सनत्कुमार बोले- हे व्यासजी ! अब आप प्रेमपूर्वक शिवजीके उस चरित्रको सुनिये, जिस प्रकार उन्होंने संकेतद्वारा दैत्यको बताकर अपनी प्रियासे उस दैत्यका वध कराया था। पूर्व समयमें विदल तथा उत्पल नामक दो महाबली दैत्य थे। वे दोनों ही ब्रह्माजीके वरसे मनुष्योंसे वध न होनेका वर पाकर बड़े पराक्रमी तथा अभिमानी हो गये थे । हे ब्रह्मन् ! उन दैत्योंने अपनी भुजाओंके बलसे तीनों लोकोंको तृणवत् कर दिया तथा संग्राममें सम्पूर्ण देवताओंको जीत लिया ॥ 1-3 ॥
उन दैत्योंसे पराजित हुए सब देवता ब्रह्माजीकी शरणमें गये और आदरसे उनको विधिपूर्वक प्रणामकर उन्होंने [दैत्योंके उपद्रवको] कहा ॥ 4 ll
तब ब्रह्माजीने उनसे यह कहा कि ये दोनों दैत्य निश्चय ही पार्वतीजीद्वारा मारे जायेंगे। आप सब पार्वतीसहित शिवजीका भलीभाँति स्मरण करके धैर्य धारण कीजिये ॥ 5 ॥
देवीसहित भक्तवत्सल तथा कल्याण करनेवाले वे परमेश्वर बहुत शीघ्र ही आपलोगोंका कल्याण करेंगे ॥ 6 ॥सनत्कुमार बोले- तब देवताओंसे ऐसा कहकर वे ब्रह्माजी शिवका स्मरण करके मौन हो गये और वे देवता भी प्रसन्न होकर अपने-अपने लोकको चले गये ॥ 7 ॥
तत्पश्चात् शिवजीकी प्रेरणासे देवर्षि नारदजीने उनके घर जाकर पार्वतीकी सुन्दरताका वर्णन किया ॥ 8 ॥
तब नारदजीका वचन सुनकर मायासे मोहित, विषयोंसे पीड़ित तथा पार्वतीका हरण करनेकी इच्छावाले उन दोनों दैत्योंने मनमें विचार किया कि प्रारब्धके उदय होनेके कारण हम दोनोंको वह पार्वती कब और कहाँ मिलेगी ॥ 9-10 ॥
किसी समय शिवजी अपनी लीलासे बिहार कर रहे थे, उसी समय पार्वती भी कौतुकसे अपनी सखियोंके साथ प्रीतिपूर्वक शिवजीके समीप कन्दुक क्रीडा करने लगीं ॥। 11-12 ॥
ऊपरको गेंद फेंकती हुई, अपने अंगोंकी लघुताका विस्तार करती हुई, श्वासकी सुगन्धसे प्रसन्न हुए भौरोंसे घिरनेके कारण चंचल नेत्रवाली, केशपाशसे माला टूट जानेके कारण अपने रूपको प्रकट करनेवाली, पसीना आनेसे उसके कणोंसे कपोलोंकी पत्ररचनासे शोभित, प्रकाशमान चोलांशुक (कुर्ती) के मार्गसे निकलती हुई अंगकी कान्तिसे व्याप्त, शोभायमान गेंदको ताड़न करनेसे लाल हुए करकमलोंवाली और गेंदके पीछे दृष्टि देनेसे कम्पायमान भौंहरूपी लताके अंचलवाली जगत्की माता पार्वती खेलती हुई दिखायी दीं ॥ 13-16॥
आकाशमें विचरते हुए उन दोनों दैत्योंने कटाक्षोंसे देखा, मानो उपस्थित मृत्युने ही दोनोंको गोदमें ले लिया हो। ब्रह्माजीके वरदानसे गर्वित विदल और उत्पल नामक दोनों दैत्य अपनी भुजाओंके बलसे तीनों लोकोंको तृणके समान समझते थे ॥ 17-18 ॥
कामदेवके बाणोंसे पीड़ित हुए दोनों दैत्य उन देवी पार्वतीके हरणकी इच्छासे शीघ्र ही शाम्बरी माया करके आकाशसे उतरे। अति दुराचारी तथा अति चंचल मनवाले वे दोनों दैत्य मायासे गणोंका | रूप धारणकर पार्वती के समीप आये ॥ 19-20 ॥तभी दुष्टोंका नाश करनेवाले शिवजीने क्षणमात्रमें चंचल नेत्रोंसे उन दोनोंको जान लिया। सर्वस्वरूपी महादेवने संकटको दूर करनेवाली पार्वतीकी ओर देखा, उन्होंने समझ लिया कि ये दोनों दैत्य हैं, गण नहीं हैं ।। 21-22 ।।
उस समय पार्वतीजी महाकौतुकी तथा कल्याणकारी परमेश्वर अपने पति शिवके नेत्र संकेतको समझ गयीं ॥ 23 ॥
उस नेत्रसंकेतको जानकर शिवजीकी अर्धांगिनी पार्वतीने सहसा उसी गेंदसे उन दोनोंपर एक साथ प्रहार कर दिया। तब महादेवी पार्वतीके गेंदसे प्रताड़ित हुए महाबलवान् वे दोनों दुष्ट घूम-घूमकर उसी प्रकार गिर पड़े, जिस प्रकार वायुके वेगसे ताड़के वृक्षके गुच्छेसे पके हुए फल तथा वज्रके प्रहारसे सुमेरु पर्वतके शिखर गिर जाते हैं ।। 24-26 ॥
कुत्सित कर्ममें प्रवृत्त हुए उन दैत्योंको मारकर वह गेंद लिंगस्वरूपको प्राप्त हुआ ॥ 27 ॥ उसी समयसे वह लिंग कन्दुकेश्वर नामसे प्रसिद्ध हो गया। सभी दोषोंका निवारण करनेवाला वह लिंग ज्येष्ठेश्वरके समीप है ॥ 28 ॥
इसी समय शिवको प्रकट हुआ जानकर विष्णु, ब्रह्मा आदि सब देवता तथा ऋषिगण वहाँ आये ॥ 29 ll
इसके बाद सम्पूर्ण देवता तथा काशीनिवासी शिवजीसे वरोंको पाकर उनकी आज्ञासे अपने स्थानको चले गये। पार्वतीसहित महादेवको देखकर उन्होंने अंजलि बाँधकर प्रणामकर भक्ति और आदरपूर्वक मनोहर वाणीसे उनकी स्तुति की।। 30-31 ll
हे व्यासजी उत्तम विहारको जाननेवाले भक्तवत्सल शिवजी पार्वतीके साथ क्रीड़ा करके प्रसन्न होकर गणोंसहित अपने लोकको चले गये ॥ 32 ॥
काशीपुरीमें कन्दुकेश्वर नामक लिंग दुष्टोंको नष्ट करनेवाला, भोग और मोक्षको देनेवाला तथा निरन्तर सत्पुरुषोंकी कामनाको पूर्ण करनेवाला है ॥ 33 ॥
जो मनुष्य इस अद्भुत चरित्रको प्रसन्न होकर सुनता या सुनाता है, पढ़ता या पढ़ाता है, उसको दुःख और भय नहीं होता है। वह इस लोकमें सब प्रकारके उत्तम सुखोंको भोगकर परलोकमें देवगणोंके लिये भी दुर्लभ दिव्य गतिको प्राप्त करता है ॥ 34-35 ॥हे तात! भक्तोंपर कृपालुताका सूचक, सज्जनोंका कल्याण करनेवाला तथा परम अद्भुत शिव-पार्वतीका यह चरित्र मैंने आपसे कहा ॥ 36 ॥
ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] इस प्रकार शिवजी के चरित्रका वर्णनकर, उन व्यासजीसे अनुजा लेकर और उनसे वन्दित होकर मेरे श्रेष्ठ पुत्र सनत्कुमार आकाशमार्गसे शीघ्र ही काशीको चले गये ॥ 37 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! रुद्रसंहिताके अन्तर्गत सब कामनाओं और सिद्धियोंको पूर्ण करनेवाले इस युद्धखण्डका वर्णन मैंने आपसे किया शिवको अत्यन्त सन्तुष्ट करनेवाली तथा भुक्ति-मुक्तिको देनेवाली इस सम्पूर्ण रुद्रसंहिताका वर्णन मैंने आपसे किया ।। 38-39 ।।
जो मनुष्य शत्रुबाधाका निवारण करनेवाली इस रुद्रसंहिताको नित्य पढ़ता है, वह सम्पूर्ण मनोरथोंको प्राप्त करता है और उसके बाद मुक्तिको प्राप्त कर लेता है ॥ 40 ll
सूतजी बोले- इस प्रकार ब्रह्माके पुत्र नारदजी अपने पितासे शिवजीके परम यश तथा शिवके शतनामोंको सुनकर कृतार्थ एवं शिवानुगामी हो गये ॥ 41 ॥
मैंने यह ब्रह्मा और नारदजीका सम्पूर्ण संवाद आपसे कहा शिवजी सम्पूर्ण देवताओंमें प्रधान हैं, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ॥ 42 ॥