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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 2 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 2

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तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना

व्यासजी बोले- हे ब्रह्मपुत्र ! हे महाप्राज्ञ ! हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ! अब मुझे बताइये कि उसके बाद क्या हुआ और देवगण किस प्रकार सुखी हुए ? ॥ 1 ॥

ब्रह्माजी बोले- महाबुद्धिमान् व्यासजीका यह वचन सुनकर शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके सनत्कुमारजीने कहा- ॥ 2 ॥

सनत्कुमार बोले- तब उनके तेजसे दग्ध हुए इन्द्रादि देवता दुखी हो परस्पर मन्त्रणाकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये ॥ 3 ॥

वे सभी निस्तेज देवता प्रीतिपूर्वक पितामहको प्रणाम करके अवसर देखकर उनसे अपना दुःख कहने लगे ll 4 ॥

देवता बोले- हे विधाता! तारकपुत्रोंसहित त्रिपुरनाथ मयके द्वारा सभी देवता अत्यधिक पीड़ित किये जा रहे हैं इसलिये हे ब्रह्मन्! हमलोग दुखी होकर आपकी शरणमें आये हैं; आप उनके वधका कोई उपाय कीजिये, जिससे हमलोग सुखी हो जायँ ॥ 5-6 ॥सनत्कुमार बोले- देवगणोंके इस प्रकार कहने पर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी मयसे डरे हुए उन समस्त देवताओंसे हँसकर कहने लगे- ॥7॥

ब्रह्माजी बोले- हे देवताओ! आपलोग उन दैत्योंसे बिलकुल मत डरिये, मैं उनके वधका उपाय बता रहा हूँ; शिवजी कल्याण करेंगे। मैंने हो इस दैत्यको बढ़ाया है, अतः मेरे हाथों इसका वध होना उचित नहीं है और इस समय त्रिपुरके नगरमें निरन्तर पुण्य बढ़ हो रहा है ॥ 8-9 ॥

अतः इन्द्रसहित सभी देवता शिवजीसे प्रार्थना करें। यदि वे सर्वाधीश प्रसन्न हो जायें, तो आपलोगोंक कार्यको पूर्ण करेंगे ll 10 ॥

सनत्कुमार बोले- तब ब्रह्माजीको बात सुनकर इन्द्रसहित सभी देवता दुखी होकर वहाँ गये, जहाँ शिवजी थे हाथ जोड़कर बड़ी भक्तिसे देवेशको प्रणाम करके सिर झुकाकर वे सब लोककल्याणकारी शंकरकी स्तुति करने लगे ll 11-12 ll देवगण बोले- सम्पूर्ण सृष्टिका विधान करनेवाले हिरण्यगर्भ ब्रह्मास्वरूप आप शिवको नमस्कार है। पालन करनेवाले विष्णुस्वरूप आपको नमस्कार है ॥ 13 ll

सम्पूर्ण प्राणियोंका संहार करनेवाले हरस्वरूप आपको नमस्कार है। निर्गुण तथा अमिततेजस्वी आप शिवको नमस्कार है। अवस्थाओंसे रहित, निर्विकार, तेजस्वरूप, महाभूतोंमें आत्मस्वरूपसे वर्तमान, निर्लिप्त एवं महान् आत्मावाले आप महात्माको नमस्कार है ।। 14-15 ।।

सम्पूर्ण प्राणियोंके अधिपति, शेषरूपसे पृथ्वीका भार उठानेवाले, तृष्णाको नष्ट करनेवाले, शान्त प्रकृतिवाले तथा अमिततेजस्वी आप शिवको नमस्कार है ॥ 16 ॥ महादैत्यरूपी महावनको विनष्ट करनेके लिये दावाग्निके स्वरूप एवं दैत्यरूपी वृक्षोंके लिये कुठारस्वरूप आप शूलपाणिको नमस्कार है ॥ 17 ॥

महादैत्योंका नाश करनेवाले हे परमेश्वर! आपको नमस्कार है। हे सभी अस्त्रोंके धारणकर्ता ! आप अम्बिकापतिको नमस्कार है। हे पार्वतीनाथ! हे परमात्मन्! हे महेश्वर! आपको नमस्कार है। आप नीलकण्ठ, रुद्र तथा रुद्रस्वरूपको नमस्कार है ॥ 18-19 llवेदान्तसे जाननेयोग्य आपको नमस्कार है। सभी मार्गोसे अगम्य आपको नमस्कार है। गुणस्वरूप, गुणोंको धारण करनेवाले एवं गुणोंसे सर्वथा रहित आपको नमस्कार है त्रिलोकीको आनन्द देनेवाले हे महादेव! आपको नमस्कार है। प्रद्युम्न अनिरुद्ध एवं वासुदेवस्वरूप आपको नमस्कार है। संकर्षणदेव एवं कंसनाशक आपको नमस्कार है। चाणूरका मर्दन करनेवाले एवं विरक्त रहनेवाले हे दामोदर! आपको नमस्कार है ।। 20-22 ॥

हे हृषीकेश ! हे अच्युत हे विभो ! हे मृड! हे शंकर! हे अधोक्षज! हे गजासुरके शत्रु ! हे कामशत्रु हे विषभक्षक ! आपको नमस्कार है ॥ 23 ॥

नारायणदेव, नारायणपरायण, नारायणस्वरूप तथा सर्वरूप हे नारायणतनूद्भव! आपको नमस्कार है। महानरकसे बचानेवाले तथा पापोंको दूर करनेवाले है वृषभवाहन! आपको नमस्कार है ।। 24-25 ।।

क्षण आदि कालरूपवाले, अपने भक्तोंको बल प्रदान करनेवाले, अनेक रूपोंवाले तथा दैत्योंके समूहका नाश करनेवाले, ब्रह्मण्यदेवस्वरूप, गौ तथा ब्राह्मणोंका हित करनेवाले, सहस्रमूर्ति तथा सहस अवयवोंवाले आपको नमस्कार है ।। 26-27 ।।

धर्मरूप, सत्त्वस्वरूप तथा सत्त्वात्मरूप हे हर ! आपको नमस्कार है। वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य स्वरूपवाले तथा वेदप्रिय आपको नमस्कार है। वेदस्वरूप एवं वेदके वक्ता आपको नमस्कार है। सदाचारके मार्ग से जाननेयोग्य एवं सदाचारके मार्गपर चलनेवाले आपको बार-बार नमस्कार है ।। 28-29 ।।

विष्टरश्रवा (विष्णु) तथा सत्यमय आपको नमस्कार है। सत्यप्रिय, सत्यस्वरूप तथा सत्यसे प्राप्त होनेवाले आपको नमस्कार है। मायाको अपने अधीन रखनेवाले आपको नमस्कार है। मायाके अधिपति आपको नमस्कार है। सामवेदस्वरूप, ब्रह्मस्वरूप तथा ब्रह्मासे उत्पन्न होनेवाले आपको नमस्कार है ॥ 30-31 ll

हे ईश! आप तपःस्वरूप, तपस्याका फल देनेवाले, स्तुतिके योग्य, स्तुतिरूप, स्तुतिसे प्रसन्नचित्त, श्रुतिके आचारसे प्रसन्न रहनेवाले, स्तुतिप्रिय, जरायुज अण्डज आदि चार स्वरूपोंवाले एवं जल-थलमें प्रकट स्वरूपवाले हैं, आपको नमस्कार है। ll 32-33 ॥हे नाथ! सभी देवता आदि श्रेष्ठ होनेसे आपकी विभूति हैं। आप सभी देवताओंमें इन्द्रस्वरूप हैं और ग्रहोंमें आप सूर्य माने गये हैं ॥ 34 ॥ आप लोकोंमें सत्यलोक, सरिताओंमें गंगा,
वर्णोंमें श्वेत वर्ण और सरोवरोंमें मानसरोवर हैं॥ 35 ॥ आप पर्वतोंमें हिमालय, गायोंमें कामधेनु, समुद्र में
क्षीरसागर एवं धातुओंमें सुवर्ण हैं ॥ 36 ॥ हे शंकर! आप वर्णोंमें ब्राह्मण, मनुष्योंमें राजा, मुक्तिक्षेत्रोंमें काशी तथा तीर्थोंमें प्रयाग हैं। हे महेश्वर ! आप समस्त पाषाणोंमें स्फटिक मणि, पुष्पोंमें कमल तथा पर्वतोंमें हिमालय हैं ।। 37-38 ।।

आप व्यवहारोंमें वाणी हैं, कवियोंमें भार्गव, पक्षियोंमें शरभ और हिंसक प्राणियोंमें सिंह कहे गये हैं ।। 39 ।। हे वृषभध्वज ! आप शिलाओंमें शालग्रामशिला और सभी पूज्योंमें नर्मदा लिंग हैं। हे परमेश्वर आप पशुओंमें नन्दीश्वर नामक वृषभ (बैल), वेदोंमें उपनिषद्रूप और यह करनेवालोंमें चन्द्रमा हैं ।। 40-41 ।।

आप तेजस्वियोंमें अग्नि, शैवोंमें विष्णु, पुराणोंमें महाभारत तथा अक्षरोंमें मकार हैं। बीजमन्त्रोंमें प्रणव
(ओंकार), दारुण पदार्थोंमें विष, व्यापक वस्तुओंमें
आकाश तथा आत्माओंमें परमात्मा हैं ॥ 42-43 ।।

आप सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें मन, सभी प्रकारके दानोंमें अभयदान, पवित्र करनेवालोंमें जल तथा जीवित करनेवाले पदार्थोंमें अमृत हैं ॥ 44 ॥ आप लाभों में पुत्रलाभ तथा वेगवानोंमें वायु हैं। आप सभी प्रकारके नित्यकर्मोंमें सन्ध्योपासन कहे गये हैं ।। 45 ।।

आप सम्पूर्ण यज्ञोंमें अश्वमेधयज्ञ, युगोंमें सत्ययुग,
नक्षत्रोंमें पुष्य तथा तिथियोंमें अमावास्या हैं 46 आप सभी ऋतुओंमें वसन्त पर्वोंमें संक्रान्ति, तृणोंमें कुश और स्थूल वृक्षोंमें वटवृक्ष हैं 47॥ ॥ आप योगोंमें व्यतीपात, लताओंमें सोमलता, बुद्धियोंमें धर्मबुद्धि तथा सुहृदोंमें कलत्र हैं। हे महेश्वर! आप सम्पूर्ण पवित्र साधनोंमें प्राणायाम हैं तथा सभी ज्योतिर्लिंगों में विश्वेश्वर कहे गये हैं ।। 48-49 ।।आप सभी बन्धुओंमें धर्म, आश्रमोंमें संन्यासाश्रम, सभी वर्गोंमें मोक्ष तथा रुद्रोंमें नीललोहित हैं ॥ 50 ॥ आप आदित्योंमें वासुदेव, वानरोंमें हनुमान्,
यज्ञोंमें जपयज्ञ तथा शस्त्रधारियोंमें राम हैं ॥ 51 ॥ आप गन्धर्वों में चित्ररथ, वसुओंमें पावक, मासोंमें अधिमास और व्रतोंमें चतुर्दशीव्रत हैं ॥ 52 ॥

आप गजेन्द्रोंमें ऐरावत, सिद्धोंमें कपिल, नागोंमें अनन्त और पितरोंमें अर्यमा माने गये हैं। आप कलना करनेवालोंमें काल तथा दैत्योंमें बलि हैं। हे देवेश! अधिक कहनेसे क्या लाभ आप सारे जगत्को आक्रान्तकर बाहर तथा भीतर सर्वत्र एकांशरूपसे स्थित हैं ॥ 53-55 ॥ सनत्कुमार बोले - हे मुने! इस प्रकार सिर झुकाकर हाथ जोड़कर अनेक प्रकारके दिव्य स्तोत्रोंसे त्रिशूलधारी परमेश्वर, वृषभध्वज महादेवकी स्तुतिकर स्वार्थसाधनमें कुशल इन्द्र आदि सभी देवता अत्यन्त दीन हो प्रस्तुत स्वार्थकी बात कहने लगे- ॥ 56-57॥ देवता बोले- हे महादेव ! हे भगवन्! इन्द्रसहित सभी देवताओंको तारकासुरके तीनों पुत्रोंने पराजित कर दिया। उन्होंने समस्त त्रैलोक्यको अपने वशमें कर लिया है। उन लोगोंने सभी मुनिवरों तथा सिद्धोंका विध्वंस कर दिया है और सारे जगत्को तहस-नहस कर दिया है। वह भयंकर दैत्य समस्त यज्ञभागोंको स्वयं ग्रहण करता है। उन तारकपुत्रोंने वेदविरुद्ध अधर्मको बढ़ावा दे रखा है ॥ 58-60 ॥

हे शंकर! वे तारकपुत्र सभी प्राणियोंसे निश्चित रूपसे अवध्य हैं, सभी लोग उन्हींकी इच्छासे कार्य करते हैं ॥ 61 ॥

जबतक त्रिपुरवासी दैत्योंके द्वारा जगत्का विध्वंस नहीं हो जाता है, तबतक आप ऐसी नीतिका निर्धारण करें, जिससे जगत्की रक्षा हो सके ॥ 62 ॥

सनत्कुमार बोले- वार्तालाप करते हुए उन इन्द्रादि देवताओंका यह वचन सुनकर शिवजीने कहा- ।। 63 ।।

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य