ब्रह्माजी बोले- शिवजीको मायासे मोहित होकर वह महाभिमानी तथा मोह उत्पन्न करनेवाला काम शिवजीके समीप जाकर वसन्त ऋतुके गुण धर्मको फैलाता हुआ वहाँ स्थित हो गया ॥ 1 ॥
हे मुनीश्वर ! वसन्तका जो प्रभाव है, वह महेशके तपःस्थान औषधिशिखरपर सभी ओर फैल गया ॥ 2 ॥
हे महामुने! हे मुनीश्वर ! वहाँ उसके प्रभावसे पादपोंके वन विशेषरूपसे पुष्पित हो उठे ॥ 3 ॥अशोककी वाटिकाओंमें सहकारोंके कामोटीपक तथा सुगन्धित पुष्प विराजने लगे। भौरों घरे हुए कुमुदके पुष्प विशेषरूपसे कामावेशको बढ़ानेवाले हो गये ।। 4-5 ।।
[उस समय] कोयलोंका कलरव कामको अत्यधिक उद्दीप्त करनेवाला, सुरम्य, मनोहर और अतिप्रिय हो गया ॥ 6 ॥
हे मुने! भौंरोंके अनेक प्रकारके शब्द होने लगे, जो सबके मनको हर लेनेवाले तथा काम-वासनाको उत्तेजित करनेवाले थे। चन्द्रमाकी मनोहर ज्योत्स्ना चारों ओर फैल गयी, वह कामियों तथा कामिनियोंकी दूतीके समान हो गयी। वह [ ज्योत्स्ना] मानीजनों को रति आदिके लिये प्रेरित तथा रतिकालको और भी उद्दीप्त करनेवाली थी। हे साधो! [उस समय] विरहीजनके लिये अप्रिय सुखकारी वायु बहने लगी ॥ 7-9 ॥
इस प्रकार कामावेशको बढ़ानेवाला वह वसन्तका विस्तार यहाँ वनमें रहनेवाले मुनियोंके लिये भी अत्यन्त असह्य हो गया ॥ 10 ॥
हे मुने! उस समय जड़ पदार्थोंमें भी जब कामका संचार होने लगा, तब सचेतन प्राणियोंकी कथाका किस प्रकार वर्णन किया जाय। इस प्रकार सभी प्राणियोंके लिये कामको उद्दीप्त करनेवाले उस वसन्तने अपना अत्यन्त दुस्सह प्रभाव उत्पन्न किया ।। 11-12 ॥
हे तात! तब अपनी लीलाके लिये शरीर धारण करनेवाले प्रभु शंकरने असमयमें उस वसन्तके प्रभावको देखकर इसे महान् आश्चर्य समझा ॥ 13 ॥
इसके बाद लीला करनेवाले तथा दुःखहरण करनेवाले परम संयमी प्रभु शिव परम दुष्कर तपस्या करने लगे ॥ 14 ॥
तदनन्तर वहाँ वसन्तके फैल जानेपर रतिसहित वह काम आम्रमंजरीका बाण चढ़ाकर उनके बाँयीं ओर खड़ा हो गया और प्राणियोंको मोहित करता हुआ अपना प्रभाव फैलाने लगा। उस समय रतिसहित कामको देखकर भला कौन [प्राणी] मोहित नहीं हुआ । ll 15-16 ॥
इस प्रकार उनके कामक्रीडामें प्रवृत्त हो जानेपर शृंगार भी हाव भावसे युक्त होकर अपने गणों के साथ | शिवजी के समीप पहुंचा ll 17 ॥ चितमें निवास करनेवाला कामदेव वहाँ बाहर प्रकट हो गया, उस समय वह शंकरमें कोई छिद्र नहीं देख पाया, जिससे वह प्रवेश कर सके ॥ 18 ॥ जब कामदेवने उन योगिश्रेष्ठ महादेवमें छिद्र नहीं पाया, तब वह महान् भयसे विमोहित हो गया ॥ 19 ॥
धधकती हुई ज्वालावाली अग्निके समान भालनेत्रसे युक्त ध्यानस्थ शंकरके पास जानेमें कौन समर्थ है ? 20 ॥
इसी समय पार्वती भी दो सखियोंके साथ अनेक प्रकारके पुष्प लेकर शिवकी पूजा करनेके लिये वहाँ पहुँच गयीं। लोग पृथिवीपर जिस-जिस प्रकारके महान् सौन्दर्यका वर्णन करते हैं, वह सब तथा उससे भी अधिक सौन्दर्य उन पार्वतीजीमें है । ll 21-22 ॥
उन्होंने ऋतुकालीन सुन्दर पुष्पोंको धारण किया था, उनकी सुन्दरताका वर्णन सैकड़ों वर्षोंमें भी कैसे किया जा सकता है। जिस समय वे पार्वती शिवजीके समीप पहुँचों, उस समय शिवजी क्षणभरके लिये ध्यान त्यागकर अवस्थित हो गये ।। 23-24 ॥
उस छिद्रको पाकर कामने पहले [अपने] हर्षण नामक वाणसे समीपस्थ शंकरको हर्षित कर दिया ॥ 25 ॥
हे मुने। उस समय पार्वती भी शृंगार एवं भावोंसे युक्त होकर मलयानिलके साथ [मानो] कामकी सहायता करनेके लिये शिवके सन्निकट गयी हुई थीं ॥ 26 ॥ उसी समय कामदेवने शूलधारी शिवको [पार्वतीमें] रुचि उत्पन्न करनेके लिये अपना धनुष खींचकर शीघ्र | ही बड़ी सावधानीसे उनपर पुष्प बाण छोड़ा ॥ 27 ॥ जिस प्रकार पार्वती नित्य निरन्तर शिवजीके पास आती थीं, उसी प्रकार आकर उन्हें प्रणाम करके उनकी पूजाकर वे उनके सामने खड़ी हो गयीं ॥ 28 ॥
उस समय प्रभु शंकरने स्त्रीस्वभाववश | लज्जाके कारण अपने अंगोंको ढकती हुई उन पार्वतीको वहाँ देखा ॥ 29 ॥
हे मुने! पूर्व समयमें पार्वतीको ब्रह्माके द्वारा दिये गये वरदानका भलीभाँति स्मरण करके प्रभु शिव भी प्रसन्नतापूर्वक उनके अंगोंका वर्णन करने लगे ॥ 30 ॥शिवजी बोले- यह मुख है या चन्द्रमा, ये नेत्र हैं अथवा दो कमल और ये दोनों भृकुटी हैं या | महात्मा कामदेवके धनुष, यह अधर है अथवा बिम्बफल, यह नासिका है या तोतेकी चोंच है, यह स्वर है या कोकिलकी मनोहर कूक है और यह मध्यभाग [कमर] है या वेदी है ।। 31-32 ॥
इसकी चालका क्या वर्णन किया जाय, इसके रूपका क्या वर्णन किया जाय और इसके पुष्पों तथा वस्त्रोंका भी क्या वर्णन किया जाय ! ॥ 33 ॥
सृष्टिमें जितनी उत्तम सुन्दरता है, वह एकत्रितकर इसमें रच दी गयी है। इसके सभी अंग सब प्रकारसे रमणीय हैं, इसमें सन्देह नहीं है ।। 34 ।।
अहो अद्भुत रूपवाली यह पार्वती धन्य है, तीनों लोकोंमें इसके समान सुन्दर रूपवाली कोई भी स्त्री नहीं है। अद्भुत अंगोंको धारण करनेवाली यह लावण्यको निधि है यह मुनियोंको भी मोहनेवाली और महासुखको बढ़ानेवाली है ॥ 35-36 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार बार-बार उनके अंगोंका वर्णन करके शिवजी ब्रह्माको दिये गये वरदानका स्मरणकर मौन हो गये। उस समय ज्यों ही शंकरजीने उनके वस्त्रोंका स्पर्श किया, वे पार्वती स्त्रीस्वभावके कारण लज्जित होकर कुछ दूर चली गयीं 37-38 ॥ हे मुने! अपने अंगोंको छिपाती हुई तथा तीक्ष्ण कटाक्षोंसे बार-बार [शिवजीकी ओर] देखती हुई वे शिवा महामोदके कारण मुसकराने लगीं ॥ 39 ॥
उनकी इस चेष्टाको देखकर शंकरजी मोहमें पड़ गये और तब महान् लीला करनेवाले महेश्वरने यह वचन कहा- जब इसके दर्शनमात्रसे इतना अधिक आनन्द प्राप्त हो रहा है, तब यदि मैं इसका सामीप्य प्राप्त करूँ तो कितना सुख प्राप्त होगा। इस प्रकार क्षणभर विचारकर गिरिजाको प्रशंसा करके वे महायोगी बोधयुक्त हुए और विरक्त हो बोले - ॥ 40-42 ॥
यह कैसा विचित्र चरित्र हो गया ? क्या मैं मोहको प्राप्त हो गया। प्रभु तथा ईश्वर होकर भी कामके कारण मैं विकारयुक्त हो गया। मैं ईश्वर हैं और यदि दूसरेके अंगस्पर्शकी मेरी यह इच्छा है, तो अन्य अक्षम तथा क्षुद्र पुरुष क्या-क्या [ अनर्थ] नहीं करेगा ।। 43-44 ।।इस प्रकार वैराग्यभावको प्राप्तकर उन सर्वात्माने पर्यंक एवं आसनका परित्याग कर दिया; क्योंकि क्या परमेश्वर पतित हो सकता है ! ॥ 45 ॥