क्रुद्ध हो युद्धके लिये उद्योग करना
सनत्कुमार बोले- किसी समय जब हिरण्याक्षपुत्र अन्धक भाइयोंके साथ खेल रहा था, तब क्रीड़ामें आसक्त तथा मदान्ध उसके भाइयोंने [उपहास करते हुए] उससे कहा- हे अन्धक! तुम्हें राज्यसे क्या प्रयोजन ? ॥ 1 ॥
[तुम्हारा पिता ] हिरण्याक्ष निश्चय ही बड़ा मूर्ख था, जिसने घोर तपस्याके द्वारा शिवजीको प्रसन्नकर तुम्हारे जैसा कलहप्रिय, अन्धा, विकृत एवं कुरूप पुत्र प्राप्त किया। तुम निश्चय ही राज्यके भागी नहीं हो। क्या दूसरेसे उत्पन्न हुआ व्यक्ति राज्यका अधिकारी बन सकता है ? तुम्हीं विचार करो, उसके अधिकारी तो सचमुच हमलोग ही हैं ॥ 2-3 ॥
सनत्कुमार बोले- उनके उन वचनोंको वह बुद्धिसे स्वयं विचार करके दीन हो गया और उन्हें नाना प्रकारके वचनोंसे सान्त्वना देकर रातमें ही अकेले निर्जन वनको चला गया। वहाँ निराहार रहकर वह एक पैरपर खड़ा हो दोनों भुजाओंको उठाकर दस हजार वर्षपर्यन्त घोर तप एवं मन्त्रका जप करने लगा, जो देवता एवं राक्षसोंसे भी सम्भव नहीं था।वह अग्नि जलाकर तीक्ष्ण शस्त्रसे अपने शरीरसे मांस काटकर वर्षपर्यन्त प्रतिदिन मन्त्रपूर्वक रक्तयुक्त मांसका होम करने लगा ।। 4-6 ।।
जब उसके शरीरमें मांस नहीं रह गया, केवल स्नायु एवं अस्थिमात्र शेष रह गया, समस्त रक्त नष्ट हो गया, तब उसने अपने शरीरको ही अग्निमें डाल देनेका विचार किया। उसके अनन्तर सभी देवता अत्यन्त विस्मित एवं भयभीत होकर उसकी ओर देखने लगे, तब उन देवताओंने ब्रह्माजीको नमस्कारकर अनेक स्तुतियोंसे शीघ्र ही उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्माने उसे तपस्यासे विरत करके कहा- हे दानव! आज तुम वर माँगो, समस्त लोकमें जो दुर्लभ है एवं जिसकी प्राप्तिके लिये तुम इच्छुक हो, उस वरको मुझसे प्राप्त कर लो ॥ 7-9 ॥
ब्रह्माके इस वचनको सुनकर दीन एवं विनम्र होकर उस दैत्यने कहा- हे ब्रह्मन् ! प्रह्लाद आदि मेरे जिन निष्ठुर भाइयोंने मेरा राज्य छीन लिया है, वे मेरे सेवक हों ॥ 10 ॥
मुझ अन्धेको दिव्य नेत्रकी प्राप्ति हो जाय एवं | इन्द्रादि देवता मुझे कर प्रदान करें। मेरी मृत्यु देव, दैत्य, गन्धर्व, यक्ष, सर्प, राक्षस, मनुष्य, दैत्योंके शत्रु श्रीनारायण, आदि किसी प्राणी तथा सर्वमय शंकरसे भी न हो। उसके उस कठिन वचनको सुनकर ब्रह्माजी शकित हो उससे कहने लगे-॥ 11-12 ll
ब्रह्माजी बोले- हे दैत्येन्द्र यह सब पूर्ण होगा, किंतु अपनी मृत्युका कोई कारण अवश्य वरण करो; क्योंकि न तो ऐसा हुआ है और न होगा, जो कालके मुखमें प्रविष्ट न हुआ हो ॥ 13 ॥
अतः आप जैसे सत्पुरुष अत्यन्त दीर्घ जीवनकी इच्छाका त्याग कर दें। ब्रह्माके इस अनुनयपूर्ण वचनको सुनकर वह दैत्य पुनः कहने लगा- ll 14 ॥अन्धक बोला- [ हे ब्रह्मदेव!] तीनों कालोंमें जितनी भी श्रेष्ठ, मध्यम तथा कनिष्ठ स्त्रियाँ हैं, उन सभीमें जो रत्नस्वरूप सर्वश्रेष्ठ हो, वही मेरी माताके समान हो। हे भगवन्! हे स्वयम्भू! जो मनुष्यलोकके लिये दुर्लभ तथा मन, वाणी और शरीरसे सर्वथा अगम्य हो, जब मैं दैत्येन्द्र भावसे उसकी कामना करूँ, तब मेरा नाश हो जाय ।। 15-16 ।।
उसका वचन सुनकर ब्रह्माजीने आश्चर्य चकित हो शिवके चरणकमलोंका स्मरण किया और शम्भुकी आज्ञा प्राप्त करके उस अन्धकसे शीघ्र कहा- ॥ 17॥
ब्रह्माजी बोले- हे दैत्य ! तुम जो भी अभिलाषा करते हो, तुम्हारी वे सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी। हे दैत्येन्द्र अपना अभीष्ट प्राप्त करो और वीकि साथ सदा युद्ध करो ॥ 18ll
हे मुनीश्वर ब्रह्माजीके ऐसे वचन सुनकर स्नायु तथा अस्थिमात्रशेष वह हिरण्याक्षपुत्र अन्धक ब्रह्माजीको भक्तिपूर्वक प्रणामकर उन प्रभुसे कहने लगा- ॥ 19 ॥
अन्धक बोला हे विभो। मैं इस विकृत शरीरसे शत्रुओंकी सेनामें प्रविष्ट होकर किस प्रकार युद्ध कर सकता हूँ? अतः अपने पवित्र हाथसे मुझे स्पर्श कीजिये और स्नायु तथा अस्थिशेष इस शरीरको शीघ्र ही मांससे पुष्ट कर दीजिये ॥ 20 ॥
सनत्कुमार बोले- उसका वचन सुनकर ब्रह्मा उसके शरीरका स्पर्श करके मुनियों तथा सिद्धोंसे पूजित होते हुए देवेश्वरोंके साथ अपने धामको चले गये ॥ 21 ॥ वे
ब्रह्माके स्पर्शमात्र से ही वह दैत्यराज सम्पूर्ण शरीरवाला तथा बलसम्पन्न हो गया। वह नेत्रयुक्त तथा सुन्दर हो गया और प्रसन्न होकर अपने नगरमें प्रविष्ट हुआ ॥ 22 ॥तदनन्तर प्रह्लाद आदि सभी दैत्येन्द्र उसे वर प्राप्तकर आया हुआ समझकर सम्पूर्ण राज्य उसके लिये छोड़कर उसके अधीन होकर उसके सेवक हो गये ॥ 23 ॥
तदनन्तर अन्धकने अपने भृत्यों एवं सेनाओंके साथ विजयकी इच्छा स्वर्गकी ओर प्रस्थान किया और वहाँ युद्धमें समस्त देवताओंको जीतकर वज्रको धारण करनेवाले इन्द्रको भी करदाता बना दिया। उसने नागों, पक्षियों, बड़े-बड़े राक्षसों, गन्धव, यक्षों, मनुष्यों, पर्वतों, वृक्षों एवं सिंहादि समस्त पशुओं को भी युद्धमें जीत लिया ।। 24-25 ॥
उसने इस चराचर त्रैलोक्यपर अधिकार करके उसे अपने वशमें कर लिया। इसके बाद अपने अनुकूल सुन्दर हजारों स्त्रियोंके साथ विहार करता हुआ पाताल, पृथ्वीलोक तथा स्वर्गमें जितनी रूपवती स्त्रियाँ थीं, उनके साथ पर्वतों तथा मनोहर नदीतटोंपर वह रमण करने लगा ll 26-27 ll
उनके मध्यमें क्रौड़ा करता हुआ यह दैत्येन्द्र काम प्रवृत्तिके लिये स्त्रियोंके पीनेसे बचे हुए दिव्य एवं मानुष पेयोंको प्रसन्नताके साथ पीता था ॥ 28 ॥
वह नाना प्रकारके दिव्य रस, फल, सुगन्धित पुष्प प्राप्त करके मय [ दानव] द्वारा निर्मित उत्तम गृहों तथा यानों एवं सुन्दर वाहनोंका सेवन करता था ।। 29 ।।
अद्भुत दर्शनवाले पुष्प, अर्ध्य, धूप, मिष्टान् अंगराग आदिसे युक्त हो क्रीड़ा करते हुए उस अन्धक दैत्यके उत्तम दस हजार वर्ष बीत गये ॥ 30 ॥
इस प्रकार भोग करते हुए उसे परलोकमें अपने कल्याण करनेवाले पुण्यका ज्ञान न रहा और वह मूर्ख दैत्यराज मदान्धबुद्धि होकर दुष्टोंके साथ निवास करने लगा ॥ 31 ॥इसके बाद वह महात्मा प्रमत्त होकर कुतर्कयुक्त | बातचीतसे अपने प्रधान पुत्रोंको तिरस्कृतकर सभी वैदिक धर्मोंका विनाश करता हुआ विचरण करने लगा ॥ 32 ॥ दैत्योंके साथ धनके अहंकारसे मदान्ध वह वेदों, ब्राह्मणों, देवताओं तथा गुरुओंका अपमान करने लगा और दैववश हतायु हो अपनी आयुको स्वेच्छाचारपूर्वक क्षीण करता हुआ रमण करने लगा ॥ 33 ॥
इस प्रकार इस पृथ्वीतलपर करोड़ों वर्ष निवास करते हुए वह [ अन्धक] किसी समय हर्षित होकर अपनी सेनाके साथ मन्दराचलपर गया और वहाँकी स्वर्णिम शोभा देखकर मानमत्त हो सैनिकांकि साथ घूमने लगा। वह क्रीडाके लिये उस पर्वतपर आकर मोहवश वहाँ निवास करनेका विचार करने लगा ।। 34-35 ।।
उसने अपने पराक्रमसे प्रसन्नतापूर्वक मनोहर एवं दृढ़ नगरका निर्माणकर स्वयं उसके शिखरपर अपने निवासहेतु महासुन्दर भवन बनवाया ॥ 36 ॥
उस दैत्येन्द्रके दुर्योधन, वैधस तथा हस्ती नामक मन्त्री थे। किसी समय उन तीनों मन्त्रियोंने उस पर्वतशिखरपर एक रूपवती देखा ॥ 37 ॥
सुन्दर स्त्रीको शीघ्रगामी उन सभी दैत्योंने हर्षित होकर उस वीरवर दैत्येन्द्र अन्धकके समीप आकर जैसा देखा था, वैसा प्रेमपूर्वक कहा- ॥ 38 ॥
मन्त्री बोले- हे दैत्येन्द्र मन्दराचलकी गुफामें ध्यानमें नेत्र बन्द किये हुए, रूपवान्, चन्द्रकी आधी कलाको मस्तकपर धारण किये तथा कटिप्रदेशमें व्याघ्रचर्म लपेटे हुए कोई मुनि दिखायी पड़े हैं ॥ 39 ॥
उनके सारे शरीरमें भुजंग लिपटे हुए हैं, वे सिरपर जटा तथा गलेमें कपालकी माला धारण किये हुए हैं, हाथमें त्रिशूल लिये हुए, बाण तथा तरकस | धारण किये हुए हैं. महान् धनुष धारण किये हुए औरअक्षसूत्र पहने हुए हैं, वे लकुट, त्रिशूल एवं खड्ग धारण किये हुए हैं, वे जटाजूटसे युक्त, चार भुजाओंवाले, गौर वर्णवाले तथा भस्मसे लिप्त हैं, वे महातेजस्वी प्रतीत हो रहे हैं, उनका सम्पूर्ण वेष अद्भुत है ॥ 40-41 ॥
उनसे थोड़ी ही दूरपर एक पुरुष दिखायी पड़ा, वह वानरके समान महाभयंकर मुखवाला, विकराल, हाथोंमें सम्पूर्ण अस्त्र लिये उनकी रक्षा करता हुआ स्थित है। वहींपर शुक्लवर्णका एक श्वेत वृद्ध बैल भी है ॥ 42 ॥
हमलोगोने बैठे हुए उस तपस्वीके निकट पृथ्वीपर रत्नभूता एक सुन्दर रूपवाली मनोहर युवती भी देखी है। वह स्त्री प्रवाल, मुक्तामणि तथा रत्नोंसे निर्मित आभूषणों तथा वस्त्रोंको धारण की हुई है वह मनोहर मालासे सुशोभित है जिसने उस महासुन्दरीको देख लिया है, वास्तवमें वही दृष्टिवाला है, उसे देख लेनेपर अन्यको देखनेका कोई प्रयोजन नहीं है। वह दिव्य नारी उन महापुण्यवान् महर्षि महेश्वरकी प्रिया भार्या है। हे दैत्येन्द्र! आप सुन्दर रत्नोंके भोक्ता हैं, अतः उसे अपने घर लाकर भलीभाँति देखने में समर्थ हैं ।। 43 - 45 ।।
सनत्कुमार बोले- उन मन्त्रियोंकी इस बातको सुनकर वह दैत्य कामातुर हो उठा और उसका सारा शरीर घूमने लगा। उसने दुर्योधनादि मन्त्रियोंको उन मुनिके समीप शीघ्र ही भेजा ll 46 ll
हे मुनीश उत्तम राजनीतिमें परम प्रवीण उन श्रेष्ठ मन्त्रियोंने महाव्रती एवं अप्रमेय उन मुनिके पास जाकर प्रणाम करके उस दैत्यकी आज्ञा इस प्रकार कही - ॥ 47 ॥
मन्त्री बोले- हिरण्याक्षके पुत्र दैत्याधिराज त्रैलोक्य-स्वामी महामना, जिनका नाम अन्धक है; ये ब्रह्माजीकी आज्ञासे विहार करते हुए इस मन्दराचलपर विराजमान हैं ॥ 48 ll
हे तपस्विन्। हम उनके अंगरक्षक तथा मन्त्री हैं, उनके द्वारा भेजे गये हमलोग आपके समीप आये हैं और उन्होंने जो सन्देश दिया है, उसे ध्यान | देकर आप सुनें ॥ 49 ॥हे बुद्धिमान् मुनिवर। आप किसके पुत्र हैं। और किस कारण यहाँ सुखपूर्वक बैठे हुए हैं, ऐसी महासुन्दरी यह तरुणी किसकी भार्या है? हे मुनीन्द्र आप इसे शीघ्र ही दैत्यराजको समर्पित कर दें ॥ 50 ॥
कहाँ तो भस्मसे लिप्त, कपालमालायुक्त, महाकुरूप तुम्हारा यह शरीर और कहाँ तरकस धनुष बाण, खड्ग, भुशुण्डी, त्रिशूल, बाण एवं तोमर आदि दिव्यास्त्र । कहाँ जटाके अग्रभागमें परम पवित्र गंगा तथा सिरपर मनोहर चन्द्रमा और कहाँ दुर्गन्धयुक्त अस्थिखण्ड कहाँ विषवमन करनेवाले दीर्घमुख सर्प और कहाँ सुपुष्ट स्तनवाली स्वीका संगम ? ।। 51-52 ॥
बूढ़े बैलकी सवारी करना प्रशस्त नहीं है, क्षमावान् तपस्वीका ऐसा व्यवहार नहीं देखा जाता और सन्ध्या-वन्दन आदि ही तपस्वियोंका धर्म है, लोकविरुद्ध भोजन उनके लिये निषिद्ध है॥ 53॥
अरे मूर्ख तुम इस स्त्रीको शान्तिपूर्वक मुझे समर्पित करो, स्त्रीके साथ तपस्या क्यों कर रहे हो? यह तुम्हारे लिये अनुचित है और तुम्हारे अनुकूल नहीं है क्योंकि मैं तीनों लोकोंका रत्नपति है। तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि पहले शस्त्रोंका त्याग करो, इसके बाद शुद्ध तप करो। मेरी अलंघनीय आज्ञाका उल्लंघन करनेपर तुम्हें अपने शरीरको छोड़ना पड़ेगा ।। 54-55 ।।
तब लौकिक भावका आश्रयकर जगत्प्रधान शिवजीने उस दूतके सम्पूर्ण वचनको सुनकर अन्धकको दुष्टबुद्धि जानकर हँसते हुए उससे कहा- ॥ 56 ॥
शिवजी बोले- हे दैत्यनाथ यदि मैं रुद्र है तो तुम्हारा मुझसे क्या तात्पर्य है, तुम इस प्रकार मिथ्या क्यों बोलते हो? तुम्हें ऐसा कहना उचित नहीं, तुम मेरे प्रभावको सुनो ॥ 57 ॥
मुझे अपने माता-पिताका स्मरण नहीं, इस गुफामें महामूर्ख तथा विकृत रूपवाला मैं अन्योंके लिये दुर्लभ इस घोर पाशुपतव्रतका आचरण करता हूँ ॥ 58 ॥मेरे विषयमें ऐसी प्रसिद्धि है कि मूलरहित तथा | दुस्त्यज यह सारा जगत् मुझसे ही उत्पन्न हुआ है और सुन्दर रूपवाली, सब कुछ सहनेवाली तथा मुझ सर्व व्यापककी सिद्धिरूपा यह तरुणी मेरी भार्या है ॥ 59 ॥
हे राक्षस! इस समय तुम्हें जो-जो अच्छा लगे, उसे तुम ग्रहण करो। उनके सामने ऐसा कहकर तपस्वीवेशधारी सदाशिवने मौन धारण कर लिया ॥ 60 ॥ सनत्कुमार 'बोले- यह गम्भीर वचन सुनकर उन दानवोंने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया, तदनन्तर त्रैलोक्य विनाशके लिये प्रतिज्ञा करनेवाले हिरण्याक्षपुत्र अन्धक दैत्यके पास गये। उन सभी पराक्रमी दैत्योंने उस मदोन्मत्त दैत्यपतिको प्रणामकर जयशब्दका उच्चारण करते हुए हँसकर शिवजीने जो बात कही थी, उसे सुनाया ।। 61-62 ।।
मन्त्री [ अन्धकासुरसे ] बोले- [ हे राजन्! तपस्वी शिवने आपके विषयमें कहा है कि] निशाचर, अस्थिर वीरता धीरतावाला, सामर्थ्यरहित, क्रूरकर्मा, कृतघ्न, कृपण तथा सर्वदा पाप करनेवाला वह दानव क्या सूर्यपुत्र यमराज से नहीं डरता [जो मुझसे युद्धकी इच्छा कर रहा है ?] सभी दैत्योंके स्वामी हे राजन् ! अपनी बुद्धिसे त्रैलोक्यको तृणवत् समझनेवाले महान् तेजस्वी, तपोनिष्ठ तथा परमवीर उस मुनिने हँसते हुए 'आपके विषयमें पुन: कहा है-कहाँ तो वृद्धावस्थाके कारण जर्जर अंगोंवाला में और कहीं ये [तुम्हारे ] दारुण शस्त्र और मृत्युको भी आतंकित करनेवाला बुद्ध कहाँ वह वानरके जैसा मुखवाला मेरा गण वीरक और कहाँ [परम समर्थ] वह राक्षस! कहाँ तो [राक्षसका दुर्धर्ष] वह स्वरूप और कहाँ मन्दभाग्य मैं कहाँ तुम्हारा [अतुलनीय] सैन्यबल और कहाँ [मेरे आश्रयभूत] ये वृक्ष लता आदि ! इसपर भी यदि तुम अपनेको सामर्थ्य सम्पन्न मानते हो तो प्रयत्न करो, गुद्ध करनेके लिये यहाँ आओ और कुछ [ सामर्थ्य प्रदर्शन] करो। [ कहाँ तो ] मेरे पास तुम जैसे लोगोंको नष्ट कर देनेवाला महाभयंकर अस्त्र और कहाँ कोमल कमलके समान तुम्हारा शरीर, अतः विचार करके तुम वैसा ही करो, जैसा तुम्हें अच्छा लगता हो ।। 63-67 ।।हे दैत्यपते ! इस प्रकारके अनेक वचन उस तपस्वीने हँसते हुए आपसे कहे हैं। हे राजन्! आपके लिये उसके साथ युद्ध करना उचित नहीं है ॥ 68 ॥
यदि आप हमलोगोंके द्वारा कहे गये अनुचित तथ्यहीन अनेक कथनोंसे तथा तपमें निरत उस तपस्वीके द्वारा कहे वचनोंसे समझ जाते हैं, तब तो ठीक है, अन्यथा मुनिके इस वचनको आप बादमें याद करेंगे ॥ 69 ॥
सनत्कुमार बोले- इसके बाद उनका सत्य, हितकर, कुटिल तथा तीक्ष्ण वचन सुनकर वह मन्दबुद्धि क्रोधसे उसी प्रकार आगबबूला हो गया, जिस प्रकार घी डालनेसे आग प्रज्वलित हो जाती है ॥ 70 ॥
तदनन्तर प्रतिकूल भाग्यवाला, वरदानसे प्रमत्त तथा कामबाणसे बिँधा हुआ वह दैत्य खड्ग लेकर पवनके समान वेगसे वहाँ जानेको उद्यत हो गया ॥ 71 ॥