व्यासजी बोले- हे सनत्कुमार हे सर्वज हे ब्रह्मपुत्र! आपको नमस्कार है, मैंने आज महात्मा शंकरकी यह अद्भुत कथा सुनी है ब्रह्मन् ! शिवजीके द्वारा भालनेत्रसे उत्पन्न हुए अपने तेजको क्षारसमुद्रमें फेंक दिये जानेपर क्या हुआ ? हे तात! उसे शीघ्र कहिये ll 1-2 ॥
सनत्कुमार बोले- हे तात! हे महाप्राज्ञ ! अब आप शिवकी परम अद्भुत लीलाको सुनिये, जिसे श्रद्धासे सुनकर भक्त योगियोंकी गति प्राप्त करते हैं। शिवजीके तीसरे नेत्रसे उत्पन्न वह तेज, जो खारे समुद्रमें फेंक दिया गया था, शीघ्र ही बालकरूप हो गया।। 3-4 ।।
सभी लोकोंको भय देनेवाला वह बालक वहाँ गंगा- सागर के संगमपर स्थित हो बड़े ऊँचे स्वरमें रोने लगा ॥ 5 ॥
उस रोते हुए बालकके शब्दसे पृथ्वी बारंबार कम्पित हो उठी और स्वर्ग तथा सत्यलोक उसके स्वरसे बहरे हो गये। उस बालकके रुदनसे सभी लोक भयभीत हो उठे और समस्त लोकपाल व्याकुलचित्त हो गये ll 6-7 ll
हे विप्रेन्द्र हे तात हे विभो ! अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन, उस शिशुके रुदनसे चराचरसहित सम्पूर्ण जगत् चलायमान हो उठा ॥ 8 ॥
उसके बाद मुनियोंके सहित व्याकुल समस्त देवता लोकगुरु पितामह ब्रह्माकी शरणमें गये। वहाँ जाकर इन्द्रसहित सभी देवताओं तथा मुनियोंने ब्रह्माको प्रणामकर तथा उनकी स्तुतिकर उनसे कहा- ॥ 9-10 ॥देवता बोले- हे लोकाधीश ! हे सुराधीश ! हमलोगोंके समक्ष भय उपस्थित हो गया है। हे महायोगिन् ! उसका विनाश कीजिये, यह अद्भुत ध्वनि उत्पन्न हुई है ॥ 11 ॥
सनत्कुमार बोले- तब उनका यह वचन सुनकर लोकपितामह ब्रह्माजी आश्चर्यचकित हो उठे कि 'यह क्या है और वहाँ जानेकी इच्छा करने लगे ॥ 12 ॥
हे तात! तब ब्रह्माजी देवताओंके साथ सत्यलोकसे पृथ्वीपर उतरे और उसका पता लगाते हुए समुद्रके किनारे गये। सभी लोकोंके पितामह ब्रह्मा ज्यों ही यहाँ आये, त्यों ही उन्होंने समुद्रकी गोदमें उस बालकको देखा। ब्रह्माको आया हुआ देखकर देवरूप धारणकर सागरने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करके उस बालकको उनकी गोदमें डाल दिया। तदनन्तर विस्मयमें पड़े हुए ब्रह्माजीने समुद्रसे यह वचन कहा- हे जलराशे ! शीघ्र बताओ कि यह अद्भुत बालक किसका पुत्र है ? ll 13-16 ll
सनत्कुमार बोले- तब ब्रह्माजीका वचन सुनकर समुद्र बड़ा प्रसन्न हुआ और वह हाथ जोड़कर नमस्कारकर स्तुति करनेके उपरान्त ब्रह्माजी से कहने लगा-॥ 17 ॥
समुद्र बोला- हे ब्रह्मन् ! हे सर्वलोकस्वामिन्! मुझे गंगासागरके संगमपर यह बालक अकस्मात् प्राप्त हुआ है और मैं नहीं जानता कि यह किसका बालक है ॥ 18 ॥
हे जगद्गुरो! आप इसका जातकर्मादि संस्कार कीजिये और हे विधाता! इसके जातकसम्बन्धी समस्त फलोंको बताइये ॥ 19 ॥
सनत्कुमार बोले- जब समुद्र ब्रह्माजीसे इस बातको कह रहा था, तभी उस बालकने ब्रह्माका कण्ठ पकड़ लिया, यद्यपि वे अपना गला बारंबार उससे छुड़ा रहे थे। हे व्यासजी! ब्रह्माजी गला छुड़ानेका बहुत प्रयत्न कर रहे थे, किंतु उस बालकने इतने जोरसे उनका कष्ठ दबाया कि पीड़ित ब्रह्माके नेत्रोंसे जल टपकने लगा । ll 20-21 ॥
तब ब्रह्माजीने किसी प्रकार उस महातेजस्वी समुद्रपुत्रके दोनों हाथोंसे अपना गला छुड़ाया और वे आदरपूर्वक समुद्रसे कहने लगे- ॥ 22 ॥ब्रह्माजी बोले- हे सागर! सुनो, मैं तुम्हारे इस पुत्रका समस्त जातकोक्त फल विचारकर कहता हूँ ॥ 23 ॥
इसने मेरे नेत्रोंसे निकले हुए जलको धारण किया है, इसलिये यह जलन्धर-इस नामसे प्रसिद्ध होगा ।। 24 ।। यह इसी समय तरुण, सर्वशास्त्रार्थवेत्ता, महापराक्रमी, धैर्यवान् तथा रणदुर्मद योद्धा है। तुम्हारे तथा कार्तिकेयके समान यह युद्धमें गम्भीर होगा, यह संग्राममें सबको जीत लेगा तथा समस्त ऐश्वर्यसे परिपूर्ण होगा ।। 25-26 ॥
यह बालक समस्त दैत्योंका अधिपति होगा तथा विष्णुको भी जीतनेवाला होगा, इसका पराभव कभी नहीं होगा। रुद्रको छोड़कर यह सभी प्राणियोंसे अवध्य होगा। जहाँसे इसकी उत्पत्ति हुई है, अन्तमें यह वहीं जायगा। इसकी पत्नी महापतिव्रता, सौभाग्यको बढ़ानेवाली, सर्वांगसुन्दरी, मनोहर, प्रिय वचन बोलनेवाली तथा शीलका सागर होगी ॥ 27–29 ॥
सनत्कुमार बोले- ऐसा कहकर [दैत्यगुरु] शुक्रको बुलाकर ब्रह्माजीने उस बालकको राज्यपर अभिषिक्त करवाया और समुद्रसे आज्ञा लेकर वे अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर उसके दर्शनसे प्रफुल्लित नेत्रवाला समुद्र उस पुत्रको लेकर प्रसन्नतासे अपने घर चला गया और प्रसन्नचित्त होकर अनेक उपायोंद्वारा सर्वांगसुन्दर, मनोहर, अत्यन्त अद्भुत एवं परम तेजस्वी अपने पुत्रका पालन-पोषण करने लगा ॥ 30-32॥
उसके बाद सागरने महान् असुर कालनेमिको बुलाकर उसकी वृन्दा नामक पुत्रीको उसकी भार्याके निमित्त माँगा। हे मुने! वीर असुरोंमें श्रेष्ठ, बुद्धिमान् तथा अपने कार्य साधनमें कुशल असुर कालनेमिने समुद्रकी याचना स्वीकार कर ली और ब्राह्मविवाहकी विधिसे समुद्रपुत्र वीर जलन्धरको अपनी प्राणप्रिय पुत्री प्रदान कर दी ॥ 33-35 ।।
उस समय उन दोनोंके विवाहमें महान् उत्सव हुआ। हे मुने! समस्त नदों, नदियों एवं असुरोंको सुख प्राप्त हुआ। स्त्रीसहित पुत्रको देखकर समुद्रको भी अत्यधिक सुखकी प्राप्ति हुई और उसने ब्राह्मणों तथाअन्य लोगोंको यथाविधि दान दिया। तब पातालमें रहनेवाले दैत्य, जो देवताओंके द्वारा पहले जीत लिये गये थे, वे पृथ्वीपर चले गये और निडर होकर उसके आश्रयमें रहने लगे ॥ 36- 38 ॥
[उस समय] कालनेमि आदि वे असुर उस समुद्रपुत्रको कन्या देकर परम और देवताओंको जीतनेके लिये उसके आश्रित प्रसन्न हुए हो गये ॥ 39 ॥
असुरवीरोंमें मुख्य वीर वह समुद्रपुत्र जितेन्द्रिय जलन्धर अति सुन्दरी भार्याको प्राप्तकर शुक्राचार्यके प्रभावसे राज्य करने लगा ॥ 40 ॥