सूतजी बोले- हे द्विजो जिस प्रकार शिवजी तीनों लोकोंमें लिंगस्वरूपसे पूजनीय हुए, उस वृत्तान्तको मैंने प्रीतिपूर्वक बता दिया; अब आपलोग और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 1 ॥
ऋषिगण बोले- हे प्रभो आप अन्धकेश्वर लिंगकी महिमाका वर्णन कीजिये तथा इसी प्रसंगम अन्य शिवलिंगोंकी महिमा भी प्रीतिपूर्वक कहिये ॥ 2 ॥
सूतजी बोले- हे महर्षियो। पूर्व समयमें समुद्र के गर्तका आश्रय लेकर निवास करते हुए देवशत्रु अन्धक नामक दैत्यने त्रैलोक्यको अपने वशमें कर लिया था ॥ 3 ॥
वह अत्यन्त पराक्रमशाली दैत्य उस गर्तसे निकलकर प्रजाओंको पीड़ित करनेके पश्चात् पुनः उसी गड्ढे में प्रवेश कर जाता था । हे मुनीश्वरो ! तब दुखी होकर समस्त देवताओंने बारंबार शिवकी प्रार्थना करते हुए उनसे अपना सारा दुःख निवेदन किया ॥ 4-5 ॥
सूतजी बोले- तब उन देवगणोंका वचन सुनकर दुष्टोंका संहार करनेवाले एवं सज्जनोंके शरणदाता परमेश्वर प्रसन्न होकर कहने लगे- ॥ 6 ॥
शिवजी बोले- हे देवगण मैं देवताओंको दुःख देनेवाले उस अन्धक दैत्यका वध करूँगा; आपलोग अपनी सेना लेकर चलिये मैं भी गणोंके साथ आ रहा हूँ तब उस गर्तसे देवताओं और ऋषियोंसे द्वेष करनेवाले उस भयंकर अन्धकके निकल जानेपर देवता लोग उस गर्तमें प्रवेश कर गये ।। 7-8 ॥तब देवताओं एवं दैत्योंने [परस्पर] अत्यन्त भयानक युद्ध किया: शिवजीको कृपास देवता उस युद्ध में प्रबल हो गये। देवताओंसे पीड़ित होकर वह ज्यों ही उस में प्रवेश करने ल उसी समय परमात्मा शिवने उसे त्रिशूल में पिरो लिया ।। 9-10 ॥
तब त्रिशूलमें स्थित हुआ यह शिवजी का ध्यान करके प्रार्थना करने लगा कि [हे शिवजी!] अन्त समयमें आपका दर्शन करके प्राणी आपके ही हो जाता है ॥ 11 ॥
इस प्रकार स्तुत हुए उन शंकरने भी प्रसन्न होकर यह वचन कहा- तुम वर माँगो, मैं तुम्हें दूँगा 12 ॥
यह वचन सुनकर सात्त्विक भावको प्राप्त हुए उस दैत्यने शिवजीको भलीभाँति प्रणाम करके तथा उनकी स्तुतिकर [पुनः] कहा- ॥ 13 ॥
अन्धक बोला- हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे अपनी शुभ भक्ति प्रदान कीजिये और विशेष कृपा करके यहाँपर निवास कीजिये ॥ 14 ॥
सूतजी बोले- उसके इस प्रकार कहनेपर [भगवान्] शंकरने उस दैत्यको उसी गड्ढेमें फेंक दिया और लोकहितकी कामनासे वे वहीं लिंगरूप धारणकर स्थित हो गये ॥ 15 ॥ जो मनुष्य नित्य उस अन्धकेश्वर लिंगकी पूज करता है, उसकी छ: मासके भीतर ही समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं; इसमें सन्देह नहीं है॥ 16 ॥ [परंतु] जो ब्राह्मण आजीविका के लिये छ मासतक संसारका हित करनेवाले इस लिंगकी [द्रव्य लेकर] पूजा करता है, वह तो देवलक कहा गया है ॥ 17 ॥
जिस प्रकार देवलक होता है, उसी वह ब्राह्मण भी हो जाता है, [जो छः महीनेतक वृत्त्यर्थ शिवपूजन करता है], जो देवलक कहा गया है, वह द्विजत्वके अधिकारसे वंचित हो जाता है॥ 18 ॥ ऋषिगण बोले—देवलक कौन कहा गया है. | और उसका क्या कार्य है? हे महाप्राज्ञ! लोकहितके लिये आप इसे बताइये ll 19 ॥सूतजी बोले- ऋषियो। जो दधीचि नामक धर्मिष्ठ, वेदमें पारंगत, शिवभक्तिमें संलग्न तथा शिवशास्त्रपरायण विप्र थे, उनका पुत्र भी वैसा ही था वह सुदर्शन नामसे प्रसिद्ध था उसकी दुकूला नामक पत्नी थी, जो दुष्टकुलमें उत्पन्न हुई थी । 20-21 ।। उसका वह पति [ सुदर्शन] उसके वशमें रहता था। उसके चार पुत्र हुए। वह [सुदर्शन] भी नित्य शिवकी पूजा किया करता था ॥ 22 ॥
किसी समय दधीचिको दूसरे गाँवमें जाना पड़ा, वहाँ बान्धवोंके सम्मेलनके कारण बन्धु बान्धवने उन्हें लौटने नहीं दिया ।। 23 ।।
शैवोंमें श्रेष्ठ वे दधीचि अपने पुत्रसे 'तुम शिवजीकी सेवा करते रहना' यह कहकर [पूजन आदि दायित्वोंसे] मुक्त होकर चले गये। उनका पुत्र सुदर्शन भी शिवजीका पूजन करता रहा हे मुनीश्वरो इस प्रकार बहुत समय बीत गया ।। 24-25 इसी बीच शिवरात्रि आ गयी और उसमें सभी लोगोंने उपवास किया और सुदर्शनने स्वयं भी संयोगवश उपवास किया ॥ 26 ॥ वह सुदर्शन भी पूजा करके चला गया और शिवरात्रिमें स्त्रीसंग करके पुनः वहाँ आ गया ॥ 27 ॥ उसने उस रात्रिमें स्नान नहीं किया, किंतु शिवपूजन किया तब उसके इस कुकर्मसे क्रोधित हुए [भगवान्] शंकरने कहा- ॥ 28 ॥
महेश्वर बोले- रे दुष्ट! तुझ अविवेकीने शिवरात्रिके दिन स्त्रीका सेवन किया और बिना स्नान किये ही मेरा पूजन भी किया। चूँकि तुमने जान बूझकर ऐसा किया है, इसलिये जड़ हो जाओ। अब तुम मुझे स्पर्श करनेयोग्य नहीं हो, अतः दूरसे ही दर्शन करो ।। 29-30 ॥
सूतजी बोले- [हे महर्षियो!] शिवजीके द्वारा इस प्रकार शापित वह दधीचिपुत्र सुदर्शन शिवमायासे विमोहित होकर उसी क्षण जड़ हो गया ॥ 31 ॥
हे ब्राह्मणो इसी समय शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ दधीचि दूसरे गाँवसे आ गये और उन्होंने यह समाचार सुना ॥ 32 ॥शिवजीने उन्हें भी धिक्कारा, तब वे अत्यन्त दुखी हुए और यह कहकर रोने लगे-हाय! पुत्रके | दुःखित करनेवाले कुकर्मसे में मारा गया। सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ दधीचिने बारंबार यह कहा कि इस कुपुत्रके कारण मेरा यह उत्तम कुल नष्ट हो गया ।। 33-34 ॥
अपने पिताके द्वारा तिरस्कृत उस अभागे पुत्र सुदर्शनने भी पश्चात्ताप करके अपनी भार्याके लिये | कहा कि यह पुंश्चली है। तदुपरान्त उसके पिताने वहाँ के कल्याणके लिये प्रयत्नपूर्वक श्रेष्ठ विधियों परमभक्ति भावसे पार्वतीका पूजन किया ।। 35-36 ॥
स्वयं सुदर्शनने भी महाभक्तिपूर्वक चण्डीपूजन विधानसे पार्वतीका पूजन किया और उत्तम स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति भी की ॥ 37 ॥
इस प्रकार उन दोनों पिता पुत्रोंने भक्तिपूर्वक अनेक उपायोंसे भक्तवत्सला देवी गिरिजाको प्रसन्न कर लिया ।। 38 ।।
हे मुने! तब उन दोनोंके उत्कृष्ट सेवाभावसे प्रसन्न हुई चण्डिकाने सुदर्शनको अपना पुत्र मान लिया ll 39 ॥
चण्डिकाने स्वयं भी उस [सुदर्शन नामक ] पुत्रके लिये शिवजीको प्रसन्न किया। इसके बाद पूर्वमें | सुदर्शनसे क्रोधित किंतु अब उस पुत्रपर क्रोधरहित चण्डिकाने प्रसन्नचित्त होकर उन वृषभध्वज महेश्वरको [भलीभाँति] प्रसन्न जानकर उन्हें नमस्कारकर स्वयं ही उस सुदर्शनको उनकी गोदमें बैठा दिया ll 40-41 ॥
इसके बाद गिरिजाने स्वयं ही सुदर्शनको त स्नान कराकर एक ग्रन्थिसे युक्त त्रिरावृत यज्ञोपवीत | प्रसन्नतापूर्वक पहनाया। तत्पश्चात् अम्बिकाने पुत्र सुदर्शनको सोलह अक्षरसे युक्त शिवगायत्रीका उपदेश दिया और यह भी कहा कि यह वटु श्रीशब्दपूर्वक 'ॐ नमः शिवाय' इस मन्त्रका सोलह बार उच्चारणकर संकल्प- पूजा किया करे ।। 42-44 ॥
पुनः उन्होंने स्नानसे लेकर प्रणामपर्यन्त विविध उपचारोंसे ऋषियोंके सान्निध्य में मन्त्र एवं वाद्यके साथ उस बालकसे शिवपूजन करवाया और उससे शिवजीके अनेक नामों तथा मन्त्रोंका पाठ कराया। | तत्पश्चात् अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर चण्डिका एवं | शिवजीने उससे कहा- ll 45-46 ॥[[हे पुत्र!] मेरे लिये जो कुछ भी धन-धान्य आदि अर्पित किया गया हो, वह सब तुम्हें ग्रहण करना चाहिये; इसे ग्रहण करनेमें तुम्हें कोई दोष नहीं लगेगा। मेरे [समस्त ] कार्यमें और विशेषकर देवीके कार्यमें तुम मुख्य रहोगे। मेरे लिये चढ़ाया गया घृत, तैल आदि सब कुछ तुम्हें ग्रहण करना चाहिये। जब प्राजापत्य होने लगेगा, तब उसमें तुम अकेले ही मुख्य होगे; और तभी पूजा पूर्ण होगी, अन्यथा सब पूजा निष्फल हो जायगी। तुम सर्वदा वर्तुलाकार तिलक लगाना, स्नान करना, शिवसन्ध्या करना और शिवगायत्रीका जप करना। सबसे पहले मेरी सेवा करके तुम कुलोचित अन्य कार्य करना; यह सब किये जानेपर तुम्हारा कल्याण होगा। मैंने तुम्हारे समस्त दोष क्षमा कर दिये ll 47-51 ॥
सूतजी बोले- ऐसा कहकर परमात्मा शिवजीने उसके चारों बटुक पुत्रोंको चारों दिशाओंमें अभिषिक्त कर दिया। तब भगवती चण्डी पुत्र सुदर्शनको अपने निकट बैठाकर उसके पुत्रोंको अनेक प्रकारके वर देकर शिक्षा देने लगीं ॥। 52-53 ll
देवी बोलीं- दो व्यूहोंके [युद्धमें] जिस ओर मेरा बटुक होगा, उसकी सदा विजय होगी; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिए। हे पुत्र ! जिसने तुम्हारी पूजा की, उसने मानो मेरी पूजा कर ली; तुम सभीको अपना कर्म सदा करते रहना चाहिये ॥ 54-55 ॥
सूतजी बोले- हे ऋषियो ! इस प्रकार शिव एवं शिवाने कृपापूर्वक संसारके कल्याणके लिये पुत्रोंसहित उस महात्मा सुदर्शनको अनेक वर प्रदान किये। चूँकि शिव एवं पार्वतीने उन्हें [अपने पुत्रके रूपमें] प्रतिष्ठित किया, इसलिये वे बटुक कहे गये हैं और अपनी तपस्यासे भ्रष्ट हुए, इसलिये वे तपोऽधम कहे गये हैं । ll 56-57 ll
शिव- शिवाकी कृपासे वे [आगे चलकर ] बहुत विस्तृत हो गये। इन बटुकोंकी प्रथम पूजा साक्षात् महात्मा शंकरकी ही महापूजा है ॥ 58 ॥
इसलिये जबतक बटुकोंकी पूजा न कर ली जाय, तबतक शिवजीकी पूजा नहीं करनी चाहिये । | यदि पूर्वमें शिवजीकी पूजा की जाय, तो वह शुभदायीनहीं होती। शुभ कार्य हो अथवा अशुभ कार्य हो, | बटुकका कभी भी त्याग न करे। प्राजापत्य भोजमें एक बटुकका पूजन भी विशिष्ट कहा गया है ।। 59-60 ॥
शिव एवं पार्वतीके कार्यमें बटुककी ही विशेषता देखी जाती है; हे बुद्धिमान् एवं निष्पाप शौनकजी! मैं जैसा कहता हूँ, उसे आप सुनें ॥ 61 ॥
अन्धकेश्वरके समीप भद्र नामक राजाके नगरमें प्राजापत्य [नामक यज्ञानुष्ठान, जिसमें नित्यप्रति ब्राह्मणभोजनका सम्पादन होता था ]- के नित्य | भोजनवाले नियममें शिवके अनुग्रहसे जो अद्भुत घटना घटी उसे प्रीतिपूर्वक सुनिये जैसा मैंने सुना है, वैसा कह रहा हूँ ॥ 62-63 ।।
[भगवान् ] सदाशिवने प्रसन्न होकर उस भद्र नामक राजाको एक ध्वज प्रदान किया। उसके अनन्तर देवाधिदेव सदाशिवने कृपापूर्वक उस राजासे कहा- हे राजन् ! जिस दिन तुम्हारा प्राजापत्य [यज्ञ] पूर्ण होगा, उस दिन प्रातः काल यह बँधी हुई ध्वजा बढ़ेगी और रात्रिमें गिर जायगी। यदि तुम्हारी पूजामें कोई त्रुटि होगी, तो यह ध्वजा रात्रिकालमें भी स्थिर रहेगी। इतना कहकर राजासे सन्तुष्ट हुए कृपानिधि शंकर अन्तर्धान हो गये ll 64-66 ll
हे महामुने! उस राजाका वैसा ही नियम चलता रहा, वह शिव पूजाके विधानके अनुसार नित्यप्रति प्राजापत्यका अनुष्ठान करने लगा। जब कार्य पूर्ण हो जाता, तो प्रातः काल ध्वजा स्वयं बढ़ जाती एवं सायंकाल गिर जाती ।। 67-68 ।। किसी समय ब्राह्मणभोजनके बिना ही बटुकोंकी पूजा पहले हो गयी और वह ध्वजा गिर पड़ी ॥ 69 ॥ यह देखकर राजाने पण्डितोंसे पूछा— ब्राह्मणलोग यहाँ भोजन कर रहे हैं, किंतु यह ध्वज नहीं उठा। है ब्राह्मणो! वह ध्वज क्यों गिर पड़ा, आपलोग सत्य | सत्य कहिये ? तब इस प्रकार पूछे जानेपर पण्डितप्रवर ब्राह्मणोंने कहा- हे महाराज ब्रह्मभोजमें चण्डीपुत्र बटुकको पहले ही भोजन करा दिया गया इससे शिवजी सन्तुष्ट हो गये, इसीलिये ध्वजा गिर गयी ॥ 70-72 ॥
तब यह सुनकर वह राजा तथा अन्य लोग भी चकित हो उठे और प्रशंसा करने लगे ॥ 73 ॥इस प्रकार शिवजीने स्वयं ही उन (बटुकों) की महिमा बढ़ायी, इसलिये प्राचीन विद्वानोंने बटुकोंको श्रेष्ठ कहा है ॥ 74 ॥
अतः बटुकोंके द्वारा ही शिवजीकी उत्तारणा करवानी चाहिये, अन्यथा पूजा सफल नहीं होती । शिवजीके वचनानुसार इसमें दूसरोंका अधिकार नहीं है, उन्हें ही उत्तारणा करनी चाहिये, तभी पूजा पूर्ण होती है। केवल इतना ही उनका कार्य है, कोई दूसरा [कार्य] नहीं है ॥ 75-76 ॥
हे मुनीश्वरो ! आपलोगोंने जो पूछा था, वह सब मैंने कह दिया; इसे सुनकर मनुष्य शिवपूजाका फल प्राप्त करता है ॥ 77 ॥