शौनकजी बोले- हे महाभाग सूतजी! आप सर्वज्ञ हैं। हे महामते। आपके कृपाप्रसादसे में चारम्बार कृतार्थ हुआ। इस इतिहासको सुनकर मेरा मन अत्यन्त आनन्दमें निमग्न हो रहा है। अतः अब भगवान् शिव प्रेम बढ़ानेवाली शिवसम्बन्धिनी दूसरी कथाको भी कहिये ll 1-2 ll
अमृत पीनेवालोंको लोकमें कहीं मुक्ति नहीं प्राप्त होती है, किंतु भगवान् शंकरके कथामृतका पान तो प्रत्यक्ष ही मुक्ति देनेवाला है। सदाशिवकी जिस कथाके सुननेमात्रसे मनुष्य शिवलोक प्राप्त कर लेता है, वह कथा धन्य है, धन्य है और कथाका श्रवण करानेवाले आप भी धन्य हैं, धन्य हैं ll 3-4 ॥
सूतजी बोले- हे शौनक सुनिये, मैं आपके सामने गोपनीय कथावस्तुका भी वर्णन करूँगा; क्योंकि आप शिवभक्तोंमें अग्रगण्य तथा वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। समुद्रके निकटवर्ती प्रदेशमें एक बाष्कल नामक ग्राम है, जहाँ वैदिक धर्मसे विमुख महापापी द्विज निवास करते हैं। वे सब के सब बड़े दुष्ट हैं, उनका मन दूषित विषयभोगों में ही लगा रहता है। वे न देवताओंपर विश्वास करते हैं न भाग्यपर; वे सभी कुटिल वृत्तिवाले हैं। किसानी करते और भाँति-भाँति के घातक अस्त्र-शस्त्र रखते हैं। वे परस्त्रीगमन करनेवाले और खल हैं। ज्ञान, वैराग्य तथा सद्धर्मको वे बिलकुल नहीं जानते हैं। वे सभी पशुबुद्धिवाले हैं और सदा दूषित बातोंको सुननेमें संलग्न रहते हैं ॥ 5-8 ॥
(जहाँके द्विज ऐसे हों, वहाँके अन्य वर्णोंके विषयमें क्या कहा जाय!) अन्य वर्णोंके लोग भी उन्हींकी भाँति कुत्सित विचार रखनेवाले, स्वधर्मविमुख एवं खल हैं; वे सदा कुकर्ममें लगे रहते हैं और नित्य विषयभोगों में ही डूबे रहते हैं ॥ 9 ॥
वहाँकी सब स्त्रियाँ भी कुटिल स्वभावकी, स्वेच्छाचारिणी, पापासड, कुत्सित विचारवाली और व्यभिचारिणी हैं। वे सद्व्यवहार तथा सदाचारसे | सर्वथा शून्य हैं ॥ 10 llकुजनोंके निवासस्थान उस बाष्कल नामक ग्राममें किसी समय एक बिन्दुग नामधारी ब्राह्मण रहता था, वह बड़ा अधम था ॥ 11 ॥ वह दुरात्मा और महापापी था। यद्यपि उसकी स्त्री बड़ी सुन्दर थी, तो भी वह कुमार्गपर ही चलता था । कामवासनासे कलुषितचित्त वह वेश्यागामी था ॥ 12 ॥ उसकी पत्नीका नाम चंचुला था, वह सदा उत्तम धर्मके पालनमें लगी रहती थी, तो भी उसे छोड़कर वह दुष्ट ब्राह्मण कामासक्त होकर वेश्यागामी हो गया था ।। 13 ।।
इस तरह कुकर्ममें लगे हुए उस बिन्दुगके बहुत वर्ष व्यतीत हो गये। उसकी स्त्री चंचुला कामसे पीड़ित होनेपर भी स्वधर्मनाशके भयसे क्लेश सहकर भी दीर्घकालतक धर्मसे भ्रष्ट नहीं हुई। परंतु दुराचारी पतिके आचरणसे प्रभावित होनेके कारण कामपीड़ित हो आगे चलकर वह स्त्री भी दुराचारिणी हो गयी ।। 14-15 ।।
भ्रष्ट चरित्रवाली वह कुमार्गगामिनी अपने पतिकी दृष्टि बचाकर रात्रिमें चोरी-छिपे अन्य पापी जार पुरुषके साथ रमण करने लगी ॥ 16 ॥
हे मुने! एक बार उस ब्राह्मणने अपनी उस दुराचारिणी पत्नी चंचुलाको कामासक्त हो परपुरुषके साथ रात्रिमें संसर्गरत देख लिया ॥ 17 ॥
उस दुष्ट तथा दुराचारमें आसक्त मनवाली पत्नीको रातमें परपुरुषके साथ व्यभिचाररत देखकर वह क्रोधपूर्वक वेगसे दौड़ा ॥ 18 ॥ उस दुष्ट बिन्दुगको घरमें आया जानकर वह कपटी व्यभिचारी तेजीसे भाग गया ॥ 19 ॥
तब वह दुष्टात्मा बिन्दुग अपनी पत्नीको पकड़कर उसे डाँटता हुआ मुक्कोंसे बार-बार पीटने लगा ॥ 20 ॥
वह व्यभिचारिणी दुष्टा नारी चंचुला पीटी जानेपर कुपित होकर निर्भयतापूर्वक अपने दुष्ट पति बिन्दुगसे कहने लगी ॥ 21 ॥
चंचुला बोली- मुझ पतिपरायणा युवती | पत्नीको छोड़कर आप कुबुद्धिवश प्रतिदिन वेश्याके | साथ इच्छानुसार रमण करते हैं। आप ही बतायें कि | रूपवती तथा कामासक्त चित्तवाली मुझ युवतीकीपतिसंसर्ग बिना क्या गति होती होगी? मैं अत्यन्त सुन्दर हूँ तथा नवयौवन उन्मत है। आपके सं बिना व्यथितचित्तवाली में काम दुःखको कैसे सह सकती हूँ? ॥ 22-24 ॥
सूतजी बोले- उस स्त्रीके इस प्रकार कहने पर वह मूढबुद्धि मूर्ख ब्राह्मणाधम स्वधर्मविमुख दुष्ट | पापी बिन्दुग कहने लगा- ॥ 25 ॥
बिन्दुग बोला- कामसे व्याकुलचित्त होकर तुमने यह सत्य ही कहा है। हे प्रिये। तुम भय त्याग दो और मैं जो तुमसे हिसकी बात कहता हूँ, उसे सुनो। तुम निर्भय होकर नित्य परपुरुषोंके साथ संसर्ग करो। उन्हें सन्तुष्ट करके उनसे धन खींचो। वह सारा धन वेश्याके प्रति आसक मनवाले मुझको दे दिया करो। इससे तुम्हारा और मेरा दोनोंका ही स्वार्थ सिद्ध हो जायगा ll 26 - 28 ॥
सूतजी बोले- परिका यह वचन सुनकर उसकी पत्नी चंचलाने प्रसन्न होकर उसकी कही बात मान ली। उन दोनों दुराचारी पति पत्नीने इस प्रकार समझौता कर लिया तथा थे दोनों निर्भय चित्तसे कुकर्ममें लीन हो गये ।। 29-30 ॥
इस तरह दुराचारमें डूबे हुए उन मूढ चित्तवाले पति-पत्नीका बहुत-सा समय व्यर्थ बीत गया ॥ 31 ॥ तदनन्तर शूद्रजातीय वेश्याका पति बना हुआ वह दूषित बुद्धिवाला दुष्ट ब्राह्मण बिन्दुग समयानुसार मृत्युको प्राप्त हो नरकमें जा पड़ा। बहुत दिनोंतक नरकके दुःख भोगकर वह मूढबुद्धि पापी विन्ध्यपर्वतपर भयंकर पिशाच हुआ ।। 32-33 ।।
इधर, उस दुराचारी पति बिन्दुगके मर जानेपर वह मूड़हदया चंचुला बहुत समयतक पुत्रोंके साथ अपने घरमें ही रही ॥ 34 ॥
इस प्रकार प्रेमपूर्वक कामासक होकर जारोंके साथ विहार करती हुई उस चंचुला नामक स्त्रीका कुछ-कुछ यौवन समयके साथ ढलने लगा ।। 35 ।।
एक दिन दैवयोगसे किसी पुण्य पर्वके आनेपर वह स्त्री भाई-बन्धुओंके साथ गोकर्ण क्षेत्रमें गयी। तीर्थयात्रियोंके संगसे उसने भी उस समय जाकर किसी तीर्थके जलमें स्नान किया। फिर वह साधारणतया(मेला देखनेकी दृष्टिसे) बन्धुजनोंके साथ यत्र-तत्र घूमने लगी। [ घूमती-घामती] किसी देवमन्दिरमें उसने एक दैवज्ञ ब्राह्मणके मुखसे भगवान् शिवकी परम पवित्र एवं मंगलकारिणी उत्तम पौराणिक कथा सुनी ॥ 36-38 ॥
[कथावाचक ब्राह्मण कह रहे थे कि] 'जो स्त्रियाँ परपुरुषोंके साथ व्यभिचार करती हैं, वे मरनेके बाद जब यमलोकमें जाती हैं, तब यमराजके दूत उनकी योनिमें तपे हुए लोहेका परिघ डालते हैं।' पौराणिक ब्राह्मणके मुखसे यह वैराग्य बढ़ानेवाली कथा सुनकर चंचुला भयसे व्याकुल हो वहाँ काँपने लगी ।। 39-40 ॥
जब कथा समाप्त हुई और लोग वहाँसे बाहर चले गये, तब वह भयभीत नारी एकान्तमें शिवपुराणकी कथा बाँचनेवाले उन ब्राह्मणसे कहने लगी ॥ 41 ॥
चंचुलाने कहा - ब्रह्मन् ! मैं अपने धर्मको नहीं जानती थी। इसलिये मेरे द्वारा बड़ा दुराचार हुआ है। स्वामिन्! इसे सुनकर मेरे ऊपर अनुपम कृपा आप मेरा उद्धार कीजिये ॥ 42 ॥
हे प्रभो ! मैंने मूढबुद्धिके कारण घोर पाप किया है। मैंने कामान्ध होकर अपनी सम्पूर्ण युवावस्था व्यभिचारमें बितायी है ॥ 43 ll
आज वैराग्य-रससे ओतप्रोत आपके इस प्रवचनको सुनकर मुझे बड़ा भय लग रहा है। मैं काँप उठी हूँ और मुझे इस संसारसे वैराग्य हो गया है। मुझ मूढ़ चित्तवाली पापिनीको धिक्कार है। मैं सर्वथा निन्दाके योग्य हूँ। मैं कुत्सित विषयोंमें फँसी हुई हूँ और अपने धर्मसे विमुख हो गयी हूँ ॥ 44-45 थोड़ेसे सुखके लिये अपने हितका नाश करनेवाले तथा भयंकर कष्ट देनेवाले घोर पाप मैंने अनजाने में ही कर डाले ॥ 46 ॥
हाय! न जाने किस-किस घोर कष्टदायक दुर्गतिमें मुझे पड़ना पड़ेगा और वहाँ कौन बुद्धिमान् | पुरुष कुमार्गमें मन लगानेवाली मुझ पापिनीका साथ देगा ? मृत्युकालमें उन भयंकर यमदूतोंको मैं कैसे देखूँगी ? जब वे बलपूर्वक मेरे गलेमें फंदे डालकरमुझे बाँचेंगे, तब मैं कैसे धीरज धारण कर सकूँगी ? नरकमें जब मेरे शरीरके टुकड़े-टुकड़े किये जायँगे, उस समय विशेष दुःख देनेवाली उस महायातनाको मैं वहाँ कैसे सहूँगी ? ।। 47-49 ।।
दुःख और शोकसे ग्रस्त होकर मैं दिनमें सहज इन्द्रियव्यापार और रात्रिमें नींद कैसे प्राप्त कर सकूँगी ? हाय! मैं मारी गयी! मैं जल गयी! मेरा हृदय विदीर्ण हो गया और मैं सब प्रकारसे नष्ट हो गयी; क्योंकि मैं हर तरहसे पापमें ही डूबी रही हूँ ll 50-51 ।।
हाय विधाता! मुझ पापिनीको आपने हठात् ऐसी दुर्बुद्धि क्यों दे दी, जो सभी प्रकारका सुख देनेवाले स्वधर्मसे दूर कर देती है! हे द्विज ! शूलसे बिंधा हुआ व्यक्ति ऊँचे पर्वत शिखरसे गिरनेपर जैसा घोर कष्ट पाता है, उससे भी करोड़ गुना कष्ट मुझे है। सैकड़ों अश्वमेधयज्ञ करके अथवा सैकड़ों वर्षोंतक गंगास्नान करनेपर भी मेरे घोर पापोंकी शुद्धि सम्भव नहीं दीखती। मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और किसका आश्रय लूँ ? मुझ नरकगामिनीकी इस संसारमें कौन रक्षा करेगा ? ॥ 52-55 ॥
हे ब्रह्मन् ! आप ही मेरे गुरु हैं, आप ही माता और आप ही पिता हैं। आपकी शरणमें आयी हुई मुझ दीन अबलाका उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये ॥ 56 ll
सूतजी बोले- हे शौनक ! इस प्रकार खेद और वैराग्यसे युक्त हुई चंचुला उस ब्राह्मणके चरणोंमें गिर पड़ी। तब उन बुद्धिमान् ब्राह्मणने कृपापूर्वक उसे उठाकर इस प्रकार कहा ।। 57 ।।