ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] भगवान् विष्णुके द्वारा की हुई अपनी स्तुति सुनकर करुणानिधि महेश्वर प्रसन्न हुए और उमादेवीके साथ सहसा वहाँ प्रकट हो गये ॥ 1 ॥
[उस समय] उनके पाँच मुख और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र शोभा पाते थे। भालदेशमें चन्द्रमाका मुकुट सुशोभित था। सिरपर जटा धारण किये, गौरवर्ण, विशाल नेत्रवाले शिवने अपने सम्पूर्ण अंगोंमें विभूति लगा रखी थी ॥ 2 ॥उनकी दस भुजाएँ थीं। उनके कण्ठमें नीला चिह्न था। वे समस्त आभूषणोंसे विभूषित थे। उन सर्वांगसुन्दर शिवके मस्तक भस्ममय त्रिपुण्ड्रसे अंकित थे ॥ 3 ॥ ऐसे परमेश्वर महादेवजीको भगवती उमाके साथ उपस्थित देखकर भगवान् विष्णुने मेरे साथ पुनः प्रिय वचनोंद्वारा उनकी स्तुति की ॥ 4 ॥
तब करुणाकर भगवान् महेश्वर शिवने प्रसन्नचित होकर उन श्रीविष्णुदेवको श्वासरूपसे वेदका उपदेश दिया ॥ 5 ॥ हे मुने! उसके बाद शिवने परमात्मा श्रीहरिको गुह्य ज्ञान प्रदान किया। फिर उन परमात्माने कृपा करके मुझे भी वह ज्ञान दिया ॥ 6 ॥ वेदका ज्ञान प्राप्तकर कृतार्थ हुए भगवान् विष्णुने मेरे साथ हाथ जोड़कर महेश्वरको नमस्कार करके पुनः उनसे पूछा ॥ 7 ॥
विष्णुजी बोले- हे देव! आप कैसे प्रसन्न होते हैं? हे प्रभो ! मैं आपकी पूजा किस प्रकार करूँ ? आपका ध्यान किस प्रकारसे किया जाय और आप किस विधिसे वशमें हो जाते हैं ? ॥ 8 ॥
हे महादेव आपकी आज्ञासे हम लोगोंको क्या करना चाहिये ? हे शंकर! कौन कार्य अच्छा है और कौन "बुरा है, इस विवेकके लिये हम दोनोंके ऊपर कल्याणहेतु आप प्रसन्न हों और उचित बतानेकी कृपा करें ॥ 9 ॥ हे महाराज! हे प्रभो! हे शिव! हम दोनोंपर कृपा करके यह सब एवं अन्य जो कहनेयोग्य है, वह सब हम दोनोंको अपना अनुचर समझकर बतायें ॥ 10 ll
ब्रह्माजी बोले – [ हे मुने!] [श्रीहरिकी] यह बात सुनकर प्रसन्न हुए कृपानिधान भगवान् शिव प्रीतिपूर्वक यह बात कहने लगे ॥ 11 ॥
श्रीशिवजी बोले- हे सुरश्रेष्ठगण! मैं आप | दोनोंकी भक्तिसे निश्चय ही बहुत प्रसन्न हूँ। आपलोग मुझ महादेवकी ओर देखते हुए सभी भयोंको छोड़ दीजिये ll 12 ॥
मेरा यह लिंग सदा पूज्य है, सदा ही ध्येय है। इस समय आपलोगोंको मेरा स्वरूप जैसा दिखायी देता है, वैसे ही लिंगरूपका प्रयत्नपूर्वक पूजन- चिन्तन करना चाहिये ।। 13 ॥लिंगरूपसे पूजा गया मैं प्रसन्न होकर सभी | लोगोंको अनेक प्रकारके फल तो दूंगा ही, साथ ही " मनकी अन्य अनेक अभिलाषाएँ भी पूरी करूंगा है देवश्रेष्ठ ! जब भी आपलोगोंको कष्ट हो, तब मेरे लिंगकी पूजा करें, जिससे आपलोगोंके कष्टका नाश हो जायगा ॥। 14-15 ॥
आप दोनों महाबली देवता मेरी स्वरूपभूत प्रकृतिसे और मुझ सर्वेश्वरके दायें और बायें अंगोंसे प्रकट हुए हैं ॥ 16 ॥
ये लोकपितामह ब्रह्मा मुझ परमात्माके दाहिने पार्श्वसे उत्पन्न हुए हैं और आप विष्णु वाम पार्श्वसे प्रकट हुए हैं ॥ 17 ॥
मैं आप दोनोंपर भलीभाँति प्रसन्न हूँ और मनोवांछित वर दे रहा हूँ। मेरी आज्ञासे आप दोनोंकी मुझमें सुदृद्द भक्ति हो ॥ 18 ॥ हे विद्वानो! मेरी पार्थिव मूर्ति बनाकर आप दोनों उसकी अनेक प्रकारसे पूजा करें। ऐसा करनेपर आपलोगोंको सुख प्राप्त होगा ॥ 19 ॥
हे ब्रह्मन् ! आप मेरी आज्ञाका पालन करते हुए जगत्की सृष्टि कीजिये और हे विष्णो! आप इस चराचर जगत्का पालन कीजिये ॥ 20 ॥
ब्रह्माजी बोले- हम दोनोंसे ऐसा कहकर भगवान् शंकरने हमें पूजाकी उत्तम विधि प्रदान की, | जिसके अनुसार पूजित होनेपर शिव अनेक प्रकारके फल देते हैं ॥ 21 ॥ शम्भुकी यह बात सुनकर श्रीहरि मेरे साथ महेश्वरको हाथ जोड़कर प्रणाम करके कहने लगे-॥ 22 ॥
विष्णु बोले- [हे प्रभो!] यदि हमारे प्रति आपमें प्रीति उत्पन्न हुई है और यदि आप हमें वर देना चाहते हैं, तो हम यही वर माँगते हैं कि आपमें हम दोनोंकी सदा अविचल भक्ति बनी रहे ।। 23 ।।
आप निर्गुण हैं, फिर भी अपनी लीलासे आप अवतार धारण कीजिये। हे तात! आप परमेश्वर हैं, हमलोगोंकी सहायता करें ॥ 24 ॥
हे देवदेवेश्वर! हम दोनोंका विवाद शुभदायक रहा, जिसके कारण आप हम दोनोंके विवादको शान्त करनेके लिये यहाँ प्रकट हुए ॥ 25 ॥ब्रह्माजी बोले- [हे मुने!] श्रीहरिकी यह बात सुनकर भगवान् हरने मस्तक झुकाकर प्रणाम करके स्थित हुए उन श्रीहरिसे पुनः कहा। वे विष्णु स्वयं हाथ जोड़कर खड़े रहे ॥ 26 ॥
श्रीमहेश बोले- मैं सृष्टि, पालन और संहारका कर्ता, सगुण, निर्गुण, निर्विकार, सच्चिदानन्दलक्षणवाला तथा परब्रह्म परमात्मा हूँ ॥ 27 ॥
हे विष्णो! सृष्टि, रक्षा और प्रलयरूप गुणोंके भेदसे मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रका नाम धारण करके तीन स्वरूपोंमें विभक्त हुआ है। हे हरे। मैं वास्तवमें सदा निष्कल हूँ ॥ 28 ॥
हे विष्णो! आपने और ब्रह्माने मेरे अवतारके | निमित्त जो मेरी स्तुति की है, उस प्रार्थनाको मैं अवश्य सत्य करूँगा; क्योंकि मैं भक्तवत्सल हूँ ॥ 29 ॥
ब्रह्मन् ! मेरा ऐसा ही परम उत्कृष्ट रूप तुम्हारे शरीरसे इस लोकमें प्रकट होगा, जो नामसे 'रुद्र' कहलायेगा ॥ 30 ॥
मेरे अंशसे प्रकट हुए रुद्रकी सामर्थ्य मुझसे कम नहीं होगी। जो मैं हूँ, वही ये रुद्र हैं। पूजाके विधि विधानकी दृष्टिसे भी मुझमें और उनमें कोई अन्तर नहीं है। 31 ।। जैसे जल आदिके साथ ज्योतिर्मय विम्बका (प्रतिबिम्बके रूपमें) सम्पर्क होनेपर भी बिम्बमें स्पर्शदोष नहीं लगता, उसी प्रकार मुझ निर्गुण परमात्माको भी किसीके संयोगसे बन्धन नहीं प्राप्त होता ।। 32 ।।
यह मेरा शिवरूप है। जब रुद्र प्रकट होंगे, तब वे भी शिवके ही तुल्य होंगे। हे महामुने! [मुझमें और] उनमें परस्पर भेद नहीं करना चाहिये ॥ 33 ॥ वास्तवमें एक ही रूप सब जगत्में [व्यवहार निर्वाह के लिये] दो रूपोंमें विभक्त हो गया है। अतः शिव और रुद्रमें कभी भी भेद नहीं मानना चाहिये ॥ 34 ॥ [शिव और रुद्रमें भेद वैसे ही नहीं है] जैसे एक सुवर्णखण्ड में समरूपसे एक ही वस्तुतत्त्व विद्यमान रहता है, किंतु उसीका आभूषण बना देनेपर नामभेद आ जाता है। वस्तुतत्त्वकी दृष्टिसे उसमें भेद नहीं होता ॥ 35 ॥जिस प्रकार एक ही मिट्टीसे बने हुए नाना प्रकारके पात्रोंमें नाम और रूपका तो भेद आ जाता है, किंतु मिट्टीका भेद नहीं होता; क्योंकि कार्यमें कारणकी ही विद्यमानता दिखायी देती है। हे देवो! निर्मल ज्ञानवाले श्रेष्ठ विद्वानोंको यह जान लेना चाहिये। ऐसा समझकर आपलोग भी शिव और रुद्रमें भेदबुद्धिवाली दृष्टिसे न देखें ।। 36-37 ।।
वास्तवमें सारा दृश्य ही मेरा शिवरूप है-ऐसा मेरा मत है। मैं, आप, ब्रह्मा तथा जो ये रुद्र प्रकट होंगे, वे सब के सब एकरूप हैं, इनमें भेद नहीं है। भेद माननेपर अवश्य ही बन्धन होगा। तथापि मेरे शिवरूपको ही सर्वदा सनातन, मूलकारण, सत्यज्ञानमय तथा अनन्त कहा गया है—ऐसा जानकर आपलोगोंको सदा मनसे मेरे यथार्थ स्वरूपका ध्यान करना चाहिये ॥ 38-40 ॥
हे ब्रह्मन् ! सुनिये, मैं आपको एक गोपनीय बात बता रहा हूँ। आप दोनों प्रकृतिसे उत्पन्न हुए हैं, किंतु ये रुद्र प्रकृतिसे उत्पन्न नहीं हैं ॥ 41 ॥
मैं अपनी इच्छासे स्वयं ब्रह्माजीकी भ्रुकुटिसे प्रकट हुआ हूँ। गुणोंमें भी मेरा प्राकट्य कहा गया है। जैसा कि लोगोंने कहा है कि हर तामस प्रकृतिके हैं। वास्तवमें उस रूपमें अहंकारका वर्णन हुआ है। उस अहंकारको केवल तामस ही नहीं, वैकारिक [सात्त्विक] भी समझना चाहिये; [ सात्त्विक देवगण वैकारिक अहंकारकी ही सृष्टि हैं।] यह तामस और सात्त्विक आदि भेद केवल नाममात्रका है, वस्तुत: नहीं है। वास्तवमें हरको तामस नहीं कहा जा सकता ।। 42-43 ।।
हे ब्रह्मन् ! इस कारणसे आपको ऐसा करना चाहिये। हे ब्रह्मन् ! आप इस सृष्टिके निर्माता बनें और श्रीहरि इसका पालन करनेवाले हों ॥ 44 ॥
मेरे अंशसे प्रकट होनेवाले जो रुद्र वे इसका प्रलय करनेवाले होंगे। ये जो उमा नामसे विख्यात परमेश्वरी प्रकृति देवी हैं, इन्हींकी शक्तिभूता वाग्देवी ब्रह्माजीका सेवन करेंगी। पुनः इन प्रकृति देवीसे वहाँ जो दूसरी शक्ति प्रकट होंगी, वे लक्ष्मीरूपसे भगवान् विष्णुका आश्रय लेंगी। तदनन्तर पुनः काली नामसे जो तीसरी शक्ति प्रकट होंगी, वे निश्चय ही मेरे अंशभूत रुद्रदेवकोप्राप्त होंगी। वे कार्यकी सिद्धिके लिये वहाँ ज्योतिरूपसे प्रकट होंगी। इस प्रकार मैंने देवीकी शुभस्वरूपा पराशक्तियोंको बता दिया ।। 45-48 ॥
उनका कार्य क्रमशः सृष्टि, पालन और संहारका सम्पादन ही है। हे सुरश्रेष्ठ! ये सब की सब मेरी प्रिया प्रकृति देवीकी अंशभूता हैं ॥ 49 ॥
हे हरे ! आप लक्ष्मीका सहारा लेकर कार्य कीजिये। हे ब्रह्मन् ! आप प्रकृतिकी अंशभूता वाग्देवीको प्राप्तकर मेरी आज्ञाके अनुसार मनसे सृष्टिकार्यका संचालन करें और मैं अपनी प्रियाकी अंशभूता परात्पर कालीका आश्रय लेकर रुद्ररूपसे प्रलयसम्बन्धी उत्तम कार्य करूँगा। आप सब लोग अवश्य ही सम्पूर्ण आश्रमों तथा उनसे भिन्न अन्य विविध कार्योंद्वारा चारों वर्णोंसे भरे हुए लोककी सृष्टि एवं रक्षा आदि करके सुख पायेंगे ॥ 50-52 / 2 ॥
[हे हरे!] आप ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न तथा सम्पूर्ण लोकोंके हितैषी हैं। अतः अब आप मेरी आज्ञासे जगत्में [सब लोगोंके लिये] मुक्तिदाता बनें। मेरा दर्शन होनेपर जो फल प्राप्त होता है, वही फल आपका दर्शन होनेपर भी प्राप्त होगा। मैंने आज आपको यह वर दे दिया, यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है। मेरे हृदयमें विष्णु हैं और विष्णुके हृदयमें मैं हूँ ॥ 53-55 ॥
जो इन दोनोंमें अन्तर नहीं समझता, वही मेरा मन है अर्थात् वही मुझे प्रिय है। श्रीहरि मेरे बायें अंगसे प्रकट हुए हैं, ब्रह्मा दाहिने अंगसे उत्पन्न हुए हैं और महाप्रलयकारी विश्वात्मा रुद्र मेरे हृदयसे प्रादुर्भूत हुए हैं। हे विष्णो! मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और भव नामसे तीन रूपोंमें विभक्त हो गया हूँ। मैं रज आदि तीनों गुणोंके द्वारा सृष्टि, पालन तथा संहार करता हूँ ॥ 56-571/2 ॥
शिव गुणोंसे भिन्न हैं और वे साक्षात् प्रकृति तथा पुरुषसे भी परे हैं। वे अद्वितीय, नित्य, अनन्त, पूर्ण एवं निरंजन परब्रह्म हैं। तीनों लोकोंका पालन करनेवाले श्रीहरि भीतर तमोगुण और बाहर सत्त्वगुण धारण करते हैं। त्रिलोकीका संहार करनेवाले रुद्रदेव | भीतर सत्त्वगुण और बाहर तमोगुण धारण करते हैंतथा त्रिभुवनकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजी बाहर और भीतरसे भी रजोगुणी ही हैं। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र इन तीनों देवताओंमें गुण हैं, परंतु शिव गुणातीत माने गये हैं ॥ 58- 619 / 2 ॥
हे विष्णो! आप मेरी आज्ञासे इन सृष्टिकर्ता पितामहका प्रसन्नतापूर्वक पालन कीजिये। ऐसा करनेसे आप तीनों लोकोंमें पूजनीय होंगे ॥ 62 ॥ ये रुद्र आपके और ब्रह्माके सेव्य होंगे; क्योंकि त्रैलोक्यके लयकर्ता ये रुद्र शिवके पूर्णावतार हैं ॥ 63 ॥ पाद्मकल्पमें पितामह आपके पुत्र होंगे। उस समय आप मुझे देखेंगे और वे ब्रह्मा भी मुझे देखेंगे ॥ 64 ॥ ऐसा कहकर महेश, हर, सर्वेश्वर, प्रभु अतुलनीय | कृपाकर पुन: प्रेमपूर्वक विष्णुसे कहने लगे- ॥ 65 ॥