सूतजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठो! इसके बाद घुश्मेश नामक ज्योतिर्लिंग कहा गया है। उसका उत्तम | माहात्म्य सुनिये ॥ 1 ॥दक्षिण दिशामें श्रेष्ठ देवगिरि नामक एक महान् | शोभासे युक्त पर्वत विराजमान है, जो देखनेमें विचित्र | मालूम पड़ता है ॥ 2 ॥
उसीके समीप भारद्वाजके कुलमें उत्पन्न महान् वेदवेत्ता सुधर्मा नामका कोई ब्राह्मण रहता था ॥ 3 ॥
उसकी शिवधर्मपरायण, पतिसेवामें सदा तत्पर रहनेवाली तथा गृहकार्योंमें दक्ष सुदेहा नामक भार्या थी ll 4 ॥
श्रेष्ठ ब्राह्मण सुधर्मा भी देवता एवं अतिथिका पूजन करनेवाला, वेदमार्गके अनुसार आचरण करनेवाला तथा अग्निहोत्रमें नित्य तत्पर रहनेवाला था ॥ 5 ॥
वह तीनों समयमें सन्ध्योपासन करनेवाला, सूर्यके समान तेजस्वी, शिष्योंको अध्यापन करनेवाला, वेद शास्त्रका विद्वान्, धनवान्, श्रेष्ठ, दानी, सौजन्यगुणसे युक्त, नित्य शिवकर्म करनेवाला, शिवभक्त तथा शिवभक्तोंका प्रिय था ll 6-7 ॥
इस प्रकार धर्माचरण करते हुए उस ब्राह्मणकी बहुत-सी आयु बीत गयी, किंतु पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ और उसकी स्त्रीका ऋतुकाल भी निष्फल होता गया ॥ 8 ॥
तब भी तत्त्वके ज्ञाता उस ब्राह्मणको थोड़ा-सा भी दुःख नहीं हुआ। आत्मा ही अपना उद्धार करनेवाला है और वही अपनेको पवित्र करनेवाला भी है - ऐसा मनमें विचारकर वह ब्राह्मण दुखित नहीं हुआ, किंतु सुदेहाको पुत्र उत्पन्न न होनेका बहुत बड़ा दुःख रहता था। वह सर्वविद्याविशारद अपने पतिसे पुत्र उत्पन्न करनेके लिये प्रयत्न करनेकी नित्य प्रार्थना किया करती थी ॥ 9 - 11 ॥
वह ब्राह्मण अपनी स्त्रीको डाँटकर कहता था कि पुत्र क्या करेगा? कौन किसकी माता तथा कौन किसका पिता है, कौन पुत्र है, कौन भाई है एवं कौन मित्र है ? ॥ 12 ॥
हे देवि! तीनों लोकोंमें सभी निःसन्देह स्वार्थका ही साधन करनेवाले हैं- ऐसा तुम बुद्धिसे विशेषरूपसे समझो और चिन्ता मत करो। अतः हे देवि! तुम निश्चित | रूपसे दुःखका त्याग करो और हे शुभवते! तुम मुझसे नित्य इसके लिये मत कहा करो ।। 13-14 ॥इस प्रकार उसे मना करके शिवधर्ममें निरत वह ब्राह्मण परम सन्तुष्ट हो गया और द्वन्द्वदुःखका त्याग | कर दिया। किसी समय सुदेहा सखियोंकी गोष्ठी में सम्मिलित होनेके लिये अपने पड़ोसी के घर गयी, वहींपर परस्पर विवाद होने लगा ॥ 15-16 ॥
उस पड़ोसीकी स्त्रीने नारीस्वभावके कारण उस ब्राह्मण-पत्नी सुदेहाको धिक्कारते हुए बहुत कटु वचन कह दिये ॥ 17 ॥
[ पड़ोसीकी ] पत्नी बोली- हे अपुत्रिणि । तुम किस बातका गर्व कर रही हो? मैं पुत्रवती हूँ, मेरा धन तो मेरा पुत्र भोगेगा, किंतु तुम्हारे धनका भोग कौन करेगा? निश्चय ही तुम्हारा धन राजा ले लेगा, इसमें सन्देह नहीं है। हे बन्ध्या तुम्हें धिक्कार है, तुम्हारे धनको धिक्कार है और तुम्हारे अहंकारको धिक्कार है ! ।। 18-19 ॥
सूतजी बोले- इस प्रकार उन स्त्रियोंके द्वारा अपमानित होकर दुःखित सुदेहाने घर आकर अपने पतिसे आदरपूर्वक उनकी सारी बात कही ॥ 20 ll
तब भी उस बुद्धिमान्को कुछ दुःख नहीं हुआ। उसने कहा- हे प्रिये ! जो उन्होंने कहा- कहने दो, जो होनहार है, वही होता है ॥ 21 ॥
इस प्रकार उसने बारंबार सुदेहाको समझाया, किंतु तब भी उसका दुःख दूर न हुआ, वह पुनः [पुत्रके लिये] आग्रह करने लगी ॥ 22 ॥
सुदेहा बोली- हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ! आप मेरे प्रिय है, चाहे जिस किसी भी उपायसे आप पुत्र उत्पन्न करें, अन्यथा मैं अपना शरीर त्याग दूँगी ॥ 23 ॥
सूतजी बोले- उसके द्वारा कहे गये इस वचनको सुनकर उसके आग्रहसे विवश हुए ब्राह्मणश्रेष्ठ सुधर्माने चित्तमें भगवान् शिवका स्मरण किया ॥ 24 ॥ इसके बाद उस विप्रने सावधानीपूर्वक दो फूल लेकर अग्निके सामने रख दिये उसने दाहिनेवाले पुष्पको मनमें पुत्रदायक समझा ॥ 25 ॥
इस प्रकारका संकल्प करके उस ब्राह्मणने अपनी पत्नीसे कहा- पुत्रफलकी प्राप्तिहेतु इन दोनोंमेंसे कोई एक फूल उठाओ। उसने अपने मनमें यह सोचा कि मुझे पुत्र हो और मेरे स्वामीने पुत्रके लिये जिस पुष्पको सोचा है, वही मेरे हाथमें आये ॥ 26- 27 ॥ऐसा कहकर उसने शिव तथा अग्निको प्रणाम करके तथा उनकी प्रार्थनाकर एक पुष्प उठा लिया ॥ 28 ॥ शिवेच्छावश मोहसे ग्रस्त होनेके कारण सुदेहाने उस पुष्पको नहीं उठाया, जिसे उसके पतिने सोचा था ॥ 29 ॥
यह देखकर ब्राह्मणने लम्बी साँस ली और शिवजीके चरण-कमलका स्मरण करके अपनी स्त्रीसे कहा- ॥ 30 ॥
सुधर्मा बोला- हे प्रिये! ईश्वरने जो रच दिया, है, वह अन्यथा कैसे हो सकता है, अब तुम पुत्रकी आशा छोड़ो और शिवकी परिचर्या करो ॥ 31 ॥
ऐसा कहकर उस ब्राह्मणने स्वयं भी पुत्रकी आशा त्याग दी और शिवध्यानपरायण होकर धर्मकार्यमें प्रवृत्त हो गया, परंतु उस सुदेहाने आग्रह नहीं छोड़ा और पुत्रकामनासे उसने सिर झुकाकर तथा हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक पतिसे [फिर ] कहा- ॥ 32-33 ॥
सुदेहा बोली- हे स्वामिन्! मुझसे पुत्र उत्पन्न नहीं होगा, तो आप मेरे आग्रहसे दूसरा विवाह कर लीजिये, उस स्त्रीसे आपको निश्चय ही पुत्र होगा, इसमें संशय नहीं है ॥ 34 ॥
सूतजी बोले- उसके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ तथा धर्मपरायण उस ब्राह्मणने अपनी पत्नी उस सुदेहासे कहा- ॥ 35 ॥ सुधर्मा बोला- हे प्रिये! तुम्हारा तथा मेरा समस्त दुःख निश्चित रूपसे दूर हो गया है, इसलिये तुम अब मेरे धर्ममें विघ्न मत करो ॥ 36 ॥
सूतजी बोले - [हे ऋषियो!] तब इस प्रकार ब्राह्मणके द्वारा मना किये जानेपर भी सुदेहाने अपनी माताकी पुत्री अर्थात् अपनी बहनको घर लाकर पतिसे कहा- आप इससे विवाह कर लें ॥ 37 ॥
सुधर्मा बोला- इस समय तो तुम कह रही हो कि यह मेरी पत्नी है, किंतु जब यह पुत्र उत्पन्न कर लेगी, तब तुम इससे ईर्ष्या करने लगोगी ॥ 38 ॥
सूतजी बोले- हे द्विजो ! अपने पतिद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर उसकी पत्नी सुदेहाने हाथ जोड़कर पुनः अपने पति सुधर्मासे कहा- ॥ 39 ॥हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं अपनी बहनसे कभी ईर्ष्या नहीं करूँगी, आप पुत्रोत्पत्तिके निमित्त इसके साथ विवाह कीजिये, मैं अनुमति देती हूँ ll 40 ॥ इस प्रकार अपनी प्रिया सुदेहाके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर उस ब्राह्मण सुधर्माने भी विवाहविधिके अनुसार घुश्माका पाणिग्रहण कर लिया ॥ 41 ॥ इसके बाद उसके साथ विवाह करके उस ब्राह्मणने अपनी पहली पत्नीसे कहा- हे प्रिये । है अनघे! यह तुम्हारी छोटी बहन है, अतः तुम्हें इसका सदा भरण-पोषण करना चाहिये ।। 42 ।।
इस प्रकार कहकर वह शिवभक्त धर्मात्मा सुधर्मा यथायोग्य अपने धर्मका पालन करने लगा ॥ 43 ॥
वह भी अपनी बहनके साथ सखीकी भाँति व्यवहार करने लगी और विरोधभावका त्याग करके और रात दिन उसका पालन पोषण करने लगी ॥ 44 ॥
उसकी जो छोटी पत्नी थी, वह अपनी बहनकी आज्ञा प्राप्तकर नित्य एक सौ एक पार्थिव शिवलिंगोंका निर्माण करती थी, फिर वह घुश्मा विधिपूर्वक षोडशोपचारसे पूजनकर पासमें स्थित तालाबमें उन्हें विसर्जित कर देती थी ।। 45-46 ।।
इस प्रकार वह नित्य शिवलिंगका विसर्जनकर पुनः दूसरे दिन पार्थिव शिवलिंगका निर्माणकर आवहनसे लेकर विसर्जनतक कामना पूर्ण करनेवाली शिवपूजा विधिपूर्वक करती थी ll 47 ॥
इस प्रकार नित्य शिवपूजन करते हुए उसकी सभी कामनाओंका फल प्रदान करनेवाली एक लाख पार्थिव संख्या पूरी हुई ॥ 48 ॥ उसके अनन्तर शिवजीकी कृपासे उसे सुन्दर, भाग्यवान् और सभी कल्याणकारी गुणोंका पात्र पुत्र उत्पन्न हुआ ।। 49 ।। धर्म श्रेष्ठ वह विप्र सुधर्मा उस पुत्रको देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और ज्ञानधर्मपरायण तथा आसक्तिरहित होकर मुखका उपभोग करने लगा ॥ 50॥ उसके बादसे वह सुदेहा उससे अत्यधिक ईर्ष्या करने लगी, पहले उसका जो हृदय शीतल था, वही अब तलवारके समान हो गया ॥ 51 ॥हे मुनीश्वरो ! उसके बाद जो दुःखदायी एवं निन्दित कर्म हुआ, उसे आपलोग सावधान मनसे सुनिये ॥ 52 ॥