ऋषि बोले- हे महाभाग सूतजी! आपने अपने भक्तजनोंकी रक्षा करनेवाले महाकाल नामक ज्योतिर्लिंग की अद्भुत कथा सुनायी ॥ 1 ॥ हे ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ! अब कृपा करके ओंकारमें विद्यमान, समस्त पापको दूर करनेवाले परमेश नामक चतुर्थ ज्योतिर्लिंगका वर्णन कीजिये ॥ 2 ॥
सूतजी बोले- हे द्विजो हे महर्षियो! ॐकारमें जिस तरहसे परमेश (अमरेश्वर) नामक ज्योतिर्लिंगको उत्पत्ति हुई, उसे मैं प्रसन्नतापूर्वक आप लोगों कह रहा हूँ, आपलोग सुनिये ॥ 3 ॥
किसी समय महाभक्तिसम्पन्न भगवान् नारदमुनिने गोकर्णेश्वर नामक शिवके समीप जाकर बड़े भक्तिभावसे उनकी सेवा की। इसके बाद वे मुनिश्रेष्ठ वहाँसे विन्ध्यपर्वतपर आये। वहाँ उस श्रेष्ठ पर्वतने बड़े आदरके साथ उनकी पूजा की ।। 4-5 ।।
'मैं सब प्रकार पूर्ण हूँ और मुझमें किंचिमार भी न्यूनता नहीं है' इस अहंभावसे ग्रस्त होकर वह नारदजीके समक्ष खड़ा हो गया ॥ 6 ॥उसके इस प्रकारके अभिमानको देखकर अभिमानको चूर्ण करनेवाले नारदजी निःश्वास लेकर स्थिर रहे; तब विन्ध्यने यह कहा- ॥ 7॥
विन्ध्य बोला- हे देवर्षे! आपको मुझमें कौन सी कमी दिखायी दी, जिससे आप नि:श्वास लेकर दुखी हो रहे हैं। यह सुनकर उन महामुनि नारदने यह वचन कहा- ॥ 8 ॥
नारदजी बोले [हे] विन्ध्य] यद्यपि तुममें सभी प्रकारके गुण हैं, किंतु सुमेरु तुमसे भी ऊँचा है। वहाँ देवगणोंका निवास है, किंतु तुमपर देवगण निवास नहीं करते ॥ 9 ॥
सूतजी बोले- ऐसा कहकर नारदजी जैसे आये थे, वैसे ही वहाँसे चले गये। तब विन्ध्याचल दुखी हो विचार करने लगा-ओह! मेरे जीवन आदिको धिक्कार है। अब मैं विश्वेश्वर शिवकी आराधना करते हुए तप करूँगा - इस प्रकार अपने मनमें सोचकर वह शिवजीकी शरणमें गया ll 10- 11 ॥
वह प्रसन्नतापूर्वक वहाँ पहुँचा जहाँ ॐकारेश्वर शिव स्थित थे। उसने वहाँपर शिवकी एक पार्थिव मूर्ति बनायी। छः महीनेतक लगातार शिवाराधन करते हुए वह शिवध्यानमें लीन रहा और तपः स्थानसे [[किंचिन्मात्र ] विचलित नहीं हुआ ॥ 12-13 ॥
विन्ध्यके इस तपको देखकर शिवजी प्रसन्न हो गये और उन्होंने योगियोंके लिये भी दुर्लभ अपने स्वरूपका उसे दर्शन कराया। उसके अनन्तर प्रसन्न हुए शिवजीने कहा- मनोभिलषित वर माँगो, मैं तुम्हारे तपसे प्रसन्न है मैं भकोंका मनोरथ पूर्ण करनेवाला हूँ ll 14-15 ॥
विन्ध्य बोला- हे देवेश! हे शम्भो ! यदि आप [मुझपर] प्रसन्न हैं, तो मेरा कार्य सिद्ध करनेवाली अभिलषित बुद्धि प्रदान कीजिये आप सदैव भक्तवत्सल हैं ॥ 16 ॥
सूतजी बोले- यह सुनकर भगवान् शिवजी देरतक अपने मनमें विचार करते रहे कि मूर्ख बुद्धिवाला यह विन्ध्य दूसरोंको दुःख देनेवाला वर चाहता है। अब मैं क्या करूँ, जिससे मेरे वरदानसे इसका कल्याण हो और मेरे द्वारा दिये गये वरसे दूसरोंको पीड़ा न पहुँचे ॥ 17-18 ॥सूतजी बोले- तथापि शिवने उसे यह उत्तम वरदान दिया, 'हे पर्वतराज विन्ध्य! तुम जसा चाहते हो, वैसा करो'। इसी समय देवताओं और विशुद्ध अन्तःकरणवाले ऋषियोंने शिवजीको पूजाकर कहा [[हे प्रभो!] आप यहीं स्थित रहें ॥ 19-20 ॥
देवगणोंका वह वचन सुनकर हाषत हुए परमेश्वरने
लोककल्याणके लिये प्रेमपूर्वक वैसा ही किया ॥ 21 ॥ ओंकार नामक जो एक लिंग था, वह दो रूपों में विभक्त हो गया। प्रणवमें स्थित सदाशिव ॐकारेश्वर नामसे प्रसिद्ध हुए और जो पार्थिवमें प्रकट हुए, वे परमेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हुए। हे द्विजो ! वे दोनों ही [लिंग] भक्तोंके मनोरथको पूर्ण करनेवाले तथा भुक्ति और मुक्ति देनेवाले हैं ॥ 22-23 ॥
तब देवताओं एवं ऋषियोंने उनकी पूजा की तथा उन वृषभध्वजको प्रसन्न करके अनेक वरदान प्राप्त किये। इसके बाद देवता अपने- अपने स्थानको चले गये। हे द्विजो ! विन्ध्य भी बहुत प्रसन्न हुआ; उसने अपना कार्य सिद्ध किया और दुःखका परित्याग कर दिया ।। 24-25 ॥
हे द्विजो ! जो इस प्रकार शिवकी पूजा करता है, वह माताके गर्भमें पुनः निवास नहीं करता और उसका जो भी अभीष्ट फल है, उसे प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं है ॥ 26 ॥
सूतजी बोले- इस प्रकार मैंने ॐकारेश्वरका सम्पूर्ण माहात्म्य आपलोगोंसे कहा; अब इसके अनन्तर केदारेश्वर नामक श्रेष्ठ ज्योतिलिंगका वर्णन करूँगा ॥ 27 ॥