ऋषिगण बोले- शिवजीके चरित्र अद्भुत, गोपनीय, गहन तथा देवताओंद्वारा भी दुर्विज्ञेय हैं, वे हम सभीके मनको मोहित कर देते हैं ॥ 1 ॥
शिव और शिवाके [विचित्र] चरित्रोंके आधारपर भले ही लौकिकताकी प्रतीति हो, पर वस्तुतः उनके नित्य सम्बन्धमें किसी भी दोषकी कल्पना नहीं की जा सकती ॥ 2 ॥
लोकोंके सृजन, पालन तथा संहारके कारणस्वरूप ब्रह्मा आदि भी निग्रह- अनुग्रहको प्राप्त करते हुए शिवके वशमें रहते हैं। शिवजी किसीके भी निग्रह तथा अनुग्रहपर आश्रित नहीं हैं, अतः उनका ऐश्वर्य भी किसीके द्वारा प्रदत्त या कहींसे आया हुआ नहीं है - यह सुनिश्चित है ॥ 3-4 ॥
। अगर शिवजीका ऐश्वर्य इस प्रकारका है तो उसे स्वाभाविक रूपसे नित्यसिद्ध स्वतन्त्रताका ज्ञापकसमझना चाहिये, जबकि ऐसा नहीं है क्योंकि नित्य स्वतन्त्र सत्ता आकारके अधीन कैसे हो सकती है ? ॥ 5 ॥
स्वतन्त्र सत्ताका मूर्तिपरतन्त्र होना सिद्ध नहीं होता, क्योंकि वह तो [ सभीका] मूल कारण है, जबकि मूर्ति तो कार्य अथवा उत्पाद्य है, ऐसी स्थिति में मूर्तिको भी हेतुरहित या नित्य मानना पड़ेगा ॥ 6 ॥
परमभाव तथा उसे पृथक् अपरमभाव- इन दो भावोंकी सर्वत्र चर्चा की जाती है। [ये दोनों ही भाव परस्पर विरुद्ध होनेसे भिन्न-भिन्न आधारोंका आश्रय लेते हैं।] ऐसी दशामें परम तथा अपरम भावकी स्थिति एक ही अधिकरण अर्थात् भगवान् शिवमें कैसे संगत हो सकती है ? ॥ 7 ॥
परमात्माका परम स्वभाव निष्कल कहा गया है तो फिर वह सकल किस प्रकार हो गया; क्योंकि स्वभावमें तो किसी भी प्रकार विपरीतता होती नहीं है॥ 8॥
यदि कदाचित् परमात्मा अपनी इच्छासे स्व-स्वभावसे विपरीत स्वभाववाला भी हो सकता है' ऐसा कहें तो वह ऐश्वर्यशाली परमात्मा नित्यानित्य विपर्यय क्यों नहीं कर देता अर्थात् नित्यको अनित्य तथा अनित्यको नित्य क्यों नहीं बना देता ? ॥ 9 ॥
यदि यह कहा जाय कि सकलस्वरूप मूर्त्यात्मा कोई और है तथा निष्कलस्वरूप शिव उससे भिन्न कोई अन्य तत्त्व है तो फिर निश्चयपूर्वक यह क्यों कहा जाता है कि सर्वत्र शिव ही अधिष्ठित हैं अर्थात् उनसे भिन्न किसी अन्य तत्त्वकी अधिष्ठान सत्ता नहीं है ? ॥ 10 ll
यदि ये कहें कि मूर्त्यात्मा वस्तुतः उन शिवकी अभिव्यक्तिमात्र है तो फिर उस मूर्ति [के माध्यम] से [शिवके अभिव्यक्त होनेके कारण ] निश्चय ही उन मूर्तिमान् शिवकी परतन्त्रता सिद्ध हो जायगी ॥ 11 ॥
यदि शिव [अभिव्यक्तिके लिये] मूर्तिके परतन्त्र न होते तो उन निरपेक्षके द्वारा मूर्तिको स्वीकार ही क्यों किया जाता ? इससे यह सिद्ध होता है कि मूर्तिसे | सिद्ध होनेवाले प्रयोजनकी ही कामनासे शिव मूर्तिको स्वीकार करते हैं ॥ 12 ॥ स्वेच्छासे शरीर धारण करना [परमात्मा के] स्वातन्त्र्यको सिद्ध करनेवाला हेतु भी नहीं माना जा सकता क्योंकि अन्य पुरुषोंमें भी कर्मका अनुसरण करनेवाली वैसी ही स्वेच्छा देखी जाती है ? ॥ 13॥
अपनी इच्छासे [कर्मानुसार] देह धारण करने तथा उसका त्याग करनेमें ब्रह्मासे लेकर पिशाचपर्यन्त [सभी प्राणी] समर्थ हैं तो क्या उनको कर्मका अतिक्रमण करनेवाला मान लिया जाय ? ॥ 14 ॥
[अपनी] इच्छासे देहनिर्माण तो इन्द्रजालके समान कहा गया है, अणिमा आदि सिद्धियोंको वशमें करनेसे ही यह सम्भव है ॥ 15 ॥
[महाराज क्षुपकी ओरसे] युद्ध करते हुए | भगवान् विष्णुने जब विश्वरूप दिखाकर दभीचको स्तब्ध करना चाहा, तब महर्षि दधीचने स्वयं भी विष्णुका रूप धारणकर उनकी वंचना की ॥ 16 ॥
हमलोगोंको तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सबसे उत्कृष्ट होकर भी जब परमात्मा शिव शरीर धारण करते हैं तो वे [निश्चय ही] अन्य प्राणियोंके समान हैं ll 17 ll
परम कारण शिवको सबपर अनुग्रह करनेवाला कहा गया है। वे देवताओंका निग्रह भी करते हैं, तो फिर वे सबपर अनुग्रह करनेवाले कैसे हैं ? ॥ 18 ॥ दुर्बुद्धिवश शिवको पुत्र मानकर पुनः पुनः निन्दामें तत्पर हुए ब्रह्माजीके पाँचवें सिरको शिवने काट डाला था। शरभरूपधारी शिवने शीघ्रता पूर्वक अपने पैरोंसे आक्रमण करके नृसिंहरूपवाले विष्णुके हृदयको तीक्ष्ण नाखूनोंसे विदीर्ण कर दिया था ॥ 19-20 ॥
दक्षके यज्ञमें भाग लेनेके कारण देवस्त्रियों तथा | देवताओंमें ऐसा कोई नहीं था, जो पराक्रमी वीरभद्रके द्वारा दण्डित नहीं किया गया हो ॥ 21 ॥
शिवजीने स्त्रियों, दैत्यों तथा बालकों सहित त्रिपुरको एक क्षणमें अपने नेत्रकी अग्निसे जला दिया था ॥ 22 ॥प्रजाओंकी [ उत्पत्ति तथा स्त्री-पुरुषोंकी पारस्परिक ] रतिके हेतुस्वरूप रतिपति कामदेव देवताओंके चीखने-चिल्लानेपर भी शिवजीकी नेत्राग्निमें भस्म हो गये थे। उनके सिरपर दुग्धधारा गिराती हुई कुछ आकाशचारिणी गायोंको भी प्रभु शिवने क्रोधपूर्वक देखकर उसी क्षण भस्म कर दिया था ।। 23-24 ।।
जिसने शेषनाग [ को रज्जु बनाकर उस ] से विष्णुको बाँधकर उन्हें सौ योजन दूर फेंक दिया था, उस जलन्धरासुरको [शिवजीने] अपने चरणसे जलको चक्राकृति बनाकर भयभीत कर दिया। जलमें स्थित हुए शिवजीने उस दैत्यको त्रिशूलसे मार डाला। तपस्या करके भगवान् शिवसे [उनके सुदर्शन नामक ] चक्रको प्राप्तकर विष्णु भगवान् सदाके लिये [अपूर्व ] पराक्रमी हो गये । ll 25-26 ।।
शिवजीने हिंसाके लिये दयारहित देवशत्रुओंके कुल तथा अन्धक दैत्यके हृदयको त्रिशूलकी अग्निसे सन्तप्त कर दिया था ॥ 27 ॥
कण्ठसे कृष्णवर्णा नारीको उत्पन्न करके उन्होंने दारुकका संहार कराया और गौरीके त्वचाकोशमें [अव्यक्त रूपसे] विद्यमान कौशिकीका प्रादुर्भाव कराके युद्धमें निशुम्भसहित शुम्भका वध कराया ।। 281/2 ॥
कार्तिकेयसे सम्बन्धित महान् आख्यान स्कन्दपुराणमें सुना गया है। इन्द्रके शत्रु तारक नामक दैत्यराजके वधके लिये ब्रह्माजीने मन्दराचलपर अन्तः पुरमें शिवजीसे प्रार्थना की थी । ll 29-30 ॥
[उस समय] शिवजी सुदीर्घकालतक भगवती पार्वतीके साथ [मन्दराचलपर] लीलाविहार करते रहे। उनके असाधारण लीला-प्रसंगोंसे ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो पृथ्वी रसातलको ही चली जायगी। उन्होंने लीलावश भगवतीकी वंचनाकर उनमें अपने तेजका आधान न करके उस दुर्वह तेजको अग्निमें पवित्र आज्य हविके समान विसर्जित कर दिया ।। 31-32 ॥अग्निदेवने उस [शैव] तेजको अनेक अंशो विभक्त करके गंगा आदि नदियोंमें डाल दिया। | तदुपरान्त भगवती स्वाहाने कृत्तिकाओंका रूप धारण | करके जहाँ-तहाँ अंशरूपसे विकीर्ण उस तेजको ग्रहण कर लिया। तदुपरान्त सुमेरुपर्वतपर अग्निदेव के साथ विहार करती हुई स्वर्णवर्णा स्वाहा देवीने उस तेजको वहीं सरकण्डोंके वनमें किसी स्थानपर स्थापित कर दिया ।। 33-34 ॥
समय आनेपर वह तेज [अग्निके समान] प्रज्वलित हो उठा और उसने अपने प्रकाशसे दसों दिशाओंको मानो अनुरंजित-सा कर दिया तथा सुमेरुसहित [निकटवर्ती] सभी पर्वतोंको स्वर्णमय बना दिया। तत्पश्चात् दीर्घकालके बीतनेपर कुमारोंके सदृश सुकुमार देहवाला वह शिवपुत्र प्रादुर्भूत हुआ। उसके शैशवोचित मनोहर स्वरूपको देखकर देवताओं तथा असुर आदिके सहित सभी लोग आश्चर्यचकित एवं मुग्ध हो गये । ll 35-37॥
उस समय पुत्रको देखनेकी अभिलाषा लिये हुए देवी पार्वतीके साथ स्वयं भगवान् शिव भी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने बालकको गोदमें बैठा लिया और उस मुसकराते हुए बालककी मुखमाधुरीको वे स्नेहविवश चित्तसे मानो अमृतके समान पीने लगे ।। 381/2 ॥
वीतराग तपस्वियोंके साथ वहाँ उपस्थित देवताओंके समक्ष ही शिवजीने अपने वक्षःस्थलपर इच्छानुरूप बालकको नचाकर उसकी बालकोचित क्रीडाओंके सुखका अनुभव करके देवी पार्वतीको दुग्धपान करानेके लिये संकेत किया, देवीने भी आदरसहित शिवजीकी आज्ञा मानकर उसे अमृतसदृश दुग्ध पिलाया। तदनन्तर उस बालकसे यह कहकर कि 'तुम्हारा आविर्भाव संसारके कल्याणके लिये हुआ है' भगवती पार्वती तथा स्वयं महादेव शंकर तृप्त नहीं हो सके ।। 39-411/3 ॥तदुपरान्त तारकासुरसे भयभीत इन्द्रके साथ परामर्श करके त्रिपुरारि शिवने [अपने पुत्रका] देवसेनापतिके पदपर अभिषेक करवाया। इन्द्र आदि देवताओंसे संरक्षित कुमार स्कन्दको सेनाके मध्यमें भेजकर शिवजी अदृश्य होकर वहीं स्थित हो गये। उस युद्धमें कुमारने क्रौंच पर्वतको विदीर्ण करनेवाली प्रलयकालीन अग्निके समान [ देदीप्यमान] उस शक्तिसे इन्द्रके भयके साथ-साथ तारकासुरका मस्तक भी काट डाला। तब ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओंने कुमारका विशेष स्तवन किया ।। 42-45 ।।
ऐसे ही अपने बलसे गर्वित होकर अपनी विशाल भुजाओंसे कैलासपर्वतको उठानेमें लगा हुआ राक्षसराज साक्षात् रावण उस पापको सहन न करनेवाले देवदेव शिवके पैर के अँगूठेके स्पन्दनमात्रसे मसल दिया गया और भूमिमें चला गया ।। 46-47 ।। समाप्त हुई आयुवाले किसी वटुकने प्रयोजनवश शिवजीका आश्रय ग्रहण किया था जब यमराजने उसके प्राणोंको हरण करना चाहा तो भगवान् शिवने शीघ्रतासे आ करके यमराजको पैरोंतले दबा लिया। [एक बार शिवजी] बडवानलको ही अपना वाहन वृषभ समझकर उसे गला पकड़ करके ले आये, जिसके कारण सारा संसार जलमय हो गया ।। 48-49 ॥
लोक जिन्हें जाननेमें समर्थ नहीं है, ऐसे आंगिक चेष्टाओंसे युक्त एवं आनन्द तथा सौन्दर्यसे परिपूर्ण नृत्ताभिनयोंके द्वारा अनेक बार शिवजीने जगत्को चलायमान कर दिया था ॥ 50 ॥
वायुदेव ! यदि शिव सदा शान्तभावसे रहकर ही सबपर अनुग्रह करते हैं तो सबकी अभिलाषाओंको एक साथ ही पूर्ण क्यों नहीं कर देते ? जो सब कुछ करने में समर्थ होगा, वह सबको एक साथ ही बन्धन मुक्त क्यों नहीं कर सकेगा? यदि कहें अनादिकालसे चले आनेवाले सबके विचित्र कर्म अलग-अलग हैं, अतः सबको एक समान फल नहीं मिल सकता तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि कर्मोंकी विचित्रता भी यहाँ नियामक नहीं हो सकती। कारण कि वे कर्म भीईश्वरके करानेसे ही होते हैं। इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ। उपर्युक्तरूपसे विभिन्न युक्तियोंद्वारा फैलायी गयी नास्तिकता जिस प्रकारसे शीघ्र ही निवृत्त हो जाय, वैसा उपदेश दीजिये ll 51-53 ॥