नन्दीश्वर बोले - [ हे सनत्कुमार!] उस समय शिवस्वरूप मन्त्र के कारण अतुल तेज धारण किये हुए अर्जुन भी अत्यन्त दीप्तिमान् दिखायी पड़ने लगे ॥ 1 ॥उस समय उन सभी पाण्डवोंने अर्जुनको देखकर यह निश्चय कर लिया कि हमलोग अवश्य विजयी होंगे; क्योंकि अर्जुनका तेज बढ़ा हुआ है ॥ 2 ॥
[उन लोगोंने अर्जुनसे कहा- हे अर्जुन!] व्यासजीके कथनसे प्रतीत होता है कि इस कार्यको तुम्हीं सिद्ध कर सकते हो, कोई दूसरा कभी नहीं; अतः जीवनको सफल करो ॥ 3 ॥ अर्जुनसे इस प्रकार कहकर उनके विरहसे | व्याकुल हुए समस्त पाण्डवोंने न चाहते हुए भी उन्हें आदरपूर्वक वहाँ भेज दिया ॥ 4 ॥
अर्जुनको भेजते समय दुःखसे भरी हुई पतिव्रता द्रौपदीने नेत्रोंके आँसुओंको रोककर यह शुभ वचन कहा- ॥5॥
द्रौपदी बोली- हे राजन्! व्यासजीने आपको जैसा उपदेश किया है, वैसा आपको प्रयत्नपूर्वक [कार्य] करना चाहिये। आपका मार्ग मंगलप्रद हो और भगवान् शंकरजी आपका कल्याण करें ॥ 6 ॥ उसके अनन्तर पाँचों (द्रौपदीसहित) पाण्डव अर्जुनको आदरपूर्वक विदा करके अत्यन्त दुखी होते हुए परस्पर मिलकर वहाँ निवास करने लगे ॥ 7 ॥
हे ऋषिसत्तम सनत्कुमार सुनिये, पाण्डवोंने वहाँ रहते हुए आपसमें कहा कि दुःख उपस्थित होनेपर भी प्रियजनका संयोग बना रहे तो दुःख नहीं जान पड़ता है। किंतु जिनके वियोग रहनेपर दुःख आ पड़े तो वह निरन्तर द्विगुणित होता जाता है, उस समय धैर्यवान्को भी धीरज कैसे रह सकता है ।। 8-9 ।।
नन्दीश्वर बोले- हे मुनीश्वर ! इस प्रकार पाण्डवोंके दुःख प्रकट करनेपर करुणासागर ऋषिवर्य व्यासजी वहाँ आये। तब दुःखसे व्याकुल हुए वे | पाण्डव व्यासजीको नमस्कार करके आसन देकर आदरपूर्वक उनकी पूजा करके हाथ जोड़कर यह वचन कहने लगे- ॥ 10-11 ॥
पाण्डव बोले- हे श्रेष्ठोत्तम हे प्रभो! सुनिये, हम दुःखसे जल रहे थे, किंतु हे मुने! आज आपका दर्शन प्राप्तकर हमलोग आनन्दित रहे हैं ॥ 12 ॥
हे प्रभो। आप हमलोगोंका दुःख दूर करने के लिये कुछ कालपर्यन्त यहीं निवास कीजिये; क्योंकि हे विप्रर्षे! आपके दर्शनमात्रसे सारा दुःख नष्ट हो जाता है ॥ 13 ॥नन्दीश्वर बोले- उन लोगोंके इस प्रकार कहनेपर उन ऋषिवरने उनके सुखके लिये वहाँ निवास किया और वे अनेक प्रकारकी कथाओंसे उस समय उनका कष्ट दूर करने लगे। हे सन्मुने! व्यासजीके द्वारा की जाती हुई वार्ताके समय उन्हें प्रणाम करके विनीतात्मा धर्मराजने उनसे यह पूछा- ॥ 14-15 ॥
युधिष्ठिर बोले- हे ऋषिश्रेष्ठ! हे महाप्राज्ञ ! [आपके वचनोंसे] मेरे दुःखकी शान्ति हो गयी, किंतु हे प्रभो! मैं आपसे जो पूछता हूँ, उसे बताइये ॥ 16 ॥
क्या इस प्रकारका दुःख पहले और किसीको प्राप्त हुआ है अथवा यह महान् दुःख हमें ही मिला है, अन्य किसीको नहीं ? ॥ 17 ॥
व्यासजी बोले - [ हे युधिष्ठिर!] पूर्व समयमें निषधदेशके अधिपति महात्मा नलको आपसे भी अधिक दुःख प्राप्त हुआ था ॥ 18 ॥
राजा हरिश्चन्द्रको भी अत्यधिक दुःख प्राप्त | हुआ था, जो अनिर्वचनीय और सुननेमात्रसे दूसरोंको भी दुखित करनेवाला है ॥ 19 ॥
हे पाण्डव ! वैसा ही दुःख श्रीरामचन्द्रका भी जानना चाहिये, जिसे सुनकर स्त्री-पुरुषोंको अत्यधिक कष्ट होता है। मैं पुनः इसका वर्णन करनेमें असमर्थ हूँ. अतः शरीरको दुःखोंका समूह समझकर इस समय तुम्हें शोकका त्याग करना चाहिये ॥ 20-21 ॥
जिस किसीने यह शरीर धारण किया है, वह दुःखोंसे व्याप्त हुआ है, इसमें सन्देह नहीं है। सर्वप्रथम माताके गर्भसे जन्म लेना ही दुःखका कारण होता है। फिर कुमारावस्थामें भी बालकोंकी लीलाके अनुसार महान् दुःख होता है। इसके अनन्तर मनुष्य युवावस्थामें दुःखरूपी कामनाओंका भोग करता है ॥ 22-23॥
[हे युधिष्ठिर!] अनेक प्रकारके कार्यभारोंसे तथा दिनोंके गमनागमनसे पुरुषकी सारी आयु इसी प्रकार नष्ट हो जाती है और मनुष्यको उसका ज्ञान नहीं रहता ॥ 24 ॥
अन्त समयमें जब पुरुषकी मृत्यु होती है, उस समय उसे इससे भी अधिक कष्ट उठाना पड़ता है। | इसके बाद भी अज्ञानी मनुष्य अनेक प्रकारके नरकोंकी पोड़ा प्राप्त करते हैं ।। 25 ।।इसलिये यह सब असत्य है, आप सत्यका आचरण कीजिये। जिस प्रकार भी शिवजी सन्तुष्ट हों, उसी प्रकारका कार्य मनुष्यको करना चाहिये ॥ 26 ॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार उन सभी भाइयोंने अनेक प्रकारकी वार्ताओं तथा मनोरथोंसे समय बिताना प्रारम्भ किया ।। 27 ।।
कठिन पहाड़ी मार्गांसे जाते हुए दृढ़ व्रतवाले अर्जुन भी एक यक्षको प्राप्तकर उसीके साथ अनेक डाकुओंका संहार करते हुए मनमें हर्षित हो उत्तम [इन्द्रकील] पर्वतपर चले गये। वहाँ जाकर उन्होंने गंगाके समीप एक सुन्दर स्थानको प्राप्त किया, जो | स्वर्गसे भी उत्तम तथा अशोकवनसे युक्त था, वहींपर वे बैठ गये। इसके बाद स्वयं स्नान करके श्रेष्ठ गुरुको नमस्कारकर उन्होंने यथोपदिष्ट वेश धारण किया और इन्द्रियोंको वशमें करके एकाग्रचित्त हो [ तपस्याके लिये] स्थित हो गये। उस समय वे अत्यन्त सुन्दर समसूत्रयुक्त पार्थिव शिवलिंगका निर्माण करके उसके आगे [आसनस्थ होकर] उत्तम तेजोराशि
[शिवजीका] ध्यान करने लगे ॥ 28-32 ॥ इस प्रकार अर्जुन तीनों समय स्नान करके वारंवार अनेक प्रकारसे शिवजीको पूजा करते हुए उपासनामें तत्पर हो गये ॥ 33 ॥
इसके बाद उस समय उनके शिरोभागसे निकले हुए तेजको देखकर इन्द्रके अनुचर भयभीत हो गये और सोचने लगे कि यह इस स्थानपर कब आ गया ? ।। 34 ।।
उन्होंने पुनः अपने मनमें विचार किया कि यह समाचार इन्द्रसे निवेदन करना चाहिये परस्पर ऐसा कहकर वे शीघ्र ही इन्द्रके समीप गये ॥ 35 ॥
चर बोले- हे देवेश! कोई देवता, ऋषि, सूर्य अथवा अग्निदेव इस वनमें घोर तप कर रहे हैं, हमलोग उन्हें नहीं जानते। उनके तेजसे सन्तप्त होकर हमलोग आपके पास आये है। हमने उस चरित्रको आपसे कह दिया, अब जैसा उचित हो, आप वैसा कीजिये ॥ 36-37 ।।
नन्दीश्वर बोले- दूतोंके ऐसा कहनेपर इन्द्रने अपने पुत्र [अर्जुन] का अभिप्राय जानकर पर्वतरक्षकोंको विदाकर स्वयं वहाँ जानेका विचार किया ॥ 38 ॥हे विप्रेन्द्र ! वे शचीपति इन्द्र ब्रह्मचारी वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारणकर उनकी परीक्षाके लिये वहाँ पहुँचे। तब उन्हें आया हुआ देखकर अर्जुनने उनको पूजा की और आगे खड़े होकर स्तुति करके उनसे | पूछा कि इस समय आप कहाँसे आये हैं, [कृपया] यह बताइये ? तब उनके द्वारा प्रीतिपूर्वक इस प्रकार कहे जानेपर अर्जुनके धैर्यके परीक्षणार्थ देवराज इन्द्र प्रतिप्रश्न करने लगे ।। 39-41 ।।
ब्राह्मण बोले- हे तात! तुम इस समय युवावस्थामें तप क्यों कर रहे हो? क्या तुम्हारी यह तपस्या सर्वथा मुक्तिके लिये है अथवा विजयके लिये है ? ।। 42 ।।
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार पूछे जानेपर अर्जुनने अपना सारा समाचार कह सुनाया। तब उन ब्राह्मणने पुनः यह वचन कहा- ॥ 43 ॥
ब्राह्मण बोले- हे वीर! तुम क्षात्रधर्म में स्थित होकर सुख पानेकी इच्छासे जो तप कर रहे हो, वह उचित नहीं है। हे कुरुश्रेष्ठ! क्षत्रिय तो मुक्तिहेतु तप करता है। हे श्रेष्ठ इन्द्र सुख देनेवाले [देवता] हैं, वे मुक्ति नहीं दे सकते; इसलिये तुम्हें [ इस सकाम तपको छोड़कर ] सर्वथा श्रेष्ठ तप करना चाहिये ।। 44-45 ।।
नन्दीश्वर बोले- उनके इस वचनको सुनकर दृढव्रत एवं विनयी अर्जुनने क्रोध किया और उनका निरादर करते हुए कहा - ॥ 46 ॥
अर्जुन बोले- मैं न तो राज्यके लिये और न तो मुक्तिके लिये तप कर रहा हूँ। तुम ऐसा क्यों बोल रहे हो? मैं व्यासजीको आज्ञासे इस प्रकारका तप कर रहा हूँ। हे ब्रह्मचारिन्! अब यहाँसे [शीघ्र] चले जाओ, मुझे अपने संकल्पसे मत गिराओ। तुझ ब्रह्मचारीका यहाँ क्या प्रयोजन है? ॥ 47-48 ॥ नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहे जानेपर वे [इन्द्रदेव ] प्रसन्न हो उठे और [ कब्र आदि। अपने उपस्करणोंसे युत अद्भुत तथा मनोहर अपना रूप उन्होंने दिखाया ॥ 49 ॥ तब इन्द्रके रूपको देखकर अर्जुन लज्जित हो उठे। इसके बाद उन्हें आश्वस्त करके इन्द्रने पुनः यह वचन कहा ॥ 50 ॥इन्द्र बोले- हे तात! हे धनंजय! हे महामते ! तुम्हारा जो भी अभिलषित हो, वह वर मुझसे माँगो । तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है। तब इन्द्रके उस वचनको सुनकर अर्जुन बोले- हे तात! हर प्रकारसे शत्रुओंसे पीड़ित मुझे विजय प्रदान करें । 51-52 ॥ शक्र बोले- [ हे तात!] दुर्योधन आदि तुम्हारे शत्रु बड़े बलवान् हैं और द्रोण, भीष्म एवं कर्ण ये सब निश्चय ही [ युद्धमें] दुर्जय हैं ॥ 53 ॥ साक्षात् रुद्रका अंश द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तो अत्यन्त | दुर्जय है। वे सभी (भीष्म, द्रोण आदि) मुझसे भी असाध्य हैं; तो भी अपने हितकी बात सुनो ॥ 54 ॥
हे वीर! इस (अश्वत्थामा) पर विजय प्राप्त करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है; केवल शिव ही समर्थ हैं, इसलिये अब तुम शिव-मन्त्रका जप करो ॥ 55 ॥
सभी लोकोंके स्वामी, चराचरपति, स्वराट् और भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले शंकर सब कुछ करनेमें समर्थ हैं। ब्रह्मा आदि [ देवश्रेष्ठ ], सबको वर देनेवाले विष्णु, मैं [ स्वयं इन्द्र ], अन्य [ देवगण ] तथा विजयकी अभिलाषावाले दूसरे लोग-ये सभी भगवान् शिवकी उपासना करते हैं ।। 56-57 ॥
हे भारत! आजसे इस मन्त्रका जप छोड़कर पार्थिव विधानसे नानाविध उपचारोंके द्वारा तन्मय होकर भक्तिभावसे शिवजीकी आराधना करो। इस प्रकार [पार्थिवार्चन तथा] ध्यानके द्वारा तुमको अचल सिद्धि इसी समय प्राप्त होगी, इसमें सन्देह न करो ।। 58-59 ।।
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर इन्द्रने अपने सभी सेवकोंको बुलाकर कहा कि तुमलोग सावधान होकर इनकी रक्षा करनेके लिये सदा यहाँ रहो। इसके बाद इन्द्रने अपने अनुचरोंको अर्जुनकी रक्षा आदिका आदेश | देकर वात्सल्यपूर्वक अर्जुनसे पुनः कहा- ॥ 60-61 ॥
इन्द्र बोले - हे परन्तप ! हे भद्र! तुम कभी भी प्रमादपूर्वक राज्य मत करना; यह विद्या तुम्हारे | कल्याणके लिये होगी। साधकको सदा धैर्य धारण करना चाहिये। रक्षक तो शिवजी हैं ही। वे तुमको सम्पत्तियोंके साथ फल (मोक्ष) भी प्रदान करेंगे; इसमें सन्देह नहीं है ॥ 62-63 ।।नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार अर्जुनको वरदान देकर इन्द्र शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करते हुए अपने भवनको चले गये ॥ 64 ॥
पराक्रमी अर्जुन भी सुरेश्वरको प्रणामकर संयतचित्त होकर शिवजीको उद्देश्य करके उसी प्रकारका तप करने लगे ॥ 65 ॥