नारदजी बोले हे विधे! हे तात! हे महाप्राज्ञ हे विष्णुशिष्य हे त्रिलोककर्ता! आपने महात्मा शंकरकी यह विलक्षण कथा सुनायी।शिवके तृतीय नेत्रकी अग्निसे कामदेवके भस्म हो जानेपर और [पुनः] उस अग्निके समुद्रमें प्रवेश कर जानेपर फिर क्या हुआ ? ॥ 1-2 ॥
तदनन्तर हिमालयपुत्री पार्वतीदेवीने क्या किया और वे अपनी दोनों सखियोंके साथ कहाँ गयीं? है दयानिधे! अब आप इसे बताइये ॥ 3 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे तात! हे महाप्राज्ञ ! अब आप महान् लीला करनेवाले मेरे स्वामी चन्द्रशेखर के चरित्रको आदरपूर्वक सुनिये। भगवान् शंकरके नेत्रसे उत्पन्न हुई अग्निने जब कामदेवको जला दिया, तब महान् अद्भुत महाशब्द प्रकट हुआ, जिससे आकाश पूर्णरूपसे गूँज उठा ॥ 4-5 ॥
उस महान् शब्दके साथ ही कामदेवको दग्ध हुआ देखकर भयभीत और व्याकुल हुई पार्वती अपनी | दोनों सखियोंके साथ अपने घर चली गयीं ॥ 6 ॥
उस शब्दसे परिवारसहित हिमवान् भी बड़े | आश्चर्यमें पड़ गये और वहाँ गयी हुई अपनी पुत्रीका स्मरण करके उन्हें बड़ा क्लेश हुआ। [ इतनेमें ही पार्वती भी आ गयीं ]। वे शम्भुके विरहसे रो रही थीं। अपनी पुत्रीको अत्यन्त विह्वल देखकर शैलराज हिमवान्को बड़ा शोक हुआ और वे शीघ्र ही उनके पास पहुँचे। वे हाथसे उनकी दोनों आँखोंको पोंछकर बोले हे शिवे डरो मत, रोओ मत-ऐसा कहकर उन्हें पकड़ लिया। इसके बाद पर्वतराज हिमवान्ने अत्यन्त विह्वल हुई पुत्री पार्वतीको शीघ्र ही गोदमें उठा लिया और वे उन्हें सान्त्वना देते हुए अपने घर ले आये ।। 7-10 ॥
कामदेवका दाह करके महादेवजीके अन्तर्धान हो जानेपर उनके विरहसे पार्वती अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और उन्हें कहीं भी शान्ति नहीं मिल रही थी ।। 11 ।।
पिताके घर जाकर जब वे अपनी मातासे मिलीं, उस समय पार्वतीने अपना नया जन्म हुआ माना ॥ 12 ॥
वे अपने रूपकी निन्दा करने लगीं और कहने सग हाथ में मारी गयी। सखियोंके समझानेपर भी | वे गिरिराजकुमारी कुछ समझ नहीं पाती थीं ॥ 13 ॥थे सोते-जागते, खाते-पीते, नहाते-धोते, चलते फिरते और सखियोंके बीचमें बैठते समय किंचिन्मात्र भी सुखका अनुभव नहीं करती थीं। मेरे स्वरूप, जन्म तथा कर्मको धिक्कार है-ऐसा कहती हुई वे सदा महादेवजीकी प्रत्येक चेष्टाका चिन्तन करती रहती थीं ।। 14-15 ।।
इस प्रकार वे पार्वती भगवान् शिवके विरहसे मन-ही-मन अत्यन्त क्लेशका अनुभव करतीं और किंचिन्मात्र भी सुख नहीं पाती थीं, वे सदा शिव-शिव कहा करती थीं ॥ 16 ॥
पिताके घरमें रहकर भी वे चित्तसे पिनाकपाणि भगवान् शंकरके पास पहुँची रहती थीं। हे तात! शिवा शोकमग्न हो बारंबार मूच्छित हो जाती थीं ॥ 17 ॥
शैलराज हिमवान् उनकी पत्नी मेनका तथा उनके मैनाक आदि सभी पुत्र, जो बड़े उदारचित्त थे, उन्हें | सदा सान्त्वना देते रहते थे तथापि वे भगवान् शंकरको भूल न सक। हे बुद्धिमान् देवर्षे तदनन्तर [ एक दिन] इन्द्रकी प्रेरणासे इच्छानुसार घूमते हुए आप हिमालय पर्वतपर पहुँचे। उस समय महात्मा हिमवान्ने आपका सत्कार किया। तब आप [ उनके द्वारा दिये हुए] उत्तम आसनपर बैठकर उनसे कुशल पूछने लगे ॥ 18-20 ॥
उसके बाद पर्वतराज हिमवान्ने अपनी कन्याके चरित्रका आरम्भसे वर्णन किया कि किस तरह उसने महादेवजीकी सेवा की और किस तरह हरके द्वारा कामदेवका दहन हुआ ॥ 21 ॥
हे मुने! यह सब सुनकर आपने गिरिराजसे कहा- हे शैलेश्वर ! भगवान् शिवका भजन कीजिये। फिर उनसे विदा लेकर आप उठे और मन-ही-मन शिवका स्मरणकर शैलराजको छोड़कर शीघ्र ही एकान्तमें कालीके पास आ गये हे मुने! आप लोकोपकारी, ज्ञानी तथा शिक्के प्रिय भक्त हैं, ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हैं, अतः कालीके समीप जाकर उसे सम्बोधित करके उसीके हितमें स्थित हो उससे आदरपूर्वक यह वचन कहने लगे- ॥ 22-24 ॥
नारदजी बोले - हे कालि! तुम मेरी बात सुनो। मैं दयावश यह सत्य बात कह रहा हूँ। मेरा वचन तुम्हारे लिये सर्वथा हितकर, निर्दोष तथा उत्तमवस्तुओंको देनेवाला होगा। तुमने यहाँ महादेवजी की सेवा अवश्य की थी, परंतु बिना तपस्याके गर्वयुक्त होकर की थी। दीनोंपर अनुग्रह करनेवाले शिवने | तुम्हारे उसी गर्वको नष्ट किया है। हे शिवे! तुम्हारे स्वामी महेश्वर विरक्त और महायोगी हैं, उन भक्तवत्सलने कामदेवको जलाकर तुम्हें [सकुशल] छोड़ दिया है ।। 25-27 ॥
इसलिये तुम उत्तम तपस्यामें निरत हो चिरकालतक महेश्वरकी आराधना करो। तपस्याके द्वारा संस्कारयुक्त हो जानेपर रुद्रदेव तुम्हें अपनी भार्या अवश्य बनायेंगे और तुम भी कभी उन कल्याणकारी शम्भुका परित्याग नहीं करोगी। हे देवि! तुम हठपूर्वक शिवजीके अतिरिक्त किसी दूसरेको पतिरूपमें स्वीकार नहीं करोगी ।। 28-29 ।।
ब्रह्माजी बोले- हे मुने ! आपकी यह बात सुनकर गिरिराजकुमारी काली कुछ उच्छ्वास लेती हुई हाथ जोड़कर आपसे प्रसन्नतापूर्वक कहने लगीं ॥ 30 ॥
शिवा बोलीं- हे सर्वज्ञ ! जगत्का उपकार करनेवाले हे प्रभो! हे मुने! रुद्रदेवकी आराधनाके लिये मुझे किसी मन्त्रका उपदेश कीजिये क्योंकि सद्गुरुके बिना किसीकी कोई भी क्रिया सिद्ध नहीं होती-ऐसा मैंने सुन रखा है और यही सनातन श्रुति भी है ।। 31-32 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! पार्वतीका यह वचन सुनकर आप मुनिश्रेष्टने पंचाक्षर मन्त्र ['नम: शिवाय"] का उन्हें विधिपूर्वक उपदेश दिया और हे मुने! मन्त्रराजमें श्रद्धा उत्पन्न करनेहेतु आपने उसका सबसे अधिक प्रभाव बताया। हे मुने! आपने उनसे यह वचन कहा- ॥ 33-34 ॥
नारदजी बोले - हे देवि! इस मन्त्रके अत्यन्त अद्भुत प्रभावको सुनो, जिसके सुननेमात्रसे शंकर परम प्रसन्न हो जाते हैं। यह मन्त्रराज सब मन्त्रोंका राजा, मनोति फल प्रदान करनेवाला, शंकरको बहुत ही प्रिय तथा साधकको भोग और मोक्ष देनेवाला है ॥ 35-36 ॥ हे सौभाग्यशालिनि! इसका विधिपूर्वक जप करनेसे तुम्हारे द्वारा आराधित हुए भगवान् शिव अवश्य और शीघ्र ही तुम्हारी आँखोंके सामने प्रकट हो जायँगे ॥ 37 ॥हे शिवे ! नियमोंमें तत्पर रहकर उनके स्वरूपका चिन्तन करती हुई तुम पंचाक्षर मन्त्रका जप करो, इससे शिव शीघ्र ही सन्तुष्ट होंगे ॥ 38 ॥
हे साध्वि ! इस प्रकार तुम तपस्या करो, क्योंकि तपस्यासे महेश्वर वशमें हो सकते हैं? तपस्यासे ही सबको मनोनुकूल फलकी प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं ॥ 39 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! कालीसे इस प्रकार कहकर भगवान् शिवके प्रिय [भक्त], इच्छानुसार विचरण करनेवाले तथा देवताओंके हितमें तत्पर रहनेवाले आपने स्वर्गलोकको प्रस्थान किया। हे नारद! तब आपकी बातको सुनकर पार्वती बहुत प्रसन्न हुईं; क्योंकि उन्हें परम उत्तम पंचाक्षर मन्त्रराजकी प्राप्ति हो गयी थी ॥ 40-41 ।।