वायुदेव बोले- जब ब्रह्माजीद्वारा रची गयी प्रजाओंका पुनः विस्तार नहीं हुआ, तब ब्रह्माजीने मैथुनी सृष्टि करनेका विचार किया। पूर्व समयमें तबतक स्त्रियोंका कुल ईश्वरसे उत्पन्न नहीं हुआ था, इस कारणसे ब्रह्माजी मैथुनी सृष्टि नहीं कर सके ॥ 1-2 ॥ उसके बाद ब्रह्माजीको अपना कार्य सिद्ध करनेवाली बुद्धि उत्पन्न हुई कि प्रजाओंकी वृद्धिके लिये परमेश्वरसे पूछना चाहिये; क्योंकि उनके अनुग्रहके बिना इन प्रजाओंकी वृद्धि नहीं हो सकती ऐसा विचारकर विश्वात्मा ब्रह्माजीने तप करनेका निश्चय किया । ll 3-4 ॥
तब जो आद्या, अनन्ता, लोकभाविनी, आदिशक्ति, अत्यन्त सूक्ष्म, शुद्ध, भावगम्य, मनोहर, निर्गुण, प्रपंचरहित, निष्कल, उपद्रवरहित, सदा तत्पर रहनेवाली, नित्य तथा सर्वदा ईश्वरके पास रहनेवाली हैं, उन परम शक्तिसे संवलित भगवान् शिवका मनमें चिन्तन करके ब्रह्माजी कठोर तप करने लगे ॥ 5-7 ॥
तब कठोर तपमें लीन उन ब्रह्मापर शिवजी थोड़े ही समयमें सन्तुष्ट हो गये। इसके बाद अपने अनिर्वचनीय अंशसे किसी अद्भुत मूर्तिमें प्रविष्ट हो अर्धनारीश्वररूप धारणकर शिवजी स्वयं ब्रह्माजीके समीप गये ।। 8-9 ।।
तमसे परे, अविनाशी, अद्वितीय, अनिर्देश्य, पापियोंके लिये अदृश्य, सभी लोकोंके विधाता, सभी लोकोंके ईश्वरके भी ईश्वर, सर्वलोक विधायिनी परम शक्ति से समन्वित अप्रतर्क्स, प्रत्यक्षके अविषय, अप्रमेय, अवर, ध्रुव, अचल, निर्गुण, शान्त, अनन्त महिमासे युक्त, सर्वगामी, सर्वदाता सत्-असत् अभिव्यक्तिसे रहित, सभी उपमानोंसे रहित, शरण्य तथा शाश्वत उन परमदेव शिवजीको ब्रह्माजीने देखा, [तब वे] उठकर हाथ जोड़कर दण्डवत् प्रणाम करके श्रद्धा-विनयसे सम्पन्न, सुनानेयोग्य, संस्कार तथा यथार्थतासे युक्त, सम्पूर्ण अर्थोंसे समन्वित वेदार्थसे परिबृंहित सूक्ष्म असे परिपूर्ण कोंसे शिव तथा पार्वतीकी स्तुति करने लगे । ll 10-15 ।।
ब्रह्माजी बोले- हे देव! आपकी जय हो, हे महादेव! आपकी जय हो। हे ईश्वर! हे महेश्वर! आपकी जय हो, सर्वगुणश्रेष्ठ! आपकी जय हो, हे सभी देवताओंके अधीश्वर! आपको जय हो ।। 16 ।।हे प्रकृतिकल्याणि ! आपकी जय हो, हे प्रकृतिनायिके! आपकी जय हो। हे प्रकृतिदूरे! आपकी जय हो, हे प्रकृतिसुन्दरि ! आपकी जय ॥ 17 ॥
हे अमोघ महामायावाले! आपकी जय हो, हे अमोघ मनोरथवाले! आपकी जय हो। हे अमोघ महालीला करनेवाले! आपकी जय हो। हे अमोघ महाबलवाले! आपकी जय हो। हे विश्वजगन्मातः ! आपकी जय हो, हे विश्वजगन्मयि! आपकी जय हो। हे विश्वजगद्धात्रि! आपकी जय हो, हे विश्वजगत्सखि ! आपकी जय हो। हे शाश्वत ऐश्वर्यवाले! आपकी जय हो हे शाश्वतस्थानवाले! आपकी जय हो, हे शाश्वत आकारवाले! आपकी जय हो हे शाश्वत अनुगमन किये जानेवाले! आपकी जय हो । ll 18-20 ॥
[ ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वररूप] तीनों आत्माओंका निर्माण करनेवाली! आपकी जय हो, तीनों आत्माओंका पालन करनेवाली! आपकी जय हो, तीनों आत्माओंका संहार करनेवाली! आपकी जय हो, तीनों आत्माओंकी नायिकारूपिणि! आपकी जय हो। अपने अवलोकनमात्रसे जगत्कार्यके कारणभूत [अव्यक्तादिका] उपबृंहण (विस्तार) करनेवाले ! आपकी जय हो, उपेक्षापूर्वक अपने कटाक्षोंसे उत्पन्न अग्निद्वारा [ प्रलयकालमें] समस्त भौतिक पदार्थोंको भस्म करनेवाले! आपकी जय हो । ll 21-22 ।।
हे देवता आदिसे भी ज्ञात न होनेवाली! हे आत्म-तत्त्वके सूक्ष्म विज्ञानसे प्रकाशित होनेवाली ! आपकी जय हो हे स्थूल आत्मशक्तिसे जगत्को नियन्त्रित करनेवाली! आपकी जय हो। हे [ अपने स्वरूपसे] चराचरको व्याप्त करनेवाली! आपकी जय हो ।। 23 ।।
सारे ब्रह्माण्डके तत्त्वसमुच्चयको अनेक तथा एक रूप होकर धारण करनेवाले! आपकी जय हो। असुरोंके मस्तकोंपर [मानो] आरूढ़ हुए उत्तम भक्तवृन्दवाले! आपकी जय हो। अपनी उपासना करनेवाले भक्तोंकी रक्षामें अतिशय सामर्थ्यवाली! आपकी जय हो । संसाररूपी विषवृक्षके उगनेवाले अंकुरोंका उन्मूलन करनेवाली! आपकी जय हो ।। 24-25 ।।अपने भक्तजनोंके ऐश्वर्य, वीर्य तथा शौर्यको विकसित करनेवाले! आपकी जय हो विश्वसे बहिर्भूत तथा अपने वैभवसे दूसरोंके वैभवोंको तिरस्कृत करनेवाले! आपकी जय हो। पंचवि मोक्षरूप पुरुषार्थके प्रयोगद्वारा परमानन्दमय अमृतक प्राप्ति करानेवाले! आपकी जय हो। पंचविध पुरुषार्थके विज्ञानरूपी अमृतकी स्रोत स्वरूपिणि! आपकी जय हो ।। 26-27 ॥
अत्यन्त घोर संसाररूपी महारोगको दूर करनेवाले श्रेष्ठ वैद्य! आपकी जय हो अनादिकालसे होनेवाले पाप अज्ञानरूपी अन्धकारको हरण करनेके लिये चन्द्रिकारूपिणि! आपकी जय हो। हे त्रिपुरका विनाश करनेके लिये कालाग्निस्वरूप आपकी जय हो हे त्रिपुरभैरवि ! आपकी जय हो हे त्रिगुणनिर्मुक्ते! आपकी
जय हो, हे त्रिगुणमर्दिनि! आपकी जय हो । ll 28-29 ।। हे आदि सर्वज्ञ! आपकी जय हो. हे सर्वप्रबोधिके! आपकी जय हो, आपकी जय हो। हे अत्यन्त मनोहर अंगोंवाले! आपकी जय हो, हे प्रार्थित वस्तु प्रदान करनेवाली! आपकी जय हो ॥ 30 ॥
हे देव! कहाँ आपका उत्कृष्ट धाम और कहाँ हमारी तुच्छ वागी, फिर भी हे भगवन्! भक्तिसे प्रलाप करते हुए मुझको क्षमा करें। विश्वविधाता चतुर्मुख ब्रह्मने इस प्रकारके सूक्तोंसे प्रार्थना करके रूद्र तथा रुद्राणीको बारंबार नमस्कार किया ।। 31-32 ॥
ब्रह्माजीद्वारा कथित अर्धनारीश्वर नामक यह श्रेष्ठ स्तोत्र पुण्य देनेवाला है और शिव तथा पार्वतीके हर्षको बढ़ानेवाला है। जो कोई भक्तिभावसे जिस किसी भी वस्तुकी कामनासे इसका पाठ करता है, वह शिव एवं पार्वतीको प्रसन्न करनेके कारण उस | फलको प्राप्त कर लेता है। समस्त भुवनोंके प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले, जन्म और मृत्युसे रहित विग्रहवाले, श्रेष्ठ नर और नारीका देह धारण करनेवाले शिव और शिवाको में निरन्तर प्रणाम करता हूँ ।। 33-35 ॥