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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 18 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 18

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जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये

जलन्धरको परामर्श देना


सनत्कुमार बोले- हे मुनीश्वर ! इस प्रकार उस महान् असुरके धर्मपूर्वक पृथ्वीका शासन करते रहनेपर उसके स्वामित्वमें रहनेके कारण देवता दुखी हुए॥ 1 ॥ वे सभी दुखित देवता मन-ही-मन देवाधिदेव | सर्वप्रभु भगवान् सदाशिवकी शरणमें आये और अपने | दुःखको दूर करनेके लिये सब कुछ देनेवाले भक्तवत्सल भगवान् महेश्वरकी मनोहर वाणीसे स्तुति करने लगे ॥ 2-3 ॥

तब भक्तजनोंके सभी मनोरथ पूर्ण करनेवाले महादेवने देवकार्य करनेकी इच्छासे नारदको बुलाकर [ वहाँ जानेहेतु] प्रेरित किया। इसके बाद ज्ञानी,शिवजीके भक्त तथा सज्जनोंका उद्धार करनेवाले देवर्षि नारद शिवजीको आज्ञासे देवताओंके पास दैत्यपुरीमें गये ॥ 4-5 ॥

उस समय व्याकुल इन्द्रादि सभी देवता मुनि नारदको आते देखकर शीघ्रतासे उठ गये। उत्कण्ठापूर्ण मुखवाले इन्द्र आदि देवताओंने नारद मुनिको नमस्कार करके प्रीतिपूर्वक उन्हें आसन प्रदान किया। तदनन्तर सुखपूर्वक आसनपर बैठे हुए उन मुनिको पुनः प्रणाम करके इन्द्रादि दुखित देवताओंने मुनीश्वरसे कहा- ॥ 6-8 ॥

देवता बोले हे मुनिश्रेष्ठ हे कृपाकर। [हमलोगों] दुःखको सुनिये और सुनकर उसे शीघ्र दूर कीजिये, आप प्रभु हैं तथा शंकरप्रिय हैं। दैत्य जलन्धरने देवताओंको [पराजितकर] उन्हें अपने स्थानसे हटा दिया है। इस समय उसके स्वामित्वमें रहनेके कारण हमलोग दुखी तथा व्याकुल हैं। उसके द्वारा सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, धर्मराज, लोकपाल तथा अन्य देवता भी अपने स्थानोंसे हटा दिये गये हैं। उस महाबलवान् दैत्यने हम सभी देवताओंको बहुत पीड़ित किया है, अतः हम सभी अत्यन्त दुखी होकर आपकी शरण में आये हैं। सभी देवताओंका मर्दन करनेवाले उस बलवान् महादैत्य जलन्धरने संग्राम में विष्णुको भी अपने वशमें कर लिया है। ll 9-13 ॥

हमलोगोंके समस्त कार्यको सिद्ध करनेवाले विष्णु वर देनेके कारण उसके वशमें होकर लक्ष्मीसहित उसके परमें निवास कर रहे हैं। हे महामते! आप सदा सर्वार्थसाधक हैं, हमलोगोंके भाग्यसे ही आप यहाँ आये हैं, अतः जलन्धरके विनाशके लिये कोई उपाय कीजिये ।। 14-15 ।।

सनत्कुमार बोले- उन देवताओंकी यह बात सुनकर कृपा करनेवाले वे मुनिश्रेष्ठ नारदजी उन्हें आश्वस्त करके कहने लगे- ll 16 ll

नारदजी बोले - हे देवताओ। मैं जानता हूँ कि आपलोग दैत्यराज जलन्धरसे पराजित हो गये हैं और अपने-अपने स्थानोंसे हटा दिये गये हैं, अतः आपलोग दुखित तथा पीड़ित हैं। मैं अपनी शक्तिके अनुसार आपलोगों का कार्य सिद्ध करूंगा, इसमें कोई संशय नहीं है। आपलोगोंने बड़ा दुःख उठाया है, मैं आपलोगोंके अनुकूल हूँ ll 17-18 ।।सनत्कुमार बोले- ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी सभी देवताओंको आश्वस्त करके उस दानवप्रिय जलन्धरको देखनेके लिये उसकी सभायें गये ॥ 19 ॥

तदनन्तर दैत्य जलन्धरने मुनिश्रेष्ठ नारदको आया हुआ देखकर बड़ी भक्तिके साथ उठकर उन्हें श्रेष्ठ तथा उत्तम आसन प्रदान किया। तत्पश्चात् विधिपूर्वक उनकी पूजाकर वह दानवेन्द्र बहुत आश्चर्यमें पड़ गया और हँस करके मुनिवरसे यह वचन कहने लगा- ll 20-21 ॥

जलन्धर बोला- हे ब्रह्मन् ! आपका आगमन कहाँसे हो रहा है, आपने कहींपर कुछ देखा है क्या! हे मुने! आप यहाँ जिसलिये आये हैं, उसे मुझको बताइये ll 22 ll

सनत्कुमार बोले- उस दैत्येन्द्रका यह वचन सुनकर महामुनि नारदजी प्रसन्नचित्त होकर जलन्धरसे कहने लगे- ॥ 23 ॥

नारदजी बोले - सम्पूर्ण दैत्यों तथा दानवोंके अधिपति हे जलन्धर! तुम धन्य हो, हे सर्वलोकेश ! तुम्हीं सारे रत्नोंका उपभोग करनेयोग्य हो ॥ 24 ॥

हे दैत्येन्द्रसत्तम! मेरे आनेका कारण सुनो, मैं जिस निमित्तसे यहाँ आया हूँ, मैं वह सब कह रहा हूँ ॥ 25ll हे दैत्येन्द्र! मैं अपनी इच्छासे कैलासपर्वतपर गया था, जो दस हजार योजन विस्तारवाला, कल्पवृक्षके महान् वनसे युक्त, सैकड़ों कामधेनुओंसे समन्वित, चिन्तामणिसे प्रकाशित सम्पूर्णरूपसे सुवर्णमय, दिव्य तथा सभी प्रकारको अद्भुत वस्तुओंसे सुशोभित हो रहा है ll 26-27 ।।

वहाँपर मैंने पार्वतीके साथ बैठे हुए गौरवर्ण, सर्वांगसुन्दर, त्रिनेत्र एवं चन्द्रमाको मस्तकपर धारण किये हुए भगवान् शंकरको देखा ॥ 28 ॥

महान् आश्चर्यसे परिपूर्ण उस कैलासको देखकर मैंने अपने मनमें विचार किया कि त्रिलोकीमें कहीं कोई ऐसी समृद्धि है अथवा नहीं। हे दैत्येन्द्र ! उसी समय मुझे तुम्हारी समृद्धिका स्मरण हुआ और उसीको देखनेकी इच्छासे मैं तुम्हारे पास यहाँ आया हूँ ।। 29-30 ।।सनत्कुमार बोले- नारदजीसे ऐसा सुनकर उस दैत्यपति जलन्धरने बड़े आदरके साथ उन्हें अपनी सारी समृद्धि दिखायी। तब देवगणोंका कार्य सिद्ध करनेवाले वे ज्ञानी नारदजी उसे देखकर शंकरजी की प्रेरणासे उस दैत्येन्द्र जलन्धरसे कहने लगे- ॥ 31-32 ॥

नारदजी बोले - हे श्रेष्ठ वीर! तुम्हारे पास इस समय निःसन्देह सारी सम्पत्ति है, तुम त्रिलोकीके पति भी हो। अतः इसमें आश्चर्य क्या हो सकता है। मणि, रत्नोंकी राशियाँ, घोड़े, हाथी आदि समृद्धियाँ तथा जो अन्य रन हैं, वे सब तुम्हारे घरमें सुशोभित हो रहे हैं । ll 33-34॥

हे महावीर तुमने इन्द्रके हाथियों रत्नभूत ऐरावतको ले लिया है तथा सूर्यका अश्वरत्न उच्चैः श्रवा घोड़ा भी ले लिया है। तुम कल्पवृक्ष भी ले आये हो तथा कुबेरकी सारी निधियाँ भी तुम्हारे पास है। तुम ब्रह्माजीका हंसयुक्त विमान भी ले आये हो। इस प्रकार हे दैत्येन्द्र! पृथ्वी, पाताल तथा स्वर्गलोकमें जो भी उत्तम रत्न हैं, वे सब तुम्हारे घरमें सुशोभित हो रहे हैं ।। 35-37 ॥

हे महावीर गज, अश्वादिसे सुशोभित तुम्हारी | इस सम्पूर्ण समृद्धिको देखता हुआ मैं प्रसन्न हूँ ॥ 38 ॥

किंतु हे जलन्धर! तुम्हारे घरमें सर्वश्रेष्ठ स्त्रीरत्व नहीं है, इसलिये तुम विशेषरूपसे स्त्रीरत्नको लानेका प्रयत्न करो। हे जलन्धर जिसके घरमें सभी सुन्दर रत्न हों, किंतु यदि स्त्रीरत्न न हो, तो वे सब शोभित नहीं होते हैं और निश्चय ही वे सभी रत्न व्यर्थ हो जाते हैं ।। 39-40 ।।

सनत्कुमार बोले- महात्मा नारदकी इस बातको सुनकर दैत्यराज कामसे व्याकुलचित्त होकर कहने लगा- ॥ 41 ॥

जलन्धर बोला- हे देवर्षे! हे नारद! आपको नमस्कार है। हे महाप्रभो! इस समय वह श्रेष्ठ स्त्रीरत्न कहाँ है? मुझे बताइये। हे ब्रह्मन् इस ब्रह्माण्डमें जहाँ कहीं भी वह स्वीर है, तो मैं उसे वहाँसे लाऊंगा, यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ।। 42-43 ॥

नारदजी बोले – अत्यन्त मनोहर सर्वसमृद्धिसम्पन्न कैलास पर्वतपर योगीका रूप धारण किये हुए दिगम्बर शम्भु रहते हैं। सुरम्य सभी लक्षण सम्पन्न | तथा मनोहर पार्वती नामक उनकी भार्या है ॥ 44-45 ।।हाव-भावसे पूर्ण ऐसा मनोहर रूप अन्यत्र कहीं भी देखनेको नहीं मिलता। वह अत्यन्त अद्भुत रूप परम योगियोंको भी मोहित करनेवाला, दर्शनके योग्य और सम्पूर्ण समृद्धियोंको प्रदान करनेवाला है ॥ 46 ॥

हे वीर! हे जलन्धर ! मैं अपने मनमें अनुमान करता हूँ कि स्त्रीरत्नसे युक्त शिवजीसे बढ़कर अन्य कोई भी • इस समय तीनों लोकोंमें समृद्धिशाली नहीं है ॥ 47 ॥

पूर्वकालमें जिसके लावण्यसमुद्रमें डूबकर ब्रह्माजीने अपना धैर्य खो दिया था, उससे किसी दूसरी स्त्रीकी उपमा कैसे की जा सकती है। जिसने अपनी लीलासे कामके शत्रु, रागरहित तथा स्वतन्त्र . शंकरको भी अपने वशमें कर लिया है। हे दैत्येन्द्र ! उस स्त्रीरत्नका सेवन करनेवाले शिवकी जैसी समृद्धि है, वैसी समृद्धि सम्पूर्ण रत्नोंके अधिपति होनेपर भी 'तुम्हारे पास नहीं है ॥ 48-50 ।।

सनत्कुमार बोले- ऐसा कहकर देवताओंका उपकार करनेके लिये उद्यत लोकविख्यात वे देवर्षि नारद आकाशमार्गसे चले गये ॥ 51 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य