ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर अनुचरोंके साथ उस कामके शिवस्थानमें पहुँच जानेपर अद्भुत चरित्र हुआ, उसे सुनिये ॥ 1॥
सभी लोगोंको मोहित करनेवाले उस महावीर कामने वहाँ पहुँचकर अपना प्रभाव फैला दिया और सभी प्राणियोंको मोहित कर लिया ॥ 2 ॥
हे मुने! वसन्तने भी महादेवजीको अपना मोहित करनेवाला प्रभाव दिखाया, जिससे समस्त वृक्ष एक साथ ही फूलोंसे लद गये। उस समय कामने रतिके साथ [शिवको मोहित करनेके लिये] अनेक यत्न किये, जिससे सभी जीव उसके वशीभूत हो गये, किंतु गणोंसहित शिवजी उसके वशमें नहीं हुए। ll 3-4 ।।
हे मुने! [इस प्रकार चेष्टा करते हुए] जब वसन्तसहित उस कामके समस्त प्रयत्न निष्फल हो गये, तब वह अहंकाररहित हो गया और लौटकर अपने स्थानपर चला गया। हे मुने! मुझ ब्रह्माको प्रणामकर उदासीन तथा अभिमानरहित वह कामदेव गद्गद वाणीसे मुझसे कहने लगा- ll 56 ll
काम बोला- हे ब्रह्मन् । शिवको मोहित नहीं। किया जा सकता; क्योंकि वे योगपरायण हैं। उन शिवको मोहित करनेकी शक्ति न मुझमें है और न अन्य किसीमें है ॥ 7 ॥हे ब्रह्मन्! मैंने मित्र वसन्त तथा रतिके साथ | उन्हें मोहित करनेके अनेक उपाय किये, किंतु शिवमें वे सभी निष्फल हो गये। हे ब्रह्मन्! हमलोग शिवजीको मोहित करनेके लिये जिन उपायोंको किया, उन विविध उपायोंको में बता रहा हूँ, हे मुने। हे तात! आप सुनिये - ॥ 8-9 ॥ जब शिवजी संयमित होकर समाधि लगाकर बैठे हुए थे, तब मैं मोहित करनेवाली वेगवान्, सुगन्धयुक्त तथा शीतल वायुसे त्रिनेत्र महादेव रुद्रको विचलित करने लगा ॥ 10-11 ॥ मैं अपने धनुष तथा पाँचों पुष्पवाणोंको लेकर उनके चारों ओर छोड़ता हुआ उनके गणको मोहित करने लगा। [ उस प्रदेशमें] मेरे प्रवेश करते ही समस्त प्राणी मोहित हो गये, किंतु गणोंसहित भगवान् शिव विकारयुक्त नहीं हुए ।। 12-13 ।।
हे विधे। जब वे प्रमथाधिपति शिव हिमालयके शिखरपर गये, तब मैं भी वसन्त और रतिके साथ वहाँ पहुँच गया ॥ 14 ॥
जब वे मेरु पर्वतपर और नागकेसर पर्वतपर गये. तो मैं वहाँ भी गया। जब वे कैलास पर्वतपर गये, तब मैं भी वहाँपर गया ॥ 15 ॥
जब वे किसी समय समाधिसे मुक्त हो गये, तो मैंने उनके सामने दो चक्र रचे। वे दोनों चक्र स्त्रीके हाव-भावयुक्त दोनों कटाक्ष थे। मैंने दाम्पत्यभावका अनुकरण करते हुए उन नीलकण्ठ महादेवके सामने नाना प्रकारके भाव उत्पन्न किये ।। 16-17 ॥
पशुओं तथा पक्षियोंने भी उनके सामने स्थित होकर गणोंसहित शिवजीको मोहित करनेके लिये मोहकारी भाव प्रदर्शित किये ॥ 18 ॥
रसोत्सुक हुए मयूरके जोड़ेने अनेक प्रकारको गतियोंका सहारा लेकर विविध प्रकारके भाव उनके आगे पीछे प्रदर्शित किये, किंतु मेरे बाणोंको कभी भी अवकाश | नहीं मिला, मैं यह सत्य कह रहा हूँ। हे लोकेश शिवजीको मोहित करनेको शक्ति मुझमें नहीं है। ll 19-20 ॥
इस वसन्तने भी उन्हें मोहित करनेके लिये जो जो उचित उपाय किये हैं, हे महाभाग! उन्हें आप सुनें, मैं सत्य सत्य कह रहा हूँ ॥ 21 ॥इस वसन्तने श्रेष्ठ चम्पक, केसर, बाल [इलायची], कटहल, गुलाब, नागकेसर, पुन्नाग, किंशुक, केतकी, मालती, मल्लिका, पर्णभार एवं कुरबक आदि पुष्पोंको जहाँ भी शिवजी बैठते थे, वहीं विकसित कर दिया ।। 22-23 ॥
इस वसन्तने शिवजीके आश्रममें तालाबके सभी फूले हुए कमलोंको मलय पवनोंसे यत्नपूर्वक अत्यन्त सुगन्धित कर दिया ॥ 24 ॥
सभी लताएँ फूलसे युक्त और अंकुर समूहके साथ सन्निकटके वृक्षोंमें बड़े प्रेमसे लिपट गयीं ॥ 25 ॥ सुगन्धित पवनोंसे खिले हुए फूलोंसे युक्त उन
वृक्षोंको देखकर मुनि भी कामके वशीभूत हो गये, फिर अन्यकी तो बात ही क्या ! ॥ 26 ॥ इतना होनेपर भी मैंने शंकरजीके मोहित होनेका न कोई लक्षण देखा, न तो उनमें कोई कामका भाव ही उत्पन्न हुआ। [ इतना सब कुछ करनेपर भी ] शंकरने मेरे ऊपर रंचमात्र भी क्रोध नहीं किया ll 27 ॥
इस प्रकार सब कुछ देखकर तथा उनकी भावनाको जानकर मैं शिवजीको मोहित करनेके प्रयाससे विरत हो गया, उसका कारण आपसे निवेदन कर रहा हूँ ॥ 28 ll
समाधि छोड़ देनेपर हमलोग उनकी दृष्टिके सामने क्षणमात्र भी टिक नहीं सकते, उन रुद्रको कौन मोहित कर सकता है ? ।। 29 ।।
हे ब्रह्मन् ! जलती हुई अग्निके समान प्रकाशित नेत्रोंवाले तथा जटा धारण करनेसे महाविकराल उन कैलासपर्वतनिवासी शिवजीको देखकर उनके सामने कौन खड़ा रह सकता है ? ॥ 30 ll
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कामके वचनको सुनकर मैं चतुरानन ब्रह्मा चिन्तामग्न हो गया और बोलनेकी इच्छा करते हुए भी कुछ बोल न सका ॥ 31 ॥
मैं कामदेव शिवको मोहित करनेमें समर्थ नहीं हूँ। हे मुने! उसका यह वचन सुनकर मैं बड़े दुःखके साथ उष्ण श्वास लेने लगा ॥ 32 ॥
उस समय मेरे निःश्वास अनेक रूपोंवाले, महाबलवान्, लपलपाती जीभवाले, चंचल तथा अत्यन्त भयंकर गणोंके रूपमें परिणत हो गये ।। 33 ।।उन गणने भेरी, मृदंग आदि अनेक प्रकारके असंख्य विकराल, महाभयंकर बाजे बजाना प्रारम्भ किया। मेरे निःश्वाससे उत्पन्न वे महागण मुझ ब्रह्माके सामने ही मारो, काटो - ऐसा बोलने लगे ॥ 34-35 ॥ मारो, काटो - ऐसा बोलनेवाले उन गणोंके शब्दोंको सुनकर वह काम मुझ ब्रह्मासे कहने लगा ॥ 36 ॥ हे मुने! हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार उस कामने मेरी आज्ञा लेकर उन सभी गणोंकी ओर देखकर उन्हें ऐसा करनेसे रोकते हुए गणोंके सामने ही मुझसे कहना प्रारम्भ किया- ॥ 37 ॥
काम बोला- हे ब्रह्मन्! हे प्रजानाथ! हे सृष्टि के प्रवर्तक ये कौन विकराल एवं भयंकर र उत्पन्न हो गये ? ॥ 38 ॥
हे विधे! ये कौन-सा कार्य करेंगे तथा कहाँ निवास करेंगे और इनका क्या नाम है ? उन्हें आप मुझे बताइये तथा इनको कार्यमें नियुक्त कीजिये ।। 39 ।।
हे देवेश! इनको अपने कार्यमें नियुक्तकर और इनके नाम रखकर तथा स्थानोंकी व्यवस्था करके यथोचित कृपा करके मुझे आज्ञा दीजिये ll 40 ll
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! उस कामकी बात सुनकर उनके कार्य आदिका निर्देश करते हुए लोककर्ता मैंने कामसे कहा- ॥ 41 ॥
हे काम ! उत्पन्न होते ही इन सबने बारंबार मारय मारय [मारो-मारो] इस प्रकारका शब्द कहा है, इसलिये इनका नाम 'मार' होना चाहिये ॥ 42 ॥ हे काम ! अपनी पूजाके बिना ये गण अनेक प्रकारकी कामनाओंमें रत मनवाले प्राणियोंके कार्यों सर्वदा विघ्न किया करेंगे ।। 43 ।।
हे कामदेव! तुम्हारे अनुकूल रहना ही इनका मुख्य कार्य होगा और ये तुम्हारी सहायतामें सदा तत्पर रहेंगे, इसमें संशय नहीं है ।। 44 ।।
जब-जब और जहाँ-जहाँ तुम अपने कार्यके लिये जाओगे, तब-तब वहाँ वहाँ ये तुम्हारी सहायता के | लिये जायेंगे ॥ 45 ॥
ये तुम्हारे असे वशक्त प्राणियोंके चित्तमें सदैव भ्रान्ति उत्पन्न करेंगे और ज्ञानियोंके ज्ञानमार्गमें विघ्न डालेंगे ॥ 46 ll ब्रह्माजी बोले- हे मुनिसत्तम। मेरे इस वचनको सुनकर रति और वसन्तसहित वह कामदेव कुछ प्रसन्नमुख हो गया ॥ 47 ॥
मेरी बातको सुनकर वे सभी गण अपने अपने स्वरूपसे मुझे तथा कामदेवको चारों ओरसे घेरकर बैठ गये। इसके बाद मुझ ब्रह्माने कामसे प्रेमपूर्वक कहा [ हे मदन!] मेरी बात मानो, तुम इन गणोंको साथ लेकर शिवको मोहित करनेके लिये पुनः जाओ ।। 48-49 ।।
अब तुम इन मारगणोंके साथ मन लगाकर ऐसा प्रयत्न करो, जिससे स्त्री ग्रहण करनेके लिये शिवजीको मोह हो जाय। हे देवर्षे! मेरी बात सुनकर काम | गौरवका ध्यान रखते हुए मुझे प्रणाम करके विनयपूर्वक मुझसे पुनः यह वचन कहने लगा- ॥ 50-51 ॥
काम बोला- हे तात! मैंने शिवको मोहित करनेके लिये भली-भाँति यत्नपूर्वक उपाय किये, किंतु उनको मोह नहीं हुआ, न आगे होगा और वर्तमानमें भी वे मोहित नहीं हैं ॥ 52 ॥
किंतु आपकी वाणीका गौरव मानकर इन मारगणोंको देखकर आपकी आज्ञासे मैं पुनः वहाँ पत्नीसहित जाऊँगा 53 ॥
हे ब्रह्मन् मैंने मनमें यह निश्चय कर लिया है कि उन्हें मोह नहीं होगा और हे विधे! मुझे यह शंका है कि [ इस बार ] कहीं वे मेरे शरीरको भस्म न कर दें ॥ 54 ॥ हे मुनीश्वर ! ऐसा कहकर वह कामदेव वसन्त, रति तथा मारगणोंको साथ लेकर भयपूर्वक शिवजीके स्थानपर गया ।। 55 ॥
[वहाँ जाकर] कामदेवने पहलेके समान ही अपना प्रभाव दिखाया तथा वसन्तने भी अनेक प्रकारकी बुद्धिका प्रयोग करते हुए बहुत उपाय किये, मारगणोंने भी वहाँ बहुत उपाय किये, किंतु परमात्मा शंकरको कुछ भी मोह न हुआ ।। 56-57 ll
तब वह कामदेव लौटकर पुनः मेरे पास आया। समस्त मारगण भी अभिमानरहित तथा उदास होकर मेरे सामने खड़े हो गये ll 58 ll
हे तात तब उदास और गर्वरहित कामदेवने मारगणों तथा वसन्तके साथ मेरे सामने खड़े होकर प्रणाम करके मुझसे कहा- ॥ 59 ॥हे विधे! मैंने शिवजीको मोहित करनेके लिये पहलेसे भी अधिक प्रयत्न किया, किंतु ध्यानरत चित्तवाले उन शिवको कुछ भी मोह नहीं हुआ ॥ 60 ॥
उन दयालुने मेरे शरीरको भस्म नहीं किया, | इसमें मेरे पूर्वजन्मका पुण्य ही कारण है। वे प्रभु सर्वथा निर्विकार हैं। हे ब्रह्मन् ! यदि आपकी ऐसी इच्छा है कि महादेवजी दारपरिग्रह करें, तो मेरे विचारसे आप गर्वरहित होकर दूसरा उपाय कीजिये ॥ 61-62॥
ब्रह्माजी बोले- ऐसा कहकर कामदेव मुझे प्रणाम करके गर्वका खण्डन करनेवाले दीनवत्सल शम्भुका स्मरण करता हुआ परिवारसहित अपने आश्रमको चला गया ॥ 63 ॥