पार्वती बोलीं- हे द्विजेन्द्र ! हे जटिल ! मेरा समस्त वृत्तान्त सुनें। इस समय मेरी सखीने जो कुछ है, वह सब सत्य है, कुछ भी झूठा नहीं है ॥ 1 ॥
मैंने मन, वचन एवं कर्मसे शंकरजीका ही पतिभावसे वरण किया है, यह बात मैं सत्य कहती हूँ, असत्य नहीं। मैं जानती हूँ कि दुर्लभ वस्तु मुझे कैसे प्राप्त हो सकती है, फिर भी मनकी उत्सुकतावश मैं इस समय तप कर रही हूँ ॥ 2-3 ॥ ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार उस ब्रह्मचारीसे कहकर गिरिजा चुप हो गयीं। तब वे ब्राह्मण पार्वतीकी बात सुनकर कहने लगे- ॥ 4 ॥
ब्राह्मण बोले- अभीतक मुझे यह बड़ी इच्छा थी कि यह देवी किस वस्तुको प्राप्त करनेके लिये अत्यन्त कठिन तप कर रही है ॥ 5 ॥
हे देवि तुम्हारे मुखकमलसे सारी बातें सुनकर और उसे जानकर अब मैं यहाँसे जाना चाहता हूँ, अब तुम जैसा चाहती हो, वैसा ही करो ॥ 6 ॥ यदि तुम मुझसे इन बातोंको न कहती, तो मित्रता व्यर्थ हो जाती। कार्य तो होनहारके अनुसार होता है, इसलिये सुखपूर्वक उसे कहना चाहिये ॥ 7 ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] इस प्रकार कहकर ज्यों ही उस ब्राह्मणने जानेकी इच्छा की, तभी पार्वती देवी प्रणाम करके उन द्विजसे कहने लगीं- ॥ 8 ॥ पार्वती बोलीं- हे विप्रेन्द्र! आप क्यों जा रहे हैं, ठहरिये और मेरे हितकी बात कहिये। उनके ऐसा कहनेपर वे दण्डधारी रुककर कहने लगे-॥ 9 ॥
ब्राह्मण बोले- हे देवि ! यदि तुम सुननेकी इच्छा करती हो और भक्तिपूर्वक मुझे रोकती हो, तो मैं तुमसे यह सब तत्त्व कहता हूँ, जिससे [उनके विषयमें] तुम्हें भलीभाँति जानकारी हो जायगी। मैं गुरुप्रसादसे महादेवको अच्छी तरहसे जानता हूँ। जो बात सत्य है, उसको कह रहा हूँ, तुम सावधान होकर सुनो ॥ 10-11 ॥
महादेव बैलकी सवारी करते हैं, भस्म पोते रहते हैं, जटा धारण किये रहते हैं, व्याघ्रचर्म धारण करते हैं और हाथीका चमड़ा ओढ़ते हैं ॥ 12 ॥वे कपाल धारण करते हैं तथा सम्पूर्ण शरीर में साँप लपेटे रहते हैं। वे विष पीनेवाले, अभक्ष्यका भक्षण करनेवाले, विरूपाक्ष और महाभयंकर हैं। 13 ।। उनके जन्मका किसीको पता नहीं है और वे गृहस्थोचित भोगसे सर्वथा रहित हैं वे दिगम्बर, दशभुजावाले तथा भूत-प्रेतोंके साथ निवास करते हैं ॥ 14 ॥
हे देवि! तुम किस कारणसे उन्हें अपना पति बनाना चाहती हो, तुम्हारा ज्ञान कहाँ खो गया है, इसे विचारकर मुझसे इस समय कहो-मैंने पूर्व समयमें भी उनका भयंकर चरित्र सुना है। यदि तुम्हें उसे सुननेकी इच्छा हो, तो मैं कह रहा हूँ, उसे सुनो ll 15-16 ॥
पहले दक्षकन्या साध्वी सतीने वृषभवाहन शिवका वरण किया था, उसके साथ उन्होंने जैसा व्यवहार किया, वह बात भी तुमने सुनी होगी। दक्षने स्वयं अपनी कन्याको इसीलिये नहीं बुलाया कि वह कपालीकी पत्नी है और यज्ञमें शिवजीको भाग भी नहीं दिया ।। 17-18 ।।
इस अपमानसे अत्यन्त क्रुद्ध हुई सतीने अपने प्रिय प्राण त्याग दिये और उसने शंकरजीको भी छोड़ दिया ॥ 19 ॥
तुम सभी स्त्रियोंमें रत्न हो और तुम्हारे पिता भी पर्वतोंके राजा है, फिर उग्र तपस्याके द्वारा तुम इस प्रकारके पतिको क्यों प्राप्त करना चाहती हो ? ॥ 20 ॥
तुम सुवर्णकी मुद्रा देकर काँच क्यों ग्रहण करना चाहती हो और सुन्दर चन्दनको छोड़कर कीचड़ लगानेकी इच्छा क्यों कर रही हो? सूर्यका तेज छोड़कर तुम जुगनूका प्रकाश क्यों चाहती हो और रेशमी वस्त्रको त्यागकर चमड़ा क्यों पहनना चाहती हो ? ॥ 21-22 ॥
घरमें रहना छोड़कर वनमें रहना चाहती हो और हे देवेशि ! उत्तम खजानेको छोड़कर लोहेकी इच्छा करती हो। जो तुम इन्द्र आदि लोकपालोंको छोड़कर शिवमें अनुरक्त हुई हो, यह तो उचित नहीं है और यह लोकके सर्वधा विरुद्ध दिखायी पड़ता है। ll 23-24 ll
कहाँ तुम कमलके समान विशाल नेत्रवाली हो और कहाँ वे भयंकर तीन नेत्रवाले हैं। तुम चन्द्रमाके समान मुखवाली हो तथा वे शिव पाँच मुखवाले कहे गये हैं ॥ 25 ॥तुम्हारे सिरपर सर्पिणीके समान वेणी सुशोभित
है और शिवका जटाजूट तो प्रसिद्ध ही है ॥ 26 ॥ तुम्हारे शरीरमें चन्दनका लेप और शिवके शरीरमें चिताका भस्म लगा रहता है। कहाँ तुम्हारा दुकूल और कहाँ शंकरका गजचर्म! कहाँ [तुम्हारे) दिव्य आभूषण और कहाँ शंकरके सर्प कहाँ सभी देवता तुम्हारे सेवक तथा कहाँ भूतों तथा बलिको प्रिय समझनेवाला वह शिव ! ।। 27-28 ॥
कहीं [तुम्हें सुख देनेवाला) मृदंगवाद्य और कहाँ डमरू ? कहाँ तुम्हारी भेरीकी ध्वनि और कहाँ उनका अशुभदायक श्रृंगीका शब्द! कहाँ तुम्हारा ढक्का नामक बाजेका शब्द और उनका अशुभ गलेका शब्द! तुम्हारा रूप उत्तम है और शिवका रूप नहीं है । ll29-30 ॥
यदि उनके पास द्रव्य होता तो वे दिगम्बर कैसे होते, उनका वाहन भी बैल है तथा उनके पास और कोई सामग्री भी नहीं है। स्त्रियोंको सुख देनेवाले जो गुण वरोंमें बताये गये हैं, उनमेंसे एक भी गुण विरूपाक्ष शिवमें नहीं कहा गया है ।। 31-32 ॥
उन्होंने तुम्हारे अत्यन्त प्रिय कामदेवको भी भस्म कर दिया। उस समय तुमने अपना अनादर भी देख लिया कि वे तुम्हें छोड़कर अन्यत्र चले गये ll 33 ॥
उनकी जातिका पता नहीं है, उसी प्रकार उनके ज्ञान तथा विद्याका भी पता नहीं, पिशाच ही उनके सहायक हैं और उनके गलेमें विष दिखायी पड़ता है ।। 34 ।।
वे विशेष रूपसे विरक्त हैं, इसलिये अकेले रहते हैं। अत: तुम शंकरके साथ अपना मन मत जोड़ो ॥ 35 ॥
कहाँ तुम्हारा हार और कहाँ उनकी मुण्डमाला! कहाँ तुम्हारा दिव्य अंगराग और कहाँ उनके शरीरमें चिताभस्म ! ॥ 36 ॥
हे देवि! तुम्हारा और शंकरका रूप आदि सब कुछ एक-दूसरेके विपरीत है, मुझे तो यह अच्छा नहीं लगता, अब तुम जैसा चाहती हो, वैसा करो ॥ 37 ॥
जो कुछ भी असद् वस्तु है, वह सब तुम स्वयं चाह रही हो। तुम उससे अपना मन हटा लो। अन्यथा जो चाहती हो, उसे करो ॥ 38 ॥ब्रह्माजी बोले- उस ब्राह्मणके इस प्रकारके वचन सुनकर पार्वती कुपित मनसे उन शिवनिन्दक ब्राह्मणसे कहने लगीं - ॥ 39 ॥