मुनि बोले - [ हे देव !] अब सभी मन्वन्तरों, समस्त कल्पभेदों और उनमें होनेवाले अवान्तर सर्ग तथा प्रतिसर्गका वर्णन हमलोगोंसे कीजिये ॥ 1 ॥
वायु बोले - [ हे मुनियो!] मैंने कालगणनाके प्रसंग में कहा है कि ब्रह्माकी आयु परार्धपर्यन्त है। जब परार्धकाल पूर्ण हो जाता है, तो सृष्टि विनष्ट हो जाती है। सबसे पहले उत्पन्न होनेवाले उन ब्रह्माजीके एक-एक दिनमें चौदह चौदह मनुओंका काल व्यतीत होता है। अनादि, अनन्त तथा अज्ञेय होनेसे सभी मन्वन्तर और कल्पोंका वर्णन अलग-अलग नहीं किया जा सकता है ॥ 2-4 ॥
आपलोग मेरी बात सुनिये। उन सभीका वर्णन किये जानेपर भी उस वर्णनका कोई फल नहीं है, इसीलिये मैं उन्हें पृथक्रूपसे नहीं कह सकता ॥ 5 ॥इस समय कल्पोंके क्रममें जो वर्तमान कल्प चल रहा है, उसीमें संक्षिप्त रूपसे सृष्टि और संहार होते हैं। हे द्विजश्रेष्ठो! यह जो वाराह नामक कल्प चल रहा है, इसमें भी चौदह मनु हैं ॥ 6-7 ॥
स्वायम्भुव आदि [ जो पूर्ववर्ती] सात मनु हैं तथा सावर्णि आदि [जो उत्तरवर्ती] सात मनु हैं। उनमें इस समय सातवें वैवस्वत मनु वर्तमान हैं ॥ 8 ॥
सभी मन्यन्तरोंमें सृष्टि और संहारका क्रम समान ही होता है- विद्वानोंको ऐसा जानना चाहिये ॥ 9 ॥
इस कल्पके पहले जब प्रलयकाल उपस्थित हुआ, तब बड़े जोरसे आँधी चलने लगी, वृक्ष एवं वन उखड़कर नष्ट हो गये, अग्निदेवने तीनों लोकोंको तृणके समान जला डाला, वर्षासे पृथ्वी भर उठी, सभी समुद्र उद्वेलित हो उठे, महान् जलराशिमें सभी दिशाएँ मग्न हो गयीं, उस प्रलय कालीन जलमें समुद्र अपनी चंचल तरंगरूपी भुजाओंको ऊपर उठा-उठाकर भयानक नृत्य करने लगे, उस | समय ब्रह्माजी नारायणरूप होकर सुखपूर्वक जलमें शयन कर रहे थे। उन नारायणके प्रति यह मन्त्रात्मक श्लोक कहा गया है, है मुनिश्रेष्ठो! अक्षर [परमतत्त्व] का प्रतिपादन करनेवाले उस अर्थको सुनिये जलको नार कहा गया है; क्योंकि उसकी उत्पत्ति भगवान् नरसे हुई है। वही जल पूर्वकालमें उनके रहनेका स्थान हुआ, इसीलिये उन्हें नारायण कहा गया है ॥ 10-15 ll
इसके पश्चात् प्रातः काल उपस्थित होनेपर शिव योगमयी निद्रा लेते हुए देवेश्वर [नारायणस्वरूप ब्रह्माजी] को जनलोकनिवासी सिद्धगण तथा देवता हाथ जोड़कर अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे जगाने लगे, जैसे पूर्वकालमें सृष्टिके प्रारम्भमें श्रुतियाँ ईश्वरको जगाती रही हैं। तब योगनिद्रासे अलसाये नेत्रोंवाले वे [नारायणस्वरूप ब्रह्माजी] निद्रा त्यागकर तथा जलके मध्यमें स्थित शय्यासे उठ करके सभी दिशाओंको | देखने लगे ।। 16-18 ॥जब उन्होंने अपने अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखा, तब विस्मित होकर यह चिन्ता करने लगे-अनेक प्रकारके महाशैल, नदी, नगर तथा बनवाली, मनोहर | एवं विशाल जो ऐश्वर्यशालिनी पृथ्वी थी, वह कहीं चली गयी ? ।। 19-20 ॥
इस तरह सोचते हुए ब्रह्माजीको जब पृथ्वीको स्थितिका ज्ञान नहीं हुआ, तो वे अपने पिता भगवान् सदाशिवका स्मरण करने लगे। तब अमित तेजस्वी देवदेव सदाशिवका स्मरण करते ही धरणीपति ब्रह्मदेवने जान लिया कि पृथ्वी जलमें निमग्न है । ll 21-22 ॥
तत्पश्चात् पृथ्वीका उद्धार करनेकी इच्छावाले प्रजापतिने जलक्रीडाके योग्य दिव्य वाराहरूपका स्मरण किया। महान् पर्वतके समान शरीरवाले, महामेघ के समान गर्जनवाले, नीलमेघसदृश कान्तिवाले तथा उत्कट, भयानक शब्द करते हुए, मोटे सुपुष्ट और गोल कन्धेवाले, मोटे और ऊंचे कटिप्रदेशवाले, छोटे एवं गोल करु तथा धाके आप्रभागवाले, तीक्ष्ण खुरमण्डलवाले, पद्मराग- मणिके समान आभावाले, गोल एवं भयानक नेत्रवाले और दीर्घ गोल गात्रवाले, स्तब्ध तथा उज्ज्वल कर्णप्रदेश वाले, छोड़े गये दीर्घ | श्वासोच्छ्वाससे प्रलयकालीन समुद्रको क्षुब्ध करनेवाले, बिखरे अपलोंसे आच्छन्न रूपोल एवं स्कन्धभगवा मणिजटित आभूषणों तथा अद्भुत महारत्नोंसे अलंकृत, मानो विद्युत्से सुशोभित ऊँचा मेघमण्डल ही स्थित | हो ऐसे अत्यधिक विशाल वराहरूपको धारण करके पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये ब्रह्माजी रसातलमें प्रविष्ट हुए ।। 23-29 ॥
पर्वतके समान [विशाल] शूकररूपधारी ब्रह्माजी शिवलिंगके पादपीठके समान अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे। इसके पश्चात् वे जलमें निमग्न पृथ्वीको उठाकर अपने दाढ़के ऊपर धारणकर रसातलसे ऊपर आये ।। 30-31 ॥
उन्हें देखकर जनलोकनिवासी मुनि एवं सिद्धगण हर्षित होकर नृत्य करने लगे और उनके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ 32 ॥उस समय पुष्पोंसे आच्छादित महावाराहका शरीर उड़-उड़कर गिरते हुए खद्योतोंसे आवृत अंजनपर्वतके समान शोभायमान हो रहा था ॥ 33 ॥ तत्पश्चात् भगवान् वराहने महती पृथ्वीको लाकर अपना रूप धारण करके उसे यथास्थान स्थापित कर दिया। उन्होंने पृथ्वीको समतल करके उस पृथ्वीपर पर्वतोंकी स्थापना करते हुए पूर्वकी भाँति भूः आदि चार लोकोंको भी स्थापित किया। इस प्रकार प्रलय-कालीन महासागरके नीचे स्थित जलके बीचसे पर्वतों-सहित विशाल पृथ्वीको जलके ऊपर स्थापित करके पुनः उन विश्वकर्माने उसपर चराचर जगत्की रचना की । ll 34-36 ॥