श्रीकृष्ण बोले- हे भगवन्! मैंने आपके मुखसे शिवभक्तोंके लिये शिवद्वारा कही गयी वेदतुल्य प्रामाणिक नित्यनैमित्तिक विधिका श्रवण किया, अबमैं शिवधर्मके अधिकारियोंका जो भी काम्य कर्म है. उसे सुनना चाहता हूँ, आप इस समय उसे बतानेकी कृपा करें ॥ 1-2 ॥
उपमन्यु बोले – [ हे कृष्ण !] कुछ कर्म ऐहिक फलात्मक अर्थात् इस लोकमें फल देनेवाले हैं और कुछ आमुष्मिक फलात्मक अर्थात् परलोकमें फल देनेवाले हैं तथा कुछ ऐसे भी हैं, जो इस लोकमें और परलोकमें—दोनों ही स्थानोंपर फल देनेवाले हैं। ये कर्म पाँच प्रकारके बताये गये हैं। कुछ क्रियामय कर्म हैं, कुछ तपोमय कर्म हैं, कुछ जपमय कर्म हैं, कुछ ध्यानमय कर्म हैं तथा कुछ सर्वमय कर्म हैं। होम, दान तथा अर्चनके भेदसे क्रियामय कर्म क्रमशः [तीन प्रकारके कहे गये ] हैं, ये सब शक्तिमानोंके ही सफल होते हैं, दूसरोंके नहीं। परमात्मा महेश शिवकी आज्ञा ही शक्ति है, अतः शिवकी आज्ञासे युक्त होकर द्विजको काम्यकर्म करना चाहिये ।। 3-61/2 ॥
[ तदनन्तर शिवाश्रमसेवियोंके लिये नैमित्तिक कर्मकी विधि बताकर उपमन्युजीने कहा- यदुनन्दन !] अब मैं काम्य कर्मका वर्णन करूँगा, जो इहलोक और परलोकमें भी फल देनेवाला है। शैवों तथा माहेश्वरोंको क्रमशः भीतर और बाहर इसे करना चाहिये। जैसे शिव और महेश्वरमें यहाँ अत्यन्त भेद नहीं है, उसी प्रकार शैवों और माहेश्वरोंमें भी अधिक भेद नहीं है। जो मनुष्य शिवके आश्रित रहकर ज्ञानयज्ञमें तत्पर होते हैं, वे शैव कहलाते हैं और जो शिवाश्रित भक्त भूतलपर कर्मयज्ञमें संलग्न रहते हैं, वे महान् ईश्वरका यजन करनेके कारण माहेश्वर कहे गये हैं। इसलिये ज्ञानयोगी शैवोंको अपने भीतर [ भावनाद्वारा] कर्मका अनुष्ठान करना चाहिये और कर्मपरायण माहेश्वरोंको बाहर [विहित द्रव्यों तथा उपकरणोंद्वारा] उस [कर्मयज्ञ] का सम्पादन करना चाहिये। आगे बताये जानेवाले कर्मके प्रयोगमें उनके लिये कोई भेद नहीं है ll 7-101 / 2 ॥
गन्ध, वर्ण और रस आदिके द्वारा विधिपूर्वक भूमिकी परीक्षा करके मनोभिलषित स्थानपर आकाशमें चंदोवा तान दे और उस स्थानको भलीभाँति लीप | पोतकर दर्पणके समान स्वच्छ बना दे। तत्पश्चात् शास्त्रोक्त मार्गसे वहाँ पहले पूर्वदिशाकी कल्पना करे। उस दिशा में एक या दो हाथका मण्डल बनाये ॥ 11-13॥उस मण्डलमें सुन्दर अष्टदल कमल अंकित करे। कमलमें कर्णिका भी होनी चाहिये। यथासम्भव संचित रत्न और सुवर्ण आदिके चूर्णसे उसका निर्माण करे। वह अत्यन्त शोभायमान और पाँच आवरणोंसे युक्त हो। कमलके आठ दलोंमें पूर्वादि क्रमसे अणिमा आदि आठ सिद्धियोंकी कल्पना करे तथा उनके केसरोंमें शक्तिसहित वामदेव आदि आठ रुद्रोंको पूर्वादि दलके क्रमसे स्थापित करे। कमलकी कर्णिका में वैराग्यको स्थान दे और बीजोंमें नवशक्तियोंकी स्थापना करे ।। 14-16 ॥
कमलके कन्दमें शिवसम्बन्धी धर्म और नालमें शिवसम्बन्धी ज्ञानकी भावना करे। कर्णिकाके ऊपर अग्निमण्डल, सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डलकी भावना करे ॥ 17 ॥
इन मण्डलोंके ऊपर शिवतत्त्व, विद्यातत्त्व और आत्मतत्त्वका चिन्तन करे। सम्पूर्ण कमलासनके ऊपर सुखपूर्वक विराजमान और नाना प्रकारके विचित्र पुष्पोंसे अलंकृत, पाँच आवरणसहित भगवान् शिवका माता पार्वतीके साथ पूजन करे ।। 181 / 2 ll
उनकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिकमणिके समान उज्ज्वल है। वे सतत प्रसन्न रहते हैं। उनकी प्रभा शीतल है। मस्तकपर विद्युन्मण्डलके समान चमकीला जटारूप मुकुट उनकी शोभा बढ़ाता है। वे व्याघ्रचर्म हुए हैं। उनके मुखारविन्दपर कुछ-कुछ मन्द मुसकानकी छटा छा रही है ॥ 19-20 ॥
उनके हाथकी हथेलियाँ और पैरोंके तलवे लाल कमलके समान अरुण प्रभासे उद्भासित हैं। वे भगवान् शिव समस्त शुभलक्षणोंसे सम्पन्न और सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हैं। उनके हाथोंमें उत्तमोत्तम दिव्य आयुध शोभा पा रहे हैं और अंगोंमें दिव्य चन्दनका लेप लगा हुआ है। उनके पाँच मुख और दस भुजाएँ हैं। अर्धचन्द्र उनकी शिखाके मणि हैं ।। 21-22 ॥
उनका पूर्ववर्ती मुख प्रातः कालके सूर्यकी भाँति अरुण प्रभासे उद्भासित एवं सौम्य है। उसमें तीन नेत्ररूपी कमल खिले हुए हैं तथा सिरपर बालचन्द्रमाका मुकुट शोभा पाता है॥ 23 ॥दक्षिणमुख नील जलधरके समान श्याम प्रभासे भासित होता है। उसकी भाँहें टेढ़ी हैं। वह देखने में भयानक है। उसमें गोलाकार लाल-लाल आँखें दृष्टिगोचर होती हैं। दाढ़ोंके कारण वह मुख विकराल जान पड़ता है। उसका पराभव करना किसीके लिये भी कठिन है। उसके अधरपल्लव फड़कते रहते हैं। उत्तरवर्ती मुख मूँगेकी भाँति लाल है। काले-काले केशपाश उसकी शोभा बढ़ाते हैं। उसमें विभ्रमविलासमे युक्त तीन नेत्र हैं और उसका मस्तक अर्द्धचन्द्रमय मुकुटसे विभूषित है। भगवान् शिवका पश्चिम मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान उज्ज्वल तथा तीन नेत्रोंसे प्रकाशमान है। उसका मस्तक चन्द्रलेखाकी शोभा धारण करता है। वह मुख देखनेमें सौम्य है और मन्द मुसकानकी शोभासे उपासकोंके मनको मोहे लेता है। उनका पाँचवाँ मुख स्फटिकमणिके समान निर्मल, चन्द्रलेखासे समुज्ज्वल, अत्यन्त सौम्य तथा तीन प्रफुल्ल नेत्रकमलोंसे प्रकाशमान है । ll 24- 273 ॥
भगवान् शिव अपने दाहिने हाथोंमें शूल, परशु, वज्र, खड्ग और अग्नि धारण करके उन सबकी प्रभासे प्रकाशित होते हैं तथा बायें हाथोंमें नाग, बाण, घण्टा, पाश तथा अंकुश उनकी शोभा बढ़ाते हैं ॥ 283 ॥
पैरोंसे लेकर घुटनोंतकका भाग निवृत्तिकलासे सम्बद्ध है। उससे ऊपर नाभितकका भाग प्रतिष्ठाकलासे, कण्ठतकका भाग विद्याकलासे, ललाटतकका भाग शान्तिकलासे और उसके ऊपरका भाग शान्त्यतीताकलासे संयुक्त है । ll 29-30 ॥
इस प्रकार वे पंचाध्वव्यापी तथा साक्षात् पंचकलामय शरीरधारी हैं। ईशानमन्त्र उनका मुकुट है। तत्पुरुषमन्त्र उन पुरातनदेवका मुख है। अघोरमन्त्र हृदय है। वामदेवमन्त्र उन महेश्वरका गुह्यभाग है और | सद्योजातमन्त्र उनका युगल चरण है। उनकी मूर्ति अड़तीस कलामयी* है ॥ 31-32 ॥परमेश्वर शिवका विग्रह मातृका - (वर्णमाला-) मय, पंचब्रह्म ('ईशानः सर्वविद्यानाम्' इत्यादि पाँच मन्त्र) -मय, प्रणवमय तथा हंसशक्तिसे सम्पन्न है। इच्छाशक्ति उनके अंकमें आरूढ़ है, ज्ञानशक्ति दक्षिणभागमें है तथा क्रियाशक्ति वामभागमें विराजमान है। वे त्रितत्त्वमय हैं। अर्थात् आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व उनके स्वरूप हैं। वे सदाशिव साक्षात् विद्यामूर्ति हैं। इस प्रकार उनका ध्यान करना चाहिये ।। 33-341/2 ।।
मूलमन्त्रसे मूर्तिकी कल्पना और सकलीकरणकी क्रिया करके मूलमन्त्रसे ही यथोचित रीतिसे [क्रमशः पाद्य आदि] विशेषार्घ्यपर्यन्त पूजन करे। फिर पराशक्तिके साथ साक्षात् मूर्तिमान् शिवका पूर्वोक्त मूर्तिमें आवाहन करके सदसद्व्यक्तिरहित परमेश्वर महादेवका गन्धादि पंचोपचारोंसे पूजन करे ।। 35-37 ॥
पाँच ब्रह्ममन्त्रोंसे, छः अंगमन्त्रोंसे, मातृकामन्त्रसे, प्रणवसे, शक्तियुक्त शिव-मन्त्रसे, शान्त तथा अन्य वेदमन्त्रोंसे अथवा केवल शिवमन्त्रसे उन परम देवका पूजन करे। पाद्यसे लेकर मुखशुद्धिपर्यन्त पूजन सम्पन्न करके इष्टदेवका विसर्जन किये बिना ही क्रमश: पाँच आवरणोंकी पूजा आरम्भ करे ॥ 38-40 ॥