सूतजी बोले- तारकके शत्रु कुमारके अद्भुत तथा उत्तम चरित्रको सुनकर प्रसन्न हुए नारदजीने ब्रह्माजीसे प्रीतिपूर्वक पूछा ॥ 1 ॥
नारदजी बोले - हे देवदेव! हे प्रजानाथ! हे शिवज्ञाननिधे मैंने आपसे कार्तिकेयका अमृतसे भी उत्तम चरित्र सुना। अब मैं गणेशजीका उत्तम चरित्र सुनना चाहता हूँ। उनका जन्म एवं चरित्र [अत्यन्त ] दिव्य तथा सभी मंगलोंका भी मंगल करनेवाला है ।। 2-3 ॥
सूतजी बोले- उन महामुनि नारदका यह वचन सुनकर ब्रह्माजी प्रसन्नचित्त हो गये और शिवजीका स्मरण करते हुए कहने लगे - ll 4 ॥
ब्रह्माजी बोले- कल्पके भेदसे गणेशजीका जन्म ब्रह्माजीसे भी पहले कहा गया है। एक समय शनिकी दृष्टि पड़ने से उनका सिर कट गया और उसपर हाथीका सिर जोड़ दिया गया। अब मैंश्वेतकल्पमें जिस प्रकार गणेशजीका जन्म हुआ था, उसे कह रहा हूँ, जिसमें कृपालु शंकरजीके द्वारा उनका शिरश्छेदन किया गया था ।। 5-6 ॥
हे मुने। शंकरजी सृष्टिकर्ता है, इस विषय सन्देह नहीं करना चाहिये। वे सबके स्वामी हैं, वे शिव सगुण होते हुए भी निर्गुण हैं। हे मुनिश्रेष्ठ ! उनकी लीलासे ही इस विश्वका सृजन, पालन तथा संहार होता है। अब आदरपूर्वक प्रस्तुत चरित्र सुनिये ॥ 78 ॥
शिवजीके विवाहके उपरान्त कैलास चले जानेपर कुछ समयके बाद गणेशजीका जन्म हुआ ॥ 9 ॥ किसी समय पार्वतीकी सखियाँ जया तथा विजया पार्वतीके साथ मिलकर विचार करने लगीं ॥ 10 ॥
शिवजीकी आज्ञामें रहनेवाले नन्दी, भृंगी आदि अनेक और असंख्य प्रमथगण हैं। यद्यपि वे हमारे भी गण हैं, फिर भी शंकरकी आज्ञाका पालन करनेवाले वे सभी द्वारपर स्थित रहते हैं, स्वतन्त्ररूपसे हमारा कोई भी गण नहीं है। यद्यपि वे सब हमारे भी हैं, किंतु हमारा मन उनसे नहीं मिलता है, इसलिये हे अनघे! हमारा भी कोई स्वतन्त्र गण होना चाहिये, अतः आप ऐसे एक गणकी रचना कीजिये ll 11-13 ll
ब्रह्माजी बोले- जब सखियोंने यह उत्तम वचन पार्वतीसे कहा, तब उन्होंने उसमें अपना हित मान लिया और वे वैसा करनेका प्रयत्न करने लगीं ॥ 14 ॥
इसके बाद किसी समय जब पार्वतीजी स्नान कर रही थीं, उसी समय [द्वारपर बैठे] नन्दीको दौटकर शंकरजी भीतर चले आये ॥ 15 ॥
शिवजीको असमयमें आता हुआ देखकर स्नान करती हुई वे सुन्दरी जगदम्बा लज्जित होकर उठ गयीं ॥ 16 ॥
उस समय अत्यन्त कौतुकसे युक्त पार्वतीको सखियोंके द्वारा कहा गया वह वचन अत्यन्त हितकारी तथा सुखदायक प्रतीत हुआ। इसके बाद कुछ समय बीतनेपर परमाया परमेश्वरी पार्वतीने मनमें विचार किया कि मेरा भी कोई ऐसा सेवक होना चाहिये, जो श्रेष्ठ हो तथा योग्य हो और मेरी आज्ञाके बिना रेखामात्र भी इधर से उधर विचलित न हो । 17-19 ॥इस प्रकार विचारकर उन देवीने अपने शरीरके मैलसे सर्वलक्षणसम्पन्न, शरीरके सभी अवयवोंसे सर्वथा निर्दोष, समस्त सुन्दर अंगोंवाले, विशाल, सर्वशोभा सम्पन्न एवं महाबली तथा पराक्रमी पुरुषका निर्माण किया । ll 20-21 ।।
पार्वतीने उसे नाना प्रकारके वस्त्र, अनेक प्रकारके अलंकार तथा अनेक उत्तम आशीर्वाद देकर कहा- तुम मेरे पुत्र हो, तुम्हीं मेरे हो और यहाँ कोई दूसरा मेरा नहीं है। इस प्रकार कहे जानेपर उस पुरुषने पार्वतीको नमस्कारकर कहा ।। 22-23 ॥
गणेशजी बोले- आपका क्या कार्य है ? मैं आपके द्वारा आदिष्ट कार्यको पूरा करूँगा। तब उनके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर पार्वतीने पुत्रसे कहा- ॥ 24 ॥
शिवा बोलीं- हे तात! मेरे वचनको सुनो। तुम आज मेरे द्वारपाल बनो, तुम मेरे पुत्र हो, केवल तुम्हीं मेरे हो, तुम्हारे अतिरिक्त यहाँ मेरा कोई नहीं है ।। 25 ।।
हे सत्पुत्र ! मेरी आज्ञाके बिना कोई भी मेरे घरके भीतर किसी प्रकार हठसे भी न जाने पाये। हे तात! यह मैंने तुमसे सत्य कह दिया ॥ 26 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! पार्वतीने इस प्रकार कहकर एक अत्यन्त दृढ़ लाठी उसे दी और उस बालकके सुन्दर रूपको देखकर वे हर्षित हो गर्यो ॥ 27 ॥
उन्होंने प्रेमसे उस पुत्रका मुख चूमकर उसका आलिंगन करके हाथमें लाठी लिये हुए उन गणेशको अपने द्वारपर नियुक्त कर दिया। हे तात! इस प्रकार वह महावीर देवीपुत्र गण पार्वती माताको रक्षाके लिये हाथमें लाठी लिये हुए द्वारपर पहरा देने लगा ।। 28-29 ।।
एक समय अपने पुत्र उन गणेश्वरको द्वारपर नियुक्तकर वे पार्वती सखियोंके साथ स्नान करने लगीं। हे मुनिश्रेष्ठ। इसी समय परम कौतुकी तथा अनेक प्रकारकी लीलाएँ करनेमें प्रवीण वे शिवजी भी द्वारपर आ पहुँचे 30-31 ।।तब गणेशने उन शिवजीको बिना पहचाने कहा- हे देव! इस समय माताकी आज्ञाके बिना आप भीतर नहीं जा सकते। माताजी स्नान कर रही हैं, कहाँ चले जा रहे हैं? इस समय यहाँसे चले जाइये - इस प्रकार कहकर गणेशने उन्हें रोकनेके लिये अपनी लाठी उठा ली ।। 32-33 ॥
उसे देखकर शिवजी बोले- हे मूर्ख ! तुम किसे मना कर रहे हो, हे दुर्बुद्धे ! तुम मुझे नहीं जानते, मैं शिव हूँ, कोई दूसरा नहीं। इसपर गणेशने लाठीसे शिवजीपर प्रहार किया, तब बहुत लीला करनेवाले शिवजीने कुपित होकर पुत्रसे कहा- ।। 34-35 ।।
शिवजी बोले- हे बालक ! तुम मूर्ख हो, तुम मुझे नहीं जानते हो। मैं पार्वतीका पति शिव हूँ, हे बालक! मैं तो अपने ही घर जा रहा हूँ, तुम मुझे मना क्यों करते हो ? ॥ 36 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे विप्र ! ऐसा कह घरमें प्रवेश करते हुए उन शंकरजीपर गणनायक गणेशने क्रोध करते हुए पुनः डण्डेसे प्रहार किया। तब अत्यन्त कुपित हुए शिवजीने अपने गणोंको आज्ञा दी - हे गणो! देखो, यह कौन है और यहाँ क्या कर रहा है ? ।। 37-38 ll
ऐसा कहकर लोकाचारमें तत्पर रहनेवाले तथा अनेक अद्भुत लीलाएँ करनेवाले शिवजी महाक्रोधमें भरकर घरके बाहर ही स्थित रहे ।। 39 ॥