सनत्कुमार बोले- इसके बाद बाणासुरने अत्यन्त क्रुद्ध हो वहाँ जाकर दिव्य लीलासे युक्त शरीरवाले तथा नवीन युवावस्थासे सम्पन्न उन अनिरुद्धको देखा ॥ 1 ॥
उन्हें देखकर आश्चर्यचकित हो युद्धमें प्रचण्ड वह बाणासुर क्रोधसे आगबबूला हो हँसते हुए उनके आनेके कारणोंपर विचार करता हुआ राक्षसोंसे बोला- अहो ! इतना रूपवान्, साहसी, धैर्यशील, अभागा एवं मूर्ख यह कौन पुरुष है, जिसकी मृत्यु आसन्न है और जिसने मेरी पुत्रीको दूषितकर मेरा कुल दूषित किया है। तुमलोग क्रुद्ध होकर अपने अति कठोर शस्त्रोंसे शीघ्र ही उसका वध करो। अथवा इस दुराचारीको बाँधकर बहुत कालके लिये घोर तथा विकट कारागारमें रखो। 'मालूम नहीं कि निर्भीक एवं महापराक्रमी यह कौन है यह सोचकर वह महाबुद्धि बाणासुर सन्देहमें पड़ गया ॥ 2-6 ॥
इसके बाद उस पापबुद्धि दैत्यने उस वीरको मारनेके लिये दस हजार सैनिकोंको आज्ञा दी ॥ 7 ॥उसके द्वारा आदिष्ट समस्त वीरोंने 'मारो. काटो' कहते हुए शीघ्र ही चारों ओरसे अन्तःपुरको घेर लिया ॥ 8 ॥
तब शत्रुसेनाको अन्तः पुरके द्वारपर आया हुआ देखकर गर्जना करते हुए वे अनिरुद्ध अतुलनीय परिघ हाथमें लेकर, हाथमें वज्र लिये हुए कालके समान भवनसे निकले और उससे समस्त सैनिकोंका वधकर पुनः अन्तः पुरमें चले गये। हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार शिवके तेजसे पराक्रमशील अनिरुद्धने क्रोधसे रक्तनेत्र हो दस हजार सेनाओंका वध कर दिया ।। 9-11 ॥
इसके बाद [पुन: युद्धके लिये आयी हुई। एक लाख सेनाका वध कर दिये जानेपर क्रोधमें भरे हुए बाणासुरने युद्धकुशल कुम्भाण्डको लेकर शिवतेजसे रक्षित तथा कान्तिमान् शरीरवाले महाबुद्धिमान् प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्धको उस महायुद्धमें द्वन्द्वयुद्धके लिये ललकारा ।। 12-13 ।।
तब उन्होंने दैत्येन्द्रकी दस हजार सेना, उतने घोड़े और उतने ही रथोंको उसीके खड्गसे नष्ट कर दिया, जो द्वन्द्वयुद्धमें उन्हें बाणासुरसे प्राप्त हुआ था ॥ 14 ॥
इसके बाद अनिरुद्धने कालाग्निके समान शक्ति उसके वधके लिये ग्रहणकर उसके ऊपर प्रहार किया ॥ 15 ॥
इसके बाद रथके पिछले भागमें स्थित वह वीर बाणासुर उस शक्तिसे दृढ़तापूर्वक आहत होते ही रथ एवं घोड़ोंके सहित उसी क्षण वहाँपर अन्तर्धान हो गया ॥ 16 ॥
तब बिना पराजित हुए उस दैत्यके अन्तर्धान हो जानेपर अनिरुद्ध सभी दिशाओंकी ओर देखकर पहाड़के समान अचल हो गये। उस समय अन्तर्हित होकर वह दैत्य कपटपूर्वक युद्ध करता हुआ नाना प्रकारके शस्त्रोंसे अनिरुद्धपर बार-बार प्रहार करने लगा ।। 17-18 ।।
उसके बाद महाबली महावीर तथा शिवभक्त बलिपुत्र बाणासुरने छलसे अनिरुद्धको नागपाशमें बाँध लिया। ll 19 ॥ इस प्रकार उन्हें बाँधकर पिंजड़े में बन्द करके बाणासुर युद्धसे विश्राम करने लगा। इसके बाद उसने क्रोधमें भरकर महाबली सूतपुत्र (सारथी)-से कहा- ॥ 20 ॥
बाणासुर बोला- हे सूतपुत्र! बड़ी शीघ्रता से इस पुरुषका सिर काट लो, जिसने बलपूर्वक मेरे पवित्र उत्तम कुलको दूषित किया है अथवा इसके सम्पूर्ण शरीरको काटकर राक्षसोंको दे दो और इसके रुधिर तथा मांसको मांसभक्षी [ चील, कौवे आदि] भी खायें अथवा इस पापीको तृणोंसे व्याप्त गहरे | कुऍमें डालकर मार डालो। हे सूतपुत्र! बहुत क्या | कहूँ, यह सभी प्रकारसे वधके योग्य है ॥ 21-23 ॥ सनत्कुमार बोले- उसका यह वचन सुनकर वह धर्मबुद्धिवाला राक्षस कुम्भाण्ड बाणासुरसे नीतियुक्त
यह वाक्य कहने लगा- ॥ 24 ॥ कुम्भाण्ड बोला- हे देव! विचार कीजिये. | यह कर्म करना उचित नहीं है; क्योंकि इसके मार डालनेपर आत्माका हनन होगा, ऐसा मेरा विचार है ॥ 25 ॥
हे देव! यह तो पराक्रममें विष्णुके समान तथा आपके इष्ट शिवजीके तेजसे बढ़ा हुआ दिखायी पड़ रहा है, पुरुषार्थमें शिवजीके साहससे भरा हुआ यह इस अवस्थाको प्राप्त हुआ है। श्रीकृष्णका यह महाबली पौत्र बलपूर्वक दैत्यरूपी सर्पोंसे डँसा हुआ भी शिवजीके प्रसादसे हमलोगोंको तृणके समान समझ रहा है । ll 26 - 28 ॥
सनत्कुमार बोले- बाणासुरसे ऐसा वचन कहकर राजनीतिविशारद उस दैत्यने अनिरुद्धसे कहा- ।। 29 ।।
कुम्भाण्ड बोला- हे वीर! हे दुराचारी ! हे नराधम ! तुम कौन हो, किसके पुत्र हो और तुमको यहाँ कौन लाया है- यह सब मेरे समक्ष सत्य सत्य कहो और 'मैं हार गया'- इस प्रकारका दीन वचन बार-बार कहकर हाथ जोड़कर दैत्येन्द्रकी स्तुति करो तथा उन्हें नमस्कार करो। ऐसा करनेपर मुक्त हो जाओगे, अन्यथा बँधे ही रहोगे। उसका यह वचन सुनकर वे उत्तर देने लगे ॥ 30-32 ॥अनिरुद्ध बोले- हे अधम दैत्यके मित्र प्रजाद्वारा प्राप्त धनसे आजीविका चलानेवाले हे निशाचर! हे दुराचारी! तुम शत्रुधर्मको नहीं जानते ॥ 33 ॥ दीनता तथा युद्ध से भागना शूरके लिये मरनेसे भी बढ़कर है, यह प्रतिकूल और शल्यके समान दुःखदायी है, ऐसा मेरा विचार है ॥ 34 ॥
वीर तथा मानी क्षत्रियके लिये संग्राममें सम्मुख होकर मृत्युको प्राप्त हो जाना श्रेयस्कर है, किंतु दीनकी भाँति हाथ जोड़कर भूमिपर रहना श्रेष्ठ नहीं है ॥ 35 ॥ सनत्कुमार बोले- इस प्रकारके वीरतापूर्ण अनेक वाक्य अनिरुद्धने उस दैत्यसे कहे। यह सुनकर बाणासुरसहित वह कुम्भाण्ड आश्चर्यचकित हुआ और क्रोधित हो उठा। उसी समय सभी वीरों, अनिरुद्ध तथा मन्त्रीको सुनाते हुए उस बाणासुरको समझानेके लिये आकाशवाणी हुई ।। 36-37 ॥
आकाशवाणी बोली- हे महावीर! हे बाणासुर! हे सुमते ! हे शिवभक्त! तुम बलिके पुत्र हो, तुम्हारे लिये क्रोध करना उचित नहीं है, इसपर जरा विचार करो ॥ 38 ॥
शिवजी सबके ईश्वर, कर्मोंके साक्षी तथा परमेश्वर हैं, यह चराचर जगत् उन्हींके अधीन है ॥ 39 ॥
ही सत्त्वगुण, रजोगुणी और तमोगुणी होकर ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवरूपसे इस जगत्के कर्ता, पालक तथा संहारक हैं। वे सबके अन्तर्यामी, स्वामी, सबके प्रेरक, सबसे परे, निर्विकार, अविनाशी, नित्य मायाके अधिपति तथा निर्गुण हैं। हे बलिके श्रेष्ठ पुत्र ! उनकी इच्छासे निर्बलको भी बलवान् जानना चाहिये। हे महामते ऐसा मनमें जानकर सावधान हो जाओ ।। 40 - 42 ॥
अभिमानका नाश करनेवाले, भक्तोंका पालन करनेवाले तथा नाना प्रकारकी लीला करनेमें निपुण भगवान् सदाशिव अभी तुम्हारा अभिमान नष्ट करेंगे ll 43 ॥
सनत्कुमार बोले- हे महामुने! ऐसा कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी और बाणासुरने उसके वचनके अनुसार अनिरुद्धको नहीं मारा, किंतु अपने अन्तःपुरमें जाकर उस प्रतिकूल बुद्धिवालेने उत्तम रसकापान किया और वह उस वचनको भूल गया तथा विहार करने लगा। उसके बाद भयंकर विषवाले नागों बँधे हुए तथा प्रियाके बिना अतृप्त चित्तवाले अनिरुद्ध उसी क्षण दुर्गादेवीका स्मरण किया ॥ 44-46 ॥
अनिरुद्ध बोले- हे शरण्ये! हे देवि ! हे यशोदे! हे चण्डरोषिणि! मैं बँधा हूँ तथा सर्पोंसे भस्म हो रहा हूँ, आप आइये और मेरी रक्षा कीजिये। हे शिवभक्ते! हे शिवे ! हे महादेवि ! आप सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय करनेवाली हैं, आपके अतिरिक्त कोई भी रक्षा करनेवाला नहीं है, अतः आप मेरी रक्षा कीजिये ।। 47-48 ।।
सनत्कुमार बोले- उनके द्वारा इस प्रकारकी स्तुति किये जानेपर निखरे हुए काजलके समान | वर्णवाली कालीजी ज्येष्ठ मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको महानिशामें प्रकट हुईं। उन्होंने अपनी विशाल मुष्टिके प्रहारसे उस पिंजरेको तोड़ दिया तथा उन भयानक सर्परूपी बाणोंको भस्मकर अनिरुद्धको बन्धनमुक्त करके उन्हें अन्तः पुरमें प्रविष्ट करानेके पश्चात् दुर्गा वहींपर अन्तर्धान हो गयीं ॥ 49–51 ॥
हे मुनीश्वर ! इस प्रकार शिवशक्तिरूपा देवीकी कृपासे अनिरुद्ध दुःखसे निवृत्त हो गये और व्यथारहित | होकर सुखी हो गये ॥ 52 ॥
तब शिवशक्तिके प्रभावसे विजय प्राप्तकर तथा बाणपुत्री अपनी प्रियाको प्राप्तकर अनिरुद्ध आनन्दित हो गये। इसके बाद मद्यपान करके लाल नेत्रोंवाले वे अनिरुद्ध अपनी प्रिया उस बाणासुरकी कन्याके साथ सुखी होकर पूर्वकी भाँति विहार करने लगे ॥ 53-54॥