शौनकजी बोले- हे महाभाग सूतजी ! आप धन्य हैं, आपकी बुद्धि भगवान् शिवमें लगी हुई है। आपने कृपापूर्वक यह शिवभक्तिको बढ़ानेवाली अद्भुत कथा हमें सुनायी। हे महामते! सद्गति प्राप्त करनेके बाद वहाँ जाकर चंचुलाने क्या किया और उसके पतिका क्या हुआ यह सब वृत्तान्त विस्तारसे हमें बताइये ॥ 1-2 ॥ सूतजी बोले- हे शौनक ! एक दिन परमानन्दमें निमग्न हुई चंचुलाने उमादेवीके पास जाकर प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर वह उनकी स्तुति करने लगी ॥ 3 ॥
चंचुला बोली- हे गिरिराजनन्दिनी! हे स्कन्दमाता! मनुष्योंने सदा आपकी सेवा की है। समस्त सुखोंको देनेवाली हे शम्भुप्रिये! हे ब्रह्मस्वरूपिणि! आप विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओंद्वारा सेव्य हैं। आप ही सगुणा और निर्गुणा भी हैं तथा आप ही सूक्ष्मा सच्चिदानन्द स्वरूपिणी आधा प्रकृति हैं। आप ही संसारकी सृष्टि, पालन और संहार करनेवाली हैं। तीनों गुणोंका आश्रय भी आप ही हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर- इन तीनों | देवताओंका आवास स्थान तथा उनकी उत्तम प्रतिष्ठा करनेवाली पराशक्ति आप ही हैं । ll 4-6 ll
सूतजी बोले- हे शौनक ! जिसे सद्गति प्राप्त हो चुकी थी, वह चंचुला इस प्रकार महेश्वरपत्नी उमाकी स्तुति करके सिर झुकाये चुप हो गयी। उसके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू उमड़ आये थे ॥ 7 ॥तब करुणासे भरी हुई शंकरप्रिया भक्तवत्सला पार्वतीदेवी चंचुलाको सम्बोधित करके बड़े प्रेमसे इस प्रकार कहने लगीं- ॥ 8 ॥
पार्वती बोलीं- हे सखी चंचुले! हे सुन्दरि ! मैं तुम्हारी की हुई इस स्तुतिसे बहुत प्रसन्न हूँ बोलो, क्या वर माँगती हो? तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है ॥ 9 ॥
सूतजी बोले- पार्वतीके इस प्रकार कहनेपर चंचुला उन्हें प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर नतमस्तक हो प्रेमपूर्वक पूछने लगी- ॥10॥
चंचुला बोली- हे निष्पाप गिरिराजकुमारी ! मेरे पति बिन्दुग इस समय कहाँ हैं, उनकी कैसी गति हुई है-यह मैं नहीं जानती कल्याणमयी दीनवत्सले! मैं अपने उन पतिदेवसे जिस प्रकार संयुक्त हो सकूँ, कृपा करके वैसा ही उपाय कीजिये। हे महेश्वरि ! हे महादेवि ! मेरे पति एक शूद्रजातीय वेश्याके प्रति आसक्त थे और पापमें ही डूबे रहते थे। उनकी मृत्यु मुझसे पहले ही हो गयी थी। वे न जाने किस गतिको प्राप्त हुए हैं ।। 11-12 ll
सूतजी बोले- चंचुलाका यह वचन सुनकर नीतिवत्सला हिमालयपुत्री देवी पार्वतीने अत्यन्त प्रेमपूर्वक यह उत्तर दिया- ॥ 13 ॥
गिरिजा बोलीं- हे सुते तुम्हारा बिन्दुग नामवाला पति बड़ा पापी था। उसका अन्तःकरण बड़ा ही दूषित था। वेश्याका उपभोग करनेवाला वह महामूढ़ मरनेके बाद नरकमें पड़ा; अगणित वर्षोंतक नरकमें नाना प्रकारके दुःख भोगकर वह पापात्मा अपने शेष पापको भोगनेके लिये विन्ध्यपर्वतपर पिशाच हुआ है। इस समय वह पिशाचकी अवस्थामें ही है और नाना प्रकारके क्लेश उठा रहा है। वह दुष्ट वहीं वायु पीकर रहता है और सदा सब प्रकारके कष्ट सहता है ll 14 – 16 ।।
सूतजी बोले- हे शौनक गौरीदेवीकी यह बात सुनकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाली वह चंचुला उस समय पतिके महान् दुःखसे दुखी हो गयी। फिर मनको स्थिर करके उस ब्राह्मणपत्नीने व्यथित हृदयसे महेश्वरीको प्रणाम करके पुनः पूछा- ll 17-18 ।।चंखुला बोली हे महेश्वरि! हे महादेवि मुझपर कृपा कीजिये और दूषित कर्म करनेवाले मेरे | उस दुष्ट पतिका अब उद्धार कर दीजिये। हे देवि ! कुत्सित बुद्धिवाले मेरे उस पापात्मा पतिको किस उपायसे उत्तम गति प्राप्त हो सकती है, यह शीघ्र बताइये आपको नमस्कार है ॥ 19-20 ॥
सूतजी बोले- उसकी यह बात सुनकर भक्तवत्सला पार्वतीजी अपनी सखी चंचुलासे प्रसन्न होकर ऐसा कहने लगीं ॥ 21 ॥
पार्वतीजी बोलीं- तुम्हारा पति यदि शिवपुराणकी पुण्यमयी उत्तम कथा सुने तो सारी दुर्गातिको पार करके वह उत्तम गतिका भागी हो सकता है ॥ 22 ॥
अमृतके समान मधुर अक्षरोंसे युक्त गौरीदेवीका यह वचन आदरपूर्वक सुनकर चंचुलाने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर उन्हें बारंबार प्रणाम किया और अपने पतिके समस्त पापोंकी शुद्धि तथा उत्तम गतिकी प्राप्तिके लिये पार्वतीदेवी से यह प्रार्थना की कि मेरे पतिको शिवपुराण सुनानेकी व्यवस्था होनी चाहिये ।। 23-24 ll
सूतजी बोले- उस ब्राह्मणपत्नीके वारंवार प्रार्थना करनेपर शिवप्रिया गौरीदेवीको बड़ी दया आयी उन भक्तवत्सता महेश्वरी गिरिराजकुमारीने भगवान् शिवकी उत्तम कीर्तिका गान करनेवाले गन्धर्वराज तुम्बुरुको बुलाकर उनसे प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार कहा- 25-26 ।।
गिरिजा बोलीं- मेरे मनकी बातोंको जानकर मेरे अभीष्ट कार्योंको सिद्ध करनेवाले तथा शिवमें प्रीति रखनेवाले हे तुम्बुरो ! [ मैं तुमसे एक बात कहती हूँ।] तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी इस सखीके साथ शीघ्र ही विन्ध्यपर्वतपर जाओ। वहाँ एक महाघोर और भयंकर पिशाच रहता है। उसका वृत्तान्त तुम | आरम्भले ही सुनो। मैं तुमसे प्रसन्नतापूर्वक सब कुछ बताती हूँ ॥ 27-28 ॥
पूर्वजन्ममें वह पिशाच बिन्दुग नामक ब्राह्मण था वह मेरी इस सखी चंचुलाका पति था। परंतु वह दुष्ट वेश्यागामी हो गया। स्नान सन्ध्या आदि नित्यकर्म छोड़कर वह अपवित्र रहने लगा। क्रोधके कारण उसकी बुद्धिपर मूढ़ता छा गयी थी। वह कर्तव्याकर्तव्यका विवेक नहींकर पाता था। अभक्ष्यभक्षण, सज्जनोंसे द्वेष और दूषित वस्तुओंका दान लेना -यही उसका स्वाभाविक कर्म बन गया था। वह अस्त्र-शस्त्र लेकर हिंसा करता, बायें हाथसे खाता, दीनोंको सताता और क्रूरतापूर्वक पराये घरोंगे आग लगा देता था। वह चाण्डालोंसे प्रेम करता और प्रतिदिन वेश्याके सम्पर्क में रहता था। वह बड़ा दुष्ट था। उस पापीने अपनी पत्नीका परित्याग कर दिया था और वह दुष्टोंके संगमें निरत रहता था ॥ 29-32 ॥
उसने वेश्याके कुसंगसे अपने सारे पुण्य नष्ट कर लिये और धनके लोभसे अपनी पत्नीको निर्भय करके व्यभिचारिणी बना डाला ॥ 33 ॥
वह मृत्युपर्यन्त दुराचारमें ही फँसा रहा। फिर समय आनेपर उसकी मृत्यु हो गयी। वह पापियोंके भोगस्थान घोर यमपुरमें गया और वहाँ बहुत से नरकोंको भोगकर वह दुष्टात्मा इस समय विन्ध्यपर्वतपर | पिशाच बना हुआ है। वहीं पर वह दुष्ट पिशाच अपने पापोंका फल भोग रहा है ।। 34-35 ।।
तुम उसके आगे यत्नपूर्वक शिवपुराणकी उस दिव्य कथाका प्रवचन करो, जो परम पुण्यमयी तथा समस्त पापोंका नाश करनेवाली है। उत्तम शिवपुराणकी कथाके श्रवणसे उसका हृदय शीघ्र ही समस्त पापोंसे शुद्ध हो जायगा और वह प्रेतयोनिका परित्याग कर देगा। दुर्गतिसे मुक्त होनेपर उस बिन्दुग नामक पिशाचको मेरी आज्ञासे विमानपर बिठाकर तुम भगवान् शिवके समीप ले आओ।॥ 36-38 ll
सूतजी बोले- [ हे शौनक !] महेश्वरी उमाके इस प्रकार आदेश देनेपर गन्धर्वराज तुम्बुरु मन-ही मन बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने भाग्यकी सराहना की। तत्पश्चात् उस पिशाचकी सती-साध्वी पत्नी चंचुलाके साथ विमानपर बैठकर नारदके प्रिय मित्र तुम्बुरु वेगपूर्वक विन्ध्याचल पर्वतपर गये, जहाँ वह पिशाच रहता था ।। 39-40 ।।
वहाँ उन्होंने उस पिशाचको देखा उसका शरीर विशाल था और उसकी ठोढ़ी बहुत बड़ी थी। वह कभी हँसता, कभी रोता और कभी उछलता था। उसकी आकृति बड़ी विकराल थी। भगवान् शिवकी उत्तम कीर्तिका गान करनेवाले महाबली तुम्बुरुने उस अत्यन्त भयंकर पिशाचको बलपूर्वक पाशोंद्वारा बाँध लिया ।। 41-42 ॥तदनन्तर तुम्बुरु शिवपुराणकी कथा बाँचनेका निश्चय करके महोत्सवयुक्त स्थान और मण्डप आदिको रचना की। इतनेमें ही सम्पूर्ण लोकोंमें बड़े वेगसे यह प्रचार हो गया कि देवी पार्वतीकी आज्ञासे एक पिशाचका उद्धार करनेके उद्देश्यसे शिवपुराणको | उत्तम कथा सुनानेके लिये तुम्बुरु विन्ध्यपर्वतपर गये हैं। तब तो उस कथाको सुननेके लोभसे बहुत-से देवता और ऋषि भी शीघ्र ही वहाँ जा पहुँचे। आदरपूर्वक शिवपुराण सुननेके लिये आये हुए लोगोंका उस पर्वतपर बड़ा अद्भुत और कल्याणकारी समाज जुट गया ।। 43-46 ॥
तत्पश्चात् तुम्बुरुने उस पिशाचको पाशोंसे बाँधकर आसनपर बिठाया और हाथमें वीणा लेकर गौरीपतिकी कथाका गान आरम्भ किया। माहात्म्यसहित पहली अर्थात् प्रथम संहितासे लेकर सातवीं संहितातक शिवपुराणको कथाका उन्होंने स्पष्ट वर्णन किया ॥ 47-48 ।।
सात संहितावाले शिवपुराणका आदरपूर्वक श्रवण करके वे सभी श्रोता पूर्णतः कृतार्थ हो गये। उस परम पुण्यमय शिवपुराणको सुनकर उस पिशाचने अपने सारे पापोंको धोकर उस पैशाचिक शरीरको त्याग दिया। शीघ्र ही उसका रूप दिव्य हो गया। अंगकान्ति गौरवर्णकी हो गयी। शरीरपर श्वेत वस्त्र तथा सब प्रकारके पुरुषोचित आभूषण उसके अंगोंको उद्भासित करने लगे। वह त्रिनेत्रधारी चन्द्रशेखररूप हो गया ।। 49-51॥
इस प्रकार दिव्य देहधारी होकर श्रीमान् बिन्दुग अपनी भावां चंचुलाके साथ स्वयं भी पार्वतीपति | भगवान् शिवके दिव्य चरित्रका गुणगान करने लगा। उसकी स्त्रीको इस प्रकार दिव्य रूपसे सुशोभित | देखकर वे सभी देवता और ऋषि बड़े विस्मित हुए; उनका चित्त परमानन्दसे परिपूर्ण हो गया। भगवान् महेश्वरका वह अद्भुत चरित्र सुनकर वे सभी परम कृतार्थ हो प्रेमपूर्वक श्रीशिवका यशोगान करते हुए अपने-अपने धामको चले गये ॥ 52-54 ॥
दिव्यरूपधारी श्रीमान् बिन्दुग भी सुन्दर विमानपर | अपनी प्रियतमाके पास बैठकर सुखपूर्वक आकाशमें स्थित हो परम शोभा पाने लगा ।। 55 ।।तदनन्तर महेश्वरके सुन्दर एवं मनोहर गुणोंका गान करता हुआ वह अपनी प्रियतमा तथा तुम्बुरुके साथ शीघ्र ही शिवधाममें जा पहुँचा। वहाँ भगवान् महेश्वर तथा पार्वती देवीने प्रसन्नतापूर्वक बिन्दुगका बड़ा सत्कार किया और उसे अपना गण बना लिया। उसकी पत्नी चंचुला पार्वतीजीकी सखी हो गयी। उस घनीभूतज्योतिःस्वरूप परमानन्दमय सनातनधाममें अविचल निवास पाकर वे दोनों दम्पती परम सुखी हो गये ॥ 56-58 ॥
यह उत्तम इतिहास मैंने आपको सुनाया, जो पापोंका नाश करनेवाला, उमा-महेश्वरको आनन्द | देनेवाला, अत्यन्त पवित्र तथा उनमें भक्ति बढ़ानेवाला है। जो इसे भक्तिपूर्वक सुनता है अथवा एकाग्रचित्त होकर इसका पाठ करता है, वह अनेक सांसारिक सुखोंको भोगकर अन्तमें मुक्ति प्राप्त करता है । ll 59-60 ॥