ब्रह्माजी बोले- पहले पाद्यकल्पकी बात है मुझ ब्रह्माके मानसपुत्र पुलस्त्यसे विश्रवाका जन्म हुआ और विश्रवाके पुत्र वैश्रवण कुबेर हुए ॥ 1 ॥ उन्होंने पूर्वकालमें अत्यन्त उग्र तपस्याके द्वारा त्रिनेत्रधारी महादेवकी आराधना करके विश्वकर्माकी बनायी हुई इस अलकापुरीका उपभोग किया॥ 2॥
उस कल्पके व्यतीत हो जानेपर मेघवाहनकल्प आरम्भ हुआ, उस समय वह यज्ञदत्तका पुत्र [कुबेरके रूपमें] अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगा ॥ 3 ॥
दीपदानमात्रसे मिलनेवाली शिवभक्तिके प्रभावको जानकर शिवकी चित्प्रकाशिका काशिकापुरीमें जाकर अपने चित्तरूपी रत्नमय दीपकोंसे ग्यारह रुद्रोंको उद्बोधित करके अनन्य भक्ति एवं स्नेहसे सम्पन्न हो वह तन्मयतापूर्वक शिवके ध्यानमें मग्न होकर निश्चलभावसे बैठ गया ।। 4-5 ।।
जो शिवसे एकताका महान् पात्र है, तपरूपी अग्निसे बढ़ा हुआ है, काम-क्रोधादि महाविघ्नरूपी पतंगोंके आघातसे शून्य है, प्राणनिरोधरूपी वायुशून्य स्थानमें निश्चलभावसे प्रकाशित है, निर्मल दृष्टिके कारण स्वरूपसे भी निर्मल है तथा सद्भावरूपी पुष्पोंसे पूजित है-ऐसे शिवलिंगकी प्रतिष्ठा करके वह तबतक तपस्यामें लगा रहा, जबतक उसके शरीरमें केवल अस्थि और चर्ममात्र ही अवशिष्ट नहीं रह गये। इस प्रकार उसने दस हजार वर्षोंतक तपस्या की ।। 6-8 ॥तदनन्तर विशालाक्षी पार्वतीदेवीके साथ भगवान् विश्वनाथ स्वयं प्रसन्नमनसे अलकापुरीके स्वामीको देखकर, जो शिवलिंगमें मनको एकाग्र करके ठूंठे वृक्षकी भाँति स्थिरभावसे बैठे थे, बोले- हे अलकापते। मैं वर देनेके लिये उद्यत हूँ, तुम अपने मनकी बात कहो -ll 9-10 ॥
उन तपोनिधिने जब अपने नेत्रोंको खोलकर देखा, तो उन्हें उदित हो रहे हजार किरणोंवाले हजार सूर्योंसे भी अधिक तेजस्वी श्रीकण्ठ उमावल्लभ भगवान् चन्द्रशेखर अपने सामने दिखायी दिये। उनके तेजसे प्रतिहत हुए तेजवाले कुबेर चौंधिया गये और अपनी आँखोंको बन्द करके वे मनके लिये अगोचर देवेश्वर भगवान् शंकरसे कहने लगे कि हे नाथ! अपने चरणोंको देखनेके लिये मुझे दृष्टिसामर्थ्य प्रदान करें। हे नाथ! यही वर चाहता हूँ कि मैं आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त कर सकूँ। हे ईश! अन्य वरसे क्या लाभ है ? हे शशिशेखर ! आपको प्रणाम है ॥ 11-14 ॥ उनकी यह बात सुनकर देवाधिदेव उमापतिने अपनी हथेलीसे उनका स्पर्श करके उन्हें अपने दर्शनकी शक्ति प्रदान की ।। 15 ।।
देखनेकी शक्ति मिल जानेपर दलके उस पुत्रने आँखें खोलकर पहले उमाकी ओर ही देखना आरम्भ किया ॥ 16 ll
वह मन-ही-मन सोचने लगा, भगवान् शंकरके समीप यह सर्वासुन्दरी स्त्री कौन है? इसने मेरे तपसे भी अधिक कौन-सा तप किया है 17 यह रूप, यह प्रेम, यह सौभाग्य और यह असीम शोभा - सभी अद्भुत हैं, वह ब्राह्मणकुमार बार-बार यही कहने लगा ।। 18 ।।
बार-बार यही कहता हुआ जब वह क्रूरदृष्टिसे उनकी ओर देखने लगा, तब पार्वतीके अवलोकनसे उसकी बाँयीं आँख फूट गयी ॥ 19 ॥
तदनन्तर देवी पार्वतीने महादेवजीसे कहा [ हे प्रभो!] यह दुष्ट तपस्वी बार-बार मेरी ओर देखकर क्या बोल रहा है? आप मेरी तपस्याके प्रकट कीजिये ll 20 ॥यह पुनः अपने दाहिने नेत्रसे बार बार मुझे देख रहा है, निश्चित ही यह मेरे रूप, प्रेम और सौन्दर्यकी सम्पदासे ईर्ष्या करनेवाला है ॥ 21 ॥
देवीकी यह बात सुनकर भगवान् शिवने हँसते हुए उनसे कहा- हे उमे! यह तुम्हारा पुत्र है, यह तुम्हें क्रूरदृष्टिसे नहीं देख रहा है, अपितु तुम्हारी तपः सम्पत्तिका वर्णन कर रहा है ।। 22 ।।
देवीसे ऐसा कहकर भगवान् शिव पुनः उस [ब्राह्मणकुमार] से बोले हे वत्स! मैं तुम्हारी इस तपस्यासे सन्तुष्ट होकर तुम्हें वर देता हूँ। तुम निधियोंके स्वामी और गुह्यकोंके राजा हो जाओ ।। 23-24 ॥
हे सुव्रत! तुम यक्ष, किन्नरों और राजाओंके भी राजा, पुण्यजनोंके पालक और सबके लिये धनके दाता हो जाओ ॥ 25 ॥
मेरे साथ सदा तुम्हारी मैत्री बनी रहेगी और हे मित्र! तुम्हारी प्रीति बढ़ानेके लिये मैं अलकाके पास ही रहूँगा नित्य तुम्हारे निकट निवास करूंगा। हे महाभक्त यज्ञदत्त कुमार आओ, इन उमादेवीके चरणोंमें प्रसन्न मनसे प्रणाम करो ये तुम्हारी माता हैं ॥ 26-27 ।।
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] इस प्रकार वर | देकर भगवान् शिवने देवी पार्वतीसे पुन: कहा है देवेश्वरि तपस्विनि पुत्रपर कृपा करो। यह तुम्हारा है पुत्र है ।। 28 ।।
भगवान् शंकरका यह कथन सुनकर जगदम्बा पार्वती अति प्रसन्नचित्तसे उस यज्ञदत्तकुमारसे कहने लगीं - ॥ 29 ॥
देवी बोलीं- हे वत्स! भगवान् शिवमें तुम्हारी सदा निर्मल भक्ति बनी रहे। तुम्हारी ब आँख तो फूट ही गयी। इसलिये एक ही पिंगल नेत्र युक्त रहो। महादेवजीने तुम्हें जो वर दिये हैं, वे सब उसी रूपमें तुम्हें सुलभ हों। हे पुत्र ! मेरे रूपके प्रति ईर्ष्या करनेके कारण तुम कुबेर नामसे प्रसिद्ध होओ ।। 30-31 ॥
इस प्रकार कुबेरको वर देकर पार्वती देवीके साथ अपने वैश्वेश्वर नामक धाममें चले गये ॥ 32 ॥इस तरह कुबेरने भगवान् शंकरकी मैत्री प्राप्त की और अलकापुरीके पास जो कैलास पर्वत है, वह भगवान् शंकरका निवास हो गया ॥ 33 ॥