उनके द्वारा दक्षके यज्ञका विध्वंस
वायु बोले- इसके पश्चात् वीरभद्रने विष्णुके नेतृत्ववाले तेजस्वी देवगणोंसे युक्त उस महायज्ञको देखा, जो चित्र-विचित्र ध्वजाओंसे सुशोभित था, जहाँ सीधे-सीधे श्रेष्ठ कुश बिछे हुए थे, भलीभाँति अग्नि प्रज्वलित हो रही थी, जो चमकते हुए सुवर्णमय यज्ञपात्रोंसे अलंकृत था तथा जिसमें यथोचित कर्म करनेवाले यज्ञकुशल ऋषियोंके द्वारा वेदविहित रीतिसे भलीभाँति विविध यज्ञकृत्योंका संचालन हो रहा था, जो हजारों देवांगनाओं एवं अप्सराओंसे समन्वित था, वेणु-वीणाकी ध्वनियोंसे गुंजित था तथा वेदघोषोंसे मानो अभिवृद्धिको प्राप्त हो रहा था ॥ 1-4॥
दक्षके यज्ञको देखकर वीर तथा प्रतापी वीरभद्रने गम्भीर मेपके समान सिंहनाद किया। यज्ञभूमिमें गणेश्वरोंके द्वारा किया जाता हुआ किलकिलाहटभरा वह महानाद मानों आकाशको परिपूर्ण-सा कर रहा था और सागरके घोषको तिरस्कृत-सा कर रहा था ।। 5-6 ।।
उस महान् शब्दसे आक्रान्त हुए सभी देवगण भयसे व्याकुल हो चारों ओर भागने लगे, उनके वस्त्र एवं आभूषण खिसक गये। उस समय देवगण अत्यधिकसंक्षुब्ध हो आपसमें बार-बार कहने लगे- क्या महामे टूट गया, अथवा पृथ्वी फट रही है। यह क्या हो गया, यह क्या हो गया ? ।। 7-8 ।।
जिस प्रकार गहन वनमें सिंहोंका | सुनकर हाथी व्याकुल हो जाते हैं, उसी तरह उन नाद शब्दोंको सुनकर कुछ लोग भयसे प्राण त्यागने लगे। पर्वत फटने लगे, पृथ्वी कम्पित हो आँधियाँ चलने लगीं। समुद्र संध हो उठे आग जलना बन्द हो गया, सूर्यकी प्रभा भूमि गयी और नक्षत्रों, ग्रहों तथा तारागणीप्रकाश लुप्त हो गया। उसी समय भगवान् वीरभद्र अपने गणों एवं भद्रकालीके साथ उस समुज्ज्वल यज्ञस्थलमें पहुँचे । ll 9-12 ॥
उन्हें देखकर दक्ष भयभीत होते हुए भी दृढकी भाँति बैठे रहे और क्रोधित होकर यह वचन कहने लगे-आप कौन हैं और यहाँ क्या चाहते हैं ? ॥ 13 ll
उस दुरात्मा दक्षके वचनको सुनकर मे समान गम्भीर गर्जना करनेवाले महातेजस्वी वीरभद दक्ष, देवताओं तथा ऋत्विजोंकी ओर देखकर हुए अर्थपूर्ण, सर्वथा सुस्पष्ट एवं उचित वचन कहा- ।। 14-15 ॥
वीरभद्र बोले- हम सब अमिततेजस्वी [भगवान्] रुद्रके अनुचर हैं और अपने भागकी कामनासे यहाँ आये हैं, अतः आप हमारा भाग दीजिये। यदि इस यज्ञमें हमारा भाग नहीं रखा गया है, तो उसका कारण बताइये अथवा इन देवताओंको | साथ लेकर मुझसे युद्ध कीजिये । वीरभद्र के द्वारा इस तरह कहे जानेपर दक्षके सहित देवताओंने उनसे कहा- इस विषयमें तो मन्त्र ही प्रमाण हैं। हमलोग इसमें समर्थ नहीं हैं ॥ 16-18 ॥
मन्त्रोंने कहा- हे देवताओ! आपलोगोंकी बुद्धि मोहसे ग्रसित है, जिससे आपलोग प्रथम भाग पानेके | योग्य महेश्वरका यजन नहीं कर रहे हैं ॥ 19 ॥मन्त्रोंके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी मूह बुद्धिवाले उन सभी देवताओंने वीरभद्र के बहिष्कारकी कामना करते हुए उनको भाग नहीं दिया। जब उनके अपने वे सत्य एवं हितकर वचन व्यर्थ हो गये, तब वे मन्त्र वहाँसे सनातन ब्रह्मलोकको चले गये । ll 20-21 ।।
इसके पश्चात् गणेश्वरने विष्णु आदि देवगणोंसे कहा- बलसे गर्वित आपलोगोंने मन्त्रोंको भी प्रमाण नहीं माना और [तुम] देवताओंने इस यज्ञमें हमलोगोंका ऐसा तिरस्कार किया है, अतः मैं प्राणोंसहित आपलोगोक घमण्डको विनष्ट कर दूँगा ।। 22-23 ll
इस प्रकार कहकर कुपित हुए भगवान् वीरभद्र पर्वतके समान यज्ञवाटको नेत्राग्निसे उसी प्रकार जलाने लगे, जिस प्रकार शंकरने त्रिपुरको जलाया था ॥ 24 ॥
पर्वतोंके समान भयानक शरीरवाले गणेश्वरोंने यज्ञके स्तम्भोंको उखाड़कर हवनकर्ताओंके कण्ठों में रस्सियोंसे बाँध दिया और विचित्र रूपवाले यज्ञपात्रको तोड़-फोड़कर जलमें और यज्ञकी सभी सामग्री उठाकर गंगामें फेंक दी ।। 25-26 ॥
वहाँपर जो दिव्य अन्न-पानकी पहाड़-जैसी राशियाँ थीं, अमृतके समान मधुर दूधकी नदियाँ, स्निग्ध दधिकी राशियों, अनेक प्रकारके फलोंके गूदे सुगन्धित भोज्य पदार्थ, रसमय पानसामग्री, लेा पदार्थ एवं चोष्य पदार्थ थे, उन्हें वे बीर खाने लगे, मुखोंमें डालने लगे और फेंकने लगे। वीरभद्रके शरीरसे उत्पन्न बलवान् वीर वज्र, चक्र, महाशूल, शक्ति, पाश, पट्टिश, मूसल, खड्ग, टंक, भिन्दिपाल तथा फरसोंसे लोकपालादि सभी उद्धत देवताओंपर प्रहार करने लगे॥ 27-302 ॥
इस तरह गणेश्वरोंके 'छेदन करो, भेदन करो, फेंक दो, शीघ्र मारो काटो, चूर्ण करो, छीन लो, प्रहार करो, उखाड़ दो, फाड़ दो आदि कानोंको शंकुकी भाँति पीड़ा देनेवाले युद्धोचित भयानक शब्द जहाँ-तहाँ होने लगे। कोई आँखोंसे घूर रहा था, तो किसीने अपने दाँतोंसे ओठ और तालुओंको काटलिया। वे श्रेष्ठ गण आश्रमोंमें स्थित तपस्वियोंको खींच खींचकर पीटने लगे और खुवाका छन हुए तथा अग्नियोंको जलराशिमें डालते कलशोंको फोड़ते हुए, मणिनिर्मित वेदियों को करते हुए, बारंबार गाते हुए, गरजते हुए, हँसते हुए तथा आसवकी भाँति रक्तको पीते हुए नाचने लगे ।। 31-36 ॥
श्रेष्ठ वृषभ, गजराज एवं सिंहके समान बलवाले और अप्रतिम प्रभाववाले गणेश्वरोंने इन्द्रसहित सभी देवताओंको रौंदकर रोमांचित कर देनेवाली अनेक
भयानक चेष्टाएँ कीं ॥ 37 ॥ कोई प्रमथ आह्लादित हो रहे थे, कोई प्रहार करते, कोई दौड़ते, कोई प्रलाप करते, कोई नाचते, कोई हँसते और कोई बलपूर्वक उछलते कूदते थे ॥ 38 ॥
कोई भयंकर प्रमथगण जलसे समन्वित बादलोंको पकड़नेकी इच्छा कर रहे थे, तो कोई सूर्यको पकड़नेके लिये उछल रहे थे और कोई आकाशमें स्थित होकर पवनके साथ उड़नेकी इच्छा कर रहे थे ॥ 39 ॥
कोई प्रमथगण श्रेष्ठ आयुधोंको [ कौतूहलवश] पकड़ ले रहे थे, जैसे बड़े-बड़े सर्पोंको गरुड़ पकड़ लेते हैं और कोई पर्वतशिखरके सदृश प्रमथगण | देवताओंको दौड़ाते हुए आकाशमें विचरण कर रहे थे ॥ 40 ॥
कोई प्रमथगण जालयुक्त खिड़कियों तथा वेदियोंसे समन्वित घरोंको उखाड़ उखाड़कर उन्हें जलके बीचमें फेंक-फेंककर प्रलयकालीन मेघोंके | समान गर्जन कर रहे थे। [उस समय विलाप करते हुए लोग कह रहे थे-] अहो ! दुःखका विषय है। कि किवाड़ों तथा दीवारोंवाला और ध्वस्त किये गये। प्रकोष्ठों, खिड़कियों एवं कँगूरोंवाला यह यज्ञस्थल अप्रामाणिक तथा असत्य कथनकी भाँति विनष्ट हुआ | जा रहा है ।। 41-42 ॥उस समय विध्वस्त किये जा रहे घरोंमें स्थित स्त्रियाँ हा नाथ! हा तात ! हा पिता! हा पुत्र ! हा | भ्रातः ! हा मेरी माता! हा मातुल! आदि दैन्यसूचक शब्दोंको बार-बार बोल रही थीं ॥ 43 ॥