नारदजी बोले - हे विष्णुशिष्य ! हे महाशैव! | हे विधे! आपने यह शिवा एवं शिवजीके परम पवित्र चरित्रका अच्छी तरहसे वर्णन किया ॥ 1 ॥
हे ब्रह्मन्। तारकासुर कौन था, जिसने देवताओंको दुःखित किया, वह किसका पुत्र था, शिवजीसे सम्बन्धित उस कथाको [आप मुझसे] कहिये। जितेन्द्रिय शंकरने किस प्रकार कामदेवको भस्म किया ? भगवान् शंकरके इस अद्भुत चरित्रका भी प्रसन्नतापूर्वक वर्णन कीजिये ।। 2-3 ॥
जगत्से परे आदिशक्ति पार्वतीने किस प्रकार अत्यन्त कठोर तप किया और अपने सुखके लिये उन्होंने शंकरको किस प्रकार पतिरूपमें प्राप्त किया ? ॥ 4 ॥ हे महाज्ञानी! आप मुझ श्रद्धावान् तथा शिवभक्त अपने पुत्रसे यह सम्पूर्ण चरित्र विशेष रूपये कहिये ॥ 5 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे पुत्रवर्य! हे महाप्राज्ञ! हे सुर हे प्रशंसनीय व्रतवाले! मैं शंकरका स्मरणकर उनके सम्पूर्ण चरित्रका वर्णन कर रहा हूँ आप सुनें ॥ 6 ॥
हे नारद! सबसे पहले आप तारकासुरको उत्पत्तिको सुनें, जिसके वधके लिये देवताओंने शिवका आश्रय लेकर बड़ा यत्न किया था ॥ 7 ॥
मेरे पुत्र जो मरीचि थे, उनके पुत्र कश्यप हुए। उनकी तेरह स्त्रियाँ थीं, जो दक्षकी कन्याएँ थीं ॥ 8॥ उनकी सबसे बड़ी पत्नी दिति थी, उसके दो पुत्र हुए। उनमें हिरण्यकशिपु ज्येष्ठ तथा हिरण्याक्ष छोटा था ॥ 9 ॥भगवान् विष्णुने नृसिंह तथा वराहरूप धारणकर अत्यन्त दुःख देनेवाले उन दोनोंका वध किया। | तत्पश्चात् देवगण निर्भय और सुखी रहने लगे ॥ 10 ॥
इससे दिति दुखी हुई और वह कश्यपकी शरणमें गयी। उस पतिव्रताने उनकी सेवाकर भक्तिपूर्वक पुनः गर्भ धारण किया। यह जानकर महान् परिश्रमी देवराज इन्द्रने अवसर पाकर उसके गर्भ में प्रविष्ट | होकर वज्रसे उसके गर्भके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। किंतु उसके व्रतके प्रभावसे उसका गर्भ नहीं मरा और दैवयोगसे सोती हुई उसके गर्भसे उनचास पुत्र उत्पन्न हुए ।। 11–13 ॥
वे सभी पुत्र मरुत् नामके देवता हुए और स्वर्गको चले गये। देवराजने उन्हें अपना लिया। तब दिति अपने कर्मसे अनुतप्त हो पुनः उनकी सेवा करने लगी और उसने महान् सेवासे उन मुनिको प्रसन्न कर लिया ।। 14-15 ।।
कश्यप बोले- हे भद्रे ! यदि तुम पवित्र होकर ब्रह्माके दस हजार वर्षपर्यन्त तपस्या करो, तो तुम्हारे गर्भसे पुनः महापराक्रमी पुत्रका जन्म हो सकता है ॥ 16 ॥
हे मुने! दितिने काके साथ जब तपस्या पूरी की, तब अपने पतिसे गर्भ धारणकर वैसा ही पुत्र उत्पन्न किया ॥ 17 ॥
दितिका वह पुत्र देवताओंके समान था, वह वज्रांग नामसे विख्यात हुआ। उसका शरीर नामके अनुसार ही [ वज्रके समान] था। वह जन्मसे महाप्रतापी और बलवान् था ॥ 18 ॥
उस पुत्रने अपनी माताकी आज्ञासे बलपूर्वक देवराज इन्द्र तथा देवताओंको भी पकड़कर अनेक प्रकारका दण्ड दिया। इस प्रकार इन्द्र आदिकी दुर्दशा देखकर दिति बहुत प्रसन्न हुई तथा इन्द्र आदि देवता अपने अपने कर्मफलके अनुसार बड़े दुखी हुए । ll 19-20 ॥
तब देवताओंकी सदा भलाई करनेवाले मैंने | कश्यपको साथ लेकर वहाँ पहुँचकर शान्तिकी बात कहकर देवताओंको उस वज्रांगसे छुड़ाया ॥ 21 ॥
तत्पश्चात् शुद्धात्मा, निर्विकार वह शिवभक्त वज्रांग देवताओंको मुक्त करके प्रसन्नचित्त होकर आदरपूर्वक कहने लगा- ॥ 22 ॥वज्रांग बोला- यह इन्द्र बड़ा स्वार्थी और दुष्ट हैं। इसने ही मेरी माताकी सन्तानोंको नष्ट किया है, इसको अपने कर्मका फल मिल गया, अब यह अपना राज्यपालन करे ॥ 23 ॥
हे ब्रह्मन् ! यह सारा कार्य मैंने माताकी आज्ञासे किया है। मुझे किसी भुवनके भोगको अभिलाष है। नहीं है ॥ 24 ॥
हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मन् ! आप मुझे वेदतत्त्वका सार बताइये, जिससे मैं सदा परम सुखी, विकाररहित तथा प्रसन्नचित्त हो जाऊँ ॥ 25 ॥
हे मुने! यह सुनकर मैंने उससे कहा- जो सात्त्विक भाव है, वही तत्त्वसार है। मैंने [तुम्हारे लिये] प्रसन्नतापूर्वक एक सुन्दर स्त्रीका निर्माण किया है॥ 26 ॥
उस वरांगी नामवाली स्त्रीको मैंने उस दितिपुत्रको प्रदानकर उसके पिताको अत्यन्त प्रसन्नकर मैं अपने घर चला गया और कश्यप भी अपने स्थानको लौट गये 27 ॥
तब वह दैत्य वज्रांग सात्त्विक भावसे युक्त हो गया और राक्षसी भावको छोड़कर वैररहित हो सुख भोगने लगा ॥ 28 ॥
किंतु वरांगीके हृदयमें सात्त्विक भावका उदय नहीं हुआ और वह सकाम होकर श्रद्धापूर्वक अपने पतिकी अनेक प्रकारसे सेवा करने लगी ।। 29 ।।
वरांगीका पति महाप्रभु वह वज्रांग उसकी सेवासे सन्तुष्ट हो गया और उससे कहने लगा- ॥ 30 ॥
वज्रांग बोला- हे प्रिये! तुम क्या चाहती हो, तुम्हारे मनमें क्या [विचार] है? मुझे बताओ। तब उसने विनम्र होकर पतिसे अपने मनोरथको कहा- ॥31॥
वरांगी बोली - हे सत्पते यदि आप [मुझसे ] प्रसन्न हैं, तो मुझे ऐसा पुत्र दीजिये, जो महाबली, | त्रिलोकीको जीतनेवाला तथा इन्द्रको दुःख देनेवाला हो ॥ 32 ॥
ब्रह्माजी बोले- अपनी पत्नीका यह वचन सुनकर वह व्याकुल तथा आश्चर्यचकित हो गया। वैररहित ज्ञानी एवं सात्त्विक वह बांग अपने मनमें सोचने लगा- ॥ 33 ॥मेरी प्रिया देवताओंसे विरोध करना चाहती है, परंतु मुझे यह अच्छा नहीं लगता। अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और कौन ऐसा उपाय करूँ, जिससे मेरी प्रतिज्ञा नष्ट न हो ॥ 34 ॥
यदि प्रियाका मनोरथ पूर्ण होता है, तो तीनों लोक कष्टमें पड़ जायँगे तथा देवता और मुनि भी दुखी हो जायँगे ॥ 35 ॥ परंतु यदि प्रियाका मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ, तो
मुझे नरक भोगना पड़ेगा। दोनों ही प्रकारसे धर्मकी हानि होगी, ऐसा मैंने [ धर्मशास्त्रोंसे] सुना है ।। 36 ।। हे मुने! इस तरह धर्मसंकटमें पड़ा हुआ वह वज्रांग भ्रममें पड़ गया, वह अपनी बुद्धिसे दोनों बातोंके उचित-अनुचित [ पक्षों] पर विचार करने लगा ॥ 37 ॥
हे मुने! [उस समय] उस बुद्धिमान् वज्रांगने शिवकी इच्छासे स्त्रीकी बात मान ली। उस दैत्यराजने प्रियासे कहा- ठीक है, ऐसा ही होगा ॥ 38 ॥
तत्पश्चात् उसने इस निमित्त जितेन्द्रिय होकर मेरे उद्देश्यसे बहुत वर्षोंतक प्रीतिपूर्वक तप किया । 39 ।।
तब उसका महातप देखकर उसे वर प्रदान करनेके लिये मैं गया और प्रसन्नमनसे मैंने उससे कहा- वर माँगो ॥ 40 ॥
उस समय वज्रांगने प्रसन्न हुए मुझ विभुको आकाशमें स्थित देखकर प्रणाम करके नाना प्रकारकी स्तुतिकर प्रियाके लिये हितकारी वर माँगा ॥ 41 ॥ वज्रांग बोला- हे प्रभो। आप मुझे ऐसा पुत्र दीजिये, जो अपनी माताका तथा मेरा परम हित करनेवाला, महाबली, महाप्रतापी, सर्वसमर्थ और तपोनिधि हो ।। 42 ।
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! उसका यह वचन सुनकर मैंने 'तथास्तु' कहा और इस प्रकार उसे वर देकर शिवका स्मरण करते हुए उदास होकर मैं अपने स्थानको लौट आया ॥ 43 ॥