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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 4 (कुमार खण्ड) , अध्याय 15 - Sanhita 2, Khand 4 (कुमार खण्ड) , Adhyaya 15

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गणेश तथा शिवगणोंका भयंकर युद्ध, पार्वतीद्वारा दो शक्तियोंका प्राकट्य, शक्तियोंका अद्भुत पराक्रम और शिवका कुपित होना

ब्रह्माजी बोले- जब सर्वव्यापक शिवजीने अपने गणोंसे इस प्रकार कहा, तब उन्होंने युद्धका निश्चय कर लिया और कवच आदि धारणकर वे शिवजीके भवनके समीप गये। आये हुए उन श्रेष्ठ गणोंको देखकर युद्धकी तैयारी करके गणेशजी भी वहाँ स्थित गणोंसे यह कहने लगे- ॥ 1-2 ॥

गणेशजी बोले- शिवकी आज्ञाका पालन करनेवाले आप सब गण आयें, मैं अकेला बालक होते हुए भी [अपनी माता ] पार्वतीकी आज्ञाका पालन | करूँगा। तथापि आज देवी पार्वती अपने पुत्रका बल देखें और शंकर अपने गणोंका बल देखें ॥। 3-4 ॥

भवानीके पक्षसे इस बालकका तथा शिवके | पक्षसे वलवान् गणोंके बीच आज युद्ध होगा। युद्धमें विशारद आप सभी गण पूर्वकालमें अनेक युद्ध कर चुके हैं, मैं तो अभी बालक हूँ, मैंने कभी युद्ध नहीं किया है, किंतु आज युद्ध करूँगा। फिर भी शिव पार्वतीके इस युद्धमें हार जानेपर आप सभीको ही लज्जित होना पड़ेगा, बालक होनेके कारण मुझे हार या जीतकी लाज नहीं है, इस युद्धका फल भी मेरे विपरीत ही होगा। मेरी तथा आपलोगोंकी लाज भवानी तथा शंकरकी लाज है ॥ 5-7 ॥

हे गणेश्वरो ! ऐसा समझकर ही युद्ध कीजिये। आपलोग अपने स्वामीकी ओर देखकर तथा मैं अपनी माताकी ओर देखकर यह युद्ध करूँगा ॥ 8 ॥

यह युद्ध कैसा होगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती, इसे रोकने में इस त्रिलोकीमें कोई भी समर्थ नहीं होगा। जो होनहार है, वह भी होकर ही रहेगा ॥ 9 ॥

ब्रह्माजी बोले- जब गणेशने शिवजीके गणको इस प्रकार फटकारा, तब वे शिवगण भी हाथोंमें दण्ड तथा अन्य आयुध लेकर आ गये। दाँत कटकटाते हुए हुंकार करते हुए और 'देखो-देखो' ऐसा बारंबार बोलते हुए वे गण आ गये ॥ 10-11 ॥सर्वप्रथम नन्दीने आकर गणेशका एक पैर खींचा, उसके बाद दौड़ते हुए भृंगी आकर उसका पैर दूसरा पकड़कर खींचने लगा। जबतक वे दोनों उसके पैर घसीट रहे थे, तबतक उस गणेशने अपने हाथोंसे प्रहारकर अपने पैर छुड़ा लिये ।। 12-13 ॥

इसके बाद देवीपुत्र गणेश्वरने एक बड़ा परिघ लेकर द्वारपर स्थित हो सभी गणोंको मारना आरम्भ किया। इससे किन्हींके हाथ टूट गये, किन्हींकी पीठ फट गयी, किन्हींके सिर फूट गये और किन्हींके मस्तक कट गये। कुछ गणोंके जानु तथा कुछके कन्धे टूटकर अलग हो गये। जो लोग सामने आये, उन लोगों के हृदयपर प्रहार किया गया। कुछ पृथ्वीपर गिरे, कुछ ऊर्ध्व दिशाओंमें जा गिरे, कुछके पैर टूट गये और कुछ शिवजीके समीप जा गिरे। ll 14 - 17 ।।

उनमें कोई भी ऐसा गण नहीं था, जो संग्राममें गणेशके सामने दिखायी पड़े जैसे सिंहको देखकर मृग दसों दिशाओंमें भाग जाते हैं, उसी प्रकार वे हजारों गण भाग गये और वे गणेश पुनः लौटकर द्वारपर स्थित हो गये। जिस प्रकार कल्पान्तके समय काल भयंकर दिखायी पड़ता है, उसी प्रकार उन सभीने गणेशको [ कालके समान] प्रलयंकारी देखा ॥ 18-20 ॥

इसी बीच नारदजीसे प्रेरित होकर विष्णु, इन्द्रसहित सभी देवता वहाँ पहुँच गये॥ 21 ॥ तब शिवजीकी हितकामनासे उन लोगोंने शिवको नमस्कारकर उनके आगे खड़े होकर कहा हे प्रभो! हमें आज्ञा दीजिये आप परब्रह्म सर्वेश हैं और हम सब आपके सेवक हैं, आप सृष्टिके कर्ता, भर्ता और संहर्ता परमेश्वर हैं। आप स्वयं निर्गुण होते हुए भी अपनी लीलासे सत्त्व, रज तथा तमरूप हैं। हे प्रभो! आपने इस समय कौन-सी लीला प्रारम्भ की है, उसे हमें बताइये ।। 22 - 24 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ उनका यह वचन सुनकर महेश्वरने [अपने] घायल गणोंकी ओर देखकर उनसे सब कुछ कहा। इसके बाद हे मुनिसत्तम। पार्वतीपति सर्वेश्वर शंकर हँसकर मुझ ब्रह्मासे कहने लगे- ll 25-26 ll शिवजी बोले- हे ब्रह्मन्! सुनिये, मेरे द्वारपर एक महाबली बालक हाथमें लाठी लिये हुए खड़ा है, वह सबको घरमें जानेसे रोकता है। वह भयंकर प्रहार करनेवाला है, उसने मेरे पार्षदोंको मार गिराया है और मेरे गणको बलपूर्वक पराजित कर दिया है ।। 27-28 ॥ हे ब्रह्मन्! आप ही वहाँ जायँ और इस महाबलीको प्रसन्न करें। हे ब्रह्मन्! हे विधे जैसी नीति हो, वैसा व्यवहार करें ।। 29 ।।

ब्रह्माजी बोले- हे तात! शिवजीके इस वचनको सुनकर विशेष बातको न जानकर अज्ञानसे मोहित हुआ मैं सभी ऋषियोंके साथ उसके पास गया ॥ 30 ॥ वह महाबली गणेश मुझे आते हुए देखकर क्रोध करके मेरे सन्निकट आकर मेरी दाढ़ी उखाड़ने लगा ॥ 31 ॥

हे देव! क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये, मैं यहाँ युद्धके लिये नहीं आया हूँ। मैं तो ब्राह्मण हूँ, मुझपर कृपा कीजिये, मैं उपद्रवरहित हूँ तथा शान्ति करनेवाला हूँ ॥ 32 ॥

अभी मैं ऐसा कह ही रहा था, तभी हे नारद! युवाके समान पराक्रमी महावीर उस बालक गणेशने हाथमें परिघ ले लिया 33 ॥

तब उस महाबली गणेशको परिघ धारण किये हुए देखकर मैं शीघ्रतासे भाग गया। मेरे साथके लोग कहने लगे- यहाँसे भागो, भागो, इतनेमें ही उसने उन्हें परिघसे मारना प्रारम्भ कर दिया, जिससे कुछ तो स्वयं गिर गये और कुछको उसने मार गिराया। कुछ लोग उसी क्षण शिवजी के समीप जाकर पूर्णरूपसे | उस वृत्तान्तको शिवजीसे कहने लगे ॥ 34-36॥ उन्हें वैसा देखकर और उस पटनाको सुनकर लीला विशारद शिवजीको अपार क्रोध उत्पन्न हुआ ॥ 37 ॥ तब उन्होंने इन्द्रादि देवगणों कार्तिकेय आदि प्रमुख गणों, भूतों, प्रेतों एवं पिशाचोंको आज्ञा दी ॥ 38 ॥

शिवजीके द्वारा आदिष्ट वे लोग यथायोग्य हाथोंमें आयुध लिये हुए उस गणको मारने की इच्छासे | सभी दिशाओंमें गये और जिस-जिसका जो विशेष अस्त्र था, उन उन अस्त्रोंसे बलपूर्वक बालक गणेशपर प्रहार करने लगे ।। 39-40 ॥उस समय चराचरसहित त्रिलोकीमें हाहाकार मच गया और तीनों लोकोंमें रहनेवाले सभी लोग अत्यन्त संशयमें पड़ गये । ll 41 ।।

[वे आश्चर्यचकित हो कहने लगे कि] अभी ब्रह्माको आयु समाप्त नहीं हुई है, तब इस ब्रह्माण्डका नाश कैसे हो रहा है? निश्चय ही यह शिवकी इच्छा है, जो अकालमें ही ऐसा हो रहा है। उस समय कार्तिकेय आदि जितने भी देवता थे, वे सभी वहाँ आये और उन सभीके शस्त्र व्यर्थ हो गये, जिसके कारण वे आश्चर्यचकित हो उठे ।। 42-43 ।।

इसी बीच ज्ञानदायिनी देवी जगदम्बा उस सम्पूर्ण घटनाको जानकर अपार क्रोधमें भर गयीं ॥। 44 ।।

हे मुनीश्वर उस समय वहाँपर उन देवीने अपने गणकी सब प्रकारकी सहायता के लिये दो शक्तियोंका निर्माण किया। हे महामुने! जिसमें एक प्रचण्ड रूप धारणकर काले पहाड़की गुफाके समान मुख फैलाकर खड़ी हो गयी और दूसरी बिजलीके समान रूप धारण करनेवाली बहुत हाथोंवाली तथा दुष्टोंको दण्ड देनेवाली भयंकर महादेवी श्री ।। 45 - 47 ।।

उन दोनों शक्तियोंने देवताओंके द्वारा छोड़े गये समस्त आयुध पकड़कर बड़ी शीघ्रतासे अपने मुखमें डाल लिये। उस समय किसी देवताका एक भी शस्त्र वहाँ नहीं दिखायी दे रहा था, केवल चारों ओर गणेशका परिघ ही दिखायी पड़ा। इस प्रकार उन दोनोंने वहाँ अत्यन्त अद्भुत चरित्र किया ।। 48-49 ।।

पूर्व समय में जिस प्रकार गिरिश्रेष्ठ मन्दराचलने क्षीरसागरका मन्थन किया था, उसी प्रकार अकेले उस बालकने समस्त दुस्तर देवसेनाको मथ डाला ॥ 50 ॥

तब अकेले गणेशके द्वारा मारे-पीटे गये इन्द्रादि देवगण तथा शिवगण व्याकुल हो गये। इसके बाद गणेशके प्रहारसे व्याकुल हुए वे सभी एकत्रित होकर बारंबार श्वास छोड़ते हुए आपसमें कहने लगे - ॥ 51-52 ॥

देवगण बोले- अब क्या करना चाहिये और कहाँ जाना चाहिये? दसों दिशाओंका ज्ञान हो नहीं हो रहा है। यह बालक तो दायें-बायें परिभ घुमा रहा है 53 ॥ब्रह्माजी बोले- हे नारद! उसी समय पुष्प, चन्दन हाथमें लिये हुए अप्सराएँ तथा नारदादि ऋषि जो इस महान् युद्धको देखनेकी लालसावाले थे, वे सभी युद्ध देखनेके लिये वहाँ आये हे मुनिश्रेष्ठ उम समय उनके द्वारा आकाशमार्ग भर गया ।। 54-55 ॥ वे अप्सराएं तथा ऋषिगण उस युद्धको देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये और कहने लगे-इस प्रकारका युद्ध तो कभी भी देखनेमें नहीं आया ॥ 56 ॥ उस समय समुद्रसहित सारी पृथ्वी काँपने लगी तथा पर्वत गिरने लगे, वे संग्रामकी सूचना दे रहे थे ॥ 57 ॥

आकाश, ग्रह एवं नक्षत्रमण्डल घूमने लगे, जिससे सभी व्याकुल हो उठे। सभी देवता तथा गण भाग गये। केवल पराक्रमी तथा महावीर कार्तिकेय ही नहीं भागे और सबको रोककर गणेशके सामने डटे रहे ।। 58-59 ।।

उन दोनों शक्तियोंने उस युद्धमें सभीको असफल कर दिया और देवताओंके द्वारा चलाये गये सभी शस्त्रोंको काट दिया। जो लोग शेष बच गये थे, वे सब शिवजीके समीप आ गये, सभी देवता तथा शिवगण तो भाग ही चुके थे ll 60-61 ॥

उन सभीने मिलकर शिवको बारंबार नमस्कारकर बड़ी शीघ्रतासे पूछा- हे प्रभो! यह श्रेष्ठ गण कौन है ? ll 62 ॥

हमलोगोंने पहले भी युद्धका वर्णन सुना था, इस समय भी बहुत-से युद्ध देख रहे हैं, किंतु इस प्रकारका युद्ध न तो कभी देखा गया और न सुना ही गया! ॥ 63 ॥

हे देव! अब कुछ विचार कीजिये, अन्यथा जय नहीं हो सकती है। हे स्वामिन्! आप ही इस ब्रह्माण्डके रक्षक हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 64॥ ब्रह्माजी बोले- उनका यह वचन सुनकर परम-क्रोधी रुद्र कोप करके अपने गणोंसहित वहाँ गये ॥ 65 ॥

तब देवगणोंकी सेना भी चक्रधारी विष्णुके साथ महान् उत्सव करके शिवजीके पीछे-पीछे गयी ॥ 66 ॥हे नारद! इसी बीच आपने देवदेव महेश्वरको भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर नमस्कार करके कहा- ॥ 67 ॥ नारदजी बोले - हे देवदेव ! हे महादेव ! हे विभो ! मेरा वचन सुनिये, आप सर्वत्र व्याप्त हैं, सबके स्वामी हैं तथा नानाविध लीलाओंको करनेमें प्रवीण हैं ॥ 68 ॥ आपने महालीला करके गणोंके गर्वको दूर कर दिया। हे शंकर! आपने इनको बल देकर देवताओंके गर्वको भी नष्ट कर दिया। हे नाथ! हे शम्भो ! स्वतन्त्र तथा सभीके गर्वको चूर करनेवाले आपने इस भुवनमें अपना अद्भुत बल दिखाया। हे भक्तवत्सल ! अब आप उस लीलाको मत कीजिये और अपने इन गणोंका तथा देवताओंका सम्मान करके इनकी रक्षा कीजिये । हे ब्रह्मपददायक! अब इन्हें अधिक मत खेलाइये और इन गणेशका वध कीजिये। हे नारद! इस प्रकार कहकर आप वहाँसे अन्तर्धान हो गये । ll 69-72 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] कैलासपर भगवान् शिव एवं पार्वतीका बिहार
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिवके तेजसे स्कन्दका प्रादुर्भाव और सर्वत्र महान् आनन्दोत्सवका होना
  3. [अध्याय 3] महर्षि विश्वामित्रद्वारा बालक स्कन्दका संस्कार सम्पन्न करना, बालक स्कन्दद्वारा क्रौंच पर्वतका भेदन, इन्द्रद्वारा बालकपर वज्रप्रहार, शाख-विशाख आदिका उत्पन्न होना, कार्तिकेयका षण्मुख होकर छः कृत्तिकाओंका दुग्धपान करना
  4. [अध्याय 4] पार्वतीके कहनेपर शिवद्वारा देवताओं तथा कर्मसाक्षी धर्मादिकोंसे कार्तिकेयके विषयमें जिज्ञासा करना और अपने गणोंको कृत्तिकाओंके पास भेजना, नन्दिकेश्वर तथा कार्तिकेयका वार्तालाप, कार्तिकेयका कैलासके लिये प्रस्थान
  5. [अध्याय 5] पार्वतीके द्वारा प्रेषित रथपर आरूढ़ हो कार्तिकेयका कैलासगमन, कैलासपर महान् उत्सव होना, कार्तिकेयका महाभिषेक तथा देवताओंद्वारा विविध अस्त्र-शस्त्र तथा रत्नाभूषण प्रदान करना, कार्तिकेयका ब्रह्माण्डका अधिपतित्व प्राप्त करना
  6. [अध्याय 6] कुमार कार्तिकेयकी ऐश्वर्यमयी बाललीला
  7. [अध्याय 7] तारकासुरसे सम्बद्ध देवासुर संग्राम
  8. [अध्याय 8] देवराज इन्द्र, विष्णु तथा वीरक आदिके साथ तारकासुर का युद्ध
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीका कार्तिकेयको तारकके वधके लिये प्रेरित करना, तारकासुरद्वारा विष्णु तथा इन्द्रकी भर्त्सना, पुनः इन्द्रादिके साथ तारकासुरका युद्ध
  10. [अध्याय 10] कुमार कार्तिकेय और तारकासुरका भीषण संग्राम, कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध, देवताओं द्वारा दैत्यसेनापर विजय प्राप्त करना, सर्वत्र विजयोल्लास, देवताओं द्वारा शिक्षा शिव तथा कुमारकी स्तुति
  11. [अध्याय 11] कार्तिकेयद्वारा बाण तथा प्रलम्ब आदि असुरोंका वध, कार्तिकेयचरितके श्रवणका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] विष्णु आदि देवताओं तथा पर्वतोंद्वारा कार्तिकेयकी स्तुति और वरप्राप्ति, देवताओंके साथ कुमारका कैलासगमन, कुमारको देखकर शिव-पार्वतीका आनन्दित होना, देवोंद्वारा शिवस्तुति
  13. [अध्याय 13] गणेशोत्पत्तिका आख्यान, पार्वतीका अपने पुत्र गणेशको अपने द्वारपर नियुक्त करना, शिव और गणेशका वार्तालाप
  14. [अध्याय 14] द्वाररक्षक गणेश तथा शिवगणोंका परस्पर विवाद
  15. [अध्याय 15] गणेश तथा शिवगणोंका भयंकर युद्ध, पार्वतीद्वारा दो शक्तियोंका प्राकट्य, शक्तियोंका अद्भुत पराक्रम और शिवका कुपित होना
  16. [अध्याय 16] विष्णु तथा गणेशका युद्ध, शिवद्वारा त्रिशूलसे गणेशका सिर काटा जाना
  17. [अध्याय 17] पुत्रके वधसे कुपित जगदम्बाका अनेक शक्तियोंको उत्पन्न करना और उनके द्वारा प्रलय मचाया जाना, देवताओं और ऋषियोंका स्तवनद्वारा पार्वतीको प्रसन्न करना, शिवजीके आज्ञानुसार हाथीका सिर लाया जाना और उसे गणेशके धड़से जोड़कर उन्हें जीवित करना
  18. [अध्याय 18] पार्वतीद्वारा गणेशको वरदान, देवोंद्वारा उन्हें अग्रपूज्य माना जाना, शिवजीद्वारा गणेशको सर्वाध्यक्षपद प्रदान करना, गणेशचतुर्थी व्रतविधान तथा उसका माहात्म्य, देवताओंका स्वलोक गमन
  19. [अध्याय 19] स्वामिकार्तिकेय और गणेशकी बाल लीला, विवाहके विषयमें दोनोंका परस्पर विवाद, शिवजीद्वारा पृथ्वी परिक्रमाका आदेश, कार्तिकेयका प्रस्थान, बुद्धिमान् गणेशजीका पृथ्वीरूप माता-पिताकी परिक्रमा और प्रसन्न शिवा-शिवद्वारा गणेशके प्रथम विवाहकी स्वीकृति
  20. [अध्याय 20] प्रजापति विश्वरूपकी सिद्धि तथा बुद्धि नामक दो कन्याओंके साथ गणेशजीका विवाह तथा उनसे 'क्षेम' तथा 'लाभ' नामक दो पुत्रोंकी उत्पत्ति, कुमार कार्तिकेयका पृथ्वी की परिक्रमाकर लौटना और क्षुब्ध होकर क्रौंचपर्वतपर चले जाना, कुमारखण्डके श्रवणकी महिमा