ब्रह्माजी बोले- तब मेरे अभिप्रायको जाननेवाले मेरे पुत्र मरीचि आदि मुनियोंने उसके उचित नाम रखे ॥ 1 ॥ उन सृष्टिकर्ता दक्ष आदिने उसका मुख देखते ही तथा [उसकी अन्य चेष्टाओंसे] उसके समस्त चरित्रको जानकर उसे रहनेका स्थान दिया तथा पत्नी भी दे दी ॥ 2 ॥ मेरे पुत्र मरीचि आदि ऋषियोंने एकत्रित होकर नामोंका निश्चय करके उस पुरुषको नाम भी बता दिये ॥ 3 ॥
ऋषिगण बोले- तुमने ब्रह्माजीसे उत्पन्न होते. ही हमलोगोंके मनको मथ डाला है, इसलिये तुम लोकमें 'मन्मथ' नामसे प्रसिद्ध होओगे ॥ 4 ॥ सभी लोकोंमें तुम सुन्दर रूपवाले हो, तुम्हारे | समान कोई भी सुन्दर नहीं है, इसलिये हे मनोभव ! 'काम' नामसे भी तुम विख्यात होओगे ॥ 5 ॥
तुम सभीको मदोन्मत्त करनेके कारण 'मदन' कहे जाओगे। अहंकारयुक्त होकर दर्पसे उत्पन्न हुए हो, इसलिये तुम 'कन्दर्प' नामसे भी संसारमें प्रसिद्ध होओगे ॥ 6 ॥ तुम्हारे समान किसी भी देवताका पराक्रम नहीं होगा, अतः तुम्हारे लिये सभी स्थान होंगे और तुम सर्वव्यापी होओगे ll 7 ॥
ये जो आदिप्रजापति पुरुषोत्तम दक्ष हैं, वे स्वयं ही तुमको योग्य पत्नीके रूपमें सुन्दर स्त्री प्रदान करेंगे ll 8 ॥
ब्रह्माके मनसे उत्पन्न हुई यह सुन्दर रूपवाली कन्या सन्ध्या नामसे सभी लोकोंमें विख्यात होगी ॥ 9 ॥
अच्छी प्रकारसे ध्यान करते हुए ब्रह्माजीके हृदयसे उत्पन्न होनेके कारण तेज आभावाली तथा मल्लिकापुष्पके सदृश यह कन्या सन्ध्या- इस नामसे विख्यात होगी ॥ 10 ॥ ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कामदेव अपने पाँच पुष्प आयुधों को लेकर वहीं पर गुप्त रूपसे स्थित होकर विचार करने लगा- ॥ 11 ॥
हर्षण, रोचन, मोहन, शोषण तथा मारण नामक ये [मेरे] पाँच अस्त्र मुनियोंको भी मोहित करनेवाले कहे गये हैं॥ 12 ॥
ब्रह्माजीने मुझे जिस सनातन कर्मको करनेके लिये आदेश दिया है, उसे मैं यहाँ मुनियों और ब्रह्माजीके सन्निकट ही करूँगा ॥ 13 ॥
यहाँ बहुत से मुनिगण तथा स्वयं प्रजापति ब्रह्माजी भी उपस्थित हैं। ये लोग साक्षीरूपसे विद्यमान हैं, इसलिये मेरे कर्मकी सत्यताका आरम्भ भी हो जायगा ॥ 14 ॥
यह ब्रह्माजीके द्वारा सन्ध्या नामसे कही गयी यह कन्या भी मेरे वचनका समर्थन करेगी। मैं इसी स्थानपर अपने कर्मकी परीक्षा करके ही प्रयोगद्वारा सबको मोहित करूँगा ॥ 15 ll
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार विचार करनेके अनन्तर मनमें निश्चय करके वह अपने पुष्पके धनुषपर पुष्पके बाणोंको चढ़ाने लगा। श्रेष्ठ धनुर्धारी कामदेव धनुष खनेको मुद्रा स्थित होकर पूर्व धनुष चढ़ाकर उसे मण्डलाकार किया । ll 16-17 ll
हे मुनिश्रेष्ठ! जब इस प्रकारके धनुषपर कामदेवने अपना बाण चढ़ाया, तो उसी समय [मनको ] अदित करनेवाली सुगन्धित वायु बहने लगी ॥ 18॥ उस समय कामदेव तीक्ष्ण पुष्पों को तथा सभी मानसपुत्रोंको मोहित कर लिया ॥ 19 ॥ हे मुने ! तत्पश्चात् सभी मुनिगण और मैं भी मोहित हो गया, सभीके मनमें कामविकार उत्पन्न हो
गया ॥ 20 ॥
विकारसे युक्त होनेके कारण सभी लोग सन्ध्याकी ओर बार-बार देखने लगे। सभीके मनमें कामका उद्रेक हो गया; क्योंकि स्त्री कामको बढ़ानेवाली होती है ॥ 21 ॥
उस कामदेवने सभीको बार-बार मोहित करके जिस किसी भी तरहसे वे कामविकारको प्राप्त हों, वैसा उन सबको कर दिया ।। 22 ।।उस स्त्रीको देखकर जब मैं ब्रह्मा उन्मत्त इन्द्रियोंवाला हो गया, उस समय मेरे शरीरसे उनचास भाव उत्पन्न हो गये ॥ 23 ॥
कामवाणके प्रहारसे उन सभीके द्वारा देखी | जाती हुई वह सन्ध्या भी अपने कटाक्षोंके आवरणसे अनेक प्रकारके भाव प्रकट करने लगी ॥ 24 ॥
स्वभावसे सुन्दरी वह सन्ध्या मनसे उत्पन्न उन भावोंको प्रकट करती हुई छोटी-छोटी लहरोंसे युक्त गंगाकी तरह शोभित होने लगी ॥ 25 ॥
हे मुने! इस प्रकारके भावोंसे युक्त सन्ध्याको देखकर कामसे परिपूर्ण शरीरवाला में ब्रह्मा उसकी अभिलाषा करने लगा ।। 26 ।।
हे द्विजश्रेष्ठ ! तब मरीचि, अत्रि आदि सभी मुनि तथा दक्ष प्रजापति आदि विकृत इन्द्रियोंवाले हो गये। दक्ष मरीचि आदि ऋषियों तथा मुझे और सन्ध्याको भी कामविकारसे युक्त देखकर कामदेवको अपने कार्यपर विश्वास हो गया ।। 27-28 ।।
अब कामदेवके मनमें यह विश्वास हो गया कि ब्रह्माने मुझे जिस कार्यके लिये आदेश दिया है, मैं वह कार्य करनेमें पूर्ण रूपसे सक्षम हूँ ॥ 29 ॥
[ब्रह्माजीके पुत्र] धर्मने अपने पिता तथा भाइयोंकी ऐसी दशा देखकर धर्मकी रक्षा करनेवाले भगवान् सदाशिवका स्मरण किया ॥ 30 ॥ धर्मने धर्मपालक शिवजीका मनसे स्मरणकर दीनभावनासे युक्त होकर अनेक प्रकारके वाक्योंसे उनकी इस प्रकार स्तुति की - ॥ 31 ॥
धर्म बोला- हे देवाधिदेव ! हे महादेव! हे धर्मपाल ! आपको नमस्कार है। हे शम्भो ! सृष्टि, पालन तथा विनाश करनेवाले आप ही हैं ॥ 32 ॥
हे प्रभो! आपने निर्गुण होकर भी रज, सत्त्व तथा तमोगुणसे सृष्टिकार्यके लिये ब्रह्मा, पालनके लिये विष्णु तथा प्रलयके लिये रुद्रस्वरूप धारण किया है ।। 33 ।।
[हे प्रभो!] आप शिव तीनों गुणोंसे रहित, प्रकृतिसे परे, तुरीयावस्थामें स्थित, निर्गुण, निर्विकार तथा अनेक प्रकारकी लीलाओंमें प्रवीण हैं ॥ 34 ॥हे महादेव! इस भयंकर पापसे मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये, इस समय मेरे पिता तथा मेरे भाई पापबुद्धिवाले हो गये हैं ।॥ 35 ॥
ब्रह्माजी बोले- धर्मके द्वारा परमात्मा प्रभुकी जब इस प्रकार स्तुति की गयी, तब वे आत्मभू शिव धर्मकी रक्षा करनेके लिये वहीं प्रकट हो गये ॥ 36 ॥
वे शम्भु आकाशमें स्थित होकर मुझ ब्रह्मा तथा दक्ष आदिको इस प्रकारसे मोहित देखकर मन-ही-मन हँसने लगे। हे मुनिश्रेष्ठ! उन सबको साधुवाद देकर और बार-बार हँसकर मुझे लज्जित करते हुए वे वृषभध्वज यह कहने लगे- ॥ 37-38 ॥
शिवजी बोले- हे ब्रह्मन्! अपनी कन्याको देखकर आपको कामभाव कैसे उत्पन्न हो गया? वेदोंका अनुसरण करनेवालोंके लिये यह उचित नहीं है ।। 39 ।।
बुद्धिमान्को चाहिये कि माता, भगिनी, भ्रातृपत्नी तथा कन्याको समान भावसे देखे। इन्हें कदापि कुदृष्टिसे न देखे ॥ 40 ॥
वेदमार्गका यह सिद्धान्त तो आपके मुखमें स्थित है। हे विधे! आपने कामके उत्पन्न होते ही उसे कैसे विस्मृत कर दिया ! ll 41 ll
हे चतुरानन! आपके मनमें धैर्य जागरूक रहना चाहिये। आश्चर्य है कि आपने इस कामके वशीभूत हो कन्यासे रमण करनेके लिये इस प्रकार अपने धैर्यको नष्ट कर दिया ॥ 42 ॥
एकान्त-योगी तथा सर्वदा सूर्यका दर्शन करनेवाले दक्ष, मरीचि आदि भी स्त्रीमें आसक्त चित्तवाले हो गये ।। 43 ।।
देश-कालका ज्ञान न रखनेवाले, मन्दात्मा तथा अल्प बुद्धिवाले कामदेवने भी अपनी प्रबलतासे कामबाणोंद्वारा आपलोगोंको विकारयुक्त कैसे बना दिया ? ॥ 44 ॥
उस पुरुषको तथा उसके वेद, शास्त्र आदिके ज्ञानको धिक्कार है, जिसके मनको स्त्री हर लेती है और धैर्य से विचलित करके मनको लोलुपतामें डुबा देती है ॥ 45 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार सदाशिवके वचनको सुनकर मैं दुगुनी लज्जामें पड़ गया, उस समय मेरा शरीर पसीनेसे पानी-पानी हो उठा ।। 46 ।।हे मुने! तत्पश्चात् कामरूपिणी सन्ध्याको ग्रहण करनेकी इच्छा करते हुए भी मैंने शिवजीके भयसे इन्द्रियोंको वशमें करके कामविकारको दूर कर दिया ।। 47 ।।
हे द्विजश्रेष्ठ! उस समय मेरे शरीरसे [लज्जाके कारण] जो पसीना गिरा, उसीसे अग्निष्वात्त तथा बर्हिषद् नामक पितृगणोंकी उत्पत्ति हुई। अंजनके समान कृष्णवर्णवाले और विकसित कमलके समान नेत्रवाले वे पितर महायोगी, पुण्यशील तथा संसारसे विमुख रहनेवाले हैं॥ 48-49 ।। हे मुने! चौंसठ हजार अग्निष्वात्त पितर और
छियासी हजार बर्हिषद् पितर कहे गये हैं ॥ 50 उसी समय दक्षके शरीरसे भी स्वेद निकलकर पृथ्वीपर गिरा, उससे समस्त गुणसम्पन्न परम मनोहर एक स्त्रीकी उत्पत्ति हुई ॥ 51 ॥
उसका शरीर सूक्ष्म था, कटिप्रदेश सम था, शरीरकी रोमावली अत्यन्त सूक्ष्म थी, उसके अंग कोमल तथा दाँत परम सुन्दर थे और वह तपे हुए सोनेके समान कान्तिसे देदीप्यमान हो रही थी ॥ 52 ॥
वह अपने शरीरके समस्त अवयवोंसे बड़ी मनोहर प्रतीत हो रही थी तथा उसका मुखकमल पूर्ण चन्द्रमाके समान था। उसका नाम रति था, जो मुनियोंके भी मनको मोहित करनेवाली थी ॥ 53 ॥
क्रतु, वसिष्ठ, पुलस्त्य तथा अंगिराको छोड़कर मरीचि आदि छः ऋषियोंने अपनी इन्द्रियोंका निग्रह कर लिया। हे मुनिश्रेष्ठ ! इन ऋतु आदि चार ऋषियोंका वीर्य पृथ्वीपर गिरा, उन्हींसे दूसरे पितृगणोंकी उत्पत्ति हुई ।। 54-55 ।।
इन पितरोंमें सोमपा, आज्यपा, सुकालिन् तथा हविष्मान् मुख्य हैं। ये सभी पुत्र कव्यको धारण करनेवाले कहे गये हैं ॥ 56 ॥
क्रतुके पुत्र सोमपा नामक पितर, वसिष्ठके पुत्र सुकालिन नामक पितर, पुलस्त्यके पुत्र आज्यपा तथा अंगिराके पुत्र हविष्मान् नामक पितरके रूपमें उत्पन्न हुए ll 57 ll
हे विप्रेन्द्र! इस प्रकार अग्निष्वात्त आदि पितरोंके उत्पन्न हो जानेपर पितरोंके मध्य वे सभी कव्यका वहन करनेवाले कव्यवाट् हुए ॥ 58 ॥इस प्रकार सन्ध्या पितरोंको उत्पन्न करनेवाली बनकर उनकी उद्देश्यसिद्धिमें लगी रहती थी। यह शिवके द्वारा देख लिये जानेके कारण दोषोंसे रहित तथा धर्म-कर्ममें परायण रहती थी ॥ 59 ॥
इसी बीच सदाशिव समस्त महर्षियोंपर अनुग्रह करके तथा विधिपूर्वक धर्मकी रक्षाकर शीघ्र ही अन्तर्धान हो गये ॥ 60 ॥ उसके बाद शम्भु सदाशिवके वाक्योंसे मैं पितामह लज्जित हुआ। मैंने अपनी भ्रुकुटि चढ़ा ली
और कामदेवपर बड़ा क्रुद्ध हुआ ।। 61 ।। हे मुने! मेरे मुखको देखकर और मेरा अभिप्राय समझकर रुद्रसे भयभीत उस कामदेवने अपने बाणोंको लौटा लिया ॥ 62 ॥
हे मुने! तब मैं पद्मयोनि ब्रह्मा कोपयुक्त होकर इस प्रकार जलने लगा, जिस प्रकार भस्म करनेकी इच्छावाली अति बलवान् अग्नि प्रज्वलित हो उठती है ll 63 ॥
[मैंने क्रोधमें भरकर उसे यह शाप दे दिया] अहंकारसे मोहित हुआ यह कन्दर्प शिवजीके प्रति दुष्कर कर्म करके उनकी नेत्राग्निसे भस्म हो जायगा ॥ 64 ll
हे द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार मुझ ब्रह्माने पितृसमूहों के तथा जितेन्द्रिय मुनियोंके सामने इस कामको यह अमित शाप दिया ॥ 65 ॥
मेरे शापको सुनकर भयभीत हुआ कामदेव उसी क्षण अपने बाणोंको त्यागकर सबके सामने प्रकट हो गया ॥ 66 ॥
हे मुने! उसका सारा गर्व नष्ट हो गया। तब वह दक्ष आदि मेरे पुत्रों [अग्निष्यादि] पितरों | सन्ध्या एवं मुझ ब्रह्माके सामने ही सबको सुनाते हुए यह कहने लगा-॥ 67 ॥
काम बोला- हे ब्रह्मन् ! आप तो न्यायमार्गका अनुसरण करनेवाले हैं, हे लोकेश ! तब मुझ निरपराधको आपने इस प्रकार दारुण शाप क्यों दे दिया ? ॥ 68 ॥
हे ब्रहान्। आपने मेरे लिये जो कहा था, मैंने तो वही कार्य किया। आपको मुझे शाप देना ठीक नहीं है; क्योंकि मैंने [आपकी आज्ञाके विरुद्ध] कोई अन्य कार्य नहीं किया है ।। 69 ।।[हे ब्रह्मन्!] मैं [ब्रह्मा], विष्णु तथा शिव ये सब भी तुम्हारे बाके वशीभूत होकर रहेंगे ऐसा जो आपने कहा था, उसीके अनुसार ही मैंने परीक्षा ली थी ll 70 ॥
अतः हे ब्रह्मन् ! इसमें मेरा अपराध नहीं है। हे देव ! हे जगत्पते यदि आपने मुझ निरपराधको यह दारुण शाप दे ही दिया, तो इसका कोई समय भी निश्चित कर दीजिये ll 71 ॥
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] तब मैं जगत्पति ब्रह्मा उसकी यह बात सुनकर चित्तको वशमें करनेवाले कामको बार-बार डाँटता हुआ इस प्रकार बोला- ॥ 72 ॥
[[हे काम!] यह सन्ध्या मेरी कन्या है, तुमने इसकी ओर सकाम करनेके लिये मुझे [अपने कामका ] लक्ष्य बनाया। इसलिये मैंने तुम्हें शाप दिया 73 ॥ हे मनोभव! अब मेरा क्रोध शान्त हो गया है, अतः मैं तुमसे कह रहा हूँ, उसे सुनो। तुम सन्देहरहित होकर सुखी हो जाओ और भय छोड़ो ।। 74 ।। हे मदन! तुम महादेवजीकी नेत्राग्निसे भस्म होकर बादमें शीघ्र ही इसीके समान शरीर प्राप्त करोगे ॥ 75ll जब शंकरजी विवाह करेंगे, तब वे अनायास ही तुम्हें शरीर प्रदान करेंगे ll 76 ll
[हे नारद!] कामसे इस प्रकार कहकर मैं लोकपितामह उन मानसपुत्र मुनिवरोंके देखते-देखते ही अन्तर्धान हो गया ॥ 77 ॥
इस प्रकार मेरे वचनको सुनकर कामदेव तथा मेरे वे सभी मानसपुत्र प्रसन्न हो गये और शीघ्रता से अपने-अपने घरोंको चले गये ॥ 78 ॥