सूतजी बोले- अपनी छोटी बहनके पुत्रको | देखकर बड़ी बहन दुखी हुई और वह उसके पुत्रमुखको सहन न करती हुई उससे विरोध करने लगी ॥ 1 ॥
सब लोग उस पुत्रवतीको निरन्तर प्रशंसा करते थे, किंतु सुदेहाको यह सब तथा शिशुका रूप आदि सहन नहीं होता था ॥ 2 ॥
माता- पिताके अत्यन्त प्रिय तथा सद्गुणोंके पात्र उस पुत्रको देखकर उसका हृदय अग्निके समान तप्त हो जाता था ॥ 3 ॥
इसी बीच कुछ विप्र कन्या देनेके लिये आये और सुधर्माने विधिपूर्वक उस [ अपने पुत्र]- का विवाह वहीं सम्पन्न कर दिया ॥ 4 ॥
सुधर्मा [अपनी छोटी स्वी] घुश्माके साथ परम आनन्दको प्राप्त हुआ और सभी सम्बन्धी उस घुश्माका सम्मान करने लगे। उसे देखकर सुदेहा मन ही मन जलने लगी और 'हाय में भारी गयी' ऐसा कहती हुई बहुत दुखी हुई ॥ 5-6 ॥ सुधर्मा अपने विवाहित पुत्र तथा पुत्रवधूको लेकर घर आकर अपनी दोनों स्त्रियोंके साथ हर्षित होते हुए उत्साह प्रदर्शित करने लगा ॥ 7 ॥
इससे घुश्मा तो आनन्दित हुई, पर सुदेहा दुःखित हो गयी। वह उस सुखको सहन न करती हुई दुखी हो पृथ्वीपर गिर पड़ी ॥ 8 ॥
तब घुश्माने कहा- ये पुत्र तथा पुत्रवधू तुम्हारे ही हैं, मेरे नहीं पुत्र तथा बहू-ये दोनों भी उसे अपनी माता तथा सास ही मानते थे ॥ 9 ॥पति [सुधर्मा] भी अपनी ज्येष्ठ स्त्रीका जैसा आदर करता था, वैसा कनिष्ठाका नहीं। फिर भी वह ज्येष्ठ पत्नी अपने मनमें कपट रखती थी ॥ 10 ॥
एक दिन ज्येष्ठा सुदेहाने दुखी होकर अपने मनमें विचार किया कि मेरे इस दुःखकी शान्ति कैसे हो ? ।। 11 ।। सुदेहा [ मन-ही-मन ] बोली- मेरे हृदयको अग्नि घुश्माके दुःखजनित आँसुओंसे ही शान्त होगी, अन्य किसी प्रकार नहीं, यह निश्चित है ॥ 12 ॥
इसलिये मैं आज ही मधुर भाषण करनेवाले उसके पुत्रको मार डालूंगी, यह मेरा दृढ़ निश्चय है, आगे जो होनहार होगा, वह तो होकर ही रहेगा ॥ 13 ॥
सूतजी बोले- हे ब्राह्मणो कपटी मनुष्यको कर्तव्य अकर्तव्यका विचार नहीं रहता, कठोर सौतियाडाहका भाव प्रायः अपना ही विनाश कर देता है ll 14 ll
एक दिन सुधर्माकी ज्येष्ठ पत्नीने खुरी लेकर रातमें वधूके साथ सोये हुए पुत्रके अंगोंको खण्ड खण्ड काट डाला। इस प्रकार उस घमण्डी तथा महाबलाने घुश्माके पुत्रके सभी अंगोंको खण्ड-खण्ड कर दिया और रात्रिमें ही ले जाकर तालाबमें उसी स्थानपर फेंक दिया, जहाँ घुश्मा नित्य पार्थिव शिवलिंगोंको विसर्जित किया करती थी। इस प्रकार वहाँपर फेंककर लौट आयी और सुखपूर्वक सो गयी ।। 15- 17 ॥ प्रातः काल होनेपर घुश्मा नित्यकर्म करने लगी तथा श्रेष्ठ सुधर्मा भी स्वयं नित्यकर्म सम्पादन करने लगा ॥ 18 ॥
इसी बीच ज्येष्ठा सुदेहा, जिसके हृदयकी अग्नि शान्त हो चुकी थी, अत्यन्त आनन्दयुक्त होकर गृहकार्य करने लगी ॥ 19 ॥
प्रात:काल होनेपर उठ करके वह वधू खूनसे लथपथ तथा पतिके शरीर के टुकड़ोंसे युक्त शय्याको देखकर बहुत दुखी हुई और उसने अपनी साससे कहा- आपके पुत्र कहाँ गये ? शय्या रुधिरसे | लथपथ है तथा वहाँ शरीरके टुकड़े-टुकड़े दिखायी पड़ रहे हैं । ll 20-21 ॥हे शुचिव्रते ! मैं तो मारी गयी, किसने यह दुष्टकर्म किया है-ऐसा कहकर उसकी पत्नी अत्यधिक विलाप करने लगी। तब ज्येष्ठा सुदेहा भी बाहरसे दुःख प्रकट करने लगी और भीतरसे प्रसन्न हुई। वह दुःखित होकर बोली- हाय! मैं तो निश्चय ही मर गयी ।। 22-23 ।।
वह पुश्मा अपनी पुत्रवधूके दुःखको सुनकर भी नित्य पार्थिवपूजनरूप व्रतसे विचलित नहीं हुई ।। 24 ।। उसका मन [ पुत्रशोकसे] थोड़ा भी उत्कण्ठित नहीं हुआ और उसका पति भी जबतक व्रतविधि समाप्त नहीं हुई, तबतक वैसा ही रहा ।। 25 ।। पूजनके बाद मध्याह्नकालमें उस भयानक शय्याको देखकर भी उस घुश्माने कुछ भी दुःख नहीं किया ॥ 26 ॥
जिन्होंने यह पुत्र दिया है, वे ही रक्षा भी करेंगे; वे भक्तवत्सल, कालके भी काल और सज्जनोंकी रक्षा
करनेवाले कहे गये हैं ॥ 27 ॥
यदि हमारी रक्षा करनेवाले एकमात्र प्रभु ईश्वर सदाशिव हैं, तो चिन्ताकी बात ही क्या है? वे ही मालीके समान उन प्राणियोंका संयोग कराते हैं और पुनः उन्हें अलग भी कर देते हैं ॥ 28 ॥
इस समय मेरे चिन्ता करनेसे भी क्या होनेवाला है, इस तत्वका विचारकर वह दुखी नहीं हुई और शिवजीका ध्यानकर धैर्य धारण किये रही ॥ 29 ॥
स्थिरचित्त होकर पूर्वकी भाँति पार्थिव शिवलिंगोंको लेकर शिवके नामोंका उच्चारण करती हुई वह सरोवर के तटपर गयी। जब वहाँ पार्थिव लिंगोंको डालकर वह लौटने लगी, तब उसने सरोवरके तटपर खड़े अपने पुत्रको देखा ॥ 30-31 ॥
पुत्र बोला- हे माता! आओ, मैं तुमसे मिलूँगा, मैं तो मर गया था, किंतु तुम्हारे पुण्यके प्रभावसे और शंकरजीकी कृपासे अब जीवित हो गया हूँ ॥ 32 ॥ सूतजी बोले- हे द्विजो! वह घुश्मा अपने उस पुत्रको जीवित देखकर भी वैसे ही अधिक प्रसन्न न हुई, जैसा कि उसके मरनेपर दुखी न थी, किंतु यथावत् शिवजीके ध्यानमें तत्पर रही ॥ 33 ॥इसी समय वहाँ सन्तुष्ट हुए ज्योतिःस्वरूप सदाशिव शीघ्र प्रकट हो गये और उससे कहने लगे - ॥ 34 ॥
शिवजी बोले – हे वरानने! मैं प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो, उस दुष्टाने इसे मारा था, अब मैं अपने त्रिशूलसे उसे मारूँगा ॥ 35 ॥
सूतजी बोले- तब विनत हुई घुश्माने शिवजीको प्रणामकर यह वर माँगा - हे नाथ! आप मेरी इस बहन सुदेहाकी रक्षा कीजिये ॥ 36 ॥ शिवजी बोले- उसने तो अपकार किया है, फिर भी तुम उसका उपकार क्यों कर रही हो?
दुष्टकर्म करनेवाली सुदेहा तो वधके योग्य है ॥ 37 ॥ घुश्मा बोली- [ हे प्रभो!] आपके दर्शनमात्रसे पाप नहीं रह जाता है, इसलिये आपका दर्शन करते ही उसके सभी पाप दूर हो गये ।। 38 ।।
जो पुरुष अपकार करनेवालोंके प्रति उपकार करता है, उसके दर्शनमात्रसे ही पाप दूर भाग जाते हैं। हे देव! मैंने भगवान्का ऐसा अद्भुत वाक्य सुना है, इसलिये हे सदाशिव जिसने जैसा किया है, वह वैसा करे ।। 39-40 ॥
सूतजी बोले- उसके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भक्तवत्सल कृपासिन्धु महेश्वर अतीव प्रसन्न हो गये और उन्होंने पुनः कहा- ॥ 41 ॥
शिवजी बोले – हे घुश्मे ! अब तुम कोई अन्य वर माँगो, मैं दूंगा मैं तुम्हारी भक्ति तथा निर्विकार स्वभावसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ, इसलिये तुम्हारा हित करना चाहता हूँ ॥ 42 ll
सूतजी बोले- उनका वचन सुनकर उसने कहा यदि आप मुझे वर देना ही चाहते हैं, तो आप संसारकी रक्षाके निमित्त मेरे नामसे यहीं पर स्थित हो जाइये ॥ 43 ॥
तब अत्यन्त प्रसन्न हुए महेश्वर शिवजी बोले- हे घुश्मे ! मैं तुम्हारे नामसे घुश्मेश्वरके रूपमें प्रसिद्ध होकर यहाँ निवास करूँगा और सबको प्रदान करूँगा ।। 44 ।।
यहाँपर मेरा घुश्मेश्वर नामक शुभ ज्योतिर्लिंग प्रसिद्ध होगा और यह सरोवर सदा सभी लिंगोंका निवासस्थान होगा। इसलिये यह शिवालय नामसे तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध होगा। यह सरोवर दर्शनमात्रसे सदा सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला होगा ।। 45-46 ।।हे सुव्रते ! तुम्हारे वंशमें एक सौ एक पीढ़ीपर्यन्त इसी प्रकारके श्रेष्ठ पुत्र होते रहेंगे, इसमें सन्देह नहीं है, वे सुन्दर स्त्रीवाले, महाधनी, दीर्घजीवी, मेधावी, विद्वान्, उदार तथा भोग- मोक्षके फलको प्राप्त करनेवाले होंगे। इन सबको एक सौ एक पुत्र होंगे, जो गुणोंमें परस्पर एक से एक अधिक होंगे। इस प्रकार तुम्हारे वंशका अति सुन्दर विस्तार होगा ॥ 47-49 ॥
सूतजी बोले- ऐसा कहकर शिवजी वहाँ ज्योतिर्लिंगरूपसे स्थित हो गये। वे घुश्मेश्वर नामसे विख्यात हुए और वह सरोवर शिवालय नामसे विख्यात हुआ ॥ 50 ॥
उस समय वहाँपर आये हुए सुधर्मा, सुदेहा और घुश्माने बड़ी शीघ्रतासे शिवजीकी एक सौ एक बार परिक्रमा की। शिवजीकी पूजा करके परस्पर मिलकर | तथा अपने अन्तःकरणका पाप दूरकर उन्होंने परम सुख प्राप्त किया ॥ 51-52 ॥
हे विप्रो ! पुत्रको जीवित देखकर वह सुदेहा लज्जित हो गयी और उसने उन दोनोंसे क्षमा माँगकर अपने पापोंको दूर करनेवाले व्रतका आचरण किया ॥ 53 ॥
हे मुनीश्वरो ! इस प्रकार घुश्मेश्वर नामक यह लिंग उत्पन्न हुआ, उसका पूजन तथा दर्शन करनेसे सुखकी सदा वृद्धि होती है। इस प्रकार मैंने | आपलोगोंसे बारह ज्योतिर्लिंगोंका वर्णन किया, जो सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले और भोग तथा मोक्ष देनेवाले हैं ॥ 54-55॥
जो इन ज्योतिर्लिंगों की कथाओंको पढ़ता और सुनता है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है और भोग तथा मोक्ष प्राप्त करता है ॥ 56 ॥