सनत्कुमार बोले [हे व्यास!] अब आप परमात्मा शिवका दूसरा चरित्र सुनिये, जो भक्त वत्सलतासे पूर्ण तथा परमानन्ददायक है ॥ 1 ॥ पूर्वकालमें भाग्यदोषसे गर्वित होकर बाणासुरने ताण्डव नृत्यकर शिवजीको सन्तुष्ट किया था ॥ 2 ॥ उसके बाद पार्वतीपति शिवजीको सन्तुष्ट मनवाला जानकर बाणासुर सिर झुकाकर विनम्र हो हाथ जोड़कर कहने लगा- ॥ 3 ॥
बाणासुर बोला- हे देवाधिदेव! हे महादेव हे सर्वदेवशिरोमणे! यद्यपि मैं आपकी कृपासे अत्यन्त बलवान् हूँ, तथापि मेरी प्रार्थना सुनिये ॥ 4 ॥
आपने मुझे हजार भुजाएँ प्रदान की हैं, किंतु ये मेरे लिये भारस्वरूप हो गयी हैं, इस त्रिलोकीमें आपके अतिरिक्त और कोई दूसरा योद्धा मेरे समान नहीं है ॥ 5 ॥
हे देव! अब मैं इन हजार भुजाओंको लेकर क्या करूँ? हे वृषभध्वज! बिना युद्धके पर्वतके सदृश इन भुजाओंका क्या प्रयोजन ? ॥ 6 ॥मैं अपनी इन मजबूत भुजाओंकी खुजली मिटानेके लिये युद्धकी इच्छासे दिग्गजोंके पास गया, वहाँ जाकर मैंने उनके पुरोंको तहस-नहस कर दिया, पर्वतोंको उखाड़ दिया, किंतु वे भी भयभीत होकर भाग गये ॥ 7 ॥
मैंने अपने यहाँ यमराजको योद्धाके रूपमें, अग्निको महान् कर्मकारके रूपमें, वरुणको गायके | पालन करनेवाले गोपालके रूपमें, कुबेरको राजाध्यक्षके रूपमें, निर्ऋतिको अन्तःपुरकी परिचारिकाके रूपमें नियुक्त किया है। मैंने इन्द्रको जीत लिया और उसे लोकमें सदा करदाता बना दिया है। अब आप मुझे | युद्धका कोई ऐसा उपाय बताइये, जहाँपर मेरी ये भुजाएँ शत्रुओंके हाथसे प्रयुक्त शस्त्रास्त्र द्वारा जर्जर कर दी जायँ ॥ 8-10 ॥
हे महेश्वर! ये [मेरी भुजाएँ] शत्रुओंके हाथोंसे गिर जायँ अथवा वे स्वयं उसके हाथोंको हजार टुकड़ोंमें विभक्त कर दें, आप मेरे इस मनोरथको पूर्ण कीजिये ll 11 ॥
सनत्कुमार बोले- भक्तजनोंके संकटको दूर करनेवाले महामन्यु रुद्रने यह सुनकर क्रुद्ध हो अत्यन्त अद्भुत अट्टहास करके कहा- ॥ 12 ॥
रुद्र बोले- हे समस्त दैत्यकुलमें अथम हे अहंकारी! तुझे सब प्रकारसे धिक्कार है, तुझ बलिपुत्र तथा मेरे भक्तके लिये इस प्रकारका वचन कहना उचित नहीं है। तुम अपने इस अहंकारकी शान्ति शीघ्र प्राप्त करोगे। मेरे जैसे बलवान्से तुम्हें अकस्मात् प्रचण्ड युद्धका सामना करना पड़ेगा ।। 13-14 ॥
पर्वतके समान तुम्हारी ये भुजाएँ उस युद्धमें शस्त्रास्त्रोंसे छिन्न-भिन्न होकर इस प्रकार भूमिपर गिरेंगी, जैसे अग्निसे जलाया गया काष्ठ पृथ्वीपर गिर जाता है ॥ 15 ll
हे दुष्टात्मन्! मोरसे युक्त मनुष्यके सिरवाली यह तुम्हारी ध्वजा जो शस्त्रागारपर स्थापित है, वह जब बिना वायुके गिर जाय, तब चित्तमें समझना कि तुम्हारे सामने महाघोर भय उपस्थित हो गया है। उस समय तुम अपनी सेनासहित घोर संग्राममें जाना। अब तुम अपने घर जाओ, अभी वहाँ तुम्हारा सब प्रकारसेकल्याण है। हे दुर्मते! तुम बड़े घोर उत्पातोंको देखोगे। इस प्रकार कहकर अहंकारका नाश करनेवाले भक्तवत्सल शिव मौन हो गये ॥ 16-19 ॥
सनत्कुमार बोले- यह सुनकर बाणासुर अपने अंजलिस्थ दिव्य पुष्पोंसे महादेव रुद्रका पूजन करके उन्हें प्रणामकर अपने घर चला गया। उसने कुम्भाण्डके पूछनेपर हर्षित हो सारा वृत्तान्त कह सुनाया और उत्सुक होकर उस योगकी प्रतीक्षा करने लगा। इसके अनन्तर अकस्मात् अपना ध्वज भग्न हुआ देखकर वह बाणासुर हर्षित होकर युद्धके लिये चल पड़ा ॥ 20-22 ॥
अपनी सेनाको बुलाकर उस महावीर महारथी एवं महोत्साही बलिपुत्र बाणासुर ने अपने आठ गणोंको साथ लेकर संग्रामसम्बन्धी यज्ञकर विजयप्रद मधुका एवं सभी दिशाओंमें मांगलिक द्रव्योंका दर्शनकर युद्धके लिये प्रस्थान किया ।। 23-24 ॥
उसने अपने मनमें विचार किया कि आज रणप्रिय, नाना शस्त्रास्त्रोंका पारगामी वह कौन-सा योद्धा है, जो मुझसे युद्ध करनेके लिये कहाँसे आयेगा ? क्या वह सचमुच मेरी सहस्रों भुजाओंको अग्निदग्ध काष्ठके समान नष्ट कर देगा ? मैं भी युद्धमें महातीव्र अपने शस्त्रोंसे सैकड़ों योद्धाओं को काट डालूँगा ।। 25-26 ॥
इसी बीच शिवजीकी प्रेरणासे वह काल आ पहुँचा, जब वाणासुरको सुन्दर कन्या ऊषा शृंगारकर विराजमान थी ॥ 27 ॥
वह वैशाख मासकी अर्धरात्रिमें विष्णुकी पूजाकर स्त्रीभावसे उपलम्भित होकर गुप्त अन्तः पुरमें सो रही थी। तभी भगवती पार्वतीकी दिव्य मायासे आकृष्ट होनेके कारण कृष्णपुत्र प्रद्युम्नसे उत्पन्न हुए अनिरुद्धने उस रात्रिमें उससे बलपूर्वक विहार किया, जिससे वह अनाथके समान रोने लगी अनिरुद्ध भी उस कन्यासे बलपूर्वक रमणकर पार्वतीकी सखियोंके साथ दिव्य योगसे क्षणमात्रमें द्वारकापुरी चले आये ॥ 28-30 ॥
तब उपभोग की हुई वह कन्या उठकर रोते-रोते अपनी सखियोंसे नाना प्रकारके वाक्य कहते हुए शरीरका त्याग करनेके लिये तैयार हो गयी ll 31 ॥हे व्यासजी ! जब सखियोंने उसके द्वारा किये गये पूर्व दोषका स्मरण कराया, तो वह अपने पूर्व कृत्योंका करने हे मुने! उस समय बाणासुरकी पुत्री ऊषाने कुम्भाण्डकी पुत्री चित्रलेखाये मधुर वाणीमें कहा- ॥ 32-33 ॥
ऊषा बोली हे सखि यदि पार्वतीने पहले ही इसे मेरा पति निश्चित किया है, तो वह गुप्त पति किस उपायसे मुझे प्राप्त हो सकता है? जिसने मेरा मन हरण किया, वह किस कुलमें उत्पन्न हुआ है? ऊपाकी यह बात सुनकर सखीने उससे कहा- ॥ 34-35 ॥
चित्रलेखा बोली- हे देवि! तुमने स्वप्नमें जिस पुरुषको देखा है, उसे मैं किस प्रकारसे लाऊँ, जो मेरे जानसे परे है, उसको ले आना किस प्रकार सम्भव है ! ॥ 36 ॥
उसके ऐसा कहनेपर अनुरागवती दैत्यकन्या ऊषाने उसके वियोगके कारण मरनेका निश्चय कर लिया, किंतु उस सखीने [समझा-बुझाकर] प्रथम दिन उसकी रक्षा की। इसके बाद हे मुनिश्रेष्ठ कुम्भाण्डकी पुत्री महाबुद्धिमती उस चित्रलेखाने बाणासुरकी पुत्री ऊषासे पुन: इस प्रकार कहा- हे सखि ! तुम अपने मनको हरण करनेवाले उस पुरुषको बताओ, यदि वह इस त्रिलोकीमें कहीं भी है, तो मैं उसे लाऊंगी और तुम्हारी विपत्ति दूर करूँगी ॥ 37-39 ॥
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार कहकर चित्रलेखाने वस्त्रके ऊपर देव, दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, नाग तथा यक्ष आदिके चित्र खींचे। उसने मनुष्योंमें वृष्णिवंशी यादवों, शूर, वसुदेव, बलराम, कृष्ण तथा नरश्रेष्ठ प्रद्युम्नका चित्र खींचा ॥ 40-41 ॥
जब उसने प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्धका चित्र खींचा, तो उस चित्रको देखते ही लज्जित हो ऊषाने अपना मुख नीचे कर लिया और मनसे वह अत्यन्त प्रसन्न हुई ॥ 42 ॥
ऊषा बोली- हे सखि ! रात्रिमें आकर जिसने शीघ्र ही मेरे चित्तरत्नको चुराया था, वह यही पुरुष है, मैंने उसे पा लिया। हे भामिनि जिसके स्पर्शमात्रसे मैं मोहित हो गयी थी, उसे मैं जानना चाहती हूँ, तुम सब कुछ बताओ। यह किसके कुलमें उत्पन्न हुआ है और इसका क्या नाम है ? ऊषाके ऐसा कहनेपर उस योगिनीने उसके वंश तथा नामका वर्णन किया ।। 43-45 ॥हे मुनिसत्तम। उसका कुल आदि सब कुछ जानकर बाणासुरकी पुत्री उस कामिनी ऊषाने उत्कण्ठित हो इस प्रकार कहा- ॥ 46 ll
ऊषा बोली - हे सखि ! अब तुम उसकी प्राप्तिके लिये प्रेमपूर्वक कोई उपाय करो, जिससे मैं अपने उस प्राणवल्लभ पतिको शीघ्र प्राप्त कर सकूँ ।। 47 ।। हे सखि ! मैं जिसके बिना एक क्षण भी जीवन धारण करनेमें समर्थ नहीं है, उसे प्रयत्नपूर्वक शीघ्र यहाँ लाओ और मुझे सुखी करो। 48 ।। सनत्कुमार बोले हे मुनिवर! तब बाणकी कन्याके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर मन्त्री कुम्भाण्डकी पुत्री चित्रलेखा विस्मित हो गयी और विचार करने लगी ।। 49 ।।
इसके बाद सखीसे आज्ञा लेकर मनके समान वेगवाली वह चित्रलेखा उस पुरुषको कृष्णका पौत्र अनिरुद्ध जानकर द्वारका जानेको उद्यत हो गयी ॥ 50 ॥
वह ज्येष्ठ मासके कृष्णपक्षको चतुर्दशीको प्रातः कालसे तीन प्रहर बीत जानेपर द्वारकापुरी पहुँची। उस दिव्य योगिनीने क्षणमात्रमें आकाशमार्गसे अन्तः पुरके उद्यानमें प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्धको देखा। उस समय सर्वांगसुन्दर श्यामवर्ण तथा नवीन यौवनयुक्त वे अनिरुद्ध स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा कर रहे थे। वे माधवी लतासे निर्मित मधुका पान कर रहे थे और मन्द-मन्द हँस रहे थे ॥ 51 - 53 ॥
उसके बाद शय्यापर बैठे हुए उन अनिरुद्धको उसने तामस योगके द्वारा अन्धकार-पटसे आच्छादित कर दिया, पुनः उस शय्याको अपने सिरपर रखकर वह क्षणमात्रमें शोणितपुरमें आ गयी, जहाँ कामपीड़ित वह बाणकन्या ऊषा उन्मत्तचित्त होकर नाना प्रकारके भाव व्यक्त कर रही थी उस समय लाये गये अपने पति अनिरुद्धको देखकर ऊषा भयभीत हो गयी ।। 54-56 ॥
अत्यन्त सुरक्षित उस अन्तः पुरमें नवीन समागममें ज्यों ही उन दोनोंने क्रीड़ा प्रारम्भ की, उसी समय हाथमें बेंत लिये द्वारपालोंने कामचेष्टाओं तथा अनुमानोंसे कन्याके दुराचरणको जान लिया। उन लोगोंने दिव्य शरीरधारी, नवयुवक, साहसी एवं युद्धकलामें कुशल उस पुरुष (अनिरुद्ध) को भी देख लिया ॥ 57-59॥इसके बाद अन्त: पुरके रक्षक उन महावीर पुरुषोंने उसे देखकर सारा वृत्तान्त बलिपुत्र बाणसे कह दिया ॥ 60 ॥
द्वारपाल बोले- हे देव! अत्यन्त सुरक्षित अन्तः पुरमें प्रवेशकर किसी पुरुषने आपकी कन्याके |साथ बलात् शयन किया है, वह कौन है, हमलोग उसे नहीं जानते। हे दानवेन्द्र ! हे महाबाहो ! इसे देखिये, देखिये और जो उचित हो, उसे कीजिये, हमलोग दोषी नहीं हैं ॥ 61-62 ॥
सनत्कुमार बोले- - हे मुनिश्रेष्ठ ! उनका वचन सुनकर और कन्याका दोष सुनकर महाबली दैत्येन्द्र [[बाणासुर] आश्चर्यचकित हो गया ॥ 63 ॥