नन्दीश्वर बोले- हे तात! परमेश्वर शिवका जो सुरेश्वरावतार हुआ, जिसने धौम्यके ज्येष्ठ भ्राता [उपमन्यु] का हितसाधन किया था, मैं उसका वर्णन करूँगा, आप श्रवण कीजिये ॥ 1 ॥
व्याघ्रपादका उपमन्यु नामवाला एक पुत्र था, जो परम बुद्धिमान् एवं सज्जनोंका प्रिय था, वह जन्मान्तरीय [ तपस्यासे] सिद्ध था और मुनिके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुआ था ॥ 2 ॥
वह व्याघ्रपादपुत्र उपमन्यु जब बालक था, तभीसे अपनी माताके साथ मामाके घर निवास करने लगा, दैवयोगसे वह दरिद्र था ॥ 3 ॥ उसने कभी अपने मामा घरमें थोड़ा-सा दूध पी लिया था, फिर दूधके प्रति उसकी लालसा बढ़ गयी और मातासे बारंबार दूध माँगने लगा 4 ॥ तब पुत्रका यह वचन सुनकर उस तपस्विनी माताने घरके भीतर प्रवेश करके एक उत्तम उपाय किया ॥ 5 ॥ उसने उञ्छवृत्तिसे एकत्रित बीजोंको पीसकर उस [आटे] को पानीमें घोलकर पुत्रको बहला फुसलाकर वह कृत्रिम दूध उसे दे दिया ॥ 6 ॥
माताके द्वारा दिये गये कृत्रिम दूधको पीकर वह बालक 'यह दूध नहीं है', इस प्रकार मातासे बोला और पुनः रोने लगा ॥ 7 ॥
पुत्रका रुदन सुनकर कमलाके समान कोमलांगी माताने हाथोंसे पुत्रके नेत्रोंको पोछकर दुखी होकर उससे कहा- ॥ 8 ॥
माता बोली- हे पुत्र ! हम तो सदैव वनमें निवास करते हैं, अतः यहाँ दूधकी प्राप्ति कैसे सम्भव है ? शिवजीको प्रसन्न किये बिना तुम्हें दूधकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ 9 ॥
हे पुत्र ! पूर्वजन्ममें शिवजीको उद्देश्य करके जो कर्म किया जाता है, वह उसे अवश्य प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ 10 ll
माताके इस प्रकारके वचनको सुनकर मातृवत्सल वह व्याघ्रपादपुत्र शोकरहित होकर अपनी मातासे बोला- ॥ 11 ॥
हे मातः ! यदि शिवजी कल्याण करनेवाले हैं, तो शोक करना व्यर्थ है, हे महाभागे ! शोकका त्याग करो, सब भला ही होगा ।। 12 ।।
हे मातः अब मेरी बात सुनो, यदि कहीं भी वे महादेवजी होंगे, तो मैं थोड़े अथवा अधिक कालमें | उनसे क्षीरका समुद्र प्राप्त कर लूँगा ॥ 13 ॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार [अपना निश्चय ] बताकर तथा 'मेरा कल्याण हो' ऐसा प्रेमपूर्वक कहकर वह बालक माताको भलीभाँति प्रणामकर उससे विदा ले तप करनेके लिये चल पड़ा ॥ 14 ॥वह बालक हिमालयपर्वतपर जाकर वायुका पान करते हुए सावधान मनसे आठ ईंटोंसे एक मन्दिर बनाकर उसमें मिट्टीका शिवलिंग स्थापित करके उस लिंगमें भक्तिपूर्वक पंचाक्षर मन्त्रके द्वारा पार्वतीसहित शिवका आवाहनकर वनमें उत्पन्न पत्र, पुष्प आदिसे उनका पूजन करने लगा । ll 15-16 ॥
इस प्रकार पार्वतीसहित उन शिवजीका ध्यान करके पंचाक्षर मन्त्रका जप तथा उनकी अर्चना करते हुए उसने बहुत कालपर्यन्त घोर तप किया ॥ 17 ॥
हे मुने! उस महात्मा बालक उपमन्युकी तपस्यासे सारा चराचर लोक प्रज्वलित हो उठा ॥ 18 ॥ इसी समय विष्णु आदि देवताओंके द्वारा प्रार्थित भगवान् शिवने उसको भक्तिकी परीक्षा करनेके लिये इन्द्रका रूप धारण किया। पार्वती इन्द्राणीके रूपवाली हो गयीं, सभी गण देवता हो गये और नन्दीने ऐरावत गजका रूप धारण किया। इस प्रकार जब इन्द्ररूपकी सारी सामग्री उपस्थित हो गयी, तब गणों एवं पार्वतीसहित इन्द्ररूप शिवजी उपमन्युके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये शीघ्र ही उसके आश्रमपर गये ll 19 - 21 ll
हे मुनीश्वर ! इन्द्ररूपधारी शिवजीने उसकी भक्तिकी परीक्षा करनेके लिये गम्भीर वाणीमें उस बालकसे कहा- ॥ 22 ॥
सुरेश्वर बोले- हे सुव्रत मैं तुम्हारी इस तपस्यासे अत्यन्त प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो। मैं तुम्हारा सारा अभीष्ट प्रदान करूँगा, इसमें संशय नहीं है॥ 23 ॥ इन्द्ररूपधारी उन शिवजीके इस प्रकार कहनेपर उसने हाथ जोड़कर कहा-मैं शिवमें भक्ति होनेका वरदान चाहता हूँ॥ 24 ॥
यह सुनकर इन्द्र बोले- क्या तुम त्रिलोकीके स्वामी, देवगणोंके रक्षक और सभी देवगणोंसे नमस्कृत मुझ इन्द्रको नहीं पहचानते हो ॥ 25 ॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! तुम मेरे भक्त हो जाओ और निरन्तर मेरी ही पूजा करो, मैं तुम्हारा सब प्रकारका कल्याण करूँगा। तुम गुणरहित शिवको छोड़ो ॥ 26 ॥
उन निर्गुण रुद्रसे तुम्हारा क्या कार्य हो सकता है, जो देवजातिसे बाहर होकर पिशाचत्वको प्राप्त हो गये हैं ? ॥ 27 ॥नन्दीश्वर बोले- यह सुनकर पंचाक्षर मन्त्रका जप करता हुआ वह बालक अपने धर्ममें विघ्न उत्पन्न करनेके लिये उनको आया हुआ जानकर बोला- ॥ 28 ॥
उपमन्यु बोले- शिवनिन्दामें रत तुमने इस प्रकार प्रसंगवश उन देवाधिदेवको निर्गुण एवं पिशाच कहा है। तुम अवश्य हो प्रकृतिसे परे, ब्रह्मा-विष्णु तथा महेश्वरको उत्पन्न करनेवाले और सभी देवेश्वरोंके भी ईश्वर उन रुद्रको नहीं जानते ।। 29-30 ॥
ब्रह्मवादी लोग जिन्हें सत् असत्, व्यक्त, अव्यक्त, नित्य, एक तथा अनेक बताते हैं, मैं उन्हींसे वर माँगूँगा ॥ 31 ॥
तत्त्वज्ञ लोग जिन्हें तर्कसे परे तथा सांख्ययोगके तात्पर्यार्थको देनेवाला मानते हैं, मैं उन्होंने वर माँगूँगा 32 ॥ विभु शम्भुसे परे कोई तत्त्व नहीं है। वे सभी कारणोंके कारण और गुणोंसे सर्वथा परे हैं, अतः ब्रह्मा-विष्णु आदि देवोंसे श्रेष्ठ हैं ॥ 33 ॥
मैं न तो आपसे, न विष्णुजीसे, न ब्रह्माजीसे और न अन्य किसी देवतासे वर माँगता हूँ, शंकरजी ही मुझे वर प्रदान करेंगे ll 34 ॥
बहुत कहने से क्या लाभ? मैं अपना निश्चय बता रहा हूँ कि मैं पशुपति शिवजीको छोड़कर किसी अन्य देवतासे वरदान नहीं माँगूँगा ॥ 35 ॥
हे इन्द्र ! आप मेरा अभिप्राय सुनें। मैंने आज यह अनुमान कर लिया है कि मैंने जन्मान्तरमें अवश्य कोई पाप किया है, जिससे मुझे शिवजीकी निन्दा सुननी पड़ी ll 36 ll
शिवकी निन्दाका श्रवण करते ही जो शीघ्र उस निन्दा करनेवालेका प्रतिकारकर उसी समय अपना शरीर छोड़ देता है, वह शिवलोकको जाता है। ll 30॥
हे सुराधम ! अब दूधके विषयमें मेरी यह इच्छा नहीं रही. [अब तो मैं] शिवास्त्रसे तुम्हारा बचकर अपना यह शरीर त्याग दूँगा ॥ 38 ll
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार कहकर उपमन्यु मरनेके लिये तैयार हो गये और दूधके प्रति भी इच्छाका त्यागकर इन्द्रको मारनेके लिये उद्यत हो गये ।। 39 ॥तब अग्निहोत्रसे भस्म लेकर उसे अपोरास्वसे अभिमन्त्रित करके इन्द्रके ऊपर उस भस्मको छोड़कर उन मुनिने घोर शब्द किया ॥ 40 ॥
उसके बाद अपने इष्टदेवके चरणयुगलका स्मरणकर अपने शरीरको जलानेहेतु अग्निकी धारणा करते हुए उपमन्यु स्थित हो गये ॥ 41 ॥
ब्राह्मण उपमन्युके इतना कर लेनेपर शक्ररूपधारी शिवजीने सौम्य [तेज] के द्वारा उस महायोगीकी आग्नेयी धारणाको रोक दिया ॥ 42 ॥
उनके द्वारा फेंके गये उस शंकरप्रिय अघोरास्त्रको शिवजी के आदेश से नन्दीने बीचमें ही पकड़ लिया ।। 43 ।।
तदनन्तर भगवान् परमेश्वरने उन ब्राह्मणके समक्ष मस्तकपर द्वितीयाका चन्द्र धारण किया हुआ अपना स्वरूप प्रकट किया ॥ 44 ॥
सर्वसमर्थ उन प्रभुने हजारों दूधके, हजारों दही आदिके तथा हजारों अन्य भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंके समुद्र उन्हें दिखाये। इसी प्रकार उन शम्भुने देवी पार्वतीके साथ बैलपर सवार हो त्रिशूल आदि आयुधों को हाथमें धारण किये हुए गणोंके सहित अपना रूप भी उनके समक्ष प्रकट किया ।। 45-46 ।। उस समय स्वर्गलोकमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं, आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी तथा ब्रह्मा, विष्णु आदि देवगणों [की उपस्थिति]-से दसों दिशाएँ ढँक गर्यो। इसके बाद उपमन्यु आनन्दसागरसे उठी हुई लहरोंसे मानो पिर से गये और भक्तिसे विनम्रचित हो शिवजीको दण्डवत् प्रणाम करने लगे । 47-48 ।।
इसी समय भगवान् शिवजीने मुसकराकर उपमन्युको 'आओ आओ' इस प्रकार बुलाकर उनका मस्तक सूँघकर उन्हें वर प्रदान किये ।। 49 ।।
शिवजी बोले- हे वत्स! हे उपमन्यो। मैं तुम्हारे इस श्रेष्ठ आचरणसे प्रसन्न हूँ। विप्रर्षे! अब मैंने परीक्षा कर ली कि तुम हमारे दृढ़ भक्त हो ।। 50 ।।
तुम्हारी मुझमें इसी प्रकारकी भक्ति बनी रहेगी। तुम्हारे सभी दुःख दूर हो जायेंगे और तुम सदा सुखी रहोगे। अब तुम सर्वदा अपने भाई-बन्धुओंसहित स्वेच्छापूर्वक भक्ष्यादि भोगोंका भोग करो ॥ 51 ॥हे महाभाग्यवान् उपमन्यो। वे पार्वती तुम्हारी माता हैं, मैंने आजसे तुम्हें अपना पुत्र मान लिया। तुम सर्वदा कुमार बने रहोगे ।। 52 ।।
हे महामुने! मैंने प्रसन्न होकर दूध, दही, घी एवं मधुके हजारों समुद्र तथा भोज्य भक्ष्यादि पदार्थोंसे पूर्ण हजारों समुद्र तुमको प्रदान किये, तुम उन्हें प्रेमपूर्वक ग्रहण करो। मैं तुम्हें अमरत्व तथा शाश्वत गाणपत्य भी प्रदान करता हूँ ॥ 53-54 ॥
मैं महादेव तुम्हारा पिता हूँ तथा ये जगदम्बा तुम्हारी माता हैं। अब तुम अन्य मनोवांछित वरोंको भी प्रेमपूर्वक माँगो ॥ 55 ॥
तुम अजर, अमर, दुःखसे रहित, यशस्वी, परम तेजस्वी, दिव्यज्ञानी तथा महाप्रभु हो जाओ ॥ 56 ॥
इसके बाद प्रसन्नचित्त शिवजीने उनके घोर तपका स्मरणकर पुनः मुनि उपमन्युको दस दिव्य वरदान, पाशुपतव्रत, पाशुपत ज्ञान, व्रतयोग, भाषण अभिक्षमता, दक्षता तथा अपना पद भी प्रदान किया ।। 57-58 ।।
इस प्रकार वरदान देकर उन्हें अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर उनका मस्तक सूँघकर 'यह तुम्हारा पुत्र है' ऐसा कहकर महादेवजीने उन्हें पार्वतीको | समर्पित कर दिया। देवीने यह सुनकर उनके सिरपर प्रेमपूर्वक अपना करकमल रखकर उन्हें अक्षय कुमारपद प्रदान किया ।। 59-60 ॥
दूधका स्वाद उत्पन्न करनेवाले समुद्रने स्वयं | उठकर एकत्र पिण्डीभूत और अनश्वर क्षीरसमुद्र उसे प्रदान किया ॥ 61 ॥
सन्तुष्टचित्त महेश्वरने योगैश्वर्य, सदा सन्तुष्टता, अनश्वर ब्रह्मविद्या तथा परम समृद्धि उन्हें प्रदान की ॥ 62 ॥
इस प्रकार वे उपमन्यु शिव और पार्वतीसे दिव्य वर और नित्यकुमारत्व प्राप्तकर परम प्रसन्न हुए। तदनन्तर प्रसन्नचित्त होकर हाथ जोड़कर प्रणाम करके उन्होंने देवाधिदेव महेश्वरसे प्रीतिपूर्वक वर माँगा ।। 63-64 ।।
उपमन्यु बोले- हे देवदेवेश ! प्रसन्न हों, हे परमेश्वर। प्रसन्न हों और अपनी दिव्य परम तथा चिरस्थायिनी भक्ति प्रदान कीजियेहे महादेव! अपने सम्बन्धियोंके प्रति श्रद्धाभाव अपना दास्य, परम स्नेह तथा अपना नित्य सान्निध्य मुझे प्रदान कीजिये ।। 65-66 ।।
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर उन द्विजोत्तम उपमन्युने प्रसन्नचित्त होकर हर्षसे गद्गद वाणीसे महादेवकी स्तुति की ॥ 67 ॥
इस प्रकार उनके द्वारा स्तुति किये जानेपर सकलेश्वर प्रभु शिवने प्रसन्नचित्त होकर सबके सुनते सुनते ही उपमन्युसे कहा- ॥ 68 ॥
शिवजी बोले- हे वत्स! हे उपमन्यो। तुम धन्य हो और विशेषरूपसे मेरे भक्त हो। हे अनघ ! तुमने मुझसे जो कुछ माँगा, वह सब मैंने तुम्हें प्रदान किया ॥ 69 ॥
तुम सर्वदा अजर, अमर, दुःखरहित, सर्वपूज्य, निर्विकार एवं भक्तोंमें श्रेष्ठ हो जाओ। हे द्विजोत्तम! तुम्हारे बान्धव, तुम्हारा गोत्र एवं कुल अक्षय बना रहेगा और मुझमें तुम्हारी शाश्वत भक्ति बनी रहेगी। हे मुने। मैं तुम्हारे आश्रम में नित्य निवास करूँगा। हे वत्स! तुम इच्छानुसार जबतक चाहो, तबतक इस लोकमें निवास करो, [ किसी भी वस्तुके लिये] तुम्हें उत्कण्ठा नहीं रहेगी, अर्थात् तुम सर्वदा पूर्णकाम रहोगे ।। 70-72 ॥
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर उन्हें श्रेष्ठ वरदान देकर पार्वती एवं गणोंके सहित वे भगवान् शिव वहींपर अन्तर्हित हो गये ।। 73 ।।
इसके बाद प्रसन्नचित्त उपमन्यु शिवजीसे श्रेष्ठ वर प्राप्तकर अपनी माताके समीप गये और उन्होंने मातासे सारा वृत्तान्त निवेदन किया ॥ 74 ॥
उसे सुनकर उनकी माता परम हर्षित हुईं। वे |उपमन्यु भी सभीके पूज्य हुए और सदा अधिकाधिक सुख प्राप्त करने लगे ॥ 75 ॥
हे तात! इस प्रकार मैंने परमात्मा शिवके सुरेश्वरावतारका वर्णन कर दिया, जो सज्जनोंको सदा सुख प्रदान करनेवाला है ॥ 76 ॥
यह आख्यान [सर्वथा] निष्पाप, सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला, स्वर्ग देनेवाला, यश बढ़ानेवाला, आयुकी वृद्धि करनेवाला तथा सज्जनोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है ॥ 77 ॥जो इसे भक्तिपूर्वक सुनता अथवा सुनाता है, वह इस लोकमें सब प्रकारका सुख भोगकर अन्तमें शिवसायुज्य प्राप्त कर लेता है ॥ 78 ॥