देवी बोलीं- हे देवदेव! हे महादेव आपने कालकी वंचना करनेवाले शब्दब्रह्मस्वरूप उत्तम योगके लक्षणका वर्णन संक्षेपसे किया। अब योगियोंके हितकी इच्छासे छायापुरुष सम्बन्धी उस उत्तम ज्ञानको विस्तारपूर्वक कहिये ॥ 1-2 ॥
शंकर बोले- हे देवि सुनो, मैं छायापुरुषका लक्षण कह रहा हूँ, जिसे भलीभाँति जानकर मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ll 3 ॥
हे वरवर्णिनि श्वेत वस्त्र पहनकर माला धारणकर एवं उत्तम गन्ध धूपादिसे सुगन्धित होकर चन्द्रमा अथवा सूर्यको पीछेकर सम्पूर्ण कामनाओंका फल देनेवाले मेरे पिण्डभूत नवाक्षर महामन्त्र ['ॐ नमो भगवते रुद्राय'] का स्मरण करे और अपनी छायाको देखे पुनः उस श्वेत वर्णकी छायाको आकाशमें देखकर | वह एकचित्त हो परम कारणभूत शिवजीको देखे ।ऐसा करनेसे उसे ब्रह्मकी प्राप्ति होती है और वह ब्रह्महत्या आदि पापोंसे छूट जाता है-ऐसा कालवेत्ताओंने कहा है। इसमें संशय नहीं है । ll 4-7 ॥
यदि उस छायामें अपना शिर दिखायी न पड़े तो छः महीनेमें मृत्यु जाननी चाहिये, ऐसे योगी के मुखसे जिस प्रकारका वाक्य निकलता है, उसके अनुरूप ही फल होता है ॥ 8 ॥
शुक्लवर्णकी छाया होनेपर धर्मकी वृद्धि और कृष्णवर्णकी होनेपर पापकी वृद्धि जाननी चाहिये। रक्तवर्णकी होनेपर बन्धन जानना चाहिये तथा पीतवर्णकी होनेपर शत्रुबाधा समझनी चाहिये ॥ 9॥
[छायाके] नासिकारहित होनेपर बन्धुनाश और मुखरहित होनेपर भूखका भय रहता है। कटि रहित होनेपर स्त्रीका नाश और जंघारहित होनेपर धनका नाश होता है एवं पादरहित होनेपर विदेशगमन होता है। यह छायापुरुषका फल मैंने कहा है महेश्वरि पुरुषको प्रयत्नपूर्वक इसका विचार करना चाहिये ।। 10-11 ॥
हे महेश्वरि ! उस छायापुरुषको भलीभाँति देखकर उसे अपने मनमें पूर्णतः सन्निविष्ट करके मनमें मेरे नवात्मक (नवाक्षर) मन्त्रका जप करना चाहिये, जो कि साक्षात् मेरा हृदय ही है ॥ 12 ॥
एक वर्ष बीत जानेपर वह मन्त्रजापक ऐसा कुछ नहीं है, जिसे सिद्ध न कर सके, वह अणिमा आदि आठों सिद्धियोंको तथा आकाशमें विचरणकी शक्तिको प्राप्त कर लेता है ॥ 13 ॥
| अब इससे भी अधिक दुष्प्राप्य शक्तिको प्राप्त करनेवाले ज्ञानका वर्णन करता है, जिससे ज्ञानियोंके समक्ष संसारमें सब कुछ सामने रखी हुई वस्तुकी भाँति प्रत्यक्ष दिखायी पड़ने लगता है ll14 ॥
सर्पाकार कुण्डली, जो लोकमें अज्ञेय कही जाती है, उसका वर्णन करता वह मार्गमें स्थित हुई मात्रा केवल दिखती है, किंतु पढ़ी नहीं जाती ॥ 15 ॥ जो ब्रह्माण्डके शिरोभागपर स्थित है, वेदोंके द्वारा निरन्तर स्तुत है, सम्पूर्ण विद्याओंकी जननी है, गुप्त विद्याके नामसे कही जाती है, वह जीवोंके भीतर स्थित होकर हृदयाकाशमें विचरण करनेवाली कही गयी है।वह दृश्य, अदृश्य, अचल, नित्य, व्यक्त, अव्यक्त और | सनातनी है। वह अवर्ण, वर्णसंयुक्त तथा बिन्दुमालिनी कही जाती है। उसका सर्वदा दर्शन करनेवाला योगी कृतकृत्य हो जाता है ॥ 16-18 ॥
सभी तीर्थों में स्नान करनेके बाद दानका जो फल होता है एवं सम्पूर्ण यज्ञोंसे जो फल प्राप्त होता है, वह बिन्दुमालिनी के दर्शनसे मिलता है, इसमें सन्देह नहीं है, यह मैं सत्य कह रहा हूँ। हे देवि सभी तीर्थो स्नान करनेसे तथा सभी प्रकारके दान करनेसे जो फल मिलता है, एवं सम्पूर्ण यज्ञोंके अनुष्ठानसे जो फल मिलता है, वह फल मनुष्य [ इसके दर्शनसे] प्राप्त कर लेता है। हे महेशानि! अधिक कहनेसे क्या लाभ, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं ॥। 19-21 ॥
अतः बुद्धिमान् पुरुषको योग- ज्ञानका नित्य अभ्यास करना चाहिये, अभ्याससे सिद्धि उत्पन्न होती है, अभ्याससे योग बढ़ता है। अभ्याससे ज्ञान प्राप्त होता है और अभ्याससे मुक्ति मिलती है, अतः बुद्धिमान्को मोक्षके कारणभूत योगका निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिये ॥ 22-23 ll
हे देवि इस प्रकार मैंने भोग एवं मोक्ष देनेवाला योगाभ्यास तुमसे कहा, अब तुम्हें और क्या पूछना है, उसे तुम बताओ, मैं तुम्हें सत्य- सत्य बताऊँगा 24 सूतजी बोले- हे मुनीश्वरो ! सनत्कुमारके परमार्थप्रद वचनको सुनकर पराशरपुत्र व्यासजी प्रसन्न हो गये ।। 25 ।। उसके अनन्तर व्यासजीने अत्यन्त सन्तुष्ट हो सर्वज्ञ तथा कृपालु ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारको बारम्बार प्रणाम किया ॥ 26 ॥
तत्पश्चात् हे मुनियो। कालीपुत्र मुनीश्वर व्यासने स्वरविज्ञानसागर सनत्कुमारकी स्तुति की ॥ 27 ॥
व्यासजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं कृतार्थ हुआ, आपने मुझे ब्रह्मतत्त्वकी प्राप्ति करायी, आप ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ तथा धन्य हैं, आपको नमस्कार है, आपको नमस्कार है ॥ 28 ॥
सूतजी बोले- इस प्रकार वे व्यासजी महामुनि | ब्रह्मपुत्रको स्तुतिकर अत्यन्त प्रसन्न तथा परमानन्दमें मग्न होकर मौन हो गये ॥ 29 ॥हे शौनक ! उसके बाद उनके द्वारा पूजित हुए सनत्कुमारजी उनसे आज्ञा लेकर अपने स्थानको चले गये और इधर व्यासजी भी प्रसन्नचित्त होकर अपने स्थानको चले गये ॥ 30 ॥
हे ब्राह्मणो! मैंने इस प्रकार सनत्कुमार एवं व्यासजीका यह सुख प्रदान करनेवाला, परमार्थयुक्त तथा ज्ञानवर्धक संवाद आपलोगोंसे कहा ॥ 31 ॥