नारदजी बोले - हे विष्णुशिष्य ! हे महाप्राज्ञ ! हे विधे! संसारकी रचना करनेवाले हे प्रभो! आपने शिवजीकी लीलारूपी अमृतसे युक्त यह अद्भुत कथा कही ॥ 1 ॥हे तात! इसके बाद क्या हुआ ? यदि मैं शम्भुकी कथापर आश्रित उनके चरित्रको सुनने में श्रद्धावान् होऊँ, तो उसे कहिये ॥ 2 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार शिवजीके अपने स्थानको चले जाने तथा मुझ ब्रह्माके अन्तर्धान हो जानेपर दक्षप्रजापति मेरी बातका स्मरण करते कामदेवसे कहने लगे- ॥ 3 ॥ हु
दक्ष बोले- हे काम ! सुन्दर रूप एवं गुणोंसे युक्त यह कन्या मेरे शरीरसे उत्पन्न हुई है, अत: तुम अपनी पत्नी बनानेके लिये इसे ग्रहण करो, यह गुणों में तुम्हारे ही समान है ॥ 4 ॥
हे महातेजस्विन्! यह कन्या सदा तुम्हारे साथ रहेगी और धर्मके अनुरूप तुम्हारी इच्छाके अनुसार तुम्हारे वशमें रहेगी ॥ 5 ॥
ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] यह कहकर दक्षने अपने स्वेदसे उत्पन्न हुई कन्याका नाम रति रखकर और उसे अपने आगेकर कामदेवको दे दिया ll 6 ॥
हे नारद वह कामदेव मुनियोंको भी मोहित करनेवाली उस परम सुन्दर दक्षकन्यासे विवाह करके बड़ा प्रसन्न हुआ ॥ 7 ॥
प्रेमासक्त कामदेव भी परम कल्याणकारिणी रति नामक अपनी स्त्रीको देखकर उसके गुणोंसे आकृष्ट होकर उसपर अत्यन्त मोहित हो गया ॥ 8 ॥
गौरवर्णवाली, हरिणाक्षी तथा चंचल नेत्रप्रान्तवाली वह रति भी कामके सदृश होनेके कारण उसे परम आह्लाद प्रदान करने लगी ॥ 9 ॥
उसकी चपल भाँहोंको देखकर कामदेव संशय में पड़ जाता था कि विधाताने सबको वशमें करनेवाले मेरे धनुषको इसके नेत्रोंमें सन्निविष्ट कर दिया है क्या ? ।। 10 ।। हे द्विजश्रेष्ठ ! उस रतिके कटाक्षोंकी शीघ्र गति तथा उसकी सुन्दरताको देखकर कामदेवको अपने अस्त्रोंकी शीघ्र गतिपर विश्वास नहीं रह गया ॥ 11 ॥
उसके स्वाभाविक रूपसे सुगन्धित तथा मन्द श्वासवायुको सूचकर कामदेवने मलय पवनके प्रति अपनी श्रद्धाका त्याग कर दिया ॥ 12 ॥सुन्दर लक्षणोंसे युक्त तथा पूर्णिमाके चन्द्रमाके | समान उसके मुखमण्डलको देखकर कामदेव उसके मुख और चन्द्रमाका भेद करनेमें असमर्थ हो गया ॥ 13 ॥ सुवर्णकमलकी कलीके समान उसका वक्षःस्थल भ्रमरसे वेष्टित कमलकी भाँति सुशोभित हो रहा था ॥ 14 ॥
उसका कठोर, स्थूल एवं उन्नत वक्षःस्थलका मध्यभाग नाभिपर्यन्त लटकनेवाली, लम्बी, पतली तथा चन्द्रमाके समान स्वच्छ माला धारण किये हुए था। वह कामदेव भ्रमरकी पंक्तियोंसे घिरी अपने पुष्पधनुषकी प्रत्यंचाको भी भूल गया और उसे देखना छोड़कर बार-बार उसी रतिकी ओर एकटक देखने लगा ।। 15-16 ।।
चारों ओर त्वचासे परिवेष्टित उसकी नाभिका रन्ध्र अत्यन्त गम्भीर था। उसके मुखकमलपर दोनों नेत्र लाल कमलके समान प्रतीत हो रहे थे ॥ 17 ॥ उस कामदेवने कृश कटिप्रदेशवाले शरीरसे सुशोभित, स्वभावतः सुवर्णकी आभावाली उस रमणीको सुवर्णवेदीके समान देखा ॥ 18 ॥
कदलीस्तम्भके सदृश विस्तृत, स्निग्ध, कोमल तथा मनोहर उसकी जंघाओंको कामदेवने अपनी शक्तिके समान देखा ।। 19 ।।
लाल-लाल पादाग्र तथा प्रान्तभागवाले उसके दोनों पैर रँगे हुए-से थे, इससे कामदेव अनुरक्त होकर उसका मित्र बन गया। पलाशपुष्पके समान लाल नखोंसे युक्त, सूक्ष्म अग्रभागवाले तथा गोलाकार अँगुलियोंसे युक्त उसके दोनों हाथ अत्यन्त मनोहर प्रतीत हो रहे थे उसकी दोनों भुजाएँ कान्तिमय, मृणालके समान लम्बी, कोमल, स्निग्ध और कान्तियुक्त लाल मूँगेके समान शोभित हो रही थीं। उसका मनोहर केशपाश काले-काले बादलोंके समान शोभा पा रहा था, इससे वह कामप्रिया चमरीके बालोंको धारण करनेवाले चँवरकी भाँति सुशोभित हो रही थी। [सौन्दर्ययुक्त ] ऐसी रतिको हर्षित नेत्रोंवाले कामदेवने उसी प्रकार ग्रहण किया, जिस प्रकार हिमालयसे उत्पन्न गंगाको महादेवजीने ग्रहण किया था ।। 20-24 ।।चक्र तथा पद्मके चिह्नोंसे युक्त, मृणालखण्डके समान मनोहर हाथोंसे युक्त वह रति गंगा नदीके समान प्रतीत हो रही थी। उस रतिकी दोनों भौंहोंकी चेष्टाएँ नदीकी सूक्ष्म लहरोंके समान प्रतीत हो रही थीं ॥ 25 ॥
उसके कटाक्षपात ही नदीकी वेगवती धारा थे और विशाल नेत्र कमलके समान प्रतीत हो रहे थे। उसकी सूक्ष्म रोमावली शैवाल थी और वह अपने मनरूपी वृक्षोंसे विलास कर रही थी ॥ 26 ॥
उसकी गम्भीर नाभि हृदके समान शोभा पा रही थी। वह कृशगात्रा रति अपने सर्वांगकी रमणीयता तथा लावण्यमयी शोभासे बारह आभूषणोंसे युक्त तथा सोलह श्रृंगारोंसे शोभायमान होकर सम्पूर्ण लोकोंको मोहनेवाली और अपनी कान्तिसे दसों दिशाओंको प्रज्वलित करती हुई महालक्ष्मी जैसी प्रतीत हो रही थी ll 27-28 ।।
इस प्रकार परम सुन्दरी रतिको देखकर कामदेवने इसे बड़ी प्रसन्नतासे ग्रहण किया, जिस प्रकार कि स्वयं रागसे उपस्थित हुई महालक्ष्मीको भगवान् नारायणने ग्रहण किया था ॥ 29 ॥
उस समय कामदेवने आनन्द होनेके कारण विमोहित होकर ब्रह्माजीके द्वारा दिये गये दारुण शापको भूलकर दक्षसे कुछ नहीं कहा ll 30 ॥
हे तात! उस समय [सबके] सुखको बढ़ानेवाला महान् उत्सव हुआ। दक्ष प्रजापति अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और कन्या रति भी परम प्रसन्न हो गयी ॥ 31 ॥
अत्यधिक सुख पाकर कामका समस्त दुःख विनष्ट हो गया और इधर दक्षतनया रति भी कामको | पतिरूपमें प्राप्तकर परम हर्षित हुई ॥ 32 ॥
रतिसे मोहित हुआ गद्गद कण्ठवाला वह मधुरभाषी काम सायंकालमें मनोहर बिजलीसे युक्त मेघके समान दक्षकन्या रतिके साथ शोभा पाने लगा ॥ 33 ॥इस प्रकार रतिपति कामने अत्यन्त मोहित होकर उस रतिको इस प्रकार अपने हृदयमें ग्रहण किया, जिस प्रकार योगी ब्रह्मविद्याको ग्रहण करता है और वह रति भी श्रेष्ठ कामको प्राप्तकर इस प्रकार प्रसन्न हुई, जिस प्रकार पूर्णचन्द्रके समान मुखवाली महालक्ष्मी विष्णुको पतिरूपमें प्राप्तकर प्रसन्न हुई थीं ॥ 34 ॥