व्यासजी बोले- स्वभावतः ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति बहुत कठिन है ईश्वरके मुखसे ब्राह्मण, भुजाओंसे क्षत्रिय और जंघासे वैश्य उत्पन्न हुए हैं, उनके चरणोंसे शूद्र उत्पन्न हुआ है-ऐसी बात उनके मुखसे सुनी गयी है। किंतु ऊपरसे नीचे मनुष्य क्यों जाते हैं, यह मुझे बतायें ॥ 1-2 ॥
सनत्कुमार बोले - हे व्यास ! मानव बुरा आचरण करनेसे भ्रष्ट हो जाते हैं, अतः विद्वान्को चाहिये कि श्रेष्ठ स्थान प्राप्तकर उसकी रक्षा करे। जो विप्रत्वका परित्यागकर क्षत्रियामें पुत्रोत्पत्ति करता है, वह ब्राह्मणत्वसे भ्रष्ट होकर क्षत्रियत्वका सेवन करता है। 3-4 ॥मूर्ख प्राणी अधर्मका आचरण करनेसे हजारों जन्मोंतक जन्म मरणके चक्रमें घूमता रहता है और उसी अधर्मके कारण अन्धकारमें पड़ा रहता है, अतः मनुष्य श्रेष्ठ स्थानको प्राप्तकर प्रमाद न करे और उसे विनष्ट न करे, विपत्तियोंको सहकर भी सर्वदा अपने स्थानकी रक्षा करे ॥ 5-6 ॥
जो मनुष्य श्रेष्ठ ब्राह्मणका जन्म प्राप्त करके भी ब्राह्मणत्वका तिरस्कार करता है एवं भक्ष्य- अभक्ष्य (गम्यागम्य, कार्याकार्यादि) का विचार नहीं करता है, वह पुनः क्षत्रिय हो जाता है ॥ 7 ॥
बुद्धिसम्पन्न शूद्र जिस कर्मसे वैश्य हो जाता है और जिस कर्मसे वह क्रमशः उत्तम वर्णमें जन्म प्राप्त करता है, मैं वह सब आपसे कहता हूँ ॥ 8 ॥
शूद्रकुल में जन्म ग्रहणकर शास्त्रमें जैसा उसका कर्म बताया गया है, उसे करना चाहिये जो [वर्णाभ्युदयकी] इच्छा रखता हुआ तीनों वर्णोंकी सेवारूप अपने कर्मका नित्य आचरण करता है, वह शूद्र भी वैश्यकुलमें जन्म प्राप्त कर लेता है। वैश्यकुलमें उत्पन्न जो व्यक्ति अपने धनोंसे विधिपूर्वक हवन करता और अग्निहोत्र सम्पन्नकर उससे बचे हुए अनका भोजन करता है, वह क्षत्रियकुलमें जन्म प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 9-11 ॥
जो क्षत्रिय विपुल दक्षिणावाले संस्कारयुक्त यज्ञोंके द्वारा यजन करता है, स्वर्गकी कामना करता हुआ स्वाध्याय तथा [गार्हपत्यादि] तीनों अग्नियोंकी शुश्रूषा करता है, हाथ-पैर धोकर शुद्ध हो [भोजनादि क्रिया सम्पादित करता है तथा] धर्मपूर्वक नित्य पृथ्वीका पालन करता है, धर्मपरायण होकर ऋतुकालमें ही अपनी भायकि साथ समागम करता है, [धर्मादि] तीनों वर्गोंका सेवन तथा अभ्यागतमात्रका आतिथ्य सत्कार करता है, पंचभूत बलि प्रदान करता है और गौ, ब्राह्मण तथा अपने [राष्ट्र के] हितके लिये संग्राममें प्राणोंका त्याग कर देता है, उस कर्मके द्वारा अग्नि एवं मन्यसे पवित्र वह क्षत्रिय ब्राह्मणकुलमें जन्म ग्रहण करता है, इस प्रकार विधानपूर्वक ब्राह्मण होकर वह याजक हो जाता है। सदा अपने कर्मोंमें संलग्न, सत्यवादी एवं जितेन्द्रिय वह ब्राह्मण देवताओंके लिये भी प्रिय होकर स्वर्गको प्राप्त कर लेता है । 12-16 ॥हे मुनीश्वर ! ब्राह्मणत्व अतिशय दुर्लभ है; मनुष्योंके द्वारा यह बहुत कष्टसे प्राप्त किया जाता है। ब्राह्मणत्वसे सब कुछ प्राप्त होता है, यहाँतक कि मनुष्य मोक्षतक प्राप्त कर लेता है। इसलिये ब्राह्मणको धर्मपरायण होकर पूर्ण प्रयत्नके साथ सभी पुरुषार्थोंके साधनस्वरूप उत्तम ब्राह्मणत्वकी रक्षा करनी चाहिये ।। 17-18 ॥
व्यासजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! आपने [इस लोकमें क्षत्रियके लिये] युद्धका बहुत माहात्म्य कहा है, मैं इसे [विस्तारसे] सुनना चाहता हूँ। हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ! आप उसका वर्णन कीजिये ॥ 19 ॥
सनत्कुमार बोले- क्षत्रिय बहुत दक्षिणावाले अग्निष्टोम आदि यज्ञोंका अनुष्ठान करके भी उस फलको प्राप्त नहीं करता है, जो उसे युद्धमें मिलता है। यज्ञकर्मको जाननेवाले तत्त्वज्ञानियोंने ऐसा कहा है। अतः शस्त्रजीवियोंको जो फल प्राप्त होता है, | उसका वर्णन मैं आपसे करता हूँ ॥ 20-21 ॥
जो शूरवीर क्षत्रिय शत्रुकी सेनाको मसल डालता हुआ [निरन्तर धर्मपूर्वक] युद्धकी कामना करता हैं, उसे धर्म, अर्थ और कीर्तिकी प्राप्ति होती है। जो अपने शत्रुके सम्मुख उपस्थित होकर संग्राम करता है और उसकी गतिका अतिक्रमण करता है, उसे धर्म, अर्थ, काम और दक्षिणासहित किये गये यज्ञका फल प्राप्त होता है ।। 22-23 ॥
जो क्षत्रिय युद्धमें अपराजित होता है, वह विष्णुलोकको जाता है। यदि वह संग्राममें मृत्युको प्राप्त नहीं हुआ, तो चार अश्वमेध यज्ञोंका फल प्राप्त करता है। जो शस्त्र धारण करके रणभूमिमें और सेनाके अभिमुख हो युद्ध करते हुए प्राणत्याग कर देता है, वह वीर स्वर्गसे नहीं लौटता है ॥ 24-25 ॥
राजा, राजपुत्र अथवा सेनापति जो भी शूर क्षत्रिय- धर्मसे प्राणत्याग कर देता है, उसे अक्षय लोककी प्राप्ति होती है। महासंग्राममें अस्त्रोंसे उसके जितने रोमोंका भेदन होता है, वह सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले उतने ही अक्षय लोकोंको प्राप्त करता है। हे व्यास! वीरासन, वीरशय्या और वीरस्थानकी स्थिति उसके लिये इस लोकमें और परलोक में सर्वथा स्थिर रहती है । 26 - 28 ॥गौ, ब्राह्मण, राष्ट्र एवं स्वामीके लिये जो प्राणोंका त्याग करते हैं, वे पुण्यात्माओंकी भाँति [परलोक जाकर ] सुख प्राप्त करते हैं। जो अपने राजाके लिये युद्धमें [ धर्मपूर्वक लड़ता हुआ] ब्राह्मणको भी मारकर बादमें स्वयं प्राणत्याग करता है, वह स्वर्गसे नहीं लौटता है ।। 29-30 ॥
संग्राममें मांसका भक्षण करनेवाले जन्तुओं एवं हाथियोंके द्वारा मारे गये व्यक्तिकी भी उत्तम गति होती है और ब्राह्मण, गौ तथा अपने स्वामीके लिये प्राणका परित्याग करनेवालेको विपुल पुण्यदायिनी अक्षय गतिकी प्राप्ति होती है। व्यक्ति सैकड़ों यज्ञोंका अनुष्ठान करनेमें समर्थ हो सकता है, किंतु युद्धमें अपने शरीरका परित्याग | करना बहुत ही कठिन है ॥ 31-32 ॥
संग्राम सभी वर्णोंके लिये, विशेषकर क्षत्रियके लिये सब प्रकारसे पुण्यप्रद, स्वर्गप्रद तथा स्वरूप प्रदान करनेवाला है। अब मैं सनातन युद्धधर्मको विस्तारके | साथ कहता हूँ। जिस तरहके व्यक्तिपर प्रहार करना चाहिये और जिसे छोड़ देना चाहिये ॥ 33-34 ॥
मारनेके लिये आते हुए वेदान्तपारंगत आततायी ब्राह्मणको भी मार देना चाहिये, इससे व्यक्ति ब्रह्महत्यारा नहीं होता है ॥ 35 ॥
हे व्यास ! मारनेके योग्य मनुष्य भी यदि [ प्याससे पीड़ित होकर ] जल माँगे, तो उसका वध नहीं करना चाहिये; संग्राममें रोगियों (जलादिकी कामनासे व्याकुल) को मारनेसे वह मनुष्य ब्रह्मघाती हो जाता है ॥ 36 ॥
रोगग्रस्त, दुर्बल, बालक, स्त्री, अनाथ, कृपण, टूटे हुए धनुषवाले, टूटी हुई धनुषकी डोरीवाले व्यक्तिको [युद्धमें] मारनेसे निश्चितरूपसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है ॥ 37 ॥
इस प्रकार विचार करके जो बुद्धिमान् व्यक्ति उत्साहसे युद्ध करता है, वह [इस] जन्मका फल प्राप्त करके इस लोक तथा परलोकमें आनन्दित होता है ॥ 38 ॥