ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] इस प्रकार देवताओंके द्वारा स्तुति किये जानेपर दुर्ग नामक राक्षसके द्वारा उत्पन्न संकटका नाश करनेवाली जगन्माता देवी दुर्गा देवताओंके समक्ष प्रकट हुई ॥ 1 ॥
वे रत्नोंसे जटित, दिव्य, परम अद्भुत, किंकिणीजालसे युक्त, कोमल विछौनेवाले तथा श्रेष्ठ रथपर विराजमान थीं ॥ 2 ॥
करोड़ों सूर्योसे भी अधिक प्रभायुक्त, रम्य अंगोंसे भासित, अपनी तेजोराशिके बीच विराजमान, सुन्दर रूपवाली, अनुपम छविसे सम्पन्न, अतुलनीय, महामाया, सदाशिवके साथ विलास करनेवाली, त्रिगुणात्मिका, गुणोंसे रहित, नित्या, शिवलोकमें निवास करनेवाली, त्रिदेवजननी, चण्डी, शिवा, सभी कष्टोंका नाश करनेवाली सबकी माता महानिद्रा, सभी स्वजनों (भक्तों) को मोक्ष प्रदान करनेवाली उन भगवती शिवाको तेजोराशिकी प्रभाके रूपमें देवताओंने देखा, किंतु उनके प्रत्यक्ष दर्शनकी अभिलाषा वाले देवताओंने पुनः उनकी स्तुति की ॥ 3-6 ॥
इसके बाद [ भगवतीके] दर्शनके अभिलाषी देवगण उन जगदम्बाकी कृपा प्राप्त करके ही उनका प्रत्यक्ष दर्शन कर सके। [देवीके दर्शनसे] सभी देवगणोंको महान् आनन्द प्राप्त हुआ। उन्होंने बार बार उनको प्रणाम किया और वे विशेष रूपसे उनकी स्तुति करने लगे-॥ 7-8 ।।
देवता बोले- हे शिवे! हे शर्वाणि! हे कल्याणि ! हे जगदम्ब हे महेश्वरि! हम सभी देवता सबके दुःखोंका | नाश करनेवाली आपको सदा प्रणाम करते हैं ॥ 9 ॥
हे देवेशि वेद एवं शास्त्र भी आपको पूर्णरूपये नहीं जानते हैं। हे शिवे! आपका ध्यान एवं महिमा वाणी एवं मनसे अगोचर है। वृति भी चकित होकर सदा अ व्यावृत्तिसे (नेति नेति कहते हुए) आपका वर्णन करती है, तो फिर दूसरोंकी बात ही क्या है ! ।। 10-11 [हे शिवे!] भक्तिसे आपकी कृपा प्राप्त करके बहुत से भक्त आपकी महिमाको जानते हैं। आपके शरणागत भक्तोंको कहीं भी भय आदि नहीं होता ॥ 12 ॥हे अम्बिके! हम सब आपके दास है, अतः अब आप प्रेमयुक्त होकर हमारी प्रार्थना सुनें है देवि ! हमलोग आपकी महिमाका थोड़ा-सा वर्णन
करते हैं ॥ 13 ॥
आप पहले दक्षकी पुत्री होकर शिवजीकी प्रिया बनी थीं, आपने [उस समय] ब्रह्मा तथा अन्य लोगोंके महान् दुःखको दूर किया था ॥ 14 ॥
आपने अपने पितासे अनादर प्राप्तकर अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार अपने शरीरका त्याग किया और आप अपने धामको चली गयी थीं, जिसके कारण महादेवजीने दुःख पाया था। किंतु हे महेश्वरि ! | देवताओंका वह कार्य पूरा नहीं हुआ। इसीलिये हम समस्त देवता एवं मुनिगण आपकी शरणमें आये हैं ।। 15-16 ।।
हे महेशानि! आप देवताओंके मनोरथको पूर्ण कीजिये, जिससे हे शिवे ! सनत्कुमारका [कहा हुआ ] वचन सफल हो ॥ 17 ॥
हे देवि ! आप पृथ्वीपर अवतरित होकर पुनः शिवजीकी पत्नी बनें और यथायोग्य लीला करें, जिससे देवगण सुखी हो जायें, हे देखि कैलासपर्वतपर स्थित भगवान् शिवजी भी सुखी हो जायँ, सभी लोग सुखी हो जायँ और पूर्णरूपसे दुःखका विनाश हो जाय ।। 18-19 ।।
ब्रह्माजी बोले - [ हे नारद!] विष्णु आदि सब देवता यह कहकर प्रेमसे मग्न हो गये और वे भक्तिपूर्वक विनम्रतासे सिर झुकाये मौन खड़े हो गये ll 20 ll
शिवा भी देवताओंकी स्तुति सुनकर प्रसन्न हो गयीं अपनी स्तुतिके कारणका विचारकर तथा प्रभु शिवजीका स्मरणकर भक्तवत्सला तथा दयामयी उमादेवी विष्णु आदि उन देवताओंको सम्बोधित करके हँसकर कहने लगीं ॥। 21-22 ॥
उमा बोलीं- हे हरे! हे विधे! हे देवताओ! हे मुनिगण | अब आप सभी लोग दुःखरहित हो जाइये और मेरी बात सुनिये। मैं [आपलोगोंपर] प्रसन्न हूँ, इसमें सन्देह नहीं है। मेरा चरित्र त्रैलोक्यको सर्वत्र सुख प्रदान करनेवाला है। दक्ष आदिको जो मोह उत्पन्न | हुआ, वह सब मेरे द्वारा ही किया गया था ।। 23-24 ॥ मैं पृथिवीपर पूर्ण अवतार ग्रहण करूँगी, इसमें सन्देह नहीं है। इसमें बहुत-से हेतु हैं, उन्हें मैं आदरपूर्वक कह रही हूँ। हे देवताओ! पूर्व समयमें हिमाचल और मेनाने बड़े भक्तिभावसे मुझ सतीशरीरधारिणीकी माता-पिताके समान सेवा की थी । ll 25-26 ॥
इस समय भी वे नित्यप्रति मेरी भक्तिपूर्वक सेवा कर रहे हैं और मेना विशेषकर अपनी पुत्रीरूपमें सेवा करती हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 27 ॥
अतः रुद्र तथा आपलोग [ अपने-अपने धामको] जायँ, मैं हिमालयके घर अवतार लूँगी, इससे सभी लोगोंका दुःख दूर हो जायगा ॥ 28 ॥
आप सब लोग अपने-अपने घर जायँ और चिरकालतक सुखी रहें। मैं मेनाकी पुत्रीके रूपमें अवतार लेकर सभीको सुख प्रदान करूँगी ॥ 29 ॥
यह मेरा अत्यन्त गुप्त मत है कि मैं शिवजीकी पत्नी बनूँगी। भगवान् शिवकी लीला अद्भुत है, वह ज्ञानियोंको भी मोहमें डालनेवाली है ॥ 30 ॥ हे देवगणो! जबसे मैंने दक्षके यज्ञमें जाकर पिताद्वारा अपने स्वामीका अनादर देखकर दक्षोत्पन्न अपने शरीरको त्याग दिया है, उसी समयसे वे कालाग्निसंज्ञक स्वामी रुद्रदेव दिगम्बर होकर मेरी चिन्तामें संलग्न हैं ॥ 31-32 ।।
मेरे रोषको देखकर अपने पिताके यज्ञमें गयी हुई धर्मज्ञ सतीने [मेरी] प्रीतिके कारण अपना शरीर त्याग दिया। यही सोच करके वे घर छोड़कर अलौकिक वेष धारणकर योगी हो भटक गये। वे | महेश्वर मेरे सतीरूपका वियोग सहन नहीं कर पा रहे हैं ।। 33-34 ।।
उन्होंने उसी समयसे कामजन्य उत्तम सुखका परित्याग कर दिया है और मेरे निमित्त कुवेष धारणकर वे अत्यन्त दुखी हो गये हैं ॥ 35 ॥
हे विष्णो! हे विधे! हे देवगणो! हे मुनिगणो! आपलोग महाप्रभु महेश्वरकी भुवनपालिनी अन्य लीला भी सुनें । ज्ञानी होते हुए भी विरहमें व्याकुल वे मेरी अस्थियोंकी माला बनाकर धारण किये रहते हैं, फिर भी उन्हें कहीं भी शान्ति नहीं मिलती है ।। 36-37 ।।वे प्रभु अनाथके समान इधर-उधर घूमते हुए ऊँचे स्वरमें रोते रहते हैं, उन्हें उचित तथा अनुचितका ज्ञान भी नहीं है। इस प्रकार वे प्रभु सदाशिव कामियोंकी गति दिखाते हुए लीला करते फिरते हैं और कामुककी भाँति विरहाकुल वाणी बोलते रहते हैं ।। 38-39 ।।
वे शिव वस्तुतः निर्विकार तथा दीनतासे रहित, अजित, परमेश्वर, परिपूर्ण, स्वामी, मायाधीश तथा सबके अधिपति हैं ।॥ 40 ॥
वे तो लोकानुसरणकर ही लीला करते हैं. अन्यथा उन्हें मोह तथा कामसे प्रयोजन ही क्या है, वे प्रभु न तो किसी विकारसे अथवा मायासे ही लिप्त रहनेवाले हैं ॥ 41 ॥ वे सर्वव्यापी रुद्र मेरे साथ विवाह करनेकी प्रबल इच्छा रखते हैं। अतः हे देवगणो! मैं पृथ्वीपर मेना-हिमाचलके घरमें अवतार ग्रहण करूँगी ॥ 42 ॥
मैं रुद्रके सन्तोषके लिये लौकिक गतिका आश्रय लेकर हिमालयपत्नी मेनामें अवतार ग्रहण करूँगी ॥ 43 ॥
कठोर तपस्या करके रुद्रकी भक्त तथा प्रिया होकर मैं देवताओंका कार्य करूंगी, यह सत्य है, सत्य है- इसमें सन्देह नहीं है। आप सभी लोग अपने घर जाइये और रुद्रका भजन कीजिये, उन्हींकी कृपासे समस्त दुःख दूर हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है ।। 44-45 ।।
उन कृपालुकी कृपासे सर्वदा मंगल ही होगा और मैं उनकी प्रिया होनेके कारण त्रिलोकमें वन्दनीय तथा पूजनीय हो जाऊँगी ॥ 46 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे तात! इस प्रकार कहकर वे जगदम्बा देवताओंके देखते-देखते अन्तर्धान हो गयीं और शीघ्रतासे अपने लोकको चली गयीं ॥ 47 ॥ [तदनन्तर] विष्णु आदि समस्त देवता और मुनिगण अत्यन्त प्रसन्न होकर उस दिशामें प्रणामकर अपने अपने स्थानको चले गये ॥ 48 ॥
हे मुनीश्वर! इस प्रकार मैंने दुर्गाक उत्तम चरित्रका आपसे वर्णन किया, जो सर्वदा मनुष्योंको सुख, भोग तथा मोक्ष देनेवाला है।जो एकाग्र होकर इस चरित्रको नित्य सुनता अथवा सुनाता है, पढ़ता अथवा पढ़ाता है, वह सभी कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ॥ 49-50॥