ब्रह्माजी बोले- हे नारद! वहाँपर रहकर कार्तिकेयने अपनी भक्ति देनेवाली जो बाललीला की, उस लीलाको आप प्रेमपूर्वक सुनिये। उस समय नारद नामक एक ब्राह्मण, जो यज्ञ कर रहा था, कार्तिकेयकी शरणमें आया ॥ 1-2 ॥
वह प्रसन्नमन ब्राह्मण कार्तिकेयके पास आकर उन्हें प्रणाम करके और सुन्दर स्तोत्रोंसे स्तुतिकर अपना अभिप्राय निवेदन करने लगा ॥ 3 ॥
ब्राह्मण बोला हे स्वामिन्! आप समस्त - ब्रह्माण्डके अधिपति हैं, अतः मैं आपकी शरण में आया हूँ; आप मेरा वचन सुनिये और आज मेरा कष्ट दूर कीजिये ॥ 4 ॥
मैंने अजमेधयज्ञ करना प्रारम्भ किया था, किंतु वह अज अपना बन्धन तोड़कर मेरे घरसे भाग गया ॥ 5 ॥
वह न जाने कहाँ चला गया, मैंने उसे बहुत खोजा, किंतु वह प्राप्त न हो सका। वह बड़ा बलवान् है। अतः अब तो मेरा यज्ञ भंग हो जायगा ॥ 6 ॥
हे विभो। आप जैसे स्वामीके रहते मेरे यज्ञका विनाश किस प्रकार हो सकता है, इसलिये हे अखिलेश्वर इस प्रकारसे विचारकर मेरी कामना पूर्ण कीजिये ॥ 7 ॥
हे प्रभो! हे शिवपुत्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके स्वामी और समस्त देवताओंसे सेवित होनेवाले आपको छोड़कर अब मैं किसकी शरणमें जाऊँ ॥ 8 ॥
आप दीनबन्धु, दयासागर, भक्तवत्सल तथा सब प्रकारसे सेवाके योग्य हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा समस्त देवगण आप परमेश्वरकी स्तुति करते हैं॥ 9 ॥
आप पार्वतीको आनन्दित करनेवाले, स्कन्द नामवाले, परम, अद्वितीय, परंतर, परमात्मा, आत्मज्ञान देनेवाले तथा शरणकी इच्छा रखनेवाले सज्जनोंके स्वामी हैं ॥ 10 llहे दीनानाथ ! हे महेश! हे शंकरसुत! हे त्रैलोक्यनाथ हे प्रभो हे मायाधीश हे ब्राह्मणप्रिय मैं आपकी शरणमें आया हूँ, मेरी रक्षा कीजिये। आप सबके स्वामी हैं। ब्रह्मादि सभी देवता आपको प्रणामकर आपकी स्तुति करते हैं। आप मायासे शरीर धारण करनेवाले, अपने भक्तोंको सुख देनेवाले, सबकी रक्षा करनेवाले तथा मायाको वशमें रखनेवाले हैं ॥ 11 ॥
आप भक्तोंके प्राण, गुणोंके आगार, तीनों गुणोंसे भिन्न, शिवप्रिय, शिवस्वरूप, शिवके पुत्र, प्रसन्न, सुखदायक, सच्चित्स्वरूप, महान, सर्वज त्रिपुरका विनाश करनेवाले, श्रीशिवजीके पुत्र, सदा सत्प्रेमके वशमें रहनेवाले, छः मुखवाले, साधुओंके प्रिय प्रणतजनपालक, सर्वेश्वर तथा सबके कल्याणकारी हैं। आप साधुओंसे द्रोह करनेवालोंके विनाशक, शिवको गुरु माननेवाले, ब्रह्माण्डके अधिपति, सर्वसमर्थ और सभी देवताओंसे सेवित चरणवाले हैं। हे सेवाप्रिय ! मेरी रक्षा कीजिये हे वैरियोंके लिये भयंकर तथा भक्तोंका कल्याण करनेवाले! लोगोंके शरणस्वरूप तथा सुखकारी आपके चरणकमलमें मैं प्रणाम करता हूँ। हे स्कन्द ! मेरी प्रार्थनाको सुनिये और मेरे चित्तमें अपनी भक्ति प्रदान कीजिये ll 12-13 ॥
जिसके पक्षमें होकर आप उभय पार्श्वमें रक्षा करते हैं, उसका अत्यन्त बलवान् तथा दक्ष शत्रु भी क्या कर सकता है! दक्षलोगोंसे माननीय आप जिसके रक्षक हैं, उसका तक्षक अथवा आमिषभक्षक क्या कर सकता है ! ॥ 14 ॥
देवगुरु बृहस्पति भी आपकी स्तुति करनेमें समर्थ नहीं हैं, फिर आप ही बतलाइये कि अत्यन्त मन्दबुद्धि मैं आप परम पूज्यकी किस प्रकार स्तुति प्रशंसा एवं पूजा करूँ। हे स्कन्द मैं पवित्र, अपवित्र, अनार्य चाहे कुछ भी है, आपके चरणकमलोंके परागके लिये प्रार्थना करता हूँ ॥ 15 ॥हे सर्वेश्वर हे भक्तवत्सल हे कृपासिन्धो में आपका सेवक हूँ, हे सत्प्रभो! आप गणोंके पति हैं, अतः अपने सेवकके अपराधपर ध्यान न दें। हे विभो ! मैंने कभी भी आपको थोड़ी भी भक्ति नहीं की है. यह आप जानते हैं। हे भगवन्। आपसे बढ़कर कोई | अपने भोंकी रक्षा करनेवाला नहीं है और मुझसे बढ़कर कोई पामर जन नहीं है ॥ 16 ॥
आप कल्याण करनेवाले, कलिके पापको नष्ट करने वाले, कुबेरके बन्धु करुणाई चित्तवाले, अठारह नेत्र तथा छः मुखवाले हैं। हे गुह आप मेरे यज्ञको पूर्ण कीजिये ॥ 17 ॥
आप त्रिलोकीके रक्षक, शरणागतोंसे प्रेम करनेवाले, यज्ञके कर्ता, यज्ञके पालक और विघ्नकारियोंका वध करनेवाले हैं साधुजनोंके विघ्नको दूर करनेवाले और सब प्रकारसे सृष्टि करनेवाले हे महेश्वरपुत्र ! मेरे यज्ञको पूर्ण कीजिये; आपको नमस्कार है ॥ 18-19 ।।
हे स्कन्द! आप सबके रक्षक तथा सब कुछ जाननेवाले हैं। आप सर्वेश्वर, सबके शासक, सबके एकमात्र स्थान और सबका पालन करनेवाले हैं ॥ 20 ॥
आप संगीतज्ञ, वेदवेत्ता, परमेश्वर, सबको स्थिति प्रदान करनेवाले, विधाता, देवदेव तथा सज्जनोंकी एकमात्र गति हैं। आप भवानीनन्दन, शम्भुपुत्र, ज्ञानके स्वरूप, स्वराट्, ध्याता, ध्येय, पितरोंके पिता तथा महात्माओंके मूल कारण हैं ॥ 21-22 ॥
ब्रह्माजी बोले- शिवजीके पुत्र देवसम्राट् कार्तिकेयने उस ब्राह्मणका वचन सुनकर वीरबाहु नामक अपने गणको उसे (यज्ञके बकरेको) खोजने के लिये भेजा ॥ 23 ॥
उनकी आज्ञासे महावीर वीरबाहु भक्तिपूर्वक अपने स्वामीको प्रणामकर उसे खोजनेके लिये शीघ्र ही चल पड़ा। उसने सारे ब्रह्माण्डमें उस बकरेकी खोज की, परंतु उसे कहीं नहीं पाया, केवल लोगों से उसके उपद्रवका समाचार सुना। तब वह वैकुण्ठ में गया और वहाँ उस महाबलवान् अजको उसने देखा, जो अपने गलेमें यज्ञके यूपको बाँधे हुए उपद्रव कर रहा था ।। 24-26 ॥वीरबाहु बड़े वेगके साथ उसकी दोनों सींगें पकड़कर एवं पटककर ऊँचे स्वरसे चिल्लाते हुए उस अजको अपने स्वामीके पास ले लाया ॥ 27 ॥
उसको देखते ही सृष्टिकर्ता प्रभु कार्तिकेय समस्त ब्रह्माण्डका भार धारणकर उसके ऊपर आरूढ़ हो गये ॥ 28 ॥
हे मुने! वह अज बिना विश्राम किये ही क्षणमात्रमें सारा ब्रह्माण्ड घूमकर फिर वहीं आ गया ॥ 29 ॥
तब कार्तिकेय उससे उतरकर अपने आसनपर बैठ गये और वह अज वहीं खड़ा रहा। तब वह नारद [ब्राह्मण] कार्तिकेयसे कहने लगा- ॥ 30 ॥
नारद बोला- हे देवदेवेश! आपको प्रणाम है। हे कृपानिधे! अब आप मेरे इस अजको मुझे प्रदान कीजिये, जिससे मैं आनन्दपूर्वक यज्ञ करूँ; आप मुझसे मित्रभाव रखिये ॥ 31 ॥
कार्तिकेय बोले- हे ब्राह्मण! यह अज वधके योग्य नहीं है। हे नारद! अब आप अपने घर जाइये, आपका सम्पूर्ण यज्ञ मेरी कृपासे पूर्ण हो गया ॥ 32 ॥ ब्रह्माजी बोले-कार्तिकेयके इस वचनको सुनकर प्रसन्नचित्त वह ब्राह्मण कार्तिकेयको उत्तम आशीर्वाद देकर अपने घर चला गया ॥ 33 ॥