View All Puran & Books

शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 7, अध्याय 1 - Sanhita 7, Adhyaya 1

Previous Page 389 of 466 Next

ऋषियोंद्वारा सम्मानित सूतजीके द्वारा कथाका आरम्भ, विद्यास्थानों एवं पुराणोंका परिचय तथा वायुसंहिताका प्रारम्भ

व्यासजी बोले- जो जगत्की सृष्टि, पालन |और संहारके हेतु तथा प्रकृति और पुरुषके ईश्वर हैं, उन प्रमथगण, पुत्रद्वय तथा उमासहित भगवान् शिवको नमस्कार है ॥ 1 ॥

जिनकी शक्तिकी कहीं तुलना नहीं है, जिनका ऐश्वर्य सर्वत्र व्यापक है तथा स्वामित्व और विभुत्व जिनका स्वभाव कहा गया है, उन विश्वस्रष्टा, सनातन, अजन्मा, अविनाशी, महान् देव, मंगलमय |परमात्मा शिवकी मैं शरण लेता हूँ ॥ 2-3 ॥

किसी समय धर्मक्षेत्र, महातीर्थ, ब्रह्मलोकके मार्गभूत तथा गंगा-यमुनाके संगमसे युक्त प्रयागतीर्थवाले नैमिषारण्यमें विशुद्ध अन्तःकरणवाले, सत्यव्रतपरायण, महातेजस्वी एवं महाभाग्यशाली मुनियोंने महायज्ञका आयोजन किया था ।। 4-5 ।।

अक्लिष्ट कर्म करनेवाले उन महर्षियोंके यज्ञका वृत्तान्त सुनकर सत्यवतीसुत महाबुद्धिमान् वेदव्यासके साक्षात् शिष्य सूतजी, जो महात्मा, मेधावी, तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध, पंचावयवसे युक्त वाक्यके गुण दोषोंको जाननेवाले, बृहस्पतिको भी वादमें निरुत्तर करनेवाले, श्रवणसुखद तथा मनोहर शब्दोंसे संघटित कथाओंके निपुण वाचक, कालवेत्ता, नीतिके ज्ञाता, कवि एवं पौराणिकोंमें श्रेष्ठ हैं, वे उस स्थानपर आये ॥ 6-9 ॥

सूतजीको आते हुए देखकर प्रसन्नचित्त मुनियोंने उनका यथोचित स्वागत तथा पूजन किया ॥ 10 ॥मुनियोंके द्वारा की गयी उस पूजाको ग्रहणकर सूतजी उनके द्वारा दिये गये अपने उचित आसनपर विराजमान हुए ॥ 11 ॥

इसके पश्चात् सद्भावयुक्त मनवाले उन मुनियोंका चित्त उनकी उपस्थितिमात्रसे ही पौराणिक कथा सुननेके लिये उत्कण्ठित हो उठा। तब सभी महर्षिगण प्रिय वचनोंसे उनकी स्तुतिकर उन्हें अत्यधिक अभिमुख करके यह वचन कहने लगे - ॥ 12-13 ॥

ऋषिगण बोले- हे रोमहर्षण! हे महाभाग ! हे सर्वज्ञ ! हे शैवराज! हे महामते! आप हमलोगोंके सौभाग्यसे आज यहाँ आये हुए हैं। आपने व्यासजीसे समस्त पुराणविद्या प्रत्यक्षरूपसे प्राप्त की है। अतः आप निश्चय ही आश्चर्यपूर्ण कथाओंके पात्र हैं। जिस प्रकार बड़े-बड़े अनमोल रत्नोंका भण्डार समुद्र है, [ उसी प्रकार आप भी उत्तमोत्तम पुराणकथाओंके मानो समुद्र ही हैं।] तीनों लोकोंमें जो भी भूत एवं भविष्यकी बात तथा अन्य जो भी वस्तु है, आपके लिये कोई भी अविदित नहीं है। आप हमलोगोंके भाग्यसे ही दर्शन देनेके लिये यहाँ आये हैं। अब हमलोगोंका कुछ कल्याण किये बिना आप यहाँ से व्यर्थ मत जाइये। अतः सुननेके योग्य, पुण्यप्रद, उत्तम कथा एवं ज्ञानसे युक्त तथा वेदान्तके सारस्वरूप पुराणको हमें सुनाइये ॥ 14-18 ॥

इस प्रकार वेदज्ञाता मुनिजनोंके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर सूतजी मधुर, न्याययुक्त एवं कहने लगे- ॥ 19 ॥ शुभ वाणीमें सूतजी बोले- आपलोगोंने मेरी पूजाकर अनुगृहीत कर दिया है, इसलिये मैं आपलोगोंके कहनेपर ऋषियोंद्वारा समादृत पुराणका भलीभाँति वर्णन क्यों नहीं करूँगा ॥ 20 ॥

महादेव, भगवती, स्कन्द, गणेश, नन्दी तथा साक्षात् सत्यवतीपुत्र व्यासजीको नमस्कारकर उस पुराणको कहूँगा, जो परम पुण्यको देनेवाला, वेदतुल्य, शिवविषयक ज्ञानका समुद्र, साक्षात् भोग तथा मोक्षको |देनेवाला और [ यथोचित] शब्द तथा [तदनुकूल ]तर्कसंगत अभिप्रायवाले शैवागमोक्त सिद्धान्तोंसे विभूषित है । पूर्वकालमें वायुने श्वेतकल्पके प्रसंगसे इसका वर्णन किया था ॥ 21-23 ॥

अब मैं विद्याके सभी स्थान, पुराणानुक्रम एवं उस पुराणकी उत्पत्तिका वर्णन कर रहा हूँ, आपलोग सुनिये। चारों वेद, उनके छः अंग, मीमांसा, न्याय, पुराण एवं धर्मशास्त्र- ये चौदह विद्याएँ हैं। इनके अतिरिक्त आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा अर्थशास्त्र [ ये चार उपांग हैं], इन्हें मिलाकर कुल अठारह विद्याएँ कही गयी हैं । 24-26 ॥

भिन्न-भिन्न मागवाली इन अठारह विद्याओंके आदिकर्ता कवि साक्षात् महेश्वर है-ऐसा श्रुति कहती है। सम्पूर्ण जगत्के स्वामी उन सदाशिवने समस्त जगत्को उत्पन्न करनेकी इच्छा की तो उन्होंने सबसे पहले सनातन ब्रह्मदेवको साक्षात् पुत्ररूपमें उत्पन्न किया ।। 27-28 ॥

सदाशिवने विश्वके कारणभूत अपने प्रथम पुत्र ब्रह्माको विश्वसृष्टिके लिये इन विद्याओंको प्रदान किया। तत्पश्चात् उन्होंने ब्रह्माजीकी भी रक्षा करनेवाले अपने मध्यम पुत्र श्रीहरि भगवान् विष्णुको जगत्के पालनके लिये रक्षाशक्ति प्रदान की ।। 29-30 ॥

शिवजीसे विद्याओंको प्राप्त किये हुए ब्रह्माजीने प्रजासृष्टिका विस्तार करते हुए सभी शास्त्रोंके पहले पुराणका स्मरण किया ॥ 31 ॥

इसके पश्चात् उनके मुखसे वेद उत्पन्न हुए। तदनन्तर उनके मुखसे सभी शास्त्र उत्पन्न हुए ॥ 32 ॥

जब पृथ्वीपर प्रजाएँ इन विस्तृत विद्याओंको धारण करनेमें असमर्थ हो जाती हैं, उस समय उन विद्याओंको संक्षिप्त करनेके लिये विश्वेश्वरकी आज्ञासे प्रत्येक द्वापरके अन्तमें विश्वात्मा विश्वम्भर प्रभु विष्णु व्यासरूपसे इस पृथ्वीपर अवतार लेकर विचरण करते हैं । ll 33-34 ।।

हे द्विज! इस प्रकार प्रत्येक द्वापरके अन्तमें वे वेदोंका विभाग करते हैं और इसके बाद अन्य पुराणोंकी भी रचना करते हैं। वे इस द्वापरमें कृष्णदैपायन नामसे सत्यवतीसे [वैसे ही] उत्पन्न हुए, जिस प्रकार अरणीसे अग्नि उत्पन्न होती है ॥ 35-36 ॥उन महर्षिने बादमें वेदोंको संक्षिप्तकर उन्हें चार भागों में विभक्त किया। इसके बाद उन मुनिने वेदोंका संक्षेपण करनेके अनन्तर [ पुराणवाङ्मयको] अठारह भागों में विभक्त किया। वेदोंका विभार करनेके कारण उन्हें लोकमें वेदव्यास कहा गया है ॥ 37 ॥

पुराण आज भी देवलोकमें सौ करोड़ श्लोक संख्यावाले हैं, उन्हें वेदव्यासने संक्षिप्तकर चार लाख श्लोकोंका बना दिया ॥ 38 ॥

जो ब्राह्मण छहों अंगों एवं उपनिषदोंक सहित सभी वेदोंको जानता है, परंतु पुराणको नहीं जानता, वह विद्वान् नहीं है। इतिहास तथा पुराणोंके द्वारा वेदोंका उपबृंहण (विस्तार) करना चाहिये। अल्पज्ञसे वेद डरता है कि यह मुझपर प्रहार कर बैठेगा ।। 39-40 ।।

सृष्टि, सृष्टिका प्रलय, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित-ये पुराणोंके पाँच लक्षण हैं ॥ 41 ॥

तत्त्वदर्शी मुनियोंने स्थूल सूक्ष्मके भेदसे पुराणोंकी संख्या अठारह कही है-ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, भागवतपुराण, भविष्यपुराण, नारदीयपुराण, मार्कण्डेयपुराण, अग्निपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, लिंगपुराण, वाराहपुराण, स्कन्दपुराण, वामनपुराण, कूर्मपुराण, मत्स्यपुराण, गरुडपुराण एवं ब्रह्माण्डपुराण- यह पुराणोंका पुण्यप्रद अनुक्रम है उनमें भगवान् शंकरसे सम्बन्धित जो चौथा शिवपुराण है, वह सभी प्रकारके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है ॥ 42-45 ॥

यह ग्रन्थ एक लाख श्लोकों तथा बारह संहिताओंवाला है। इसका निर्माण स्वयं शिवजीने किया है, इसमें साक्षात् धर्म प्रतिष्ठित है ॥ 46 ll

उसके द्वारा बताये गये धर्मसे तीनों वर्णोंके पुरुष शिवभक्त हो जाते हैं। अतः मुक्तिकी इच्छा करते हुए शिवका ही आश्रय ग्रहण करना चाहिये। उनका आश्रय लेनेसे ही देवगणोंकी भी मुक्ति सम्भव है, अन्यथा नहीं। यह शिवपुराण वेदसम्मित कहा गया है। अब मैं संक्षिप्त रूपसे इसके भेदोंको कह रहा है, आपलोग सुनिये ॥ 47 - 49 ।।विद्येश्वरसंहिता, रुद्र, विनायक, उमा, मातृसंहिता, एकादशरुद्रसंहिता, कैलाससंहिता, शतरुद्रसंहिता, कोटिरुद्र, सहस्रकोटिस्द्र, वायवीयसंहिता तथा धर्मसंहिता - ये बारह संहिताएँ हैं। श्लोकसंख्याकी दृष्टिसे विद्येश्वरसंहिता दस हजार श्लोकोंवाली | कही गयी है। रुद्रसंहिता, विनायकसंहिता, उमासहिता और मातृसंहिता- इनमें से प्रत्येक संहितामें आठ आठ हजार श्लोक हैं। एकादश रुद्रसंहितामें तेरह हजार श्लोक हैं और कैलाससंहितामें छः हजार श्लोक हैं। शतरुद्रसंहितामें तीन हजार श्लोक हैं। इसके बाद कोटिरुद्रसंहिता नौ हजार श्लोकोंसे युक्त है तथा इसमें समस्त तत्त्वज्ञान भरा हुआ है। सहस्र कोटिरुद्रसंहितामें ग्यारह हजार श्लोक हैं। सर्वोत्कृष्ट वायवीयसंहितामें चार हजार श्लोक हैं तथा जो धर्मसंहिता है, वह बारह हजार श्लोकोंसे युक्त है ॥ 50-56 ll

इस प्रकार शाखा भेदके अनुसार शिवपुराणके श्लोकोंकी संख्या एक लाख कही गयी है। यह पुराण वेदोंका सारभूत और भोग तथा मोक्षको देनेवाला है ॥ 57 ॥

व्यासजीने इसे संक्षिप्तकर चौबीस हजार श्लोकोंवाला बना दिया। इस प्रकार यह चौथा शिवपुराण अब सात संहिताओंसे युक्त है। पहली विद्येश्वरसंहिता, दूसरी रुद्रसंहिता, तीसरी शतरुद्रसंहिता एवं चौथी कोटिरुद्रसंहिता, पाँचवीं उमासंहिता, छठी कैलाससंहिता तथा सातवीं वायवीयसंहिता है इस प्रकार इसमें सात संहिताएँ हैं ।। 58- 60 ।।

विद्येश्वरसंहिता दो हजार, रुद्रसंहिता दस हजार और शतरुद्रसंहिता दो हजार एक सौ अस्सी श्लोंकोसे युक्त कही गयी है। कोटिरुद्रसंहिता दो हजार दो सौ बीस, उमासंहिता एक हजार आठ सौ चालीस, कैलाससहिता एक हजार दो सौ चालीस और वायवीयसंहिता चार हजार श्लोकोंसे युक्त इस प्रकार यह परम पुण्यप्रद शिवपुराण संख्याभेदसे सुना गया है ।। 61-64 ॥हमने पहले जिस वायवीयसंहिताके श्लोकोंकी संख्या चार हजार कही है, वह दो भागोंमें विभक्त है। अब मैं उसका वर्णन करूँगा। इस उत्तम शास्त्रका उपदेश वेद तथा पुराणको न जाननेवाले और इसके प्रति श्रद्धा न रखनेवालेको नहीं करना चाहिये ।। 65-66 ॥

परीक्षा किये गये, धर्मनिष्ठ, ईर्ष्यारहित, शिवभक्त तथा शिवधर्मके अनुसार आचरण करनेवाले शिष्यको इसका उपदेश करना चाहिये। जिनकी कृपासे मुझे यह पुराणसंहिता प्राप्त हुई है, उन महातेजस्वी भगवान् व्यासजीको मेरा नमस्कार है ।। 67-68 ।।

Previous Page 389 of 466 Next

शिव पुराण
Index