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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 3 (पार्वती खण्ड) , अध्याय 4 - Sanhita 2, Khand 3 (पार्वती खण्ड) , Adhyaya 4

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उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] इस प्रकार देवताओंके द्वारा स्तुति किये जानेपर दुर्ग नामक राक्षसके द्वारा उत्पन्न संकटका नाश करनेवाली जगन्माता देवी दुर्गा देवताओंके समक्ष प्रकट हुई ॥ 1 ॥

वे रत्नोंसे जटित, दिव्य, परम अद्भुत, किंकिणीजालसे युक्त, कोमल विछौनेवाले तथा श्रेष्ठ रथपर विराजमान थीं ॥ 2 ॥

करोड़ों सूर्योसे भी अधिक प्रभायुक्त, रम्य अंगोंसे भासित, अपनी तेजोराशिके बीच विराजमान, सुन्दर रूपवाली, अनुपम छविसे सम्पन्न, अतुलनीय, महामाया, सदाशिवके साथ विलास करनेवाली, त्रिगुणात्मिका, गुणोंसे रहित, नित्या, शिवलोकमें निवास करनेवाली, त्रिदेवजननी, चण्डी, शिवा, सभी कष्टोंका नाश करनेवाली सबकी माता महानिद्रा, सभी स्वजनों (भक्तों) को मोक्ष प्रदान करनेवाली उन भगवती शिवाको तेजोराशिकी प्रभाके रूपमें देवताओंने देखा, किंतु उनके प्रत्यक्ष दर्शनकी अभिलाषा वाले देवताओंने पुनः उनकी स्तुति की ॥ 3-6 ॥

इसके बाद [ भगवतीके] दर्शनके अभिलाषी देवगण उन जगदम्बाकी कृपा प्राप्त करके ही उनका प्रत्यक्ष दर्शन कर सके। [देवीके दर्शनसे] सभी देवगणोंको महान् आनन्द प्राप्त हुआ। उन्होंने बार बार उनको प्रणाम किया और वे विशेष रूपसे उनकी स्तुति करने लगे-॥ 7-8 ।।

देवता बोले- हे शिवे! हे शर्वाणि! हे कल्याणि ! हे जगदम्ब हे महेश्वरि! हम सभी देवता सबके दुःखोंका | नाश करनेवाली आपको सदा प्रणाम करते हैं ॥ 9 ॥

हे देवेशि वेद एवं शास्त्र भी आपको पूर्णरूपये नहीं जानते हैं। हे शिवे! आपका ध्यान एवं महिमा वाणी एवं मनसे अगोचर है। वृति भी चकित होकर सदा अ व्यावृत्तिसे (नेति नेति कहते हुए) आपका वर्णन करती है, तो फिर दूसरोंकी बात ही क्या है ! ।। 10-11 [हे शिवे!] भक्तिसे आपकी कृपा प्राप्त करके बहुत से भक्त आपकी महिमाको जानते हैं। आपके शरणागत भक्तोंको कहीं भी भय आदि नहीं होता ॥ 12 ॥हे अम्बिके! हम सब आपके दास है, अतः अब आप प्रेमयुक्त होकर हमारी प्रार्थना सुनें है देवि ! हमलोग आपकी महिमाका थोड़ा-सा वर्णन
करते हैं ॥ 13 ॥

आप पहले दक्षकी पुत्री होकर शिवजीकी प्रिया बनी थीं, आपने [उस समय] ब्रह्मा तथा अन्य लोगोंके महान् दुःखको दूर किया था ॥ 14 ॥

आपने अपने पितासे अनादर प्राप्तकर अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार अपने शरीरका त्याग किया और आप अपने धामको चली गयी थीं, जिसके कारण महादेवजीने दुःख पाया था। किंतु हे महेश्वरि ! | देवताओंका वह कार्य पूरा नहीं हुआ। इसीलिये हम समस्त देवता एवं मुनिगण आपकी शरणमें आये हैं ।। 15-16 ।।

हे महेशानि! आप देवताओंके मनोरथको पूर्ण कीजिये, जिससे हे शिवे ! सनत्कुमारका [कहा हुआ ] वचन सफल हो ॥ 17 ॥

हे देवि ! आप पृथ्वीपर अवतरित होकर पुनः शिवजीकी पत्नी बनें और यथायोग्य लीला करें, जिससे देवगण सुखी हो जायें, हे देखि कैलासपर्वतपर स्थित भगवान् शिवजी भी सुखी हो जायँ, सभी लोग सुखी हो जायँ और पूर्णरूपसे दुःखका विनाश हो जाय ।। 18-19 ।।

ब्रह्माजी बोले - [ हे नारद!] विष्णु आदि सब देवता यह कहकर प्रेमसे मग्न हो गये और वे भक्तिपूर्वक विनम्रतासे सिर झुकाये मौन खड़े हो गये ll 20 ll

शिवा भी देवताओंकी स्तुति सुनकर प्रसन्न हो गयीं अपनी स्तुतिके कारणका विचारकर तथा प्रभु शिवजीका स्मरणकर भक्तवत्सला तथा दयामयी उमादेवी विष्णु आदि उन देवताओंको सम्बोधित करके हँसकर कहने लगीं ॥। 21-22 ॥

उमा बोलीं- हे हरे! हे विधे! हे देवताओ! हे मुनिगण | अब आप सभी लोग दुःखरहित हो जाइये और मेरी बात सुनिये। मैं [आपलोगोंपर] प्रसन्न हूँ, इसमें सन्देह नहीं है। मेरा चरित्र त्रैलोक्यको सर्वत्र सुख प्रदान करनेवाला है। दक्ष आदिको जो मोह उत्पन्न | हुआ, वह सब मेरे द्वारा ही किया गया था ।। 23-24 ॥ मैं पृथिवीपर पूर्ण अवतार ग्रहण करूँगी, इसमें सन्देह नहीं है। इसमें बहुत-से हेतु हैं, उन्हें मैं आदरपूर्वक कह रही हूँ। हे देवताओ! पूर्व समयमें हिमाचल और मेनाने बड़े भक्तिभावसे मुझ सतीशरीरधारिणीकी माता-पिताके समान सेवा की थी । ll 25-26 ॥

इस समय भी वे नित्यप्रति मेरी भक्तिपूर्वक सेवा कर रहे हैं और मेना विशेषकर अपनी पुत्रीरूपमें सेवा करती हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 27 ॥

अतः रुद्र तथा आपलोग [ अपने-अपने धामको] जायँ, मैं हिमालयके घर अवतार लूँगी, इससे सभी लोगोंका दुःख दूर हो जायगा ॥ 28 ॥

आप सब लोग अपने-अपने घर जायँ और चिरकालतक सुखी रहें। मैं मेनाकी पुत्रीके रूपमें अवतार लेकर सभीको सुख प्रदान करूँगी ॥ 29 ॥

यह मेरा अत्यन्त गुप्त मत है कि मैं शिवजीकी पत्नी बनूँगी। भगवान् शिवकी लीला अद्भुत है, वह ज्ञानियोंको भी मोहमें डालनेवाली है ॥ 30 ॥ हे देवगणो! जबसे मैंने दक्षके यज्ञमें जाकर पिताद्वारा अपने स्वामीका अनादर देखकर दक्षोत्पन्न अपने शरीरको त्याग दिया है, उसी समयसे वे कालाग्निसंज्ञक स्वामी रुद्रदेव दिगम्बर होकर मेरी चिन्तामें संलग्न हैं ॥ 31-32 ।।

मेरे रोषको देखकर अपने पिताके यज्ञमें गयी हुई धर्मज्ञ सतीने [मेरी] प्रीतिके कारण अपना शरीर त्याग दिया। यही सोच करके वे घर छोड़कर अलौकिक वेष धारणकर योगी हो भटक गये। वे | महेश्वर मेरे सतीरूपका वियोग सहन नहीं कर पा रहे हैं ।। 33-34 ।।

उन्होंने उसी समयसे कामजन्य उत्तम सुखका परित्याग कर दिया है और मेरे निमित्त कुवेष धारणकर वे अत्यन्त दुखी हो गये हैं ॥ 35 ॥

हे विष्णो! हे विधे! हे देवगणो! हे मुनिगणो! आपलोग महाप्रभु महेश्वरकी भुवनपालिनी अन्य लीला भी सुनें । ज्ञानी होते हुए भी विरहमें व्याकुल वे मेरी अस्थियोंकी माला बनाकर धारण किये रहते हैं, फिर भी उन्हें कहीं भी शान्ति नहीं मिलती है ।। 36-37 ।।वे प्रभु अनाथके समान इधर-उधर घूमते हुए ऊँचे स्वरमें रोते रहते हैं, उन्हें उचित तथा अनुचितका ज्ञान भी नहीं है। इस प्रकार वे प्रभु सदाशिव कामियोंकी गति दिखाते हुए लीला करते फिरते हैं और कामुककी भाँति विरहाकुल वाणी बोलते रहते हैं ।। 38-39 ।।

वे शिव वस्तुतः निर्विकार तथा दीनतासे रहित, अजित, परमेश्वर, परिपूर्ण, स्वामी, मायाधीश तथा सबके अधिपति हैं ।॥ 40 ॥

वे तो लोकानुसरणकर ही लीला करते हैं. अन्यथा उन्हें मोह तथा कामसे प्रयोजन ही क्या है, वे प्रभु न तो किसी विकारसे अथवा मायासे ही लिप्त रहनेवाले हैं ॥ 41 ॥ वे सर्वव्यापी रुद्र मेरे साथ विवाह करनेकी प्रबल इच्छा रखते हैं। अतः हे देवगणो! मैं पृथ्वीपर मेना-हिमाचलके घरमें अवतार ग्रहण करूँगी ॥ 42 ॥

मैं रुद्रके सन्तोषके लिये लौकिक गतिका आश्रय लेकर हिमालयपत्नी मेनामें अवतार ग्रहण करूँगी ॥ 43 ॥

कठोर तपस्या करके रुद्रकी भक्त तथा प्रिया होकर मैं देवताओंका कार्य करूंगी, यह सत्य है, सत्य है- इसमें सन्देह नहीं है। आप सभी लोग अपने घर जाइये और रुद्रका भजन कीजिये, उन्हींकी कृपासे समस्त दुःख दूर हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है ।। 44-45 ।।

उन कृपालुकी कृपासे सर्वदा मंगल ही होगा और मैं उनकी प्रिया होनेके कारण त्रिलोकमें वन्दनीय तथा पूजनीय हो जाऊँगी ॥ 46 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे तात! इस प्रकार कहकर वे जगदम्बा देवताओंके देखते-देखते अन्तर्धान हो गयीं और शीघ्रतासे अपने लोकको चली गयीं ॥ 47 ॥ [तदनन्तर] विष्णु आदि समस्त देवता और मुनिगण अत्यन्त प्रसन्न होकर उस दिशामें प्रणामकर अपने अपने स्थानको चले गये ॥ 48 ॥

हे मुनीश्वर! इस प्रकार मैंने दुर्गाक उत्तम चरित्रका आपसे वर्णन किया, जो सर्वदा मनुष्योंको सुख, भोग तथा मोक्ष देनेवाला है।जो एकाग्र होकर इस चरित्रको नित्य सुनता अथवा सुनाता है, पढ़ता अथवा पढ़ाता है, वह सभी कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ॥ 49-50॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन
  2. [अध्याय 2] पितरोंकी तीन मानसी कन्याओं-मेना, धन्या और कलावतीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा सनकादिद्वारा प्राप्त शाप एवं वरदानका वर्णन
  3. [अध्याय 3] विष्णु आदि देवताओंका हिमालयके पास जाना, उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी देवी जगदम्बाकी स्तुति करना
  4. [अध्याय 4] उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना
  5. [अध्याय 5] मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म
  6. [अध्याय 6] देवी उमाका हिमवान्‌के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, देवीका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे वार्तालाप तथा पुनः नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना
  7. [अध्याय 7] पार्वतीका नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन
  8. [अध्याय 8] नारद मुनिका हिमालयके समीप गमन, वहाँ पार्वतीका हाथ देखकर भावी लक्षणोंको बताना, चिन्तित हिमवान्‌को शिवमहिमा बताना तथा शिवसे विवाह करनेका परामर्श देना
  9. [अध्याय 9] पार्वतीके विवाहके सम्बन्धमें मेना और हिमालयका वार्तालाप, पार्वती और हिमालयद्वारा देखे गये अपने स्वप्नका वर्णन
  10. [अध्याय 10] शिवजीके ललाटसे भौमोत्पत्ति
  11. [अध्याय 11] भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप
  12. [अध्याय 12] हिमवान्‌का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा मांगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना
  13. [अध्याय 13] पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना
  14. [अध्याय 14] तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगों दितिपुत्र बज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] वरांगीके पुत्र तारकासुरकी उत्पत्ति, तारकासुरकी तपस्या एवं ब्रह्माजीद्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदानके प्रभावसे तीनों लोकोंपर उसका अत्याचार
  16. [अध्याय 16] तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना
  17. [अध्याय 17] इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना
  18. [अध्याय 18] कामदेवद्वारा असमयमें वसन्त ऋतुका प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षणके लिये शिवका मोहित होना, पुनः वैराग्य भाव धारण करना
  19. [अध्याय 19] भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना
  20. [अध्याय 20] शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना
  21. [अध्याय 21] कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश
  22. [अध्याय 22] पार्वतीकी तपस्या एवं उसके प्रभावका वर्णन
  23. [अध्याय 23] हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना
  24. [अध्याय 24] देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना
  25. [अध्याय 25] भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना
  26. [अध्याय 26] पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती संवाद
  27. [अध्याय 27] जटाधारी ब्राह्मणद्वारा पार्वतीके समक्ष शिवजीके स्वरूपकी निन्दा करना
  28. [अध्याय 28] पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना
  29. [अध्याय 29] शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना
  30. [अध्याय 30] पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना
  31. [अध्याय 31] देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना
  32. [अध्याय 32] ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत
  33. [अध्याय 33] वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा
  34. [अध्याय 34] सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको राजा अनरण्यका आख्यान सुनाकर पार्वतीका विवाह शिवसे करनेकी प्रेरणा देना
  35. [अध्याय 35] धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना
  36. [अध्याय 36] सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवान्‌का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना
  37. [अध्याय 37] हिमालयद्वारा विवाहके लिये लग्नपत्रिकाप्रेषण, विवाहकी सामग्रियोंकी तैयारी तथा अनेक पर्वतों एवं नदियोंका दिव्य रूपमें सपरिवार हिमालयके घर आगमन
  38. [अध्याय 38] हिमालयपुरीकी सजावट, विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करना
  39. [अध्याय 39] भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना
  40. [अध्याय 40] शिवबरातकी शोभा भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान
  41. [अध्याय 41] नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना
  42. [अध्याय 42] हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वारा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन
  43. [अध्याय 43] मेनाद्वारा शिवको देखनेके लिये महलकी छतपर जाना, नारदद्वारा सबका दर्शन कराना, शिवद्वारा अद्भुत लीलाका प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिवके भयंकर वेषको देखकर मेनाका मूर्च्छित होना
  44. [अध्याय 44] शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना
  45. [अध्याय 45] भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना
  46. [अध्याय 46] नगरमें बरातियोंका प्रवेश द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन
  47. [अध्याय 47] पाणिग्रहण के लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन
  48. [अध्याय 48] शिव-पार्वती विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना
  49. [अध्याय 49] अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  50. [अध्याय 50] शिवा शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप
  51. [अध्याय 51] रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  52. [अध्याय 52] हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन
  53. [अध्याय 53] चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना
  54. [अध्याय 54] मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना
  55. [अध्याय 55] शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा