उपमन्यु कहते हैं—हे श्रीकृष्ण यह मैंने तुमसे इहलोक और परलोकमें सिद्धि प्रदान करनेवाला क्रम बताया है, जो उत्तम तो है ही, इसमें क्रिया, जप, तप और ध्यानका समुच्चय भी है ॥ 1 ॥
अब मैं शिव भक्तोंके लिये यहीं फल देनेवाले पूजन, होम, जप, ध्यान, तप और दानमय महान् कर्मका वर्णन करता हूँ। मन्त्रार्थके श्रेष्ठ ज्ञाताकोचाहिये कि वह पहले मन्त्रको सिद्ध करे, अन्यथा इष्टसिद्धिकारक कर्म भी फलद नहीं होता ॥ 2-3 ॥
मन्त्र सिद्ध कर लेनेपर भी, जिस कर्मका फल किसी प्रबल अदृष्टके कारण प्रतिबद्ध हो, उसे विद्वान् पुरुष सहसा न करे। उस प्रतिबन्धकका यहाँ निवारण किया जा सकता है। कर्म करनेके पहले ही शकुन आदि करके उसकी परीक्षा कर ले और प्रतिबन्धकका पता लगनेपर उसे दूर करनेका प्रयत्न करे ।। 4-5 ।।
जो मनुष्य ऐसा न करके मोहवश ऐहिक फल देनेवाले कर्मका अनुष्ठान करता है, वह उससे फलका भागी नहीं होता और जगत्में उपहासका पात्र बनता है। जिस पुरुषको विश्वास न हो, वह ऐहिक फल | देनेवाले कर्मका अनुष्ठान कभी न करे; क्योंकि उसके मनमें श्रद्धा नहीं रहती और श्रद्धाहीन पुरुषको उस कर्मका फल नहीं मिलता ॥ 6-7 ॥
किया कर्म निष्फल हो जाय, तो भी उसमें देवताका कोई अपराध नहीं है; क्योंकि शास्त्रोक्त विधिसे ठीक-ठीक कर्म करनेवाले पुरुषोंको यहीं फलकी प्राप्ति देखी जाती है ॥ 8 ॥
जिसने मन्त्रको सिद्ध कर लिया है, प्रतिबन्धकको दूर कर दिया है, मन्त्रपर विश्वास रखता है और मनमें श्रद्धासे युक्त है, वह साधक कर्म करनेपर उसके फलको अवश्य पाता है ॥ 9 ॥
उस कर्मके फलको प्राप्तिके लिये ब्रह्मचर्यपरायण होना चाहिये। रातमें हविष्य भोजन करे, खोर या फल खाकर रहे, हिंसा आदि जो निषिद्ध कर्म हैं, उन्हें मनसे भी न करे, सदा अपने शरीरमें भस्म लगाये, सुन्दर एवं पवित्र वेषभूषा धारण करे और पवित्र रहे ॥ 10-11 ॥
इस प्रकार आचारवान् होकर अपने अनुकूल | शुभ दिनमें पुष्पमाला आदिसे अलंकृत पूर्वोक्त लक्षणवाले स्थानमें एक हाथ भूमिको गोबरसे लीपकर वहाँ बिछे हुए भद्रासनपर कमल अंकित करे, जो अपने तेजसे प्रकाशमान हो । ll 12-13 ।।
वह तपाये हुए सुवर्णके समान रंगवाला हो। उसमें आठ दल हों और केसर भी बना हो । मध्यभागमें वह कर्णिकासे युक्त और सम्पूर्ण रत्नोंसे अलंकृत हो। उसमें अपने आकारके समान ही नालहोनी चाहिये। वैसे स्वर्णनिर्मित कमलपर सम्यग्विधिसे मन-ही-मन अणिमा आदि सब सिद्धियोंकी भावना करे। फिर उसपर रत्नका, सोनेका अथवा स्फटिक मणिका उत्तम लक्षणोंसे युक्त वेदीसहित शिवलिंग स्थापित करे ।। 14-16 ll
उसमें विधि पूर्वक पार्षदोंसहित अविनाशी साम्ब सदाशिवका आवाहन और पूजन करे। फिर वहाँ साकार भगवान् महेश्वरकी भावनामयी मूर्तिका निर्माण करे, जिसके चार भुजाएँ और चार मुख हों। वह सब आभूषणोंसे विभूषित हो, उसे व्याघ्रचर्म पहनाया गया हो। उसके मुखपर कुछ-कुछ हास्यकी छटा छा रही हो। उसने अपने दो हाथोंमें वरद और अभयकी मुद्रा धारण की हो और शेष दो हाथोंमें मृग मुद्रा और टंक ले रखे हो अथवा उपासककी रचिके अनुसार अष्टभुजा मूर्तिकी भावना करनी चाहिये ll 17 - 19 ll
उस दशामें वह मूर्ति अपने दाहिने चार हाथों में त्रिशूल, परशु, खड्ग और वज्र लिये हो और बायें चार हाथोंमें पाश, अंकुश, खेट और नाग धारण करती हो उसकी अंगकान्ति प्रातःकालके सूर्यकी भाँति लाल हो और वह अपने प्रत्येक मुखमें तीन तीन नेत्र धारण करती हो उस मूर्तिका पूर्ववर्ती मुख सौम्य तथा अपनी आकृतिके अनुरूप ही कान्तिमान् है। दक्षिणवर्ती मुख नील मेघके समान श्याम और देखनेमें भयंकर है। उत्तरवर्ती मुख मूँगेके समान लाल है और सिरको नीली अलके उसकी शोभा बढ़ाती हैं । ll 20 - 22 ॥
पश्चिमवर्ती मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान उज्ज्वल, सौम्य तथा चन्द्रकलाधारी है उस शिवमूर्तिके अंकमें पराशक्ति माहेश्वरी शिवा आरूढ़ हैं। उनको अवस्था | सोलह वर्षको सी है वे सबका मन मोहनेवाली हैं और महालक्ष्मीके नामसे विख्यात है॥ 23॥
इस प्रकार भावनामयी मूर्तिका निर्माण और | पद्धति क्रमसे सकलीकरण करके उनमें मूर्तिमान् परम कारण शिवका आवाहन और पूजन करे वहाँ स्नान करानेके लिये कपिला गायके पंचगव्य और पंचामृतका संग्रह करे। विशेषतः चूर्ण और बीजको भी एकत्र करे। फिर पूर्वदिशामें मण्डल बनाकर उसेरत्नचूर्ण आदिसे अलंकृत करके कमलकी कर्णिकामें | ईशान कलशकी स्थापना करे। तत्पश्चात् उसके चारों और सद्योजात आदि मूर्तियोंके कलशोंकी स्थापना करे ।। 24-27 ।।
इसके बाद पूर्व आदि आठ दिशाओंमें क्रमशः विद्येश्वरके आठ कलशोंकी स्थापना करके उन सबको | तीर्थके जलसे भर दे और कण्ठमें सूत लपेट दे। फिर उनके भीतर पवित्र द्रव्य छोड़कर मन्त्र और विधिके साथ साड़ी या धोती आदि वस्त्रसे उन सब कलशको चारों ओरसे आच्छादित कर दे ।। 28-29 ।।
तदनन्तर मन्त्रोच्चारणपूर्वक उन सबमें मन्त्रन्यास करके स्नानका समय आनेपर सब प्रकारके मांगलिक शब्दों और वाद्योंके साथ पंचगव्य आदिके द्वारा परमेश्वर शिवको स्नान कराये। कुशोदक, स्वर्णोदक और रत्नोदक | आदिको जो गन्ध, पुष्प आदिसे वासित और मन्त्रसिद्ध हॉ - क्रमशः ले-लेकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक उन-उनके द्वारा महेश्वरको नहलाये ॥ 30-32 ॥
फिर गन्ध, पुष्प और दीप आदि निवेदन करके पूजा-कर्म सम्पन्न करे। आलेपन या उबटन कम-से कम एक पल और अधिक-से-अधिक ग्यारह पल हो। सुन्दर, सुवर्णमय और रत्नमय पुष्प अर्पित करे । सुगन्धित नील कमल, नील कुमुद, अनेकशः बिल्वपत्र, लाल कमल और श्वेत कमल भी शम्भुको चढ़ाये । कालागुरुके धूपको कपूर, घी और गुग्गुलसे युक्त करके निवेदन करे ।। 33-35 ॥
कपिला गायके घीसे युक्त दीपकमें कपूरकी बत्ती बनाकर रखे और उसे जलाकर देवताके सम्मुख दिखाये। ईशानादि पाँच ब्रह्मकी, छहों अंगोंकी और पाँच आवरणोंकी पूजा करनी चाहिये ॥ 36 ॥
दूधमें तैयार किया हुआ पदार्थ नैवेद्यके रूपमें निवेदनीय है। गुड़ और घी से युक्त महाचरुका भी भोग लगाना चाहिये। पाटल, उत्पल और कमल आदिसे सुवासित जल पीनेके लिये देना चाहिये। पाँच प्रकारकी सुगन्धोंसे युक्त तथा अच्छी तरह लगाया हुआ ताम्बूल मुखशुद्धिके लिये अर्पित करना चाहिये। सुवर्ण और रत्नोंके बने हुए आभूषण, नाना प्रकारके रंगवाले नूतन महीन वस्त्र, जो दर्शनीय हों, इष्टदेवको देने चाहिये। उस समय गीत, वाद्य और कीर्तन आदि भी करने चाहिये ॥ 37 - 39 ॥मूलमन्त्रका एक लाख जप करना चाहिये। पूजा कम-से-कम एक बार, नहीं तो दो या तीन बार करनी चाहिये; क्योंकि अधिकका अधिक फल होता है। होम- सामग्रीके लिये जितने द्रव्य हों, उनमेंसे प्रत्येक द्रव्यकी कम-से-कम दस और अधिक-से अधिक सौ आहुतियाँ देनी चाहिये। अभिचार आदि कर्ममें शिवके घोररूपका चिन्तन करना चाहिये। शान्तिकर्म या पौष्टिककर्म करते समय शिवलिंगमें, शिवाग्निमें तथा अन्य प्रतिमाओंमें शिवके सौम्यरूपका ध्यान करना चाहिये ॥ 40 - 42 ॥
अभिचार आदि कर्मोंमें लोहेके बने हुए स्रुक् और स्रुवाका उपयोग करना चाहिये। अन्य शान्ति आदि कर्मोंमें सुवर्णके [ अथवा यज्ञिय काष्ठके] स्रुक् और स्रुवा बनवाने चाहिये । मृत्युपर विजय पानेके लिये घी, दूधमें मिलायी हुई दूर्वासे, मधुसे, घृतयुक्त चरुसे अथवा केवल दूधसे भी हवन करना चाहिये तथा रोगोंकी शान्तिके लिये तिलोंकी आहुति देनी चाहिये। समृद्धिकी इच्छा रखनेवाला पुरुष महान् दारिद्र्यकी शान्तिके लिये घी, दूध अथवा केवल कमलके फूलोंसे होम करे। अभिचार कर्मका इच्छुक पुरुष घृतयुक्त जातीपुष्प (चमेली या मालतीके फूल) से हवन करे ।। 43 - 46 ॥
द्विजको चाहिये कि वह घृत और करवीर पुष्पोंकी आहुति, तेलकी आहुति और मधुकी आहुतिसे इन कर्मोंको करे ।। 47 ।।
तन्त्रशास्त्रीय अभिचार कर्मोंमें सार्षप, लशुन, तिलमिश्रित रोहिबीज, लांगलक तैल, शोणित आदिका प्रयोग होता है । 48-50 ॥
अभिचार-कर्ममें हस्तचालित यन्त्रसे तैयार किये गये तेलकी आहुति देनी चाहिये। कुटकीकी भूसी, कपासकी ढोढ़ तथा तैलमिश्रित सरसोंकी भी आहुति दी जा सकती है। दूधकी आहुति ज्वरकी शान्ति करनेवाली तथा सौभाग्यरूप फल प्रदान करनेवाली होती है ।। 51-52 ।।
मधु, घी और दहीको परस्पर मिलाकर इनसे, दूध और चावलसे अथवा केवल चरुसे किया गया | होम सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला होता है। सातप्रकारकी समिधा आदिसे शान्तिक अथवा पौष्टिक | कर्म भी करे। विशेषतः द्रव्योंद्वारा होम करनेपर वश्य और आकर्षणकी सिद्धि होती है। बिल्वपत्रोंका हवन वशीकरण तथा आकर्षणका साधक और लक्ष्मीकी प्राप्ति करानेवाला है, साथ ही वह शत्रुपर विजय प्रदान कराता है ॥ 53-55 ॥
शान्तिकार्यमें पलाश और खैर आदिकी समिधाओंका होम करना चाहिये। क्रूरतापूर्ण कर्ममें | कनेर और आककी समिधाएँ होनी चाहिये। लड़ाई झगड़ेमें कटीले पेड़ोंकी समिधाओंका हवन करना चाहिये। शान्ति और पुष्टिकर्मको विशेषतः शान्तचित्त पुरुष ही करे। जो निर्दय और क्रोधी हो, उसीको आभिचारिक कर्ममें प्रवृत्त होना चाहिये। वह भी उस दशामें, जबकि दुरवस्था चरम सीमाको पहुँच गयी हो और उसके निवारणका दूसरा कोई उपाय न रह गया हो, आततायीको नष्ट करनेके उद्देश्यसे आभिचारिक कर्म करना चाहिये ॥ 56-58 ॥
अपने राष्ट्रके स्वामीको हानि पहुँचानेके उद्देश्यसे आभिचारिक कर्म कदापि नहीं करना चाहिये। यदि कोई आस्तिक, परम धर्मात्मा और माननीय पुरुष हो, उससे यदि कभी आततायीपनका कार्य हो जाय, तो भी उसको नष्ट करनेके उद्देश्यसे आभिचारिक कर्मका प्रयोग नहीं करना चाहिये। जो कोई भी मन, वाणी और क्रियाद्वारा भगवान् शिवके आश्रित हो, उसके तथा राष्ट्रस्वामीके उद्देश्यसे भी आभिचारिक कर्म करके मनुष्य शीघ्र ही पतित हो जाता है। इसलिये कोई भी पुरुष जो अपने लिये सुख चाहता हो, अपने राष्ट्रपालक राजाकी तथा शिवभक्तकी अभिचार आदिके द्वारा हिंसा न करे। दूसरे किसीके उद्देश्यसे भी अभिचार आदिका प्रयोग करनेपर पश्चात्तापसे युक्त हो प्रायश्चित्त करना चाहिये ॥ 59-63 ॥
निर्धन या धनवान् पुरुष भी बाणलिंग (नर्मदासे प्रकट हुए शिवलिंग), स्वयम्भूलिंग, ऋषियोंद्वारा स्थापित लिंग या वैदिक लिंगमें भगवान् शंकरकी पूजा करे। जहाँ ऐसे लिंगका अभाव हो वहाँ सुवर्ण और रत्नके बने हुए शिवलिंगमें पूजा करनी चाहिये । यदि सुवर्ण और रत्नोंके उपार्जनकी शक्ति न हो तोमनसे ही भावनामयी मूर्तिका निर्माण करके मानसिक पूजन करना चाहिये अथवा प्रतिनिधि द्रव्योंद्वारा शिवलिंगकी कल्पना करनी चाहिये ॥ 64-65 ll जो किसी अंशमें समर्थ और किसी अंशमें
असमर्थ है, वह भी यदि अपनी शक्तिके अनुसार पूजन कर्म करता है तो अवश्य फलका भागी होता है। जहाँ इस कर्मका अनुष्ठान करनेपर भी फल नहीं दिखायी देता, वहाँ दो या तीन बार उसकी आवृत्ति करे। ऐसा करनेसे सर्वथा फलका दर्शन होगा। पूजाके उपयोगमें आया हुआ जो सुवर्ण, रत्न आदि उत्तम द्रव्य हो, वह सब गुरुको दे देना चाहिये तथा उसके अतिरिक्त दक्षिणा भी देनी चाहिये ।। 66-68 ।।
यदि गुरु नहीं लेना चाहते हों तो वह सब वस्तु भगवान् शिवको ही समर्पित कर दे अथवा शिवभक्तोंको दे दे। इनके सिवा दूसरोंको देनेका विधान नहीं है। जो पुरुष गुरु आदिकी अपेक्षा न रखकर स्वयं यथाशक्ति पूजा सम्पन्न करता है, वह भी ऐसा ही आचरण करे। पूजामें चढ़ायी हुई वस्तु स्वयं न ले ले। जो मूढ़ लोभवश पूजाके अंगभूत उत्तम द्रव्यको स्वयं ग्रहण कर लेता है, वह अभीष्ट फलको नहीं पाता। इसमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये ॥ 69-71 ॥
किसीके द्वारा पूजित शिवलिंगको मनुष्य ग्रहण करे या न करे, यह उसकी इच्छापर निर्भर है। यदि ले से तो स्वयं नित्य उसकी पूजा करे अथवा उसकी प्रेरणासे दूसरा कोई पूजा करे। जो पुरुष इस कर्मका शास्त्रीय विधिके अनुसार ही निरन्तर अनुष्ठान करता है, वह फल पानेसे कभी वंचित नहीं रहता। इससे बढ़कर प्रशंसाकी बात और क्या हो सकती है ? ।। 72-73 ॥
तथापि मैं संक्षेपसे कर्मजनित उत्तम सिद्धिकी महिमाका वर्णन करता हूँ। इससे शत्रुओं अथवा अनेक प्रकारकी व्याधियोंका शिकार होकर और मौत के मुँहमें पड़कर भी मनुष्य बिना किसी विघ्न बाधाके मुक्त हो जाता है। अत्यन्त कृपण भी उदार | और निर्धन भी कुबेरके समान हो जाता है। कुरूप भी | कामदेवके समान सुन्दर और बूढ़ा भी जवान हो जाता है। शत्रु क्षणभरमें मित्र और विरोधी भी किंकर हो जाता है ।। 74-76 ॥अमृत विषके समान और विष भी अमृतके समान हो जाता है। समुद्र भी स्थल और स्थल भी समुद्रवत् हो जाता है। गड्ढा पहाड़ जैसा ऊँचा और पर्वत भी गड्ढेके समान हो जाता है। अग्नि सरोवरके समान शीतल और सरोवर भी अग्नि के समान दाहक बन जाता है। उद्यान जंगल और जंगल उद्यान हो जाता है। क्षुद्र मृग सिंहके समान शौर्यशाली और सिंह भी क्रीडामृगके समान आज्ञापालक हो जाता है ।। 77-79 ।।
स्त्रियाँ अभिसारिका बन जाती हैं-अधिक प्रेम करने लगती हैं और लक्ष्मी सुस्थिर हो जाती है। वाणी इच्छानुसार दासी बन जाती है और कीर्ति गणिकाके समान सर्वत्रगामिनी हो जाती है। बुद्धि स्वेच्छानुसार विचरनेवाली और मन हीरेको छेदनेवाली सूईके समान सूक्ष्म हो जाता है । शक्ति आँधीके समान प्रबल हो जाती है और बल मत्त गजराजके समान पराक्रमशाली हो जाता है। शत्रु पक्षके उद्योग और कार्य स्तब्ध हो जाते हैं तथा शत्रुओंके समस्त सुहृद्गण उनके लिये शत्रुपक्षके समान हो जाते हैं ॥ 80-82 ॥
शत्रु बन्धु-बान्धवोंसहित जीते-जी मुर्देके समान हो जाते हैं और सिद्धपुरुष स्वयं आपत्तिमें पड़कर भी अरिष्टरहित (संकटमुक्त) हो जाता है। अमरत्व सा प्राप्त कर लेता है। उसका खाया हुआ अपथ्य भी उसके लिये सदा रसायनका काम देता है। निरन्तर रतिका सेवन करनेपर भी वह नया-सा ही बना रहता है। भविष्य आदिकी सारी बातें उसे हाथपर रखे हुए आँवलेके समान प्रत्यक्ष दिखायी देती हैं। अणिमा आदि सिद्धियाँ भी इच्छा करते ही फल देने लगती हैं। इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ? इस कर्मका सम्पादन कर लेनेपर सम्पूर्ण अभिलषित सिद्धियोंमें कोई भी ऐसी सिद्धि नहीं रहती, जो अलभ्य हो । ll 83-86 ॥