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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 3 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 3

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कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय

ब्रह्माजी बोले- तब मेरे अभिप्रायको जाननेवाले मेरे पुत्र मरीचि आदि मुनियोंने उसके उचित नाम रखे ॥ 1 ॥ उन सृष्टिकर्ता दक्ष आदिने उसका मुख देखते ही तथा [उसकी अन्य चेष्टाओंसे] उसके समस्त चरित्रको जानकर उसे रहनेका स्थान दिया तथा पत्नी भी दे दी ॥ 2 ॥ मेरे पुत्र मरीचि आदि ऋषियोंने एकत्रित होकर नामोंका निश्चय करके उस पुरुषको नाम भी बता दिये ॥ 3 ॥

ऋषिगण बोले- तुमने ब्रह्माजीसे उत्पन्न होते. ही हमलोगोंके मनको मथ डाला है, इसलिये तुम लोकमें 'मन्मथ' नामसे प्रसिद्ध होओगे ॥ 4 ॥ सभी लोकोंमें तुम सुन्दर रूपवाले हो, तुम्हारे | समान कोई भी सुन्दर नहीं है, इसलिये हे मनोभव ! 'काम' नामसे भी तुम विख्यात होओगे ॥ 5 ॥

तुम सभीको मदोन्मत्त करनेके कारण 'मदन' कहे जाओगे। अहंकारयुक्त होकर दर्पसे उत्पन्न हुए हो, इसलिये तुम 'कन्दर्प' नामसे भी संसारमें प्रसिद्ध होओगे ॥ 6 ॥ तुम्हारे समान किसी भी देवताका पराक्रम नहीं होगा, अतः तुम्हारे लिये सभी स्थान होंगे और तुम सर्वव्यापी होओगे ll 7 ॥

ये जो आदिप्रजापति पुरुषोत्तम दक्ष हैं, वे स्वयं ही तुमको योग्य पत्नीके रूपमें सुन्दर स्त्री प्रदान करेंगे ll 8 ॥

ब्रह्माके मनसे उत्पन्न हुई यह सुन्दर रूपवाली कन्या सन्ध्या नामसे सभी लोकोंमें विख्यात होगी ॥ 9 ॥

अच्छी प्रकारसे ध्यान करते हुए ब्रह्माजीके हृदयसे उत्पन्न होनेके कारण तेज आभावाली तथा मल्लिकापुष्पके सदृश यह कन्या सन्ध्या- इस नामसे विख्यात होगी ॥ 10 ॥ ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कामदेव अपने पाँच पुष्प आयुधों को लेकर वहीं पर गुप्त रूपसे स्थित होकर विचार करने लगा- ॥ 11 ॥

हर्षण, रोचन, मोहन, शोषण तथा मारण नामक ये [मेरे] पाँच अस्त्र मुनियोंको भी मोहित करनेवाले कहे गये हैं॥ 12 ॥

ब्रह्माजीने मुझे जिस सनातन कर्मको करनेके लिये आदेश दिया है, उसे मैं यहाँ मुनियों और ब्रह्माजीके सन्निकट ही करूँगा ॥ 13 ॥

यहाँ बहुत से मुनिगण तथा स्वयं प्रजापति ब्रह्माजी भी उपस्थित हैं। ये लोग साक्षीरूपसे विद्यमान हैं, इसलिये मेरे कर्मकी सत्यताका आरम्भ भी हो जायगा ॥ 14 ॥

यह ब्रह्माजीके द्वारा सन्ध्या नामसे कही गयी यह कन्या भी मेरे वचनका समर्थन करेगी। मैं इसी स्थानपर अपने कर्मकी परीक्षा करके ही प्रयोगद्वारा सबको मोहित करूँगा ॥ 15 ll

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार विचार करनेके अनन्तर मनमें निश्चय करके वह अपने पुष्पके धनुषपर पुष्पके बाणोंको चढ़ाने लगा। श्रेष्ठ धनुर्धारी कामदेव धनुष खनेको मुद्रा स्थित होकर पूर्व धनुष चढ़ाकर उसे मण्डलाकार किया । ll 16-17 ll

हे मुनिश्रेष्ठ! जब इस प्रकारके धनुषपर कामदेवने अपना बाण चढ़ाया, तो उसी समय [मनको ] अदित करनेवाली सुगन्धित वायु बहने लगी ॥ 18॥ उस समय कामदेव तीक्ष्ण पुष्पों को तथा सभी मानसपुत्रोंको मोहित कर लिया ॥ 19 ॥ हे मुने ! तत्पश्चात् सभी मुनिगण और मैं भी मोहित हो गया, सभीके मनमें कामविकार उत्पन्न हो
गया ॥ 20 ॥

विकारसे युक्त होनेके कारण सभी लोग सन्ध्याकी ओर बार-बार देखने लगे। सभीके मनमें कामका उद्रेक हो गया; क्योंकि स्त्री कामको बढ़ानेवाली होती है ॥ 21 ॥

उस कामदेवने सभीको बार-बार मोहित करके जिस किसी भी तरहसे वे कामविकारको प्राप्त हों, वैसा उन सबको कर दिया ।। 22 ।।उस स्त्रीको देखकर जब मैं ब्रह्मा उन्मत्त इन्द्रियोंवाला हो गया, उस समय मेरे शरीरसे उनचास भाव उत्पन्न हो गये ॥ 23 ॥

कामवाणके प्रहारसे उन सभीके द्वारा देखी | जाती हुई वह सन्ध्या भी अपने कटाक्षोंके आवरणसे अनेक प्रकारके भाव प्रकट करने लगी ॥ 24 ॥

स्वभावसे सुन्दरी वह सन्ध्या मनसे उत्पन्न उन भावोंको प्रकट करती हुई छोटी-छोटी लहरोंसे युक्त गंगाकी तरह शोभित होने लगी ॥ 25 ॥

हे मुने! इस प्रकारके भावोंसे युक्त सन्ध्याको देखकर कामसे परिपूर्ण शरीरवाला में ब्रह्मा उसकी अभिलाषा करने लगा ।। 26 ।।

हे द्विजश्रेष्ठ ! तब मरीचि, अत्रि आदि सभी मुनि तथा दक्ष प्रजापति आदि विकृत इन्द्रियोंवाले हो गये। दक्ष मरीचि आदि ऋषियों तथा मुझे और सन्ध्याको भी कामविकारसे युक्त देखकर कामदेवको अपने कार्यपर विश्वास हो गया ।। 27-28 ।।

अब कामदेवके मनमें यह विश्वास हो गया कि ब्रह्माने मुझे जिस कार्यके लिये आदेश दिया है, मैं वह कार्य करनेमें पूर्ण रूपसे सक्षम हूँ ॥ 29 ॥

[ब्रह्माजीके पुत्र] धर्मने अपने पिता तथा भाइयोंकी ऐसी दशा देखकर धर्मकी रक्षा करनेवाले भगवान् सदाशिवका स्मरण किया ॥ 30 ॥ धर्मने धर्मपालक शिवजीका मनसे स्मरणकर दीनभावनासे युक्त होकर अनेक प्रकारके वाक्योंसे उनकी इस प्रकार स्तुति की - ॥ 31 ॥

धर्म बोला- हे देवाधिदेव ! हे महादेव! हे धर्मपाल ! आपको नमस्कार है। हे शम्भो ! सृष्टि, पालन तथा विनाश करनेवाले आप ही हैं ॥ 32 ॥

हे प्रभो! आपने निर्गुण होकर भी रज, सत्त्व तथा तमोगुणसे सृष्टिकार्यके लिये ब्रह्मा, पालनके लिये विष्णु तथा प्रलयके लिये रुद्रस्वरूप धारण किया है ।। 33 ।।

[हे प्रभो!] आप शिव तीनों गुणोंसे रहित, प्रकृतिसे परे, तुरीयावस्थामें स्थित, निर्गुण, निर्विकार तथा अनेक प्रकारकी लीलाओंमें प्रवीण हैं ॥ 34 ॥हे महादेव! इस भयंकर पापसे मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये, इस समय मेरे पिता तथा मेरे भाई पापबुद्धिवाले हो गये हैं ।॥ 35 ॥

ब्रह्माजी बोले- धर्मके द्वारा परमात्मा प्रभुकी जब इस प्रकार स्तुति की गयी, तब वे आत्मभू शिव धर्मकी रक्षा करनेके लिये वहीं प्रकट हो गये ॥ 36 ॥

वे शम्भु आकाशमें स्थित होकर मुझ ब्रह्मा तथा दक्ष आदिको इस प्रकारसे मोहित देखकर मन-ही-मन हँसने लगे। हे मुनिश्रेष्ठ! उन सबको साधुवाद देकर और बार-बार हँसकर मुझे लज्जित करते हुए वे वृषभध्वज यह कहने लगे- ॥ 37-38 ॥

शिवजी बोले- हे ब्रह्मन्! अपनी कन्याको देखकर आपको कामभाव कैसे उत्पन्न हो गया? वेदोंका अनुसरण करनेवालोंके लिये यह उचित नहीं है ।। 39 ।।

बुद्धिमान्‌को चाहिये कि माता, भगिनी, भ्रातृपत्नी तथा कन्याको समान भावसे देखे। इन्हें कदापि कुदृष्टिसे न देखे ॥ 40 ॥

वेदमार्गका यह सिद्धान्त तो आपके मुखमें स्थित है। हे विधे! आपने कामके उत्पन्न होते ही उसे कैसे विस्मृत कर दिया ! ll 41 ll

हे चतुरानन! आपके मनमें धैर्य जागरूक रहना चाहिये। आश्चर्य है कि आपने इस कामके वशीभूत हो कन्यासे रमण करनेके लिये इस प्रकार अपने धैर्यको नष्ट कर दिया ॥ 42 ॥

एकान्त-योगी तथा सर्वदा सूर्यका दर्शन करनेवाले दक्ष, मरीचि आदि भी स्त्रीमें आसक्त चित्तवाले हो गये ।। 43 ।।

देश-कालका ज्ञान न रखनेवाले, मन्दात्मा तथा अल्प बुद्धिवाले कामदेवने भी अपनी प्रबलतासे कामबाणोंद्वारा आपलोगोंको विकारयुक्त कैसे बना दिया ? ॥ 44 ॥

उस पुरुषको तथा उसके वेद, शास्त्र आदिके ज्ञानको धिक्कार है, जिसके मनको स्त्री हर लेती है और धैर्य से विचलित करके मनको लोलुपतामें डुबा देती है ॥ 45 ॥

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार सदाशिवके वचनको सुनकर मैं दुगुनी लज्जामें पड़ गया, उस समय मेरा शरीर पसीनेसे पानी-पानी हो उठा ।। 46 ।।हे मुने! तत्पश्चात् कामरूपिणी सन्ध्याको ग्रहण करनेकी इच्छा करते हुए भी मैंने शिवजीके भयसे इन्द्रियोंको वशमें करके कामविकारको दूर कर दिया ।। 47 ।।

हे द्विजश्रेष्ठ! उस समय मेरे शरीरसे [लज्जाके कारण] जो पसीना गिरा, उसीसे अग्निष्वात्त तथा बर्हिषद् नामक पितृगणोंकी उत्पत्ति हुई। अंजनके समान कृष्णवर्णवाले और विकसित कमलके समान नेत्रवाले वे पितर महायोगी, पुण्यशील तथा संसारसे विमुख रहनेवाले हैं॥ 48-49 ।। हे मुने! चौंसठ हजार अग्निष्वात्त पितर और
छियासी हजार बर्हिषद् पितर कहे गये हैं ॥ 50 उसी समय दक्षके शरीरसे भी स्वेद निकलकर पृथ्वीपर गिरा, उससे समस्त गुणसम्पन्न परम मनोहर एक स्त्रीकी उत्पत्ति हुई ॥ 51 ॥

उसका शरीर सूक्ष्म था, कटिप्रदेश सम था, शरीरकी रोमावली अत्यन्त सूक्ष्म थी, उसके अंग कोमल तथा दाँत परम सुन्दर थे और वह तपे हुए सोनेके समान कान्तिसे देदीप्यमान हो रही थी ॥ 52 ॥

वह अपने शरीरके समस्त अवयवोंसे बड़ी मनोहर प्रतीत हो रही थी तथा उसका मुखकमल पूर्ण चन्द्रमाके समान था। उसका नाम रति था, जो मुनियोंके भी मनको मोहित करनेवाली थी ॥ 53 ॥

क्रतु, वसिष्ठ, पुलस्त्य तथा अंगिराको छोड़कर मरीचि आदि छः ऋषियोंने अपनी इन्द्रियोंका निग्रह कर लिया। हे मुनिश्रेष्ठ ! इन ऋतु आदि चार ऋषियोंका वीर्य पृथ्वीपर गिरा, उन्हींसे दूसरे पितृगणोंकी उत्पत्ति हुई ।। 54-55 ।।

इन पितरोंमें सोमपा, आज्यपा, सुकालिन् तथा हविष्मान् मुख्य हैं। ये सभी पुत्र कव्यको धारण करनेवाले कहे गये हैं ॥ 56 ॥

क्रतुके पुत्र सोमपा नामक पितर, वसिष्ठके पुत्र सुकालिन नामक पितर, पुलस्त्यके पुत्र आज्यपा तथा अंगिराके पुत्र हविष्मान् नामक पितरके रूपमें उत्पन्न हुए ll 57 ll

हे विप्रेन्द्र! इस प्रकार अग्निष्वात्त आदि पितरोंके उत्पन्न हो जानेपर पितरोंके मध्य वे सभी कव्यका वहन करनेवाले कव्यवाट् हुए ॥ 58 ॥इस प्रकार सन्ध्या पितरोंको उत्पन्न करनेवाली बनकर उनकी उद्देश्यसिद्धिमें लगी रहती थी। यह शिवके द्वारा देख लिये जानेके कारण दोषोंसे रहित तथा धर्म-कर्ममें परायण रहती थी ॥ 59 ॥

इसी बीच सदाशिव समस्त महर्षियोंपर अनुग्रह करके तथा विधिपूर्वक धर्मकी रक्षाकर शीघ्र ही अन्तर्धान हो गये ॥ 60 ॥ उसके बाद शम्भु सदाशिवके वाक्योंसे मैं पितामह लज्जित हुआ। मैंने अपनी भ्रुकुटि चढ़ा ली
और कामदेवपर बड़ा क्रुद्ध हुआ ।। 61 ।। हे मुने! मेरे मुखको देखकर और मेरा अभिप्राय समझकर रुद्रसे भयभीत उस कामदेवने अपने बाणोंको लौटा लिया ॥ 62 ॥

हे मुने! तब मैं पद्मयोनि ब्रह्मा कोपयुक्त होकर इस प्रकार जलने लगा, जिस प्रकार भस्म करनेकी इच्छावाली अति बलवान् अग्नि प्रज्वलित हो उठती है ll 63 ॥

[मैंने क्रोधमें भरकर उसे यह शाप दे दिया] अहंकारसे मोहित हुआ यह कन्दर्प शिवजीके प्रति दुष्कर कर्म करके उनकी नेत्राग्निसे भस्म हो जायगा ॥ 64 ll

हे द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार मुझ ब्रह्माने पितृसमूहों के तथा जितेन्द्रिय मुनियोंके सामने इस कामको यह अमित शाप दिया ॥ 65 ॥

मेरे शापको सुनकर भयभीत हुआ कामदेव उसी क्षण अपने बाणोंको त्यागकर सबके सामने प्रकट हो गया ॥ 66 ॥

हे मुने! उसका सारा गर्व नष्ट हो गया। तब वह दक्ष आदि मेरे पुत्रों [अग्निष्यादि] पितरों | सन्ध्या एवं मुझ ब्रह्माके सामने ही सबको सुनाते हुए यह कहने लगा-॥ 67 ॥

काम बोला- हे ब्रह्मन् ! आप तो न्यायमार्गका अनुसरण करनेवाले हैं, हे लोकेश ! तब मुझ निरपराधको आपने इस प्रकार दारुण शाप क्यों दे दिया ? ॥ 68 ॥

हे ब्रहान्। आपने मेरे लिये जो कहा था, मैंने तो वही कार्य किया। आपको मुझे शाप देना ठीक नहीं है; क्योंकि मैंने [आपकी आज्ञाके विरुद्ध] कोई अन्य कार्य नहीं किया है ।। 69 ।।[हे ब्रह्मन्!] मैं [ब्रह्मा], विष्णु तथा शिव ये सब भी तुम्हारे बाके वशीभूत होकर रहेंगे ऐसा जो आपने कहा था, उसीके अनुसार ही मैंने परीक्षा ली थी ll 70 ॥

अतः हे ब्रह्मन् ! इसमें मेरा अपराध नहीं है। हे देव ! हे जगत्पते यदि आपने मुझ निरपराधको यह दारुण शाप दे ही दिया, तो इसका कोई समय भी निश्चित कर दीजिये ll 71 ॥

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] तब मैं जगत्पति ब्रह्मा उसकी यह बात सुनकर चित्तको वशमें करनेवाले कामको बार-बार डाँटता हुआ इस प्रकार बोला- ॥ 72 ॥

[[हे काम!] यह सन्ध्या मेरी कन्या है, तुमने इसकी ओर सकाम करनेके लिये मुझे [अपने कामका ] लक्ष्य बनाया। इसलिये मैंने तुम्हें शाप दिया 73 ॥ हे मनोभव! अब मेरा क्रोध शान्त हो गया है, अतः मैं तुमसे कह रहा हूँ, उसे सुनो। तुम सन्देहरहित होकर सुखी हो जाओ और भय छोड़ो ।। 74 ।। हे मदन! तुम महादेवजीकी नेत्राग्निसे भस्म होकर बादमें शीघ्र ही इसीके समान शरीर प्राप्त करोगे ॥ 75ll जब शंकरजी विवाह करेंगे, तब वे अनायास ही तुम्हें शरीर प्रदान करेंगे ll 76 ll

[हे नारद!] कामसे इस प्रकार कहकर मैं लोकपितामह उन मानसपुत्र मुनिवरोंके देखते-देखते ही अन्तर्धान हो गया ॥ 77 ॥

इस प्रकार मेरे वचनको सुनकर कामदेव तथा मेरे वे सभी मानसपुत्र प्रसन्न हो गये और शीघ्रता से अपने-अपने घरोंको चले गये ॥ 78 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य