ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] तदनन्तर विष्णु आदि सभी देवगण एवं तपोधन मुनिगण आवश्यक कर्म करके हिमालयसे प्रस्थान करनेका उपक्रम करने लगे ॥ 1 ॥
हिमालय भी स्नानकर अपने इष्टदेवकी यत्नपूर्वक पूजा करके नगरवासियों एवं बन्धुवर्गोंको बुलाकर प्रसन्नतापूर्वक जनवासेमें गये। उन्होंने शंकरजीका विधिवत् पूजन करके आनन्दपूर्वक प्रार्थना की- आप इन सभीके साथ कुछ दिनतक मेरे घरपर निवास कीजिये ।। 2-3 ।।
हे शम्भो ! आपके दर्शनसे मैं कृतार्थ तथा धन्य हो गया हूँ, इसमें संशय नहीं है, जो कि आप देवताओंके साथ मेरे घर आये हैं ॥ 4 ॥
ब्रह्माजी बोले- शैलराजने इस प्रकार बहुत | कहकर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करके विष्णु आदि देवगणोंके साथ प्रभुको आमन्त्रित किया। तत्पश्चात् आदरके साथ मनमें शिवजीका ध्यानकर विष्णुके | सहित देवता तथा मुनिगण प्रसन्नतापूर्वक हिमालयसे कहने लगे - ।। 5-6 ॥
देवता बोले- हे गिरिराज! आप धन्य हैं और आपकी कीर्ति महान् है, तीनों लोकोंमें आपके समान पुण्यात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसके द्वारपर सजनको गति देनेवाले, भक्तवत्सल एवं परब्रह्म महेश्वर अपने | सेवकोंके साथ कृपा करके पधारे ।। 7-8 ।।आपने [हमें ठहरनेके लिये] मनोहर जनवासा दिया एवं विविध सम्मान किया। हे गिरीश्वर ! आपने ऐसे उत्तम भोजन दिये, जो अवर्णनीय हैं ॥ 9 ॥
वहाँ कोई आश्चर्य नहीं, जहाँ [साक्षात् ] अम्बिका शिवादेवी हैं। सब कुछ सर्वथा परिपूर्ण है, कुछ भी शेष नहीं रहा हमलोग धन्य हैं, जो यहाँपर आ गये ॥ 10 ॥
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद।] इस प्रकार वहाँ परस्पर एक दूसरेकी उत्तम प्रशंसा हुई। उस समय वैदिक मन्त्रों, साधु तथा जय शब्दकी ध्वनि होने लगी और नाना प्रकारके उत्सव होने लगे ॥ 11 ॥ मंगलगान होने लगा, अप्सराएँ नाचने लगीं, मागध स्तुति करने लगे और द्रव्योंका पर्याप्त दान हुआ ।। 12 ।।
तत्पश्चात् देवेशका आमन्त्रणकर हिमालय अपने घर गये और अनेक विधि-विधानोंसे भोजनोत्सवकी तैयारी करने लगे ॥ 13 ॥
वे कुतूहलपूर्वक परिवारसहित प्रभु शंकरको भोजन करानेके लिये प्रेमके साथ ले आये ।। 14 ।। परम आदरसे शिवजीके, विष्णुके, मेरे, सभी देवताओंके, मुनियोंके तथा अन्य गये हुए लोगोंके चरणोंको धोकर बन्धु-बान्धवोंसहित गिरिराजने बड़े प्रेमसे उन सबको मण्डपके भीतर [आसन देकर ] बैठाया ॥ 15-16 ॥
विष्णु, सदाशिव एवं मुझ ब्रह्मासहित समस्त लोग भोजन करने लगे। [इस प्रकार ] गिरिराजने रसीले विविध अन्नोंसे उन सबको तृप्त किया। उस समय नगरकी नारियाँ हँसती हुई एवं उन सभीकी | ओर यत्नसे देखती हुई मधुर वाणीमें गालियाँ देने लगीं ।। 17-18 ।। हे नारद! इस प्रकार सब लोग विधिवत् भोजन करके आचमनकर गिरिराजसे आज्ञा लेकर प्रसन्नता एवं तृप्तिसे युक्त हो अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ 19 ॥ हे मुने! इसी प्रकार तीसरे दिन भी गिरिराजने | विधिवत् दान, सम्मान एवं आदर आदिके द्वारा उनका सत्कार किया। चौथा दिन प्राप्त होनेपर बड़ी शुद्धताकेसाथ चतुर्थी कर्म विधिवत् सम्पन्न हुआ, जिसके बिना वह उत्सव अधूरा ही रह जाता। उस समय अनेक प्रकारका उत्सव, जय जयकार तथा साधु शब्दोंका उच्चारण, नाना प्रकारका दान, गान एवं नृत्य होने लगा ॥ 20-22 ॥
पाँचवाँ दिन प्राप्त होनेपर प्रसन्न हुए सभी देवताओंने बड़े प्रेमके साथ गिरिराजसे विदाईके लिये निवेदन किया। यह सुनकर हिमालयने हाथ जोड़कर देवताओंसे कहा- हे देवताओ! अभी आपलोग कुछ दिन और रहें तथा मेरे ऊपर कृपा करें ।। 23-24 ॥
ऐसा कहकर उन्होंने बड़े स्नेहसे शंकर, विष्णु, मुझ ब्रह्मा तथा अन्य देवताओंको बहुत दिनोंतक बड़े आदरके साथ ठहराया ।। 25 ।।
इस प्रकार निवास करते हुए जब बहुत दिन बीत गये, तब देवताओंने हिमालयके पास सप्तर्षियोंको भेजा ॥ 26 ॥
उन्होंने गिरिराज तथा मेनाको समयोचित बातें कहकर समझाया और प्रशंसा करते हुए प्रसन्नतापूर्वक |श्रेष्ठ शिवतत्त्वको विधिवत् प्रतिपादित किया ॥ 27 ॥
हे मुने! उनके समझानेसे हिमालयने उसे स्वीकार कर लिया। तब शिवजी विदा होनेके लिये देवताओं सहित हिमालयके घर गये ll 28 ॥
जब देवेश शिव देवताओंसहित अपने कैलासपर्वतके लिये यात्रा करने लगे, तब मेना ऊँचे स्वरसे रोने लगीं और कृपासागर शंकरजीसे कहने लगीं- ॥ 29 ॥
मेना बोलीं- कृपानिधे! आप कृपा करके भलीभाँति शिवाका पालन कीजियेगा, आप आशुतोष हैं, अतः पार्वतीके हजारों दोषोंको क्षमा कीजियेगा ॥ 30 ॥
हे प्रभो! यह मेरी कन्या जन्म-जन्मान्तरसे आपके चरणकमलकी भक्त है, आप महादेव प्रभुको छोड़कर इसे सोते अथवा जागते समय भी किसीका स्मरण नहीं रहता। हे मृत्युंजय ! आपकी भक्तिके सुननेमात्र से ही यह हर्षके आँसू गिराती हुई पुलकित हो जाती है और आपकी निन्दासे यह मौन हो मृतकके समान हो जाती है । 31-32 ॥ब्रह्माजी बोले- तब ऐसा कहकर मेना उन्हें अपनी पुत्रीको समर्पितकर जोर-जोरसे रुदन करके उन दोनोंके सामने मूच्छित हो गयीं। तदनन्तर शंकरने मेनाको समझा करके और उनसे तथा हिमालयसे आज्ञा लेकर देवगणोंके साथ महोत्सवपूर्वक यात्रा | की ।। 33-34 ॥
तदनन्तर सभी देवताओंने हिमालयके कल्याणकी | कामना करते हुए प्रभु तथा अपने गणोंके साथ मौन हो प्रस्थान किया ॥ 35 ॥
[कुछ दूर जाकर] हर्षित देवता हिमालयकी पुरीके बाहर बगीचे में शिवजीसहित आनन्दपूर्वक ठहर गये और शिवाके आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे ॥ 36 ॥ हे मुनीश्वर ! इस प्रकार देवगणोंके सहित शिवकी उत्तम यात्राका वृत्तान्त मैंने आपसे कह दिया। अब उत्सव तथा [विदाईके अनन्तर होनेवाले ] विरहसे युक्त शिवाकी यात्रा सुनिये ॥ 37 ॥