरी मृत्यु देव, दैत्य, गन्धर्व, यक्ष, सर्प, राक्षस, मनुष्य, दैत्योंके शत्रु श्रीनारायण, आदि किसी प्राणी तथा सर्वमय शंकरसे भी न हो। उसके उस कठिन वचनको सुनकर ब्रह्माजी शकित हो उससे कहने लगे-॥ 11-12 ll

ब्रह्माजी बोले- हे दैत्येन्द्र यह सब पूर्ण होगा, किंतु अपनी मृत्युका कोई कारण अवश्य वरण करो; क्योंकि न तो ऐसा हुआ है और न होगा, जो कालके मुखमें प्रविष्ट न हुआ हो ॥ 13 ॥

अतः आप जैसे सत्पुरुष अत्यन्त दीर्घ जीवनकी इच्छाका त्याग कर दें। ब्रह्माके इस अनुनयपूर्ण वचनको सुनकर वह दैत्य पुनः कहने लगा- ll 14 ॥अन्धक बोला- [ हे ब्रह्मदेव!] तीनों कालोंमें जितनी भी श्रेष्ठ, मध्यम तथा कनिष्ठ स्त्रियाँ हैं, उन सभीमें जो रत्नस्वरूप सर्वश्रेष्ठ हो, वही मेरी माताके समान हो। हे भगवन्! हे स्वयम्भू! जो मनुष्यलोकके लिये दुर्लभ तथा मन, वाणी और शरीरसे सर्वथा अगम्य हो, जब मैं दैत्येन्द्र भावसे उसकी कामना करूँ, तब मेरा नाश हो जाय ।। 15-16 ।।

उसका वचन सुनकर ब्रह्माजीने आश्चर्य चकित हो शिवके चरणकमलोंका स्मरण किया और शम्भुकी आज्ञा प्राप्त करके उस अन्धकसे शीघ्र कहा- ॥ 17॥

ब्रह्माजी बोले- हे दैत्य ! तुम जो भी अभिलाषा करते हो, तुम्हारी वे सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी। हे दैत्येन्द्र अपना अभीष्ट प्राप्त करो और वीकि साथ सदा युद्ध करो ॥ 18ll

हे मुनीश्वर ब्रह्माजीके ऐसे वचन सुनकर स्नायु तथा अस्थिमात्रशेष वह हिरण्याक्षपुत्र अन्धक ब्रह्माजीको भक्तिपूर्वक प्रणामकर उन प्रभुसे कहने लगा- ॥ 19 ॥

अन्धक बोला हे विभो। मैं इस विकृत शरीरसे शत्रुओंकी सेनामें प्रविष्ट होकर किस प्रकार युद्ध कर सकता हूँ? अतः अपने पवित्र हाथसे मुझे स्पर्श कीजिये और स्नायु तथा अस्थिशेष इस शरीरको शीघ्र ही मांससे पुष्ट कर दीजिये ॥ 20 ॥

सनत्कुमार बोले- उसका वचन सुनकर ब्रह्मा उसके शरीरका स्पर्श करके मुनियों तथा सिद्धोंसे पूजित होते हुए देवेश्वरोंके साथ अपने धामको चले गये ॥ 21 ॥ वे
ब्रह्माके स्पर्शमात्र से ही वह दैत्यराज सम्पूर्ण शरीरवाला तथा बलसम्पन्न हो गया। वह नेत्रयुक्त तथा सुन्दर हो गया और प्रसन्न होकर अपने नगरमें प्रविष्ट हुआ ॥ 22 ॥तदनन्तर प्रह्लाद आदि सभी दैत्येन्द्र उसे वर प्राप्तकर आया हुआ समझकर सम्पूर्ण राज्य उसके लिये छोड़कर उसके अधीन होकर उसके सेवक हो गये ॥ 23 ॥

तदनन्तर अन्धकने अपने भृत्यों एवं सेनाओंके साथ विजयकी इच्छा स्वर्गकी ओर प्रस्थान किया और वहाँ युद्धमें समस्त देवताओंको जीतकर वज्रको धारण करनेवाले इन्द्रको भी करदाता बना दिया। उसने नागों, पक्षियों, बड़े-बड़े राक्षसों, गन्धव, यक्षों, मनुष्यों, पर्वतों, वृक्षों एवं सिंहादि समस्त पशुओं को भी युद्धमें जीत लिया ।। 24-25 ॥

उसने इस चराचर त्रैलोक्यपर अधिकार करके उसे अपने वशमें कर लिया। इसके बाद अपने अनुकूल सुन्दर हजारों स्त्रियोंके साथ विहार करता हुआ पाताल, पृथ्वीलोक तथा स्वर्गमें जितनी रूपवती स्त्रियाँ थीं, उनके साथ पर्वतों तथा मनोहर नदीतटोंपर वह रमण करने लगा ll 26-27 ll

उनके मध्यमें क्रौड़ा करता हुआ यह दैत्येन्द्र काम प्रवृत्तिके लिये स्त्रियोंके पीनेसे बचे हुए दिव्य एवं मानुष पेयोंको प्रसन्नताके साथ पीता था ॥ 28 ॥

वह नाना प्रकारके दिव्य रस, फल, सुगन्धित पुष्प प्राप्त करके मय [ दानव] द्वारा निर्मित उत्तम गृहों तथा यानों एवं सुन्दर वाहनोंका सेवन करता था ।। 29 ।।

अद्भुत दर्शनवाले पुष्प, अर्ध्य, धूप, मिष्टान् अंगराग आदिसे युक्त हो क्रीड़ा करते हुए उस अन्धक दैत्यके उत्तम दस हजार वर्ष बीत गये ॥ 30 ॥

इस प्रकार भोग करते हुए उसे परलोकमें अपने कल्याण करनेवाले पुण्यका ज्ञान न रहा और वह मूर्ख दैत्यराज मदान्धबुद्धि होकर दुष्टोंके साथ निवास करने लगा ॥ 31 ॥इसके बाद वह महात्मा प्रमत्त होकर कुतर्कयुक्त | बातचीतसे अपने प्रधान पुत्रोंको तिरस्कृतकर सभी वैदिक धर्मोंका विनाश करता हुआ विचरण करने लगा ॥ 32 ॥ दैत्योंके साथ धनके अहंकारसे मदान्ध वह वेदों, ब्राह्मणों, देवताओं तथा गुरुओंका अपमान करने लगा और दैववश हतायु हो अपनी आयुको स्वेच्छाचारपूर्वक क्षीण करता हुआ रमण करने लगा ॥ 33 ॥

इस प्रकार इस पृथ्वीतलपर करोड़ों वर्ष निवास करते हुए वह [ अन्धक] किसी समय हर्षित होकर अपनी सेनाके साथ मन्दराचलपर गया और वहाँकी स्वर्णिम शोभा देखकर मानमत्त हो सैनिकांकि साथ घूमने लगा। वह क्रीडाके लिये उस पर्वतपर आकर मोहवश वहाँ निवास करनेका विचार करने लगा ।। 34-35 ।।

उसने अपने पराक्रमसे प्रसन्नतापूर्वक मनोहर एवं दृढ़ नगरका निर्माणकर स्वयं उसके शिखरपर अपने निवासहेतु महासुन्दर भवन बनवाया ॥ 36 ॥

उस दैत्येन्द्रके दुर्योधन, वैधस तथा हस्ती नामक मन्त्री थे। किसी समय उन तीनों मन्त्रियोंने उस पर्वतशिखरपर एक रूपवती देखा ॥ 37 ॥

सुन्दर स्त्रीको शीघ्रगामी उन सभी दैत्योंने हर्षित होकर उस वीरवर दैत्येन्द्र अन्धकके समीप आकर जैसा देखा था, वैसा प्रेमपूर्वक कहा- ॥ 38 ॥

मन्त्री बोले- हे दैत्येन्द्र मन्दराचलकी गुफामें ध्यानमें नेत्र बन्द किये हुए, रूपवान्, चन्द्रकी आधी कलाको मस्तकपर धारण किये तथा कटिप्रदेशमें व्याघ्रचर्म लपेटे हुए कोई मुनि दिखायी पड़े हैं ॥ 39 ॥

उनके सारे शरीरमें भुजंग लिपटे हुए हैं, वे सिरपर जटा तथा गलेमें कपालकी माला धारण किये हुए हैं, हाथमें त्रिशूल लिये हुए, बाण तथा तरकस | धारण किये हुए हैं. महान् धनुष धारण किये हुए औरअक्षसूत्र पहने हुए हैं, वे लकुट, त्रिशूल एवं खड्ग धारण किये हुए हैं, वे जटाजूटसे युक्त, चार भुजाओंवाले, गौर वर्णवाले तथा भस्मसे लिप्त हैं, वे महातेजस्वी प्रतीत हो रहे हैं, उनका सम्पूर्ण वेष अद्भुत है ॥ 40-41 ॥

उनसे थोड़ी ही दूरपर एक पुरुष दिखायी पड़ा, वह वानरके समान महाभयंकर मुखवाला, विकराल, हाथोंमें सम्पूर्ण अस्त्र लिये उनकी रक्षा करता हुआ स्थित है। वहींपर शुक्लवर्णका एक श्वेत वृद्ध बैल भी है ॥ 42 ॥

हमलोगोने बैठे हुए उस तपस्वीके निकट पृथ्वीपर रत्नभूता एक सुन्दर रूपवाली मनोहर युवती भी देखी है। वह स्त्री प्रवाल, मुक्तामणि तथा रत्नोंसे निर्मित आभूषणों तथा वस्त्रोंको धारण की हुई है वह मनोहर मालासे सुशोभित है जिसने उस महासुन्दरीको देख लिया है, वास्तवमें वही दृष्टिवाला है, उसे देख लेनेपर अन्यको देखनेका कोई प्रयोजन नहीं है। वह दिव्य नारी उन महापुण्यवान् महर्षि महेश्वरकी प्रिया भार्या है। हे दैत्येन्द्र! आप सुन्दर रत्नोंके भोक्ता हैं, अतः उसे अपने घर लाकर भलीभाँति देखने में समर्थ हैं ।। 43 - 45 ।।

सनत्कुमार बोले- उन मन्त्रियोंकी इस बातको सुनकर वह दैत्य कामातुर हो उठा और उसका सारा शरीर घूमने लगा। उसने दुर्योधनादि मन्त्रियोंको उन मुनिके समीप शीघ्र ही भेजा ll 46 ll

हे मुनीश उत्तम राजनीतिमें परम प्रवीण उन श्रेष्ठ मन्त्रियोंने महाव्रती एवं अप्रमेय उन मुनिके पास जाकर प्रणाम करके उस दैत्यकी आज्ञा इस प्रकार कही - ॥ 47 ॥

मन्त्री बोले- हिरण्याक्षके पुत्र दैत्याधिराज त्रैलोक्य-स्वामी महामना, जिनका नाम अन्धक है; ये ब्रह्माजीकी आज्ञासे विहार करते हुए इस मन्दराचलपर विराजमान हैं ॥ 48 ll

हे तपस्विन्। हम उनके अंगरक्षक तथा मन्त्री हैं, उनके द्वारा भेजे गये हमलोग आपके समीप आये हैं और उन्होंने जो सन्देश दिया है, उसे ध्यान | देकर आप सुनें ॥ 49 ॥हे बुद्धिमान् मुनिवर। आप किसके पुत्र हैं। और किस कारण यहाँ सुखपूर्वक बैठे हुए हैं, ऐसी महासुन्दरी यह तरुणी किसकी भार्या है? हे मुनीन्द्र आप इसे शीघ्र ही दैत्यराजको समर्पित कर दें ॥ 50 ॥

कहाँ तो भस्मसे लिप्त, कपालमालायुक्त, महाकुरूप तुम्हारा यह शरीर और कहाँ तरकस धनुष बाण, खड्ग, भुशुण्डी, त्रिशूल, बाण एवं तोमर आदि दिव्यास्त्र । कहाँ जटाके अग्रभागमें परम पवित्र गंगा तथा सिरपर मनोहर चन्द्रमा और कहाँ दुर्गन्धयुक्त अस्थिखण्ड कहाँ विषवमन करनेवाले दीर्घमुख सर्प और कहाँ सुपुष्ट स्तनवाली स्वीका संगम ? ।। 51-52 ॥

बूढ़े बैलकी सवारी करना प्रशस्त नहीं है, क्षमावान् तपस्वीका ऐसा व्यवहार नहीं देखा जाता और सन्ध्या-वन्दन आदि ही तपस्वियोंका धर्म है, लोकविरुद्ध भोजन उनके लिये निषिद्ध है॥ 53॥

अरे मूर्ख तुम इस स्त्रीको शान्तिपूर्वक मुझे समर्पित करो, स्त्रीके साथ तपस्या क्यों कर रहे हो? यह तुम्हारे लिये अनुचित है और तुम्हारे अनुकूल नहीं है क्योंकि मैं तीनों लोकोंका रत्नपति है। तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि पहले शस्त्रोंका त्याग करो, इसके बाद शुद्ध तप करो। मेरी अलंघनीय आज्ञाका उल्लंघन करनेपर तुम्हें अपने शरीरको छोड़ना पड़ेगा ।। 54-55 ।।

तब लौकिक भावका आश्रयकर जगत्प्रधान शिवजीने उस दूतके सम्पूर्ण वचनको सुनकर अन्धकको दुष्टबुद्धि जानकर हँसते हुए उससे कहा- ॥ 56 ॥

शिवजी बोले- हे दैत्यनाथ यदि मैं रुद्र है तो तुम्हारा मुझसे क्या तात्पर्य है, तुम इस प्रकार मिथ्या क्यों बोलते हो? तुम्हें ऐसा कहना उचित नहीं, तुम मेरे प्रभावको सुनो ॥ 57 ॥

मुझे अपने माता-पिताका स्मरण नहीं, इस गुफामें महामूर्ख तथा विकृत रूपवाला मैं अन्योंके लिये दुर्लभ इस घोर पाशुपतव्रतका आचरण करता हूँ ॥ 58 ॥मेरे विषयमें ऐसी प्रसिद्धि है कि मूलरहित तथा | दुस्त्यज यह सारा जगत् मुझसे ही उत्पन्न हुआ है और सुन्दर रूपवाली, सब कुछ सहनेवाली तथा मुझ सर्व व्यापककी सिद्धिरूपा यह तरुणी मेरी भार्या है ॥ 59 ॥

हे राक्षस! इस समय तुम्हें जो-जो अच्छा लगे, उसे तुम ग्रहण करो। उनके सामने ऐसा कहकर तपस्वीवेशधारी सदाशिवने मौन धारण कर लिया ॥ 60 ॥ सनत्कुमार 'बोले- यह गम्भीर वचन सुनकर उन दानवोंने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया, तदनन्तर त्रैलोक्य विनाशके लिये प्रतिज्ञा करनेवाले हिरण्याक्षपुत्र अन्धक दैत्यके पास गये। उन सभी पराक्रमी दैत्योंने उस मदोन्मत्त दैत्यपतिको प्रणामकर जयशब्दका उच्चारण करते हुए हँसकर शिवजीने जो बात कही थी, उसे सुनाया ।। 61-62 ।।

मन्त्री [ अन्धकासुरसे ] बोले- [ हे राजन्! तपस्वी शिवने आपके विषयमें कहा है कि] निशाचर, अस्थिर वीरता धीरतावाला, सामर्थ्यरहित, क्रूरकर्मा, कृतघ्न, कृपण तथा सर्वदा पाप करनेवाला वह दानव क्या सूर्यपुत्र यमराज से नहीं डरता [जो मुझसे युद्धकी इच्छा कर रहा है ?] सभी दैत्योंके स्वामी हे राजन् ! अपनी बुद्धिसे त्रैलोक्यको तृणवत् समझनेवाले महान् तेजस्वी, तपोनिष्ठ तथा परमवीर उस मुनिने हँसते हुए 'आपके विषयमें पुन: कहा है-कहाँ तो वृद्धावस्थाके कारण जर्जर अंगोंवाला में और कहीं ये [तुम्हारे ] दारुण शस्त्र और मृत्युको भी आतंकित करनेवाला बुद्ध कहाँ वह वानरके जैसा मुखवाला मेरा गण वीरक और कहाँ [परम समर्थ] वह राक्षस! कहाँ तो [राक्षसका दुर्धर्ष] वह स्वरूप और कहाँ मन्दभाग्य मैं कहाँ तुम्हारा [अतुलनीय] सैन्यबल और कहाँ [मेरे आश्रयभूत] ये वृक्ष लता आदि ! इसपर भी यदि तुम अपनेको सामर्थ्य सम्पन्न मानते हो तो प्रयत्न करो, गुद्ध करनेके लिये यहाँ आओ और कुछ [ सामर्थ्य प्रदर्शन] करो। [ कहाँ तो ] मेरे पास तुम जैसे लोगोंको नष्ट कर देनेवाला महाभयंकर अस्त्र और कहाँ कोमल कमलके समान तुम्हारा शरीर, अतः विचार करके तुम वैसा ही करो, जैसा तुम्हें अच्छा लगता हो ।। 63-67 ।।हे दैत्यपते ! इस प्रकारके अनेक वचन उस तपस्वीने हँसते हुए आपसे कहे हैं। हे राजन्! आपके लिये उसके साथ युद्ध करना उचित नहीं है ॥ 68 ॥

यदि आप हमलोगोंके द्वारा कहे गये अनुचित तथ्यहीन अनेक कथनोंसे तथा तपमें निरत उस तपस्वीके द्वारा कहे वचनोंसे समझ जाते हैं, तब तो ठीक है, अन्यथा मुनिके इस वचनको आप बादमें याद करेंगे ॥ 69 ॥

सनत्कुमार बोले- इसके बाद उनका सत्य, हितकर, कुटिल तथा तीक्ष्ण वचन सुनकर वह मन्दबुद्धि क्रोधसे उसी प्रकार आगबबूला हो गया, जिस प्रकार घी डालनेसे आग प्रज्वलित हो जाती है ॥ 70 ॥

तदनन्तर प्रतिकूल भाग्यवाला, वरदानसे प्रमत्त तथा कामबाणसे बिँधा हुआ वह दैत्य खड्ग लेकर पवनके समान वेगसे वहाँ जानेको उद्यत हो गया ॥ 71 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य