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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 37 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 37

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गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना

ब्रह्माजी बोले- सभी शत्रुओंके विनाशक, महाबलवान् वीरभद्र भगवान् विष्णुके साथ युद्ध में सभी प्रकारके दुःखोंको दूर करनेवाले भगवान् शंकरका अपने हृदयमें ध्यान करके दिव्य रथपर आरूढ़ होकर बड़े महान् अस्त्रोंको लेकर सिंहके समान गर्जन करने लगे ॥ 1-2 ॥

बलशाली विष्णु भी अपने योद्धाओंको उत्साहित करते हुए महान् शब्द करनेवाले अपने पांचजन्य नामक शंखको बजाने लगे ॥ 3 ॥

उस शंखकी ध्वनिको सुनकर जो देवता पहले युद्धभूमि छोड़कर भाग खड़े हुए थे, वे तत्क्षण लौटकर आ गये ll 4 ॥

तब सेनासहित समस्त इन्द्र आदि लोकपाल सिंहगर्जना करके वीरभद्रके गणोंके साथ युद्ध करने ॥ 5 ॥

उस समय सिंहनाद करते हुए गणों एवं लोक पालोंके बीच भयंकर घनघोर द्वन्द्वयुद्ध छिड़ गया ॥ 6 ॥इन्द्र नन्दीके साथ युद्ध करने लगे, अग्नि आमाके साथ और बलशाली कुबेर कुष्माण्डपतिके साथ युद्ध करने लगे। तब इन्द्रने सौ पर्ववाले वज नन्दीपर प्रहार किया। नन्दीने भी त्रिशूलसे इन्द्रकी छातीमें प्रहार किया ।। 7-9 ॥ बलवान् इन्द्र और नन्दी दोनों एक-दूसरे को जीतनेकी इच्छासे अनेक प्रकारके प्रहार करते हुए परस्पर प्रीतिपूर्वक लड़ने लगे ॥ 10 ॥ अत्यन्त क्रोधयुक्त अग्निने अपनी शक्तिसे अश्मापर प्रहार किया तथा उसने भी अग्निपर बड़े वेगसे तीक्ष्ण धारवाले त्रिशूलसे प्रहार किया ॥ 11 ॥ गणोंमें श्रेष्ठ यूथपति महालोक प्रीतिपूर्वक शिवजीका ध्यान करते हुए यमराजके साथ घनघोर युद्ध करने लगे ॥ 12 ॥

महान् बलशाली चण्ड आ करके निर्ऋतिको तिरस्कृत करते हुए बड़े-बड़े अस्त्रोंसे उनके साथ युद्ध करने लगे ॥ 13 ॥

महाबलवान् मुण्ड भी त्रिलोकीको विस्मित करते हुए अपनी उत्तम शक्तिसे वरुणके साथ युद्ध करने लगे ll 14ll

वायुने अपने परम तेजस्वी अस्त्रसे भृंगीको आहत कर दिया और प्रतापी भुंगीने भी त्रिशूलसे वायुपर प्रहार किया ।। 15 ।।

वीर कूष्माण्डपतिने पहुँचकर हृदयमें आदरपूर्वक शिवजीका ध्यान करके कुबेरके साथ युद्ध करना। प्रारम्भ किया । ll 16 ॥

महान् भैरवीपति योगिनियोंक समूहको साथ | लेकर समस्त देवताओंको विदीर्ण करके विचित्र रूपसे उनका रक्त पीने लगे ॥ 17 ॥

क्षेत्रपाल श्रेष्ठ देवताओंका भक्षण करने लगे और काली भी उन देवताओंको विदीर्णकर रक्त पीने लगीं ।। 18 ।। तब शत्रुओंका संहार करनेवाले भगवान् विष्णु उनके साथ युद्ध करने लगे और उन्होंने दसों दिशाओंको दग्ध करते हुए वेगपूर्वक [ अपना ] चक्र फेंका ॥ 19 ॥ चक्रको वेगपूर्वक आते हुए देखकर बलवान् क्षेत्रपालने सहसा वहाँ पहुँचकर उस चक्रको ग्रसित कर लिया ॥ 20 ॥शत्रुओंके नगरको जीतनेवाले भगवान् विष्णुने अपने चक्रको ग्रसित हुआ देखकर उसके मुखको मसलकर उस शत्रुके मुखसे चक्रको उगलवा लिया ॥ 21 ॥

तब संसारके एकमात्र स्वामी, महानुभाव तथा महाबलवान् भगवान् विष्णु अत्यन्त कुपित हो उठे। वे क्रोधित होकर अपने चक्र तथा अनेक प्रकारके अस्त्रोंको लेकर उन अस्त्रोंसे उन महावीर गणोंके | साथ युद्ध करने लगे ॥ 22 ॥

विष्णुने प्रचण्ड पराक्रमके साथ भयंकर महायुद्ध किया। वे अनेक प्रकारके अस्त्र चलाकर प्रसन्नतापूर्वक उनके साथ युद्ध कर रहे थे ॥ 23 ॥

वे भैरव आदि गण भी अत्यधिक क्रोधमें भरकर महान् ओजसे अनेक प्रकारके अस्त्रोंको छोड़ते हुए उनके साथ युद्ध करने लगे ॥ 24 ॥

इस प्रकार अतुलनीय तेजवाले विष्णुके साथ होते हुए उनके युद्धको देखकर बलवान् वीरभद्र लौटकर उनके पास पहुँचकर विष्णुके साथ स्वयं युद्ध करने लगे ॥ 25 ॥ उसके बाद महातेजस्वी माधव भगवान् विष्णु अपने चक्रको लेकर कुपित हो उन वीरभद्रके साथ युद्ध करने लगे ॥ 26 ॥

हे मुने! [उस समय] अनेक प्रकारके अस्त्र धारण करनेवाले महावीर वीरभद्र तथा सागरपति विष्णु-उन दोनोंका रोमांचकारी घनघोर युद्ध होने लगा ॥ 27 ॥ विष्णुके योगबल से उनके शरीरसे शंख, चक्र और गदा हाथोंमें धारण किये हुए असंख्य वीरगण प्रकट हो गये ॥ 28 ॥

विष्णुके समान ही बलशाली तथा नाना प्रकारके अस्त्रोंको धारण किये हुए वे वीरगण वार्तालाप करते वीरभद्रके साथ युद्ध करने लगे ॥ 29 ॥

हुए वीरभद्रने भगवान् शंकरका स्मरण करके विष्णुके समान तेजस्वी उन सभीको अपने त्रिशूलसे मारकर भस्म कर दिया ॥ 30 ॥

तत्पश्चात् उन महाबली वीरभद्रने युद्धभूमिमें ही लीलापूर्वक विष्णुकी छातीपर त्रिशूलसे प्रहार किया ll 31 ॥हे मुने! पुरुषोत्तम श्रीहरि त्रिशूलके प्रहारसे घायल होकर सहसा भूमिपर गिर पड़े और अचेत हो गये ।। 32 ।।

तब प्रलयाग्निके समान तीनों लोकोंको जला | देनेवाला और वीरोंको भयभीत करनेवाला अद्भुत तेज उत्पन्न हुआ ।। 33 । पुरुष श्रेष्ठ श्रीमान् भगवान् विष्णु पुनः उठकर
क्रोधसे नेत्रोंको लाल किये हुए अपने चक्रको उठाकर [[वीरभद्रको] मारनेके लिये खड़े हो गये ॥ 34 ॥ तब दीनतारहित चित्तवाले शिवस्वरूप वीरभद्रने प्रलयकालीन आदित्यके समान महातेजस्वी उस चक्रको
स्तम्भित कर दिया ।। 35 ।।

हे मुने! मायापति महाप्रभु शंकरके प्रभावसे विष्णुके हाथमें स्थित चक्र चल नहीं पाया, वह निश्चितरूपसे स्तम्भित हो गया था ॥ 36 ॥

तब भाषण करते हुए उन गणेश्वर वीरभद्रने विष्णुको भी स्तम्भित कर दिया और वे शिखरयुक्त पर्वतके समान खड़े रह गये ॥ 37 ॥

हे नारद! वीरभद्रने जब भगवान् विष्णुको स्तम्भित कर दिया, तब यह देखकर याज्ञिकोंने स्तम्भनसे मुक्त करानेवाले मन्त्रका जप करके उन्हें स्तम्भनसे मुक्त कर दिया ॥ 38 ॥

हे मुने! तदनन्तर स्तम्भनसे मुक्त होनेपर शार्ङ्ग | नामक धनुष धारण करनेवाले रमापतिने कुपित होकर बाणसहित अपने धनुषको उठा लिया ॥ 39 ॥

हे तात! हे मुने! उन वीरभद्रने तीन बाणोंसे विष्णुके शार्ङ्गधनुषपर प्रहार किया और वह उसी क्षण तीन टुकड़ोंमें विभक्त हो गया ।। 40 ।। तब महावाणीद्वारा बोधित हुए विष्णुने उन महागण वीरभद्रको असह्य तेजसे सम्पन्न जानकर अन्तर्धान होनेका मनमें विचार किया ॥ 41 ॥ सतीके द्वारा किये गये आत्मदाहके समस्त परिणामको, जो शत्रुओंके लिये असह्य था, जानकर सभी लोग सबके स्वामी स्वतन्त्र शिवजीका स्मरण करके अपने गणोंके साथ अपने अपने लोकको चले गये ।। 42 ।।

मैं भी पुत्रके शोकसे पीड़ित हो सत्यलोक चला आया और अत्यन्त दुःखसे व्याकुल होकर विचार करने लगा कि मुझे अब क्या करना चाहिये ।। 43 ।।मेरे तथा श्रीविष्णुके चले जानेपर जो भी यज्ञोपजीवी देवता थे, मुनियोंसहित उन सबको शिवगणोंने जीत लिया। उस उपद्रवको और महायज्ञको विध्वस्त हुआ देखकर यज्ञदेव अत्यन्त भयभीत हो मृगका रूप धारण करके भागने लगे । ll 44-45 ll

मृगरूपमें आकाशकी ओर भागते हुए उन यज्ञको वीरभद्रने पकड़कर सिरविहीन कर दिया 46

उसके बाद महागण वीरभद्रने प्रजापति, धर्म, कश्यप, अनेक पुत्रोंवाले मुनीश्वर अरिष्टनेमि, मुनि अंगिरा, कृशाश्व तथा महामुनि दत्तके सिरपर पैरसे प्रहार किया ।। 47-48 ।।

प्रतापी वीरभद्रने सरस्वती तथा देवमाता अदितिकी नासिकाके अग्रभागको अपने नखाग्रसे विदीर्ण कर दिया। तत्पश्चात् क्रोधके कारण चढ़ी हुई आँखोंवाले उन वीरभद्रने अन्यान्य देवताओंको भी विदीर्णकर उन्हें पृथिवीपर गिरा दिया ।। 49-50 ll

मुख्य-मुख्य देवताओं और मुनियोंको विदीर्ण कर देनेपर भी वे शान्त नहीं हुए। महान् क्रोधसे भरे हुए वे नागराजकी भाँति सुशोभित हो रहे थे ॥ 51 ॥

जैसे सिंह बनके हाथियोंकी ओर देखता है, उसी प्रकार शत्रुओंको मारकर भी वे वीरभद्र सभी दिशाओंमें देखने लगे, कौन शत्रु कहाँ है ॥ 52 ॥

उसी समय प्रतापी मणिभद्रने भृगुको पटक दिया और उनकी छातीपर पैरसे प्रहार करके उनकी दाढ़ी नोंच ली ॥ 53 ॥ चण्डने बड़े वेगसे पूषाके दाँत उखाड़ लिये; जो पूर्वकालमें महादेवजीको [दक्षद्वारा] शाप दिये जानेपर
दाँत दिखाकर हँस रहे थे । ll 54 ॥

नन्दीने भगको रोषपूर्वक पृथ्वीपर गिरा दिया और उनकी दोनों आँखें निकाल लीं जिन्होंने [शिवको] शाप देते हुए दक्षकी ओर नेत्रसे संकेत किया था ॥ 55 ॥

गणेश्वरोंने स्वधा, स्वाहा, दक्षिणा, मन्त्र तन्त्र तथा अन्य जो भी वहाँ उपस्थित थे, सबको तहस नहस कर दिया ll 56 ॥

उन गणोंने क्रोधित होकर वितानाग्निमें विष्ठाकी वर्षा कर दी। इस प्रकार वीर गणोंने यज्ञकी ऐसी दुर्गति कर दी, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ 57 ॥ब्रह्मपुत्र दक्ष उनके भयके मारे अन्तर्वेदीके भीतर छिप गये थे, बीरभद्र पता लगाकर बलपूर्वक उन्हें खींच लाये ॥ 58 ॥

उनका गाल पकड़कर उन्होंने उनके मस्तकपर तलवारसे आघात किया, परंतु योगके प्रभावसे उनका सिर फटा नहीं, अभेद्य ही रह गया ॥ 59 ॥

तब उनके सिरको अस्त्र-शस्त्रोंसे अभेद्य समझकर उन्होंने पैरोंसे दक्षकी छातीको दबाकर हाथसे सिरको तोड़ दिया ॥ 60 ॥

तदनन्तर गणोंमें श्रेष्ठ वीरभद्रने उन शिवद्रोही दुष्ट दक्षके उस सिरको अग्निकुण्डमें डाल दिया ॥ 61 ॥

उस समय वीरभद्र अपने हाथमें त्रिशूल घुमाते हुए इस प्रकार शोभित हो रहे थे, मानो युद्धभूमिमें संवर्ताग्नि सबको जलाकर क्रोधमें भरी हुई पर्वतके समान स्थित हो ॥ 62 ॥

जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि पतिंगोंको जला डालती है, उसी प्रकार वीरभद्रने क्रोधित होकर बिना परिश्रम किये ही इन सबको मारकर अग्निसे जला डाला ॥ 63 ॥

तत्पश्चात् दक्ष आदिको जलाकर वीरोंकी शोभासे युक्त, त्रिलोकीको गुंजित करते हुए वीरभद्रने भयानक अट्टहास किया। तदनन्तर वहाँ गणोंसहित वीरभद्रके ऊपर नन्दनवनकी दिव्य पुष्पवृष्टि होने लगी ।। 64-65 ।।

शीतल, सुगन्धित तथा सुखदायक हवाएँ धीरे धीरे बहने लगीं और उसीके साथ देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं ॥ 66 ॥

तदनन्तर घोर अन्धकारका नाश करनेवाले सूर्यकी भाँति वे वीरभद्र दक्ष और उनके यज्ञका विनाश करके कृतकार्य हो तुरंत कैलासपर्वतपर चले गये ॥ 67 ॥ कार्यको पूर्ण किये हुए वीरभद्रको देखकर | परमेश्वर शिवजी मन-ही-मन प्रसन्न हुए और उन्होंने वीरभद्रको गणोंका अध्यक्ष बना दिया ॥ 68 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य