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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 7, अध्याय 2 - Sanhita 7, Adhyaya 2

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ऋषियोंका ब्रह्माजीके पास जाकर उनकी स्तुति करके उनसे परमपुरुषके विषयमें प्रश्न करना और ब्रह्माजीका आनन्दमग्न हो 'रुद्र' कहकर उत्तर देना

सूतजी बोले- पूर्व समयमें अनेक कल्पोंके पुन: पुनः बीत जानेके बाद जब यह वर्तमान [ श्वेतवाराह ] कल्प उपस्थित हुआ और सृष्टिका कार्य उपस्थित हुआ, जब जीविकाओंकी प्रतिष्ठा हो गयी और प्रजाएँ सजग हो गयीं, उस समय छः कुलोंमें उत्पन्न हुए मुनिगण आपसमें कहने लगे - ॥ 1-2 ॥

यह परब्रह्म है, यह नहीं है-इस प्रकारका बहुत बड़ा विवाद उनमें होने लगा और परब्रह्मका निरूपण बहुत कठिन होनेके कारण उस समय कोई निर्णय नहीं हो सका ॥ 3 ॥

तब वे मुनिगण सृष्टिकर्ता तथा अविनाशी ब्रह्माजीके दर्शनके लिये [वहाँ] गये, जहाँ देवताओं तथा दानवोंके द्वारा निषेवित, सिद्धों तथा चारणोंसे युक्त, यक्षों तथा गन्धर्वोंसे सेवित, पक्षिसमूहके कलरवसे भरे हुए, मणियों तथा मूँगोंसे विभूषित और नाना प्रकारके निकुंज कन्दराओं-गुफाओं तथा झरनोंसे शोभित सुन्दर तथा रम्य [स्थानमें] देवताओं तथा दानवोंसे स्तुत होते हुए वे भगवान् ब्रह्मा विराजमान थे ॥ 4-6 ॥वहाँ ब्रह्मवन नामसे प्रसिद्ध एक वन था, जो दस योजन विस्तृत, सौ योजन लम्बा, अनेकविध वन्य पशुओंसे युक्त, सुमधुर तथा स्वच्छ जलसे पूर्ण रमणीय सरोवरसे सुशोभित और मत्त भ्रमरोंसे भरे हुए सुन्दर एवं पुष्पित वृक्षोंसे युक्त था ॥ 7-8 ॥

वहाँपर मध्याह्नकालीन सूर्यके जैसी आभावाला एक विशाल, सुन्दर नगर था, जो कि बलसे उन्मत्त दैत्यदानव राक्षसादिके लिये अत्यन्त दुर्धर्ष था। वह नगर तपे हुए जाम्बूनदस्वर्णसे निर्मित, ऊँचे गोपुर तथा तोरणवाला था। वह हाथीदाँतसे बनी सैकड़ों छतों तथा मार्गों से शोभायमान था और आकाशको मानो चूमते हुए-से प्रतीत होनेवाले, बहुमूल्य मणियोंसे चित्रित भवनसमूहोंसे अलंकृत था । ll 9-11 ॥

उसमें प्रजापति ब्रह्मदेव अपने सभासदोंके साथ निवास करते हैं। वहाँ जाकर उन मुनियोंने देवताओं तथा ऋषियोंसे सेवित, शुद्ध सुवर्णके समान प्रभावाले, सभी आभूषणोंसे विभूषित, प्रसन्न मुखमण्डलवाले, सौम्य, कमलदलके सदृश विशाल नेत्रोंवाले, दिव्य कान्तिसे युक्त, दिव्य गन्धका अनुलेप किये हुए, दिव्य श्वेत वस्त्र पहने, दिव्य मालाओंसे विभूषित, देवता असुर एवं योगीन्द्रोंसे वन्द्यमान चरणकमलवाले, सभी लक्षणोंसे समन्वित अंगोंवाली तथा हाथमें चामर धारण की हुई सरस्वतीके साथ प्रभासे युक्त सूर्यकी भाँति सुशोभित होते हुए महात्मा साक्षात् लोकपितामह ब्रह्माको देखा। उन्हें देखकर प्रसन्नमुख तथा नेत्रोंवाले सभी मुनिगण सिरपर अंजलि बाँधकर उन देव श्रेष्ठकी स्तुति करने लगे ॥ 12-17॥

मुनिगण बोले- संसारका सृजन, पालन और संहार करनेवाले, त्रिमूर्तिस्वरूप, पुराणपुरुष तथा परमात्मा आप ब्रह्मदेवको नमस्कार है ॥ 18 ll

प्रकृति जिनका स्वरूप है, जो प्रकृतिमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाले हैं तथा प्रकृतिरूपमें तेईस प्रकारके विकारोंसे युक्त होकर भी स्वयं अविकृत रहनेवाले हैं-ऐसे आपको नमस्कार है। ब्रह्माण्डरूप शरीरवाले, ब्रह्माण्डके बीचमें निवास करनेवाले, सम्यक् रूपसे सिद्ध कार्य एवं करणस्वरूप आपको नमस्कार है ।। 19-20 ।।जो सर्वलोकस्वरूप, सम्पूर्ण लोकके कर्ता एवं सभीके आत्मा तथा देहका संयोग-वियोग करानेवाले हैं, [उन] आपको नमस्कार है ॥ 21 ॥ हे नाथ! आप ही इस समग्र संसारके
उत्पत्तिकर्ता, पालक तथा संहारकर्ता हैं, तथापि हे पितामह! आपकी मायाके कारण हमलोग आपको नहीं समझ पाते ॥ 22 ॥ सूतजी बोले- महाभाग्यशाली महर्षियोंके द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर ब्रह्माजी उन मुनियोंको हर्षित-सा करते हुए गम्भीर वाणीमें कहने
लगे - ॥ 23 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे महाभाग्यशाली, महाप्राण एवं महातेजस्वी ऋषियो! आप सभी लोग मिलकर एक साथ यहाँ क्यों आये हैं ? ॥ 24 ॥

जब देवाधिदेव ब्रह्माजीने उन लोगोंसे ऐसा कहा, तब हाथ जोड़कर ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ वे सभी ऋषिगण विनयसे समन्वित वाणीमें कहने लगे- ॥ 25 ॥

मुनिगण बोले- हे भगवन्! हमलोग घोर अज्ञानान्धकारसे घिरे हुए हैं, अतः परस्पर विवाद करते हुए दुखी हैं, हमलोगोंको परमतत्त्वका ज्ञान अभीतक नहीं हो पाया है। आप सम्पूर्ण जगत्के पालक हैं और सभी कारणोंके भी कारण हैं। हे नाथ! आपको इस जगत्में कुछ भी अविदित नहीं है॥ 26-27 ॥ कौन पुरुष सभी प्राणियोंसे प्राचीन, परम पुरुष, विशुद्ध, परिपूर्ण, शाश्वत तथा परमेश्वर है ॥ 28 ॥ वह अपने किस विचित्र कृत्यसे सर्वप्रथम इस जगत्‌का निर्माण करता है। हे महाप्राज्ञ! हमारे | सन्देहको दूर करनेके लिये आप इसे कहिये ॥ 29 ॥

ऐसा पूछे जानेपर ब्रह्माजीके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे और वे देवताओं, दानवों तथा मुनियोंके सामने उठ करके बहुत देरतक ध्यान करते रहे, तदुपरान्त आनन्दसे सिक्त समस्त अंगोंवाले वे 'रुद्र-रुद्र' इस प्रकारका शब्द उच्चारण करते हुए हाथ जोड़कर कहने लगे- ॥ 30-31 ॥

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