ब्रह्माजी बोले- उन देवताओंके चले जानेपर दुरात्मा तारकासुरसे अत्यन्त पीड़ित हुए इन्द्रने कामका स्मरण किया। उसी समय वसन्तको साथ लेकर रतिपति त्रैलोक्यविजयी समर्थ कामदेव रतिके साथ साभिमान वहाँ उपस्थित हुआ ॥ 1-2 ॥
हे तात! प्रणाम करके उनके समक्ष खड़ा होकर हाथ जोड़कर वह महामनस्वी काम इन्द्रसे कहने लगा- ॥ 3 ॥
काम बोला- हे देवेश! आपको कौन-सा कार्य आ पड़ा है, आपने किस कारणसे मेरा स्मरण किया है, उसे शीघ्र ही कहिये, मैं उसे करनेके लिये ही यहाँ उपस्थित हुआ हूँ 4 ॥
ब्रह्माजी बोले- उस कामके इस वचनको सुनकर बहुत अच्छा, बहुत अच्छा- यह कहकर देवराज प्रेमपूर्वक यह वचन कहने लगे- ॥ 5 ॥
इन्द्र बोले- मेरा जिस प्रकारका कार्य उपस्थित हुआ है, उसको करनेमें तुम्हीं समर्थ हो, हे मकरध्वज ! तुम धन्य हो, जो उसे करनेके लिये उद्यत हो ॥ 6 ॥
मेरे प्रस्तुत वाक्यको सुनो, मैं तुम्हारे सामने कह रहा हूँ, मेरा जो कार्य है, वह तुम्हारा ही है, इसमें सन्देह नहीं है मेरे बहुत-से महान् मित्र हैं, किंतु हे काम तुम्हारे समान उत्तम मित्र कहीं भी नहीं है ।। 7-8 ।।
हे तात! विजय प्राप्त करनेके लिये मेरे पास दो ही उपाय हैं, एक वज्र और दूसरे तुम, जिसमें वज्र तो [ कदाचित्] निष्फल भी हो जाता है, किंतु तुम कभी निष्फल होनेवाले नहीं हो ॥ 9॥
जिससे अपना हित हो, उससे प्रिय और कौन हो सकता है ? इसलिये तुम मेरे सर्वश्रेष्ठ मित्र हो, तुम अवश्य ही मेरा कार्य सम्पन्न कर सकते हो ॥ 10 ॥
समयानुसार मेरे सामने असाध्य दुःख उत्पन्न हो गया है, तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी उसे दूर करनेमें समर्थ नहीं है 11 ॥दुर्भिक्ष पड़नेपर दानीकी युद्धस्थलमें शूरवीरकी, आपत्तिकालमें मित्रको, असमर्थ होनेपर स्त्रियोंकी तथा कुलकी, नम्रतामें तथा संकटके उपस्थित होनेपर सत्यकी और उत्तम स्नेहकी परीक्षा परोक्षकालमें होती है, यह अन्यथा नहीं है, यह सत्य कहा गया है ।। 12-13 ।।
हे मित्रवर्य। दूसरेके द्वारा दूर न की जा सकनेवाली मेरी इस विपत्तिके आ पड़नेपर आज तुम्हारी परीक्षा होगी ॥ 14 ॥ ॥
सुखकी प्राप्ति करानेवाला यह कार्य केवल मेरा ही नहीं है, अपितु यह सभी देवता आदिका कार्य है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 15 ll
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार इन्द्रके इस वचनको सुनकर कामदेव मुसकराते हुए प्रेमयुक्त वचन कहने लगा- ॥ 16 ॥
काम बोला- हे देवराज! आप इस प्रकारकी बातें क्यों कर रहे हैं? मैं आपको उत्तर नहीं दे सकता। बनावटी मित्र ही लोकमें देखे जाते हैं, वास्तविक उपकारीके विषयमें कुछ कहा नहीं जाता है ॥ 17 ॥
जो [मित्र ] संकटमें बहुत बातें करता है, वह क्या कार्य करेगा, फिर भी हे महाराज! हे प्रभो ! मैं कुछ कह रहा हूँ, उसे आप सुनें ॥ 18 ॥
हे मित्र ! जो आपका पद छीननेके लिये कठोर तपस्या कर रहा है, मैं आपके उस शत्रुको तपसे सर्वधा च्युत कर दूंगा चाहे वह देवता, ऋषि एवं दानव आदि कोई हो, उसे क्षणभरमै सुन्दर स्वीके कटाक्षसे भ्रष्ट कर दूंगा, फिर मनुष्योंको तो मेरे सामने कोई गणना ही नहीं है ॥ 19-20 ll
आपके वज्र और अन्य बहुत-से शस्त्र दूर ही रहें। मेरे जैसे मित्रके रहते वे आपका क्या कार्य कर सकते हैं। मैं ब्रह्मा तथा विष्णुको भी विचलित कर सकता हूँ। [अधिक क्या कहूँ] मैं शंकरको भी भ्रष्ट कर सकता हूँ, औरोंकी तो गणना ही नहीं है ll 21-22 ॥
मेरे पास पाँच ही कोमल बाण हैं और वे भी पुष्पनिर्मित हैं, तीन प्रकारवाला मेरा धनुष भी पुष्पमय है, उसकी डोरी भ्रमरोंसे युक्त है। मेरा बल सुन्दर स्त्री है तथा वसन्त मेरा सचिव कहा गया है।हे देव इस प्रकार में पंचबल (पाँच बला है। चन्द्रमा मेरा मित्र है, शृंगार मेरा सेनापति है और हाव भाव मेरे सैनिक हैं। हे इन्द्र! ये सभी मेरे उपकरण मृदु है और मैं भी उसी प्रकारका हूं ॥ 23-25 ॥
जिससे जो कार्य पूर्ण हो, बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि उसको उसी कार्यमें नियुक्त करे। अतः [ [ हे इन्द्र!] मेरे योग्य जो भी कार्य हो, उसमें आप मुझे नियुक्त करें ॥ 26 ॥
ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] इस प्रकार उसके वचनको सुनकर इन्द्र अत्यन्त प्रसन्न हो उठे और | बाणी सत्कार करते हुए वे स्त्रियोंको सुख देनेवाले कामसे कहने लगे- ॥ 27 ॥
शक्र बोले- हे तात! हे कामदेव ! मैंने जो कार्य [[अपने] मनमें सोचा है, उसे करनेमें केवल तुम ही समर्थ हो, वह कार्य दूसरेसे होनेवाला नहीं है ॥ 28 ॥
हे काम ! हे मित्रवर्य! हे मनोभव! जिस कार्यके लिये आज तुम्हारी आवश्यकता हुई है, उसे मैं यथार्थ रूपसे कह रहा हूँ, तुम उसे सुनो। इस समय तारक नामक महादैत्य ब्रह्मासे अद्भुत वरदान पाकर अजेय हो गया है और सभीको पीड़ा पहुँचा रहा है ।। 29-30 ॥
वह सारे संसारको पीड़ा दे रहा है, [उसके कारण] सभी धर्म भी नष्ट हो गये हैं, सभी देवता तथा ऋषिगण दुःखित हैं ॥ 31 ॥ देवताओंने अपने बल के अनुसार उससे युद्ध भी किया, किंतु सभीके शस्त्र उसके सामने व्यर्थ हो गये ॥ 32 ॥ वरुणका पाश टूट गया और विष्णुके द्वारा उसके कण्ठपर प्रहार किया गया, किंतु उनका वह सुदर्शन चक्र भी कुण्ठित हो गया। ब्रह्माजीने दुरात्मा दैत्यकी मृत्युका निर्धारण महायोगीश्वर शिवके वीर्यसे उत्पन्न हुए पुत्रके द्वारा किया है। अब तुम्हें प्रयत्नपूर्वक इस कार्यको अच्छी तरह करना चाहिये। हे मित्र ! इस कार्यसे देवताओंको महान् सुख होगा ।। 33-35 ॥ अत: तुम हृदयमें मित्रधर्मका स्मरण करके मेरे | लिये भी हितकर तथा सभी लोकोंको सुख देनेवाले | इस कार्यको इसी समय सम्पन्न करो ॥ 36 ॥
वे परमेश्वर प्रभु कामनासे परे हैं। वे शम्भु इस समय हिमालयपर्वतपर परम तप कर रहे हैं ।॥ 30 ॥मैंने ऐसा सुना है कि उनके समीप ही पार्वती अपने पितासे आज्ञा लेकर अपनी सखियोंके साथ उन्हें प्रसन्नकर अपना पति बनानेके उद्देश्यसे सेवापरायण रहती हैं ॥ 38 ॥
हे काम ! इस प्रकारका उपाय करना चाहिये, जिससे कि चित्तको वशमें रखनेवाले शिवजीकी अभिरुचि पार्वतीमें हो जाय। ऐसा करके तुम कृतकृत्य हो जाओगे और सारा दुःख नष्ट हो जायगा। तुम्हारी कीर्ति भी संसारमें चिरस्थायी हो जायगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 39-40 ॥
ब्रह्माजी बोले- इन्द्रके इस प्रकार कहनेपर कामदेवका मुखकमल खिल उठा और उसने प्रेमपूर्वक इन्द्रसे कहा- मैं [आपका यह कार्य ] निःसन्देह करूँगा ॥ 41 ॥
शिवकी मायासे मोहित कामदेवने उनके वचनको 'ओम्' ऐसा कहकर शीघ्रतापूर्वक स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् जहाँ साक्षात् योगीश्वर शंकर कठोर तप कर रहे थे, वहाँ प्रसन्नचित्त होकर अपनी पत्नी तथा वसन्तको साथ लेकर कामदेव पहुँच गया ॥ 42-43 ॥