ब्राह्मण बोले- सौभाग्यकी बात है कि भगवान् शंकरकी कृपासे शिवपुराणकी इस वैराग्ययुक्त तथा श्रेष्ठ कथाको सुनकर तुम्हें समयपर चेत हो गया है। हे ब्राह्मणपत्नी! तुम डरो मत, भगवान् शिवकी शरण में| जाओ। शिवकी कृपासे सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। मैं तुमसे भगवान् शिवकी कीर्तिकथासे युक्त उस परम वस्तुका वर्णन करूंगा, जिससे तुम्हें सदा सुख देनेवाली उत्तम गति प्राप्त होगी ॥ 1-3 ॥
शिवकी उत्तम कथा सुननेसे ही तुम्हारी बुद्धि इस तरह पश्चात्तापसे युक्त एवं शुद्ध हो गयी है; साथ ही तुम्हारे मनमें विषयोंके प्रति वैराग्य हो गया है। पश्चात्ताप ही पाप करनेवाले पापियोंके लिये सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है। सत्पुरुषोंने सबके लिये पश्चात्तापको ही समस्त पापोंका शोधक बताया है। पश्चात्तापसे ही पापोंकी शुद्धि होती है जो पश्चात्ताप करता है, वही वास्तवमें पापका प्रायश्चित करता है; क्योंकि सत्पुरुषोंने समस्त पापोंकी शुद्धिके लिये जैसे प्रायश्चित्तका उपदेश किया है, वह सब पश्चात्तापसे सम्पन्न हो जाता है ॥ 4-6॥
जो पुरुष विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करके निर्भय हो जाता है, पर अपने कुकर्मके लिये पश्चात्ताप नहीं करता, उसे प्रायः उत्तम गति नहीं प्राप्त होती। परंतु जिसे अपने कुकृत्यपर हार्दिक पश्चात्ताप होता है, वह अवश्य उत्तम गतिका भागी होता है, इसमें संशय नहीं है। इस शिवपुराणकी कथा सुननेसे जैसी चित्तशुद्धि होती है, वैसी दूसरे उपायोंसे नहीं होती ॥ 7-8 ॥
जैसे दर्पण साफ करनेपर निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार इस शिवपुराणको कथासे चित्त अत्यन्त शुद्ध हो जाता है इसमें संशय नहीं है। मनुष्योंके शुद्ध | चित्तमें जगदम्बा पार्वतीसहित भगवान शिव विराजमान रहते हैं। इससे वह विशुद्धात्मा पुरुष श्रीसाम्बसदाशिवके परम पदको प्राप्त होता है ।। 9-10 ।।
इस प्रकार यह कथारूपी साधन सभी प्राणियोंके लिये उपकारी है और इसी कारण महादेवजीने इसको आग्रहपूर्वक प्रकट किया है। इस कथासे भगवान् | उमापतिका ध्यान सिद्ध हो जाता है। उस ध्यानसे परम ज्ञान और उससे मोक्षकी प्राप्ति निश्चय ही होती है। भगवान् शंकरके ध्यानमें मान हुए बिना भी यदि कोई इस कथाको मात्र सुनता है, वह दूसरे जन्ममें भगवान्के ध्यानको सिद्धकर परमपदको पा लेता है। इस कथाके श्रवणसे भगवान् शंकरके ध्यानको प्राप्तकर पश्चात्ताप करनेवाले | पापी पुरुष सिद्धिको प्राप्त हो गये हैं ॥ 11-14 ॥इस उत्तम कथाका श्रवण समस्त मनुष्योंके लिये कल्याणका बीज है। अतः यथोचित (शास्त्रोक्त) मार्गसे इसकी आराधना अथवा सेवा करनी चाहिये। यह कथा श्रवण भव बन्धनरूपी रोगका नाश करनेवाला है भगवान् शिवकी कथाको सुनकर फिर अपने हृदयमें उसका मनन एवं निदिध्यासन करनेसे पूर्णतया चित्तशुद्धि हो जाती है। चित्तशुद्धि होनेसे महेश्वरकी भक्ति अपने दोनों पुत्रों (ज्ञान और वैराग्य) के साथ निश्चय ही प्रकट होती है। तत्पश्चात् महेश्वरके अनुग्रहसे दिव्य मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है। जो शिवभक्तिसे वंचित है, उसे पशु समझना क्योंकि उसका चित्त मायाके बन्धनमें आसक्त है वह निश्चय ही संसारबन्धनसे मुक्त नहीं हो पाता ।। 15- 18 ॥
हे ब्राह्मणपत्नी ! इसलिये तुम विषयोंसे मनको हटा लो और भक्तिभावसे भगवान् शंकरकी इस परम पावन कथाको सुनो। परमात्मा शंकरकी इस कथाको सुननेसे तुम्हारे चित्तकी शुद्धि होगी और उससे तुम्हें मोक्षकी प्राप्ति हो जायगी। निर्मल चित्तसे भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका चिन्तन करनेवालेकी एक ही जन्ममें मुक्ति हो जाती है-यह मैं तुमसे सत्य-सत्य कहता हूँ ॥ 19-21 ॥
सूतजी बोले- शौनक ! इतना कहकर वे श्रेष्ठ शिवभक्त ब्राह्मण मौन हो गये। उनका हृदय करुणासे आर्द्र हो गया था। वे शुद्धचित्त महात्मा भगवान् शिवके ध्यानमें मग्न हो गये ॥ 22 ॥ तदनन्तर बिन्दुगकी पत्नी चंचुला मन-ही-मन प्रसन्न हो उठी। ब्राह्मणका उक्त उपदेश सुनकर उसके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये थे। वह
ब्राह्मणपत्नी चंचुला हर्षित हृदयसे उन श्रेष्ठ ब्राह्मणके
चरणोंमें गिर पड़ी और हाथ जोड़कर बोली 'मैं कृतार्थ हो गयी' ॥ 23-24 ॥
तत्पश्चात् उठकर वैराग्ययुक्त तथा उत्तम बुद्धिवाली वह स्त्री, जो अपने पापोंके कारण आतंकित थी, उन महान् शिवभक्त ब्राह्मणसे हाथ जोड़कर गद्गद वाणीमें कहने लगी ॥ 25 ॥चंचुला बोली हे ब्रह्मन्! हे शिवभक्तों श्रेष्ठ हे स्वामिन्! आप धन्य हैं, परमार्थदर्शी हैं और सदा परोपकारमें लगे रहते हैं, इसलिये आप श्रेष्ठ साधु पुरुषोंमें प्रशंसाके योग्य हैं। हे साधो! मैं नरकके समुद्रमें गिर रही हूँ। आप मेरा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये। पौराणिक अर्थतत्त्वसे सम्पन्न जिस सुन्दर शिवपुराणको कथाको सुनकर मेरे मनमें सम्पूर्ण विषय वैराग्य उत्पन्न हो गया, उसी इस शिवपुराणको सुननेके लिये इस समय मेरे मनमें बड़ी श्रद्धा हो रही है ।। 26-28 ॥
सूतजी बोले- ऐसा कहकर हाथ जोड़ उनका अनुग्रह पाकर चंचुला उस शिवपुराणकी कथाको सुननेकी इच्छा मनमें लिये उन ब्राह्मणदेवताकी सेवामें तत्पर हो वहाँ रहने लगी ॥ 29 ॥
तदनन्तर शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ और शुद्ध बुद्धिवाले उन ब्राह्मणदेवताने उसी स्थानपर उस स्त्रीको शिवपुराणको उत्तम कथा सुनायी ॥ 30 ॥
इस प्रकार उस [ गोकर्ण नामक] महाक्षेत्रमें उन्हीं श्रेष्ठ ब्राह्मणसे उसने शिवपुराणकी वह परम उत्तम कथा सुनी, जो भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको बढ़ानेवाली तथा मुक्ति देनेवाली है। उस परम उत्तम कथाको सुनकर वह ब्राह्मणपत्नी अत्यन्त कृतार्थ हो गयी ॥ 31-32॥
उन सद्गुरुकी कृपासे उसका चित्त शीघ्र ही शुद्ध हो गया, भगवान् शिवके अनुग्रहसे उसके हृदयमें शिवके सगुणरूपका चिन्तन होने लगा ॥ 33 ॥ इस प्रकार सद्गुरुका आश्रय लेकर उसने भगवान् शिवमें लगी रहनेवाली उत्तम बुद्धि पाकर शिवके सच्चिदानन्दमय स्वरूपका बारंबार चिन्तन आरम्भ किया ॥ 34 ॥
वह प्रतिदिन तीर्थके जलमें स्नान करके जटा और वल्कल धारण करने लगी तथा समूची देहमें भस्म लगाकर रुद्राक्षके आभूषण धारण करने लगी । वह भगवान् शिवके नामजपमें लगी रहती थी, संयमित वाणी और अल्पाहार करते हुए गुरुके बताये मार्गसे वह शिवजीको प्रसन्न करने लगी। हे शौनक ! इस प्रकार शम्भुका उत्तम ध्यान करते हुए उस चंचुलाका बहुत-सा समय बीत गया ।। 35-37 ॥तत्पश्चात् समयके पूर्ण होनेपर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे युक्त हुई चंचुलाने अपने शरीरको बिना किसी कष्टके त्याग दिया ॥ 38 ॥
इतनेमें ही त्रिपुरशत्रु भगवान् शिवका भेजा हुआ एक दिव्य विमान द्रुत गतिसे वहाँ पहुँचा, जो उनके अपने गणोंसे संयुक्त और भाँति-भाँतिके शोभा साधनोंसे सम्पन्न था। चंचुला उस विमानपर आरूढ़ हुई और भगवान् शिवके श्रेष्ठ पार्षदोंने उसे तत्काल शिवपुरीमें पहुँचा दिया। उसके सारे मल धुल गये थे वह दिव्यरूपधारिणी दिव्यांगना हो गयी थी। उसके दिव्य अवयव उसकी शोभा बढ़ाते थे। मस्तकपर अर्धचन्द्रका मुकुट धारण किये वह गौरांगी देवी शोभाशाली दिव्य आभूषणोंसे विभूषित थी ॥ 39-41 ॥
वहाँ पहुँचकर उसने त्रिनेत्रधारी महादेवजीको देखा। ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता उन सनातन शिवकी सेवा कर रहे थे। गणेश, भृंगी, नन्दीश, वीरभद्रेश्वर आदि गण उत्तम भक्तिके साथ उनकी उपासना कर रहे थे। उनकी अंगकान्ति करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशित हो रही थी। कण्ठमें नील चिह्न शोभा पाता था उनके पाँच मुख थे और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र थे। मस्तकपर अर्धचन्द्राकार मुकुट शोभा देता था। उन्होंने अपने वामांग में गौरी देवीको बिठा रखा था, जो विद्युत् पुंजके समान प्रकाशित थीं। गौरीपति महादेवजीकी कान्ति कपूरके समान गौर थी। उन्होंने सभी अलंकार धारण कर रखे थे, उनका सारा शरीर श्वेत भस्मसे भासित था शरीरपर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहे। थे। वे अत्यन्त उज्ज्वल वर्णके थे ll 42-45 ॥
इस प्रकार परम उज्ज्वल भगवान् शंकरका दर्शन करके वह ब्राह्मणपत्नी चंचुला बहुत प्रसन्न हुई अत्यन्त प्रीतियुक्त होकर उसने बड़ी उतावलीके साथ भगवान्को बारंबार प्रणाम किया। फिर हाथ जोड़कर वह बड़े प्रेम, आनन्द और सन्तोषसे युक्त हो विनीतभावसे खड़ी हो गयी। उसके नेत्रोंसे आनन्दा क्रुओंकी अविरल धारा बहने लगी तथा सम्पूर्ण शरीरमें रोमांच हो गया। उस समय भगवती पार्वती और भगवान् शंकरने उसे बड़ी करुणाके साथ अपने पास बुलाया और सौम्य दृष्टिसे उसकी ओर देखा पार्वतीजीने तोदिव्यरूपधारिणी बिन्दुगप्रिया चंचुलाको प्रेमपूर्वक अपनी सखी बना लिया। वह उस परमानन्दघन ज्योतिःस्वरूप सनातनधाममें अविचल निवास पाकर दिव्य सौख्यसे सम्पन्न हो अक्षय सुखका अनुभव करने लगी ॥ 46 - 50॥