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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 8 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 8

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कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन

सूतजी बोले- प्रजापति ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर प्रसन्नचित्त हो नारदजी उनसे कहने लगे- ॥ 1 ॥

नारदजी बोले - हे ब्रह्मन् ! हे विधे! हे महाभाग !. हे विष्णुशिष्य हे महामते। परतत्त्वके प्रकाशक तथा शिवभक्त आप धन्य हैं ॥ 2 ॥

हे धर्मज्ञ आपने अरुन्धतीकी तथा पूर्वजन्म में उसकी स्वरूपभूता सन्ध्याकी बड़ी उत्तम दिव्य कथा सुनायी जो शिवभक्तिकी वृद्धि करनेवाली है। अब आप शिवका परम चरित्र जो सम्पूर्ण पापोंका विनाशक है तथा मंगलको प्रदान करनेवाला है, उसे सुनाइये ॥ 3-4 ॥जब कामने प्रसन्न होकर रतिको प्राप्त कर लिया और ब्रह्मा तथा उनके मानसपुत्र चले गये तथा सन्ध्या तप करने चली गयी, उसके बाद क्या हुआ ? ॥ 5 ॥

सूतजी बोले- इस प्रकार आत्मतत्त्वज्ञ देवर्षि नारदका वचन सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हो ब्रह्माजी यह | बात कहने लगे-॥ 6 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! हे विप्रेन्द्र ! शिवलीलासे परिपूर्ण अब उस महान् कल्याणकारी शिवचरित्रको सुनें। आप धन्य हैं; क्योंकि आप शिवजीके भक्त हैं ll 7 ॥

हे तात! पहले जब मैं शिवमायासे मोहित होकर अन्तर्धान हो गया, तब शिवके वाक्यरूपी विषसे दुखी हो [अपने मनमें] विचार करने लगा ॥ 8 ॥ शिवमायासे मोहित हुआ मैं बहुत देरतक अपने चित्तमें विचार करके उनसे जिस प्रकार ईर्ष्या करने लगा, उसे आपसे बताता हूँ, सुनिये ॥ 9 ॥

तत्पश्चात् मैं वहाँ पहुँचा, जहाँ दक्ष आदि स्थित थे और वहाँ रतिसहित कामदेवको देखकर मैं कुछ मदमत्त हो गया ॥ 10 ॥

हे नारद! दक्ष तथा अपने अन्य मानसपुत्रोंसे प्रीतिपूर्वक बातचीत करके शिवमायासे विमोहित मैं इस प्रकार उनसे कहने लगा- ॥ 11 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे दक्ष! हे मरीचि आदि पुत्रो ! मेरी बात सुनो और उसे सुनकर मेरे कष्टको दूर करनेका उपाय करो ॥ 12 ॥

स्त्रीके प्रति मेरी अभिलाषा देखकर महायोगी शिवने मेरी निन्दा की और उन्होंने मुझे तथा तुमलोगोंको बहुत फटकारा ॥ 13 ॥ उसके कारण मैं दुःखसे सन्तप्त हूँ और कहीं भी मुझे चैन नहीं मिलता, अतः जिस प्रकार वे भी स्त्रीको ग्रहण करें, वह यत्न करो ॥ 14 ॥ जब वे स्त्रीको स्वीकार करेंगे, तभी हमारा वह दुःख दूर होगा, किंतु विचार करनेपर में समझता हूँ | कि यह कार्य बड़ा ही कठिन है ॥ 15 ॥

जब उन्होंने मुनियोंके समक्ष ही मेरे कान्ता परिग्रहकी अभिलाषामात्रसे मुझे धिक्कारा, तो वे स्वयं किस प्रकार स्त्री ग्रहण करेंगे ? ॥ 16 ॥इस त्रिलोकमें कौन-सी ऐसी स्त्री है, जो उनके मनमें विराजमान होकर, उन्हें योगमार्गसे हटाकर मोहमें डाल सकती है ? ॥ 17 ॥

कामदेव भी इन्हें मोहित करनेमें समर्थ नहीं है | क्योंकि वे परमयोगी हैं और स्त्रियोंक नामको सहन नहीं कर सकते हैं ॥ 18 ॥

जो प्रसंगके द्वारा भी स्त्रीका नाम कदापि नहीं सहन कर सकता तो भला वह वाणीसे स्त्री ग्रहणकर किस प्रकार सृष्टिकार्यमें प्रवृत्त हो सकता है ? ॥ 19 ॥

इस पृथिवीमें बड़े-बड़े देवता भी मायके बन्धनमें पड़े हुए हैं। जो बचे हुए हैं, वे विष्णुके बन्धनमें बंधे हैं और कुछ देवगण शम्भुके उपायोंगे आवद्ध हैं ॥ 20 ॥

संसारसे विमुख तथा एकान्तविरागी सदाशिवके अतिरिक्त और कौन है, जो ऐसा दुष्कर कार्य कर सकता है ? ॥ 21 ॥

इस प्रकार दक्षादि पुत्रोंसे कहकर रतिसहित कामदेवको वहाँ देखकर मैं आनन्दपूर्वक उनसे कहने लगा- ॥ 22 ॥

ब्रह्माजी बोले- मेरे श्रेष्ठ पुत्र हे कामदेव ! तुम सभी प्रकारसे सबको सुख देनेवाले हो हे पितृवत्सल! तुम अपनी पत्नीसहित प्रसन्नतापूर्वक मेरी बात सुनो ॥ 23 ॥

हे मनोभव! तुम [अपनी] इस सहचारिणी स्त्रीके साथ जिस प्रकार शोभा पा रहे हो और यह [भी] [वैसे ही] तुम्हें पतिरूपमें प्राप्तकर अति शोभित हो रही है ॥ 24 ॥

जिस प्रकार महालक्ष्मीसे भगवान् विष्णु तथा विष्णुसे महालक्ष्मी एवं जिस प्रकार रात्रिसे चन्द्रमा एवं चन्द्रमासे रात्रि सुशोभित होती है, उसी प्रकार तुम दोनोंकी शोभा है और तुम्हारा दाम्पत्य भी अलंकृत है। इसलिये तुम इस जगत्को जीतनेवाले विश्वकेंद्र होओगे ।। 25-26 ।।

हे वत्स! तुम संसारके हितके लिये महादेवको मोहित करो, जिससे प्रसन्न मनवाले शंकर शीघ्र विवाह करें।। 27 ।।निर्जन स्थानमें, उत्तम प्रदेशमें, पर्वतपर अथवा तालाबके तटपर - जहाँ भी शिवजी जायें, वहीं तुम अपनी इस पत्नी के साथ जाकर इन जितेन्द्रिय तथा स्वोरहित शंकरजीको मोहित करो इस संसारमें] तुम्हारे अतिरिक्त और कोई दूसरा इनको मोहमें डालनेवाला नहीं है॥ 28-29 ॥

हे मनोभव! शंकरजीके अनुरागयुक्त हो जानेपर तुम्हारे भी शापकी शान्ति हो जायगी, अतः तुम अपना हित करो। यदि महेश्वर सानुराग होकर स्त्रीकी अभिलाषा करेंगे, तो वे श्रेष्ठ शिव तुम्हारा भी उद्धार कर देंगे ।। 30-31 ॥

इसलिये तुम अपनी स्त्रीको साथ लेकर शंकरजीको मोहित करनेका प्रयत्न करो और महेश्वरको मोहित करके विश्वके केतु हो जाओ ॥ 32 ॥

ब्रह्माजी बोले- संसारके प्रभु एवं अपने पिता मुझ ब्रह्माकी बात सुनकर वह कामदेव मुझ जगत्पतिसे कहने लगा- ॥ 33 ॥

मन्मथ बोला- हे प्रभो! मैं आपके आज्ञानुसार शिवजीको मोहित करूँगा, किंतु हे भगवन्! स्त्री ही मेरा मुख्य अस्त्र है। अतः शंकरजीके योग्य स्त्रीका निर्माण कीजिये, जो मेरे द्वारा शिवजीको मोहित करनेपर उनका पुनः मोहन कर सके। हे धाता ! इसका उत्तम उपाय अब कीजिये ।। 34-35 ।।

ब्रह्माजी बोले- कामदेवके इस प्रकार कहने पर मैं प्रजापति ब्रह्मा अपने मनमें विचार करने लगा कि किस प्रकारकी स्त्रीसे शिवजीको मोहित किया जाय ?ll 36 ll

इस प्रकार चिन्तामें निमग्न हुए मुझसे जो श्वास निकला, उसीसे पुष्पसमूहाँसे विभूषित वसन्त उत्पन्न हुआ उसके शरीरकी कान्ति लालकमलके समान थी. उसकी आँखें विकसित कमलके समान थीं, उसका मुख सन्ध्याके समय उदय हुए पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर था, उसकी नासिका भी बहुत सुन्दर थी। उसके चरणोंमें सींगके समान आवर्त थे, वह | काले तथा घुँघराले केशोंसे शोभायमान हो रहा था। सन्ध्याकालीन सूर्यके सदृश दो कुण्डलोंसे वह सुशोभित था, मतवाले हाथीके समान उसकी चाल थी, उसकीभुजाएँ लम्बी तथा मोटी थीं, उसका कन्धा अत्यन्त ऊँचा था। उसकी ग्रीवा शंखके समान थी, उसका वक्ष:स्थल बहुत चौड़ा था, मुखमण्डल स्थूल तथा सुन्दर था, उसके सभी अंग सुन्दर थे, वह श्याम वर्णका था, सभी लक्षणोंसे युक्त वह सबको मोहित करनेवाला, कामको बढ़ानेवाला तथा अत्यन्त दर्शनीय था ।। 37-41 ।।

इस प्रकार पुष्पगुच्छोंसे सुशोभित हुए वसन्तके उत्पन्न होते ही सुगन्धित वायु चलने लगी, वृक्ष भी फूलोंसे लद गये ॥ 42 ॥

सैकड़ों कोयलें मधुर पंचम स्वरमें बोलने लगीं और बावलियाँ विकसित तथा स्वच्छ कमलोंसे युक्त हो गयीं। इस प्रकार उत्पन्न हुए उस श्रेष्ठ वसन्तको देखकर मैं ब्रह्मा कामदेवसे मधुर शब्दोंमें कहने लगा- ॥। 43-44 ॥

ब्रह्माजी बोले - [ हे पुत्र!] कामदेवतुल्य यह | वसन्त अब तुम्हारे लिये अनुकूल मित्र उत्पन्न हो गया | है। अब यह तुम्हारी सब प्रकारसे सहायता करेगा ।। 45 ।।

जिस प्रकार पवन अग्निका मित्र बनकर सदा उसका उपकार करता रहता है, उसी प्रकार यह वसन्त भी तुम्हारा मित्र बनकर सदा तुम्हारे साथ रहेगा ।। 46 ।।

रमणमें हेतु होनेके कारण यह तुम्हारे साथ निवास करेगा, इसलिये इसका नाम वसन्त होगा । लोकका अनुरंजन तथा तुम्हारा अनुगमन ही इसका कार्य होगा ॥ 47 ॥

वसन्तकालीन यह मलयानिल इस वसन्तका श्रृंगार बनकर इसके मित्ररूपसे बना रहेगा, जो सदा तुम्हारे अधीन रहेगा ।। 48 ।।

जिस प्रकार तुम्हारे मित्र रहते हैं, उसी प्रकार ये विब्बोक आदि हाव तथा चौंसठ कलाएँ रतिके साथ सुहृद् होकर रहेंगी ॥ 49 ॥

हे काम ! तुम अपने इन वसन्त आदि सहचरों तथा रतिके साथ उद्यत होकर महादेवजीको मोहित करो ॥ 50 ॥

हे तात! अब मैं कलपूर्वक अच्छी तरह मनमें सोच-विचारकर उस कामिनीको प्राप्त करूंगा, जो भगवान् शंकरको मोहित कर लेगी ॥ 51 ॥ब्रह्माजी बोले—इस प्रकार मुझ सुरश्रेष्ठ ब्रह्माके कहनेपर उस कामदेवने पत्नीसहित मेरे चरणों में प्रणाम किया। पुनः दक्ष एवं मेरे मानसपुत्रोंको प्रणामकर कामदेव उस स्थानपर गया, जहाँ आत्मस्वरूप शंकरजी गये थे ॥ 52-53॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य