सूतजी बोले- पूर्व समयमें [छींकते समय ] मनुकी नासिकासे इक्ष्वाकु नामक पुत्रका जन्म हुआ। उन इक्ष्वाकुके विपुल दक्षिणा देनेवाले सौ पुत्र हुए ॥ 1 ॥
हे द्विजो! उनके बाद इस आर्यावर्तमें अनेक राजा हुए। इक्ष्वाकुके पुत्रोंमें सबसे बड़ा विकुक्षि था, वह अयोध्याका राजा हुआ ॥ 2 ॥
उसका वह कर्म प्रेमपूर्वक श्रवण करें, जो ब्रह्मवंशमें उत्पन्न होनेपर भी उससे [मोहवश] हो गया। पिताने श्राद्धकर्म करनेके लिये उसे श्राद्धसामग्री एकत्रित करनेकी आज्ञा दी, किंतु उसने श्राद्धकर्म किये बिना ही श्राद्धके लिये लाये गये खरगोशका भक्षण कर लिया, जिससे वह 'शशाद' कहा जाने लगा। इक्ष्वाकुने उसका त्याग कर दिया, तब वह शशाद वनकी ओर चला गया ॥ 3-4 ll
इक्ष्वाकुके मरनेके पश्चात् वह वसिष्ठके वचनानुसार राजा हुआ। शकुनि आदि नामोंवाले उसके पन्द्रह पुत्र कहे गये हैं ॥ 5 ॥वे सभी उत्तरापथ देशकी रक्षा करनेवाले राजा हुए। अयोधका पराक्रमी पुत्र ककुत्स्थ नामवाला हुआ। ककुत्स्थका पुत्र अरिनाभ तथा उसका पुत्र पृथु हुआ। पृथुका पुत्र विष्टराश्व और उससे इन्द्र [नामक] प्रजापति हुए ।। 6-7 ॥
इन्द्रका पुत्र युवनाश्व और उसका पुत्र प्रजापति श्राव हुआ। उसका पुत्र बुद्धिमान् श्रावस्त हुआ, |जिसने श्रावस्ती नामक पुरीका निर्माण किया। श्रावस्तका पुत्र महायशस्वी बृहदश्व हुआ। उसका पुत्र युवनाश्व तथा उसका पुत्र कुवलाश्व हुआ, वह श्रेष्ठ राजा [कुवलाश्व] धुन्धुका वध करनेके कारण धुन्धुमार नामसे प्रसिद्ध हुआ। कुवलाश्वके पिताने कुवलाश्वको राजपदपर अभिषिक्त किया। कुवलाश्वके महाधनुर्धर सौ पुत्र थे ॥ 8-10 ॥
पुत्रको अपना राज्यभार देकर राजा [युवनाश्व] वनको जाने लगे, तब [वन] जाते हुए उन राजर्षिको उत्तंकने रोका ॥ 11 ॥
उत्तक बोले- हे राजन्! सुनिये, आपको धर्मपूर्वक पृथ्वीकी रक्षा करनी चाहिये, आप महात्माद्वारा रक्षा की जाती हुई इस पृथ्वीपर शान्ति रहेगी, अतः वन मत जाइये। मेरे आश्रमके समीप समतल मरुस्थलमें, जो कि समुद्रकी बालुकाओंसे पूर्ण है, एक बलोन्मत्त दानव रहता है, वह देवताओंसे भी अवध्य है, विशाल शरीरवाला तथा महाबली है ll 12-14 ॥
भूमिके भीतर प्रविष्ट होकर बालुका मध्यमें छिपा हुआ राक्षस मधुका अत्यन्त भयंकर धुन्धु नामक पुत्र कठिन तपस्यामें स्थित होकर लोकका नाश करनेके लिये उसीमें शयन कर रहा है ॥ 153 ll
वह एक वर्षके बाद जब श्वास छोड़ता है, तब वन तथा पर्वतोंके सहित पृथ्वी कम्पित हो जाती है, उस समय उसके अंगार, चिनगारी और धुआँसे युक्त भयानक निःश्वाससे लोक भर जाता है। हे राजन्! इस कारणसे मैं अपने उस आश्रममें रहने में समर्थ नहीं हो पाता हूँ। अतः हे महाबाहो ! लोकहितकी कामनासे आप उसे मार डालिये। आपके द्वारा उसके मारे जानेपर सभी लोग सुखी हो जायेंगे, हे पृथ्वीपते। उसे मारने में आप ही समर्थ हैं ।। 16-19 ॥हे अनघ! पूर्व युगमें विष्णुने मुझको महान् वरदान दिया था, अतः वे विष्णु अपने तेजसे आपके तेजका संवर्धन करेंगे। इस लोकमें प्रजापालनमें महान् धर्म देखा जाता है, वैसा धर्म वनमें नहीं देखा जाता है, अतः आप ऐसा विचार छोड़ दें। हे राजेन्द्र ! ऐसा धर्म कहीं नहीं है, जैसा प्रजाओंके पालनमें है. पूर्वकालके राजर्षियोंने ऐसा ही धर्माचरण किया था । ll 20-22 ॥
इस प्रकार महात्मा उत्तंकके द्वारा कहे जानेपर | उन राजर्षिने धुन्धुका वध करनेके लिये अपना पुत्र कुवलाश्व उनको दे दिया ॥ 23 ॥
हे भगवन्! हे द्विजश्रेष्ठ! मैंने शस्त्रका त्याग कर दिया है, यह मेरा पुत्र ही [उस दैत्य] धुन्धुका वध करेगा, इसमें सन्देह नहीं है-ऐसा कहकर और अपने पुत्रको आज्ञा देकर वे राजा तप करनेके लिये चले गये। इसके बाद कुवलाश्व धुन्धुका वध करनेके | लिये उत्तंकके साथ चल दिया ।। 24-25 ll
उस समय प्रभु भगवान् विष्णु उत्तंककी प्रेरणासे तथा लोकहितको कामनासे अपने तेजके साथ उसमें प्रवेश कर गये ॥ 26 ॥
उस दुर्धर्ष कुवलाश्वके प्रस्थान करनेपर आकाशमें महान् ध्वनि होने लगी कि यह श्रीमान् राजपुत्र धुन्धुका वध करेगा। उस समय देवता सभी ओरसे उसके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वृष्टि करने लगे और जय-जीव कहते हुए उसकी प्रशंसा करने लगे ll 27-28 ॥
जीतनेवालोंमें श्रेष्ठ उस राजाने अपने पुत्रोंके साथ वहाँ जाकर बालुकाके मध्यमें समुद्रको खोदना प्रारम्भ किया। विप्रर्षि [उत्तंक तथा] नारायणके तेजसे व्याप्त हुआ वह (राजपुत्र कुवलाश्ख] महातेजस्वी तथा अत्यन्त बलवान् हो गया था ॥ 29-30 ॥
हे ब्रह्मन् समुद्रको खोदते हुए उसके पुत्रोंने पश्चिम दिशाका आश्रय ले करके बालुका बीचमें स्थित उस धुन्धुको प्राप्त कर लिया ॥ 31 ॥
वह अपने मुखसे उत्पन्न अग्निसे क्रोधपूर्वक जगत्को मानो भस्म- सा करता हुआ वेगके साथ जल बरसाने लगा, जैसे कि पूर्ण चन्द्रमाके उदय होनेपर समुद्रका जल भी ऊपर उठने लगता है ॥ 32 ॥हे मुनीश्वर। उसकी मुखाग्निसे कुवलाश्वके जो सौ पुत्र थे, उनमें केवल तीन ही शेष रहे और सब मरकर भस्म हो गये। हे विप्रेन्द्र! इसके बाद वह महातेजस्वी राजा महाबलवान् तथा ब्राह्मणविनाशक उस धुन्धु राक्षसके समीप पहुँच गया ।। 33-34 ।।
उस राजाने अग्निबाणसे उसके वारिमय वेगको पीकर शान्त किया और वारुण वाणसे उसकी मुखाग्निकी ज्वाला शान्त कर दी। इस प्रकार उस राजाने जलके मध्यमें रहनेवाले उस महाकाय राक्षसका वधकर उत्तंककी कृपासे अपना सारा कार्य सिद्ध माना ।। 35-36 ॥
हे महामुने। उत्तंकने उस राजाको वरदान दिया। उन्होंने उसे अक्षय धन दिया और शत्रुओंसे पराजय न होनेका वरदान दिया। धर्ममें सदा बुद्धि, स्वर्गमें अक्षय वास तथा राक्षसके द्वारा मारे गये पुत्रोंको अक्षयलोककी प्राप्तिका भी वरदान दिया । ll 37-38 ll
उसके जो तीन पुत्र बचे थे, उनमें दृढाश्व श्रेष्ठ [[ ज्येष्ठ] कहा गया। कुमार हंसाश्व तथा कपिलाश्व उससे छोटे थे जो धुन्धुमारका पुत्र दृढाश्व था. उसका पुत्र हर्यश्व हुआ। हर्यश्वका पुत्र निकुम्भ हुआ, जो सदा धर्ममें संलग्न रहता था ।। 39-40 ।।
निकुम्भका पुत्र संहताश्व था, जो संग्रामविशारद था। हे द्विजो! संहताश्वके अक्षाश्व और कृताश्व नामक पुत्र हुए। सज्जनोंद्वारा समादृत हिमवान्की पुत्री दृषद्वती कृताश्वको भार्या हुई, जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध थी, उसीका पुत्र प्रसेनजित् हुआ। प्रसेनजित्ने गौरी नामक पतिव्रता स्त्रीको प्राप्त किया, उसके पतिने उसे शाप दे दिया और वह बाहुदा नामक नदी हुई ।। 41-43 ।।
उसका पुत्र युवनाश्व महान् राजा हुआ। युवनाश्वका पुत्र मान्धाता तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध था। उसकी पत्नी चैची थी, जो बिन्दु कन्या थी। वह महान् पतिव्रता थी और अपने दस हजार भाइयोंमें सबसे बड़ी थी। उस मान्धाताने उससे धर्मज्ञ तथा धर्मपरायण स्कुल तथा मुचुकुन्द नामके दो पुत्र उत्पन्न किये ।। 44-46 ॥पुरुकुत्स्का पुत्र विद्वान् और कवि व्यारुणि नामवाला हुआ और उसका सत्यव्रत नामक महाबली पुत्र हुआ ।। 47 ।।
उसने ब्राह्मण महात्माओंके द्वारा पाणिग्रहण मन्त्रोंके पाठ किये जाते समय किसी दूसरे पुरुषसे ब्याही जानेवाली स्त्रीका अपहरण कर लिया ॥ 48 ॥ उसने आसक्ति, मोह, हर्ष, मदकी अधिकता तथा स्वेच्छासे किसी पुरवासीकी कन्याका बलपूर्वक अपहरण किया था, इसलिये राजा त्रय्यारुणिने उस अधर्मीका त्याग करते हुए कुपित होकर उससे बारंबार कहा - 'अब तुम चले जाओ' ।। 49-50 ॥
तब उस दुष्टने पितासे कहा कि 'मैं कहाँ जाऊँ?' इसपर राजाने उससे कहा कि तुम चाण्डालोंक समीप रहो। इस प्रकार अपने धार्मिक पिताके द्वारा परित्यक्त हुआ वह वीर सत्यव्रत चाण्डालोंकी बस्तीके समीप निवास करने लगा ॥ 51-52 ॥
इसके बाद पुत्रके कर्मके कारण विरक्त हुआ वह राजा त्रय्यारुणि सब कुछ छोड़कर भगवान् शंकरकी तपस्या करनेके लिये वनको चला गया। हे विप्रर्षे! तब उस अधर्मके कारण उसके राज्यमें बारह वर्षतक इन्द्रने वर्षा नहीं की। उस समय महातपस्वी विश्वामित्र अपनी स्त्रीको सत्यव्रतके समीप रखकर समुद्रके समीप कठिन तप करने लगे 53-55॥ उनकी स्त्री अपने मध्यम औरस पुत्रको गलेमें बाँधकर शेष पुत्रोंके भरण-पोषण के लिये सौ गाएँ लेकर उसे बेचने लगी। तब गलेमें बँधे हुए अपने
पुत्रको बेचती हुई उस स्त्रीको देखकर धर्मात्मा सत्यव्रतने महर्षिके उस पुत्रको छुड़ाया ॥ 56-57॥
महाबाहु सत्यव्रत विश्वामित्रको प्रसन्न करनेके | लिये तथा दयापरवश होकर उस पुत्रका भरण-पोषण | करने लगा। उसी समयसे मुनि विश्वामित्रका वह पुत्र गलेमें बाँधे जानेके कारण महातपस्वी 'गालव' नामसे विख्यात हुआ ॥ 58-59 ॥