नन्दीश्वर बोले- हे सनत्कुमार! हे सर्वज्ञ! अब आप सर्वव्यापी परमात्मा शिवके अश्वत्थामा नामक श्रेष्ठ अवतारको सुनें ॥ 1 ॥
हे मुने! महाबुद्धिमान् देवर्षि बृहस्पतिके अंशसे महर्षि भरद्वाजसे अयोनिज पुत्रके रूपमें आत्मवेत्ता द्रोण उत्पन्न हुए, जो धनुषधारियोंमें श्रेष्ठ पराक्रमी, विप्रोंमें श्रेष्ठ, सम्पूर्ण शास्त्रोंके जाननेवाले, विशाल कीर्तिवाले, महातेजस्वी एवं सभी अस्त्रोंके ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ थे, जिन द्रोणको विद्वान् लोग धनुर्विद्यामें तथा वेदमें पारंगत, वरिष्ठ, आश्चर्यजनक कार्य करनेवाला और अपने कुलको बढ़ानेवाला कहते हैं। ll 2-43 ll
हे द्विज। वे अपने पराक्रमके प्रभावसे कौरवोंके आचार्य थे एवं उन कौरवोंके छः महारथियोंमें प्रसिद्ध थे ॥ 5 ॥
उन द्विजोत्तम द्रोणाचार्यने कौरवोंकी सहायताके लिये पुत्रकी इच्छासे शिवजीको लक्ष्य करके बहुत बड़ा तप किया। उसके बाद हे मुनिसत्तम! [उनके तपसे] प्रसन्न होकर भक्तवत्सल शिवजी द्रोणाचार्यके समक्ष प्रकट हुए ।। 6-7 ।।
उन्हें देखकर उन ब्राह्मण द्रोणने उन्हें शीघ्रतासे प्रणाम करके हाथ जोड़कर विनम्र हो अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर उनकी स्तुति की ॥ 8 ॥ उनकी स्तुति तथा तपस्यासे सन्तुष्ट हुए भक्तवत्सल प्रभु शंकरने द्रोणाचार्यसे 'वर माँगो' ऐसा कहा ॥ 9 ॥ शिवजीके इस वचनको सुनकर अति विनम्र द्रोणाचार्यने कहा कि मुझे महाबली, सबसे अजेय तथा अपने अंशसे उत्पन्न एक पुत्र दीजिये ॥ 10 ॥हे तात! हे मुने! द्रोणाचार्यका वचन सुनकर कौतुक करनेवाले परम सुखकारी शिवजीने 'ऐसा ही होगा- यह कहा और वे अन्तर्धान हो गये।। ll 114 ll
द्रोणाचार्य भी निःशंक हो प्रसन्नतापूर्वक अपने घर लौट गये और उन्होंने वह सारा वृत्तान्त अपनी स्त्रीसे प्रेमपूर्वक कहा। इसके बाद अवसर पाकर वे सर्वान्तक प्रभु रुद्र अपने अंशसे द्रोणके महाबलवान् पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुए ।। 12-13 ॥ हे मुने! वे पृथ्वीपर अश्वत्थामा नामसे विख्यात हुए, वे महान् वीर थे, उनकी आँखें कमलपत्रके समान थीं और वे शत्रुपक्षका विनाश करनेवाले थे ॥ 14 ॥
ये महाबली अश्वत्थामा महाभारतके संग्राममें पिताकी आज्ञासे कौरवोंके सहायक के रूपमें प्रसिद्ध हुए उन महाबली अश्वत्थामाका आश्रय लेनेके कारण ही महाबलवान् भीष्म आदि कौरवगण देवताओंके लिये भी अजेय हो गये ।। 15-16 ।।
उन्हीं से भयभीत होनेके कारण पाण्डवलोग कौरवोंको जीतनेमें अपनेको असमर्थ पा रहे थे और परम बुद्धिमान् तथा महान् वीर होकर भी अश्वत्थामाके भयसे असमर्थ हो गये। तब श्रीकृष्णके उपदेश महाबली अर्जुनने शिवकी कठोर तपस्याकर उनसे अस्त्र प्राप्त करके उन कौरवोंपर विजय प्राप्त की ।। 17-18 ।।
हे मुने! उस समय महादेवके अंशसे उत्पन्न हुए। उन अश्वत्थामाने कौरवोंकी भक्तिसे प्रसन्न होकर उनके वशीभूत होकर युद्धमें यत्नपूर्वक शिक्षित पाण्डवपुत्रोंका विनाश करके अपना प्रताप दिखाया, श्रीकृष्ण आदि महावीर बलवान् शत्रु भी उनके बलको रोक नहीं सके ll 19-20 ।।
पुत्रके शोक सन्तप्त अर्जुनको श्रीकृष्णके साथ रथसे अपनी ओर आता हुआ देखकर वे भाग खड़े हुए ॥ 21 ॥
अश्वत्थामाने अर्जुनपर ब्रह्मशिर नामक अस्त्रका प्रहार किया, उससे सभी दिशाओंमें प्रचण्ड तेज उत्पन्न हो गया। अपने प्राणोंपर आयी हुई आपत्तिको देखकर अर्जुन दुखी हुए और उनका तेज नष्ट हो गया, तब उन्होंने क्लेशक्रान्त तथा भयभीत होकर श्रीकृष्णसे कहा- ll 22-23 ।।अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! यह क्या हैं, यह दुःसह तेज चारों ओरसे घेरे हुए कहाँसे आ रहा है, मैं इसे नहीं जान पा रहा हूँ ॥ 24 ॥
नन्दीश्वर बोले- अर्जुनका यह वचन सुनकर महाशैव उन श्रीकृष्णने पार्वतीसहित शिवका ध्यान करते हुए आदरपूर्वक अर्जुनसे कहा- ॥ 25 ॥
श्रीकृष्ण बोले- यह द्रोणाचार्यके पुत्रका महातेजस्वी ब्रह्मास्त्र है, इसके समान शत्रुओंका घातक कोई दूसरा अस्त्र नहीं है, ऐसा जानना चाहिये। आप शीघ्र ही भक्तोंकी रक्षा करनेवाले अपने प्रभु शंकरका ध्यान कीजिये, जिन्होंने आपका सारा कार्य सम्पादन करनेवाला अपना सर्वोत्कृष्ट अस्त्र आपको प्रदान किया है। आप इस अस्त्रके परमतेजको अपने शैवास्त्रके तेजसे नष्ट कीजिये, इतना कहकर स्वयं श्रीकृष्ण अर्जुनकी रक्षाके लिये शिवका ध्यान करने लगे । 26 - 28 ॥ हे मुने! श्रीकृष्णकी बात सुनकर अर्जुनने अपने मनमें शिवजीका ध्यान किया और इसके बाद जलसे आचमनकर शिवको प्रणाम करके उस अस्त्रको शीघ्र ही [ अश्वत्थामापर] छोड़ा ॥ 29 ॥
हे महामुने ! यद्यपि वह ब्रह्मशिर नामक अस्त्र अमोघ है तथा इसकी प्रतिक्रिया करनेवाला कोई अन्य अस्त्र नहीं है, फिर भी वह शिवजीके अस्त्रके तेजसे उसी क्षण शान्त हो गया ॥ 30 ॥
अद्भुत चरित्रवाले उन शिवके सम्बन्धमें इसे आश्चर्य मत समझिये, जो अजन्मा शिव अपनी शक्तिसे सारे संसारको उत्पन्न करते हैं, उसका पालन करते हैं तथा संहार करते हैं ॥ 31 ॥
हे मुने! इसके बाद शिवके अंशसे उत्पन्न हुए तथा शिवजीकी इच्छासे तुष्ट बुद्धिवाले अश्वत्थामा इस शैववृत्तान्तको जानकर कुछ भी व्यथित नहीं हुए ।। 32 ।। इसके बाद अश्वत्थामाने इस सम्पूर्ण संसारको पाण्डवोंसे रहित करनेके लिये उत्तराके गर्भमें स्थित बालकको विनष्ट करनेका निश्चय किया ॥ 33 ॥तब उस महाप्रभावशालीने महातेजस्वी तथा अन्य अस्त्रोंद्वारा रोके न जा सकनेवाले ब्रह्मास्त्रको उत्तराके गर्भपर चलाया। तब उस अस्त्रसे जलती हुई अर्जुनकी पुत्रवधू उत्तरा व्याकुलचित्त होकर लक्ष्मीपति श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगी ।। 34-35 ।।
इसके बाद श्रीकृष्णने हृदयसे सदाशिवका ध्यानकर उनकी स्तुति की तथा उन्हें प्रणामकर जान लिया कि पाण्डवेोक विनाशके लिये यह अश्वत्थामाका अस्त्र है। उन्होंने शिवजीकी आज्ञासे अपनी रक्षाके लिये इन्द्रद्वारा प्रदत्त अपने महातेजस्वी सुदर्शन चक्रसे उसकी रक्षा की ॥ 36-37 ।।
शंकरकी आज्ञासे उन महाशैव श्रीकृष्णने गर्भमें अपना स्वरूप भी धारण किया, यह चरित्र जानकर अश्वत्थामा उदास हो गये ॥ 38 ॥
उसके बाद प्रसन्नचित्त महाशैव श्रीकृष्ण अश्वत्थामाको प्रसन्न करनेके लिये सभी पाण्डवोंको उनके चरणोंमें गिराया ।। 39 ।।
तदनन्तर प्रसन्नचित्त द्रोणाचार्यके पुत्र अश्वत्थामाने श्रीकृष्ण एवं समस्त पाण्डवोंपर अनुग्रह करके प्रेमपूर्वक उन्हें अनेक प्रकारके वर दिये ॥ 40 ॥ हे तात! हे मुनिश्रेष्ठ इस प्रकार अश्वत्थामाके रूपमें पृथ्वीपर अवतार लेकर प्रभु शिवजीने अत्यन्त उत्तम लीला की ॥ 41 ॥
त्रैलोक्यको सुख देनेवाले महापराक्रमशाली, शिवावतार अश्वत्थामा आज भी गंगातटपर विद्यमान हैं ।। 42 ।।
हे मुने! इस प्रकार मैंने आपसे अश्वत्थामाके रूपमें प्रभु शिवजीके अवतारका वर्णन किया, जो सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला तथा भक्तोंको अभीष्ट फल प्रदान करनेवाला है ॥ 43 ॥
जो [मनुष्य] भक्तिपूर्वक इस चरित्रको सुनता है। अथवा सावधान होकर इसका कीर्तन करता है, वह अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है और अन्तमें शिवलोकको जाता है ॥ 44 ll