चन्दना करनेसे जिनका मन प्रसन्न हो जाता है, जिन्हें प्रेम अत्यन्त प्रिय है, जो सबको प्रेम प्रदान करनेवाले हैं, स्वयं पूर्ण हैं, दूसरोंकी अभिलाषाको भी पूर्ण करते हैं, सम्पूर्ण संसिद्ध ऐश्वर्यके एकमात्र स्थान हैं, स्वयं सत्यस्वरूप हैं, सत्यमय हैं, जिनका सत्तात्मक ऐश्वर्य त्रिकालाबाधित है, जो सत्यप्रिय एवं सबको सत्य प्रदान करनेवाले हैं, ब्रह्मा-विष्णु जिनकी वन्दना करते हैं और जो अपनी कृपासे ही विग्रह धारण करते हैं-ऐसे नित्य शिवकी हम वन्दना करते हैं॥ 1 ॥
नारदजी बोले - हे ब्रह्मन्! लोककल्याणकारी शंकरने पार्वतीसे विवाह करनेके पश्चात् कैलास जाकर क्या किया, उस वृत्तान्तको हमें सुनाइये ॥ 2 ॥
जिस पुत्रके निमित्त आत्माराम होते हुए भी उन्होंने पार्वतीसे विवाह किया, उन परमात्मा शिवको किस प्रकार पुत्र उत्पन्न हुआ ? देवताओंका कल्याण करनेवाले हे ब्रह्मन् ! तारकासुरका वध किस प्रकार हुआ ? मेरे ऊपर कृपाकर यह सारी बात विस्तारसे कहिये ।। 3-4 ll
सूतजी बोले- नारदके इस प्रकारके वचनको सुनकर प्रजापति ब्रह्माजीने शिवजीका स्मरणकर प्रसन्न मनसे कहा- ॥ 5 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे नारद! चन्द्रशेखर भगवान् शिवजीके चरित्रको बताता है आप सुनें, मैं कार्तिकेयकी उत्पत्तिकी दिव्य कथा तथा उनके द्वारा किये गये तारकासुरके वधका वृत्तान्त भी कहता हूँ ॥ 6 ll
मैं जिस कथाको कह रहा हूँ, उसे सुनिये, वह कथा समस्त पापको विनष्ट करनेवाली है, जिसे सुनकर निश्चय ही मनुष्य सभी प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 7 ॥यह आख्यान पापरहित, गोपनीय, परम अद्भुत, पाप-सन्तापको दूर करनेवाला तथा सभी प्रकारके विघ्नोंको विनष्ट करनेवाला है। यह सभी प्रकारके मंगलोंका दाता, पुराणोंका सारभूत अंश तथा सबके कानों को सुख प्रदान करनेवाला, आनन्दको बढ़ानेवाला मोक्षका बीज और कर्ममूलका विनाश करनेवाला है ।। 8-9 ।।
शिवजी शिवासे विवाहकर कैलासपर आकर अत्यन्त शोभित हुए और देवगणोंके कार्यसाधनका विचार करने लगे। उन्होंने तारकासुरके द्वारा दी गयी अपने भक्तजनोंको पीड़ाके विषयमें भी विचार किया ॥ 10 ॥
इधर शिवजी जब कैलासपर पहुँचे, तब उनके गण प्रसन्न होकर उनको नानाविध सुख प्रदान करने लगे ॥ 11 ॥
शिवजीके कैलास पहुँचते ही महान् उत्सव होने लगा। सब देवगण प्रसन्नमन होकर अपने अपने स्थानको चले गये। इसके बाद महादेव सदाशिव गिरिकन्या शिवाको साथ लेकर महादिव्य, मनोहर एवं निर्जन स्थानमें चले गये। वहाँ उन्होंने रतिको बढ़ानेवाली शय्याका निर्माणकर उसे पुष्प तथा चन्दनसे सुशोभित किया। उस अद्भुत मनोहर शय्याके समीप नाना प्रकारकी भोगसामग्री भी स्थापित कर दी ॥ 12-14 ॥
उसी शय्यापर मान देनेवाले भगवान् शम्भु पार्वती के साथ देवताओंके वर्षपरिमाणके अनुसार एक हजार वर्षतक बिहार करते रहे। भगवती पार्वतीके अंगके स्पर्शमात्रसे भगवान् सदाशिव लोलापूर्वक मूच्छित हो गये। भगवती पार्वती भी भगवान् शिवके स्पर्शसे मूर्च्छित हो गयीं। इस प्रकार उन्हें दिन-रातका ज्ञान नहीं रहा ।। 15-16 ॥
हे अनप! लोकधर्मका प्रवर्तन करनेवाले शिवजीके भोगमें प्रवृत्त होनेपर उन दोनोंका लम्बा समय भी क्षणमात्रके समान बीत गया ॥ 17 ॥
हे तात! तब एक समय इन्द्रादि सब देवता मेरु पर्वतपर एकत्र होकर विचार करने लगे ॥ 18 ॥
देवता बोले- यद्यपि शिव योगीश्वर निर्विकार आत्माराम तथा मायारहित हैं, फिर भी हमलोगोंके कल्याणके लिये भगवान् शंकरने विवाह किया है ll 19 ॥किंतु अबतक इनको कोई पुत्र नहीं हुआ, इसका कारण ज्ञात नहीं हो रहा है। वे भगवान् देवेश्वर विलम्ब क्यों कर रहे हैं ? ll 20 ll
ब्रह्माजी बोले- इसी बीच देवदर्शन नारदसे देवताओंने शिवा और शिवके परिमित भोगकालको जाना ।। 21 ।। तब उनके भोगकालको दीर्घकालीन जानकर देवता बड़े चिन्तित हुए, फिर मुझ ब्रह्माको आगे करके वे विष्णुके समीप गये 22 ॥ मैंने नारायणको प्रणामकर सारा अभीष्ट वृत्तान्त उनसे निवेदित किया। देवतालोग तो चित्रलिखित पुत्तलिकाके समान खड़े रहे ll 23 ll
[हे नारायण!] योगीश्वर शंकरजी देवताओंके वर्षके परिमाणके अनुसार एक हजार वर्षपर्यन्त विहारपरायण हैं ॥ 24 ॥
भगवान् विष्णु बोले- हे जगत्के विधाता ! चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं है। सब कुछ कल्याणकारी ही होगा। हे देवेश! आप महाप्रभु शंकरकी शरणमें जाइये ।। 25 ।।
जो मनुष्य प्रसन्न मनसे शंकरकी शरण में जाते हैं; हे प्रजापते! शंकरके उन अनन्य भक्तोंको कहाँसे कोई भय नहीं होता हे विधे उनके श्रृंगारका रसभंग समयसे होगा, अभी नहीं जो कार्य ठीक समयमें किया जाता है, वही सफल होता है, अन्यथा नहीं ll 26-27 ।।
भगवान् शंकरके अभीष्टको भग्न करनेमें कौन समर्थ है ? हजार वर्ष पूर्ण होनेपर वे स्वयं निवृत्त हो जायेंगे ॥ 28 ॥
जो रतिको भंग करता है, उसे जन्म-जन्मान्तरमें स्त्री तथा पुत्रसे वियोग प्राप्त होता है। उस भेदकर्ता पुरुषका ज्ञान नष्ट हो जाता है, कीर्ति नष्ट हो जाती है और वह दरिद्र हो जाता है। अन्तमें वह एक लाख वर्षतक कालसूत्र नामक नरकमें रहता है ll 29-30 ॥
इसी कारण महामुनीन्द्र दुर्वाको स्वीसे वियोग हुआ। फिर उन्होंने दूसरी मंगलमय कर कमलोंवाली स्त्रीको प्राप्त करके वियोगजन्य दुःखको दूर किया। घृताचीपर आसक्त कामदेवको,बृहस्पतिके द्वारा मना करने पर बृहस्पतिको पत्नी-हरणका दुःख मिला। फिर उन्होंने शिवजीकी | आराधनाकर ताराको प्राप्त किया, जिससे उनकी विरहव्यथा दूर हुई ॥ 31-34 ॥
महर्षि गौतमने मोहिनीमें आसक्त चन्द्रमाको वियुक्त किया, इस कारण उनका स्त्रीसे वियोग हुआ। हालिकको वृषलीमें कामासक्त देखकर हरिश्चन्द्रद्वारा निषेध किये जानेपर उन्हें विश्वामित्रका कोपभाजन बनना पड़ा और वे स्त्री-पुत्र तथा राज्यसे भी च्युत हो गये। फिर उन्होंने शिवाराधनकर इस कष्टसे छुटकारा प्राप्त किया ॥ 35-37 ॥
वृषलीमें आसक्त हुए द्विजश्रेष्ठ अजामिलको तथा उस वृषलीको भयके कारण किसी देवताने भी मना नहीं किया। निषेक (वीर्यसिंचन) से सब कुछ साध्य है। हे विधे! निषेक बलवान् है, निषेक ही फल देनेवाला है, उस निषेकका कौन निवारण कर सकता है ? ।। 38-39 ।।
शंकरजीके भोगका वह काल देवताओंके वर्षसे हजार वर्षपर्यन्तका था। हे देवगणो! एक हजार दिव्य वर्ष पूर्ण हो जानेपर आपलोग वहाँ जाकर इस प्रकारका उपाय करें, जिससे उनका तेज पृथ्वीपर गिरे। उसी तेजसे प्रभु शंकरका स्कन्द नामक पुत्र उत्पन्न होगा ।। 40-41 ।।
हे अतः हे ब्रह्मन् ! इस समय आप इन देवताओंको साथ लेकर अपने स्थानको लौट जायँ और शिवजी एकानामें पार्वती के साथ आनन्दविहार करें ।। 42 ।।
ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर। इस प्रकार कहकर | लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु शीघ्र ही अपने अन्तः पुरमें चले गये और मेरे साथ सभी देवता अपने- अपने स्थानपर चले गये। इस प्रकार बहुत दिनोंतक शक्ति एवं शक्तिमानके विहारसे भाराक्रान्त यह पृथ्वी शेष एवं कच्छपके धारण करनेपर भी काँप उठी ।। 43-44 ।।
तब कच्छपके भारसे आक्रान्त सबका आधारभूत पवन स्तम्भित हो गया, जिससे सम्पूर्ण त्रैलोक्य भयसे व्याकुल हो उठा। फिर सभी देवता मेरे साथ भगवान् विष्णुकी शरण में गये और दुखी मनवाले उन्होंने उस वृत्तान्तको भगवान् विष्णुसे निवेदित किया ।। 45-46 ॥देवता बोले- हे देवदेव! हे रमानाथ! हे सर्वरक्षक प्रभो! हमलोग भयसे व्याकुलचित्त हो आपकी शरण में आये हुए हैं। आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ 47 ॥
पता नहीं, किस कारणसे तीनों लोकोंके प्राणभूत वायुदेव स्तम्भित हो गये हैं तथा मुनि एवं देव गणोंके सहित सारा चराचर त्रैलोक्य व्याकुल हो गया है ! ।। 48 ।।
ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर ! मेरे साथ गये हुए समस्त देवगण ऐसा कहकर मौन, दुखी तथा दीन होकर भगवान् विष्णुजीके आगे खड़े हो गये ॥ 49 ॥ इस बातको सुनकर हमें तथा सभी देवताओंको अपने साथ लेकर भगवान् विष्णु बड़ी शीघ्रता से शिवके प्रिय कैलास पर्वतपर गये ॥ 50 ॥
सुरवल्लभ भगवान् विष्णु मुझ ब्रह्मा तथा उन देवताओंके साथ कैलास पहुँचकर भगवान् शिवके दर्शन करनेकी इच्छासे शिवजीके श्रेष्ठ स्थानपर गये ॥ 51 ॥
किंतु वहाँ शिवजीको न देखकर देवताओंसहित भगवान् विष्णु आश्चर्यमें पड़ गये। फिर उन्होंने वहाँपर स्थित महेश्वरके गणोंसे विनयपूर्वक पूछा ॥ 52 ॥
विष्णु बोले- हे शंकरके गणो! आप सब बड़े दयालु हैं आपलोग हम दुखीजनोंको कृपापूर्वक बताइये कि सर्वप्रभु शंकर इस समय कहाँपर हैं? ॥ 53 ॥
ब्रह्माजी बोले- देवताओंके सहित भगवान् विष्णुकी बात सुनकर शंकरजीके उन गणोंने प्रीतिपूर्वक लक्ष्मीपति विष्णुसे कहा- ॥ 54 ॥
शिवगण बोले- हे हरे। जो सम्पूर्ण वृत्तान्त है, ब्रह्मा और देवताओंके साथ उसे आप सुनिये, भगवान् शिवमें प्रेमके कारण हम यथार्थ रूपमें कहते हैं ॥ 55 ॥
विविध प्रकारकी लीलाओंमें पारंगत देवाधिदेव महादेव शिव हमलोगोंको यहाँ स्थापित करके अत्यन्त स्नेहपूर्वक भगवती पार्वतीके आवास स्थानपर गये ॥ 56 ॥
हे लक्ष्मीपति। उस गुहाके भीतर उन्हें बहुत वर्ष व्यतीत हो गये हैं, वहाँ महेश्वर शम्भु क्या कर रहे हैं, इस बातको हम नहीं जानते हैं ॥ 57 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! उनकी बातोंको सुनकर मेरे तथा देवगणोंके साथ विष्णु आश्चर्यचकित हो गये और शिवजीके द्वारपर गये ॥ 58 ॥हे मुनिश्रेष्ठ ! वहाँ देवताओं एवं मुझ ब्रह्माके साथ जाकर देवताओंके प्रिय भगवान् श्रीहरिने ऊँचे स्वरमें आर्तवाणीसे अत्यन्त प्रेमपूर्वक वहाँ स्थित सर्वलोकेश्वर भगवान् शिवकी स्तुति की ॥ 59-60 ॥
विष्णु बोले- हे महादेव! हे परमेश्वर ! आप गुहाके भीतर क्या कर रहे हैं? तारकासुरसे पीड़ित, आपकी शरणमें आये हुए हम सभी देवताओंकी रक्षा कीजिये ॥ 61 ॥
हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मुझ ब्रह्मा तथा देवताओंके सहित विष्णुने शिवकी अनेक प्रकारसे स्तुति की। उस समय तारकासुरसे पीड़ित देवताओंसहित श्रीहरि अत्यन्त विलाप करके रोने लगे ॥ 62 ॥
हे मुनीश्वर ! तारकासुरसे पीड़ित हुए देवताओंके आर्तनाद और शिवजीकी स्तुतिके मिश्रित होनेसे उस समय दुःखभरा महान् कोलाहल हुआ ॥ 63 ॥