जलन्धरको परामर्श देना
सनत्कुमार बोले- हे मुनीश्वर ! इस प्रकार उस महान् असुरके धर्मपूर्वक पृथ्वीका शासन करते रहनेपर उसके स्वामित्वमें रहनेके कारण देवता दुखी हुए॥ 1 ॥ वे सभी दुखित देवता मन-ही-मन देवाधिदेव | सर्वप्रभु भगवान् सदाशिवकी शरणमें आये और अपने | दुःखको दूर करनेके लिये सब कुछ देनेवाले भक्तवत्सल भगवान् महेश्वरकी मनोहर वाणीसे स्तुति करने लगे ॥ 2-3 ॥
तब भक्तजनोंके सभी मनोरथ पूर्ण करनेवाले महादेवने देवकार्य करनेकी इच्छासे नारदको बुलाकर [ वहाँ जानेहेतु] प्रेरित किया। इसके बाद ज्ञानी,शिवजीके भक्त तथा सज्जनोंका उद्धार करनेवाले देवर्षि नारद शिवजीको आज्ञासे देवताओंके पास दैत्यपुरीमें गये ॥ 4-5 ॥
उस समय व्याकुल इन्द्रादि सभी देवता मुनि नारदको आते देखकर शीघ्रतासे उठ गये। उत्कण्ठापूर्ण मुखवाले इन्द्र आदि देवताओंने नारद मुनिको नमस्कार करके प्रीतिपूर्वक उन्हें आसन प्रदान किया। तदनन्तर सुखपूर्वक आसनपर बैठे हुए उन मुनिको पुनः प्रणाम करके इन्द्रादि दुखित देवताओंने मुनीश्वरसे कहा- ॥ 6-8 ॥
देवता बोले हे मुनिश्रेष्ठ हे कृपाकर। [हमलोगों] दुःखको सुनिये और सुनकर उसे शीघ्र दूर कीजिये, आप प्रभु हैं तथा शंकरप्रिय हैं। दैत्य जलन्धरने देवताओंको [पराजितकर] उन्हें अपने स्थानसे हटा दिया है। इस समय उसके स्वामित्वमें रहनेके कारण हमलोग दुखी तथा व्याकुल हैं। उसके द्वारा सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, धर्मराज, लोकपाल तथा अन्य देवता भी अपने स्थानोंसे हटा दिये गये हैं। उस महाबलवान् दैत्यने हम सभी देवताओंको बहुत पीड़ित किया है, अतः हम सभी अत्यन्त दुखी होकर आपकी शरण में आये हैं। सभी देवताओंका मर्दन करनेवाले उस बलवान् महादैत्य जलन्धरने संग्राम में विष्णुको भी अपने वशमें कर लिया है। ll 9-13 ॥
हमलोगोंके समस्त कार्यको सिद्ध करनेवाले विष्णु वर देनेके कारण उसके वशमें होकर लक्ष्मीसहित उसके परमें निवास कर रहे हैं। हे महामते! आप सदा सर्वार्थसाधक हैं, हमलोगोंके भाग्यसे ही आप यहाँ आये हैं, अतः जलन्धरके विनाशके लिये कोई उपाय कीजिये ।। 14-15 ।।
सनत्कुमार बोले- उन देवताओंकी यह बात सुनकर कृपा करनेवाले वे मुनिश्रेष्ठ नारदजी उन्हें आश्वस्त करके कहने लगे- ll 16 ll
नारदजी बोले - हे देवताओ। मैं जानता हूँ कि आपलोग दैत्यराज जलन्धरसे पराजित हो गये हैं और अपने-अपने स्थानोंसे हटा दिये गये हैं, अतः आपलोग दुखित तथा पीड़ित हैं। मैं अपनी शक्तिके अनुसार आपलोगों का कार्य सिद्ध करूंगा, इसमें कोई संशय नहीं है। आपलोगोंने बड़ा दुःख उठाया है, मैं आपलोगोंके अनुकूल हूँ ll 17-18 ।।सनत्कुमार बोले- ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी सभी देवताओंको आश्वस्त करके उस दानवप्रिय जलन्धरको देखनेके लिये उसकी सभायें गये ॥ 19 ॥
तदनन्तर दैत्य जलन्धरने मुनिश्रेष्ठ नारदको आया हुआ देखकर बड़ी भक्तिके साथ उठकर उन्हें श्रेष्ठ तथा उत्तम आसन प्रदान किया। तत्पश्चात् विधिपूर्वक उनकी पूजाकर वह दानवेन्द्र बहुत आश्चर्यमें पड़ गया और हँस करके मुनिवरसे यह वचन कहने लगा- ll 20-21 ॥
जलन्धर बोला- हे ब्रह्मन् ! आपका आगमन कहाँसे हो रहा है, आपने कहींपर कुछ देखा है क्या! हे मुने! आप यहाँ जिसलिये आये हैं, उसे मुझको बताइये ll 22 ll
सनत्कुमार बोले- उस दैत्येन्द्रका यह वचन सुनकर महामुनि नारदजी प्रसन्नचित्त होकर जलन्धरसे कहने लगे- ॥ 23 ॥
नारदजी बोले - सम्पूर्ण दैत्यों तथा दानवोंके अधिपति हे जलन्धर! तुम धन्य हो, हे सर्वलोकेश ! तुम्हीं सारे रत्नोंका उपभोग करनेयोग्य हो ॥ 24 ॥
हे दैत्येन्द्रसत्तम! मेरे आनेका कारण सुनो, मैं जिस निमित्तसे यहाँ आया हूँ, मैं वह सब कह रहा हूँ ॥ 25ll हे दैत्येन्द्र! मैं अपनी इच्छासे कैलासपर्वतपर गया था, जो दस हजार योजन विस्तारवाला, कल्पवृक्षके महान् वनसे युक्त, सैकड़ों कामधेनुओंसे समन्वित, चिन्तामणिसे प्रकाशित सम्पूर्णरूपसे सुवर्णमय, दिव्य तथा सभी प्रकारको अद्भुत वस्तुओंसे सुशोभित हो रहा है ll 26-27 ।।
वहाँपर मैंने पार्वतीके साथ बैठे हुए गौरवर्ण, सर्वांगसुन्दर, त्रिनेत्र एवं चन्द्रमाको मस्तकपर धारण किये हुए भगवान् शंकरको देखा ॥ 28 ॥
महान् आश्चर्यसे परिपूर्ण उस कैलासको देखकर मैंने अपने मनमें विचार किया कि त्रिलोकीमें कहीं कोई ऐसी समृद्धि है अथवा नहीं। हे दैत्येन्द्र ! उसी समय मुझे तुम्हारी समृद्धिका स्मरण हुआ और उसीको देखनेकी इच्छासे मैं तुम्हारे पास यहाँ आया हूँ ।। 29-30 ।।सनत्कुमार बोले- नारदजीसे ऐसा सुनकर उस दैत्यपति जलन्धरने बड़े आदरके साथ उन्हें अपनी सारी समृद्धि दिखायी। तब देवगणोंका कार्य सिद्ध करनेवाले वे ज्ञानी नारदजी उसे देखकर शंकरजी की प्रेरणासे उस दैत्येन्द्र जलन्धरसे कहने लगे- ॥ 31-32 ॥
नारदजी बोले - हे श्रेष्ठ वीर! तुम्हारे पास इस समय निःसन्देह सारी सम्पत्ति है, तुम त्रिलोकीके पति भी हो। अतः इसमें आश्चर्य क्या हो सकता है। मणि, रत्नोंकी राशियाँ, घोड़े, हाथी आदि समृद्धियाँ तथा जो अन्य रन हैं, वे सब तुम्हारे घरमें सुशोभित हो रहे हैं । ll 33-34॥
हे महावीर तुमने इन्द्रके हाथियों रत्नभूत ऐरावतको ले लिया है तथा सूर्यका अश्वरत्न उच्चैः श्रवा घोड़ा भी ले लिया है। तुम कल्पवृक्ष भी ले आये हो तथा कुबेरकी सारी निधियाँ भी तुम्हारे पास है। तुम ब्रह्माजीका हंसयुक्त विमान भी ले आये हो। इस प्रकार हे दैत्येन्द्र! पृथ्वी, पाताल तथा स्वर्गलोकमें जो भी उत्तम रत्न हैं, वे सब तुम्हारे घरमें सुशोभित हो रहे हैं ।। 35-37 ॥
हे महावीर गज, अश्वादिसे सुशोभित तुम्हारी | इस सम्पूर्ण समृद्धिको देखता हुआ मैं प्रसन्न हूँ ॥ 38 ॥
किंतु हे जलन्धर! तुम्हारे घरमें सर्वश्रेष्ठ स्त्रीरत्व नहीं है, इसलिये तुम विशेषरूपसे स्त्रीरत्नको लानेका प्रयत्न करो। हे जलन्धर जिसके घरमें सभी सुन्दर रत्न हों, किंतु यदि स्त्रीरत्न न हो, तो वे सब शोभित नहीं होते हैं और निश्चय ही वे सभी रत्न व्यर्थ हो जाते हैं ।। 39-40 ।।
सनत्कुमार बोले- महात्मा नारदकी इस बातको सुनकर दैत्यराज कामसे व्याकुलचित्त होकर कहने लगा- ॥ 41 ॥
जलन्धर बोला- हे देवर्षे! हे नारद! आपको नमस्कार है। हे महाप्रभो! इस समय वह श्रेष्ठ स्त्रीरत्न कहाँ है? मुझे बताइये। हे ब्रह्मन् इस ब्रह्माण्डमें जहाँ कहीं भी वह स्वीर है, तो मैं उसे वहाँसे लाऊंगा, यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ।। 42-43 ॥
नारदजी बोले – अत्यन्त मनोहर सर्वसमृद्धिसम्पन्न कैलास पर्वतपर योगीका रूप धारण किये हुए दिगम्बर शम्भु रहते हैं। सुरम्य सभी लक्षण सम्पन्न | तथा मनोहर पार्वती नामक उनकी भार्या है ॥ 44-45 ।।हाव-भावसे पूर्ण ऐसा मनोहर रूप अन्यत्र कहीं भी देखनेको नहीं मिलता। वह अत्यन्त अद्भुत रूप परम योगियोंको भी मोहित करनेवाला, दर्शनके योग्य और सम्पूर्ण समृद्धियोंको प्रदान करनेवाला है ॥ 46 ॥
हे वीर! हे जलन्धर ! मैं अपने मनमें अनुमान करता हूँ कि स्त्रीरत्नसे युक्त शिवजीसे बढ़कर अन्य कोई भी • इस समय तीनों लोकोंमें समृद्धिशाली नहीं है ॥ 47 ॥
पूर्वकालमें जिसके लावण्यसमुद्रमें डूबकर ब्रह्माजीने अपना धैर्य खो दिया था, उससे किसी दूसरी स्त्रीकी उपमा कैसे की जा सकती है। जिसने अपनी लीलासे कामके शत्रु, रागरहित तथा स्वतन्त्र . शंकरको भी अपने वशमें कर लिया है। हे दैत्येन्द्र ! उस स्त्रीरत्नका सेवन करनेवाले शिवकी जैसी समृद्धि है, वैसी समृद्धि सम्पूर्ण रत्नोंके अधिपति होनेपर भी 'तुम्हारे पास नहीं है ॥ 48-50 ।।
सनत्कुमार बोले- ऐसा कहकर देवताओंका उपकार करनेके लिये उद्यत लोकविख्यात वे देवर्षि नारद आकाशमार्गसे चले गये ॥ 51 ॥